मंगलवार, 23 जुलाई 2019

विज्ञान अपनी जगह है और मुहब्बत अपनी जगह!

चाँद पर हमारे इसरो के वैज्ञानिकों ने अभूतपूर्व फ़तह का जो झंडा फ़हराया है वो यक़ीनन पूरे देश के लिए गर्व और प्रसन्नता की बात है. हमारा तिरंगा वहाँ लहराने के लिए समस्त देशवासियों की ओर से इसरो की पूरी टीम को बधाई और इन स्वर्णिम पलों का साक्षी बनाने के लिए धन्यवाद भी बनता ही है! यह दिन हमें और आनेवाली पीढ़ियों को सदा गौरवान्वित करता रहेगा.

चाँद के बारे में सोचती हूँ तो न जाने कितनी बातें याद आने लगती हैं. "चाँद को क्या मालूम, चाहता है उसको ये चकोर!"
पता नहीं, दूसरे देशों में इसे लेकर क्या-क्या कहा गया है! लेकिन हम भारतीयों का तो ये क़रीबी रिश्तेदार ही रहा है. कितना प्यारा अहसास है यह कि "चंदा मामा दूर के, पुए पकाएँ बूर के" वाले हमारे बचपन के प्यारे मामाजी अब दूर के नहीं रहे! अब हम दौड़कर उनकी गोदी में जा बैठे हैं और वो बूढ़ी अम्माँ जो वहाँ बैठ रात-रात भर सूत काता करती हैं; अब उनके बच्चे उनकी देखभाल के लिए वहाँ पहुँच गए हैं कि अम्माँ को इस उम्र में जरा आराम तो मिले. हमारे कितने अपने जो चाँद के आसपास सितारा बन मौजूद हैं, अब ख़ुशी में कैसे जगमगाते होंगे न!

चाँद को लेकर हम भारतीयों की कल्पनायें भी कितनी क़माल की रही हैं. हम अपने-अपने मूड के हिसाब से इससे रिश्ता जोड़ते रहे हैं. जन्म हुआ तो माँ ने अपने लाड़ले को गोदी में उठा गुनगुनाया- "चंदा है तू मेरा सूरज है तू". बचपन में जो मामा थे, युवावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखते ही उन पर भी यौवन छा बैठा और अनगिनत गीत बने. 
कभी नायक को अपनी प्रियतमा का चेहरा चाँद सा लगा और वो कह उठा- "चाँद जैसे मुखड़े पे बिंदिया-सितारा", तो कभी उसके लजाने के अन्दाज़ को उसने यूँ बयां किया -"चाँद छुपा बादल में, शरमा के मेरी जानां".  कभी उलाहना भी दिया -"ए चाँद, तुझे चाँदनी की क़सम", "चाँद सिफ़ारिश जो करता हमारी", "वो चाँद खिला, वो तारे हँसे".
जब-जब किसी ने कहा, "चाँद के पास जो सितारा है, वो सितारा हसीन लगता है", तो प्रेमियों ने प्रेमिकाओं को चाँद-तारे तोड़ने के ख़ूब वादे किये. एक ने तो यहाँ तक कह दिया- 'चाँद चुरा के लाया हूँ, चल बैठे चर्च के पीछे." हुस्न की तारीफ़ करने में भी ये चाँद ख़ूब काम आया- "चौदहवीं का चाँद हो, या आफ़ताब हो", "चाँद सी महबूबा हो मेरी कब, ऐसा मैंने सोचा था", "जून का मौसम मस्त महीना, चाँद सी गोरी एक हसीना", "चाँद मेरा दिल, चाँदनी हो तुम", "ये चाँद सा रोशन चेहरा", "चाँद ने कुछ कहा, रात ने कुछ सुना".
किसी ने चाँद के प्रति सजग किया - "चाँद से परदा कीजिये, कहीं चुरा न ले चेहरे का नूर". कभी चाँद को ठहरने की गुजारिश की गई - "धीरे-धीरे चल, चाँद गगन में" तो कभी ये तमाम उदासियों और निराशा भरे पलों का सबब भी बना- "चाँद फिर निकला, मगर तुम न आये", "चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला", "ये रात, ये चाँदनी फिर कहाँ" तो कभी इसके सहारे प्रश्न भी पूछे गए- "खोया-खोया चाँद, खुला आसमां...तुमको भी कैसे नींद आएगी".

