बुधवार, 19 नवंबर 2014

मानें या न मानें :)

मुझे पूरा विश्वास है, ऐसे और भी हैं..मानें या न मानें

मुझे अंधेरे से डर लगता है, भूत-प्रेत में बिल्कुल यक़ीन नहीं करती, पर रात में पेड़-पौधे भी ऐसी ख़तरनाक इमेज बनाते हैं कि सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है. उस समय, 'विज्ञान गया तेल लेने' और एक पल में ही सारे भगवान याद आ जाते है. जितना भी अच्छा सोचने की कोशिश करूँ, उतने ही भयंकर टाइप के विचार चौतरफ़ा धावा बोल देते हैं और लगता है.....कहीं भूत आ गया तो ! :O  पहाड़ पर चढ़ने में खूब मज़ा आता है, पर ऊँचाई से देखते ही जान सूखने लगती है, चक्कर आते हैं और यही डर कि... पैर फिसल गया तो !:O बोटिंग पसंद है और तैरना आता नहीं, इसलिये जब तक किनारे वापिस नहीं आ जाऊं, धुकधुकी लगी रहती है...सोचती हूँ, डूब गई तो ! :O हवाई जहाज़ से यात्रा कभी पसंद नहीं आई, बैठते ही 'एअर होस्टेस' डराना शुरू कर देती है और फिर लैंडिंग तक यही बात दिमाग़ में घूमती रहती है कि 'क्रेश' हो गया तो ! :O बस या ट्रेन में 'ज़िंदा' रहने की फिर भी थोड़ी गुंजाइश होती है ! घूमने का बहुत शौक़ है, पर यात्रा से डरती हूँ. काश, कोई ऐसा तरीका ईज़ाद हो जाए....कि बस एक क्लिक से ही एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश पहुँच जाएँ ! और हाँ, ऐसा हो सकता है ! पहले कभी सोचा था कि दूर बैठे अपनों को इस 'स्टुपिड माध्यम' से देख सकेंगे, बातें कर सकेंगे, पर हुआ न ! तो, ये भी ज़रूर होगा ! विज्ञान ने खूब तरक़्क़ी कर ली है, पर उफ्फ्फ, कब तक सपने बुनते रहें...वैज्ञानिकों, जल्दी करो....हम मर गये तो ! :P

जानती हूँ, किसी के चले जाने से किसी का जीवन रुकता नहीं ! लेकिन क्या करें, खुद से नहीं, 'ज़िंदगी' से ग़ज़ब का इश्क़ है ! वैसे भी इस जीवन में कुछ लोगों को इत्ता पकाया है, कि अगले जन्म में कीड़े-मकोडे ही बनेंगे ! आप लोग भी ज़्यादा खुश मत होना, कहीं आप भी वही बन गये तो ? :D
विशेष - सबसे अजीब बात ये भी है कि जब कोई और डर रहा हो, तब न जाने कहाँ से इतना हौसला आ जाता है कि हमारे मारे, डर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है. ये भी एक कला है, पर हमें इसका ज़रा भी घमंड नहीं ! :P :D

-प्रीति 'अज्ञात'
चित्र : गूगल से साभार

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

रिक्शावाला


'रिक्शा' या तीन पहियों पर चलने वाली साईकिल, नाम सुनते ही आज भी एक अजीब-सी शर्मिंदगी होने लगती है. अपराध-बोध का अनुभव होता है. दु:ख होता है न, ये देखकर कि आदमी ही, आदमी को खींचकर ले जा रहा है. पर जब स्कूल जाया करती थी, उन दिनों आने-जाने का यही एकमात्र साधन था. मुझे हमेशा से ही इस पर