रक्षाबंधन पर ये चंद्रमा बहिन का स्नेह बन उमड़ पड़ता है -"मेरे भैया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन" तो करवाचौथ पर इसके दर्शन सुहागिनों के व्रत खुलवाते आये हैं. 
ईद के पावन पर्व पर भी ये उल्लास का रूप धर मस्ती से झूमता गाता है -"देखो, देखो, देखो चाँद नज़र आया", "चाँद नजर आ गया,अल्लाह ही अल्लाह छा गया". 

चाँद से हम भारतीयों की मुहब्बत की दास्ताँ बहुत पुरानी है जो इतनी आसानी से जाने वाली नहीं! प्राचीन कवियों से लेकर वर्तमान के ग़ज़लकारों, गीतकारों, चित्रकारों तक चाँद के बिना किसी की बात न बनी! चाँद है तो ख़ूबसूरती है, करवाचौथ का इश्क़ है, ईद का जश्न है. चाँद की इतनी बातें हैं कि लगने लगा है - "आधा है चंद्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी-मेरी बात आधी". 
चाँद पर पहुँचकर भी इससे जुड़ी प्रेम कहानियाँ सलामत रहेंगीं क्योंकि विज्ञान अपनी जगह है और मुहब्बत अपनी जगह!
"चलो, दिलदार चलो! चाँद के पार चलो!....हम हैं तैयार चलो!" 
 पार्किंग में से चंद्रयान निकाला जाए! तब तक हम पृथ्वी पर लॉक मारते हैं. :) 
- प्रीति 'अज्ञात'
#ISRO #चंद्रयान 

सोमवार, 15 जुलाई 2019

#विश्वकप फाइनल और क्रिकेट के दीवाने भारतीय

एक समय था जब मैं भी बहुत क्रिकेट देखती थी। शौक़ तो उतना नहीं था पर तब ये चैनल वगैरह तो थे नहीं सो मैच के समय जब सारा घर तैयार होकर टीवी के सामने विराजमान होता तो अपन भी हो जाते थे। फिर धीरे-धीरे इसमें आनंद आने लगा। भारत के हर चौके-छक्के पर पागलों की तरह चीखना, नाचना और अपने खिलाड़ियों के आउट होते ही मातमपुर्सी मनाना कब आदत में शुमार हो गया, पता ही नहीं चला! क्रिकेट का दीवाना भैया ऐसा माहौल बनाकर रखता था कि मैच के समय धड़कनें बढ़ जातीं और आख़िरी पलों में हृदयाघात की आशंका भी। कई बार तो हम लोग शगुन भी करते। जैसे किसी के रूम से बाहर जाते ही या पानी पीते ही कोई आउट होता तो हम बार-बार वही करते। कुछ लोग अपने सौभाग्यशाली सोफ़े या कुर्सी पर बैठते और जरा भी न हिलते। गोया इनकी विराजमान अवस्था से ही उधर बैट हिल रहा है। क्रिकेट प्रेमी हर घर में आप इस तरह की अज़ीबोग़रीब हरक़तें देख सकते हैं। हम भारतीयों के इसी पागलपन ने इस खेल को उच्चतम शिखर पर पहुँचाकर खिलाड़ियों को भगवान् का दर्ज़ा तक दे डाला। सचिन, कपिलदेव, श्रीकांत, युवराज, द्रविड़, धोनी, विराट की मैं भी ख़ूब प्रशंसक रही हूँ। 

किसी भी टूर्नामेंट में, मैं केवल भारतीय टीम के ही मैच देखती आई हूँ पर कहते हैं न कि अति हर बात की बुरी होती है। टेस्ट मैच, फ़िफ्टी ओवर, बीस ओवर तक भी ये जुनून थोड़ा क़ायम था पर IPL के आते ही मेरा तो इस खेल से मोहभंग हो गया। समझ ही नहीं आता कि किस टीम का सपोर्ट करो! ऐसे में सारा उत्साह जाता रहता है। मैंने क्रिकेट देखना लगभग छोड़ ही दिया था। वर्ल्ड कप में भी भारत के मैच के अलावा और किसी में कभी रूचि नहीं रही। 
जब भारत सेमीफ़ाइनल में हार गया तो बुरा तो लगा पर उतना नहीं! बल्कि इससे अधिक बुरा तो कुछ लोगों की प्रतिक्रियाओं से लगा जिन्होंने तुरंत इस मैच को फ़िक्स घोषित कर दिया और विराट, धोनी पर दोषारोपण की बौछार शुरू कर दी। हम भारतीय, जीत को जितना उल्लास और उत्साह के साथ किसी त्योहार की तरह मनाते हैं, हार को उतनी आसानी से पचा नहीं पाते और बेहद कड़वाहट और तीख़ेपन से हमारे खिलाडियों का मनोबल तोड़ने में भी नहीं चूकते!
खेल, खेल भावना से ही खेला जाना चाहिए। ये हार-जीत भी इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। हर बार हम ही जीतेंगे तो बाक़ी टीमें ग्राउंड पर चने फाँकने तो नहीं आई हैं! यह बात कुछ लोगों को अवश्य समझनी चाहिए। 

ख़ैर! कल रात जब विंबलडन अपने रोमांचक दौर में था और वहाँ भी टाई ब्रेकर था, बेटा लैपटॉप पर उसे देखने में व्यस्त था, तभी यूँ ही विश्वकप-2019 का परिणाम जानने की उत्सुकता से मैंने टीवी ऑन कर लिया। अंतिम तीन या चार ओवर का मैच शेष था और उफ़्फ़! क्या मैच था! इतना जोरदार मैच क्रिकेटप्रेमियों के लिए किसी उपहार से कम नहीं था। वर्षों बाद ऐसा रोमांचक मैच देखा है जिसमें अपनी टीम थी भी नहीं! पर धड़कनें उसी गति से रफ़्तार पकड़ चुकीं थीं।
कल जीत का सेहरा भले ही इंग्लैंड के सिर बँधा पर मैं तो न्यूजीलैंड के साथ थी। उनकी संघर्ष क्षमता कमाल की थी। और भला ये भी कोई बात हुई कि मैच के बाद जब सुपरओवर भी टाई रहा तो आप बॉउंड्रीज़ गिनकर नतीजा तय करने लगे! फिर विकेट क्यों नहीं गिने? अब क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड को अपने नियमों पर पुनर्विचार की बहुत आवश्यकता है। भले ही इंग्लैंड अपने शानदार प्रदर्शन के बलबूते पर ही फाइनल में पहुँचा था पर ये तो एकदम आरक्षण टाइप जीत हुई भई! 
कहने को तो कह लो कि इस रोमांचक मैच में जीत क्रिकेट की हुई पर न जाने क्यों इंग्लैंड के विजेता होते ही मेरे मन में ये डायलॉग बारबार चल रहा था "डुगना लागान डेना परेगा।" 
- प्रीति 'अज्ञात'
#worldcup2019 #cricket #Indianfan #ICCRules
Photo Credit: Google

बुधवार, 10 जुलाई 2019

#कहब त लाग जाइ धक् से #आर्टिकल15

इधर तमाम निरर्थक फ़िल्मों के बीच बॉलीवुड में कुछ वर्षों से अच्छी फ़िल्में भी बन रही हैं तथा निर्माता-निर्देशक मसाला या अविश्वसनीय एक्शन से दूर हो यथार्थ पर चर्चा करने का दुस्साहस उठा रहे हैं। 'दुस्साहस' इसलिए क्योंकि सच के साथ खड़े होना बहुधा 'सिस्टम' का विरोधी होना मान लिया जाता है। ऐसे में एक फ़िल्म आती है जो भारतीय समाज का वह क्रूर 'सच' बयां करती है जो 'सच' हमारे अपने संविधान के विरुद्ध है लेकिन फिर भी सदियों से क़ायम है। जिस संविधान की सौगंध खाई जाती है उसी को धता बताते हुए ऊँच-नीच की सुविधाजनक दीवारों का निर्माण इस समाज में कब हो गया...यह कोई नहीं जानता! जबकि हम सब इसके साक्षी रहे हैं और गुनहगार भी! दलितों के साथ हुए अन्याय, शोषण और भीषण अत्याचार की इन्हीं रक्तरंजित दीवारों में सेंध का काम करती है - आर्टिकल 15 

यह फ़िल्म न आपको सोचने पर विवश करती है और न ही कहीं चौंकाती है क्योंकि हम तो बेशर्मों की तरह यह सब जन्म के समय से देखते ही आ रहे हैं लेकिन यक़ीन मानिये कि टुकड़े-टुकड़े, यदाकदा हमारे द्वारा देखे गए इन मार्मिक पलों का सजीव दस्तावेज जब चित्रपट के रूप में पर्दे पर उतरता है तो मस्तिष्क हथौड़े के तीक्ष्ण प्रहार-सा फट पड़ता है। स्वयं को आदर्शवादी और सच्चा समाजवादी मानने की संकल्पना के परखच्चे उड़ जाते हैं और दर्शक थिएटर से ग्लानि का भाव लिए निःशब्द निकलते हैं। आर्टिकल 15, आपको केवल उदास या निराश ही महसूस नहीं कराती बल्कि इसके पात्र आपको कई रातों तक सोने नहीं देते! कहानी बेचैन कर देती है और न जाने कितनी जोड़ी आँखें आपको दोषी ठहराते हुए आपका पीछा कर रही होती हैं।
 
जी, यह फ़िल्म मात्र तीन रुपये के पीछे लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार और फिर उसे समलैंगिकता का कोण देते हुए उनके ही परिवार वालों को ऑनर किलिंग के मामले में फँसाकर जेल भेजने की कहानी भर ही नहीं है बल्कि यह हमारी तथाकथित सभ्यता और समानता का दम्भ भरते समाज का वह विकृत और असल चेहरा दिखाती है जो हमें अब भी आदिम घोषित करते हुए अट्टहास करता है।
मुझे आँकड़ों का कोई अनुमान तो नहीं लेकिन फिर भी कह सकती हूँ कि आज भी देश के अस्सी प्रतिशत घरों में निचले तबके के लोगों के लिए अलग बर्तन रखे जाते हैं और छुआछूत की भावना भी यथावत विद्यमान है। यह प्रतिशत इससे अधिक ही हो सकता है, कम तो क़तई नहीं होगा!

कहब त लाग जाइ धक् से
कहब त लाग जाइ धक् से
बड़े-बड़े लोगन के महला-दुमहला
और भइया झूमर अलग से
हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया
आंधी आए गिर जाए धड़ से
बड़े-बड़े लोगन के हलुआ पराँठा
और मिनरल वाटर अलग से
हमरे गरीबन के चटनी और रोटी
पानी पीयें बालू वाला नल से
कहब त लाग जाइ धक् से

फ़िल्म का प्रारम्भ इसी लोकगीत से होता है जिसका 2011 का uploaded video इन दिनों वायरल हो रहा है हालाँकि उसके और इस गीत के शब्दों में अंतर है। यह लोकगीत कर्णप्रिय भले ही है पर इसका प्रभाव इतना गहरा है कि आप सुविधाओं में रहते हुए शर्मसार होने लगते हैं। अंत में नए जमाने के बीट्स को ध्यान में रखते हुए भी एक सकारात्मक गीत है जो अच्छे संदेश देता है। परेशानी या दुःख ही कह लीजिए; वो यह है कि जिन्हें आर्टिकल -15 पसंद आई या कि जो इस पर कुछ सोचने को विवश हुए वे समानता के पक्षधर लोग हैं। लेकिन जिन्हें समझना या सुधरना चाहिए वे एक बार फिर आहत हुए पड़े हैं। गोया इनकी सम्वेदनाएँ न हुईं छुई-मुई हो गईं कि सच का स्पर्श पाते ही बिलबिला उठती हैं। वे चाहें तो इस बात पर प्रसन्न हो अनुभव सिन्हा जी की पीठ थपथपा सकते हैं कि फ़िल्म का नायक 'सवर्ण' है। आती-जाती और टिकी हुई सरकारें भी यह मंथन अवश्य करें कि दलितों ने जिन्हें वोट दिया, उन्होंने बदले में उन्हें क्या दिया?

आयुष्मान खुराना जितनी समझदारी से फ़िल्मों का चयन करते हैं वह प्रशंसनीय है। इनके शानदार अभिनय के लिए हर बार एक ही शब्द है वाह! वाह! और वाह! मनोज पाहवा मुल्क़ में अपना जलवा बिखेर चुके हैं, वही सधा हुआ सशक्त अभिनय। इनके क़िरदार ने अचंभित कर दिया। फ़ोटोग्राफ़ी अद्भुत है और गौरव सोलंकी के लिखे संवाद क़माल के। 
सूअरताल में वोट की चर्चा वाला दृश्य भीतर तक झिंझोड़ देता है। गटर की सफाई के लिए उसमें डूबते सफाईकर्मी को देख आँखें भिंच जाती हैं। वहीं एक दृश्य में निषाद का अपनी प्रेमिका को यह कहना कि “मैं भी तुम्हारे लिए फूल लेकर आना चाहता था लेकिन साला! पाँव तले ऐसा नाला बह रहा है कि पाँच मिनट नदी में पैर डालकर तुम्हारे साथ बैठ नहीं सका।” और दर्शक अपनी पलकों की कोरें पोंछते नज़र आते हैं। 
एकमात्र पक्ष जो अखरता है वो है लगभग अँधेरे या न्यूनतम प्रकाश में इस फ़िल्म का फ़िल्मांकन। हम मानते हैं कि प्रत्येक गाँव में बल्ब भले ही बँट गए हों पर लाइट अभी तक नहीं पहुँची है। पर अपने सूरज चचा कहाँ ये भेदभाव करते हैं जी! अँधेरे ने इतना पगला दिया था कि थिएटर से बाहर आते समय सूरज की रौशनी को देखकर स्वयं को भाग्यवान समझने लगे थे। 

याददाश्त के आधार पर आर्टिकल -15 के कुछ संवाद लिख रही हूँ जो चाबुक की तरह मन की खाल उधेड़ते हैं -
"सब एक से हो गए तो राजा कौन बनेगा?"
"साला! पावर की अलग ही जात होती है।"
"कभी हम हरिजन बने कभी बहुजन, लेकिन बस 'जन' ही नहीं बन सके।"
"साहब!आपका तबादला हो जाता है और हमारी हत्या।"
"हीरो के आने का wait नहीं करना चाहिए।"
"साहब हमारी बेटी को उठाकर ले गए थे। रात भर रखकर सुबह वापस भेज देते न! मार क्यों डाला?
"आग लगी हो तो न्यूट्रल रहने का मतलब यह होता है सर कि आप उनके साथ खड़े हैं जो आग लगा रहे हैं!"  
"जितने लोग बार्डर पर शहीद होते हैं उससे ज्यादा गटर साफ करते हुए हो जाते हैं पर उनके लिए तो कोई मौन तक नहीं रखता... !"
- प्रीति 'अज्ञात' 
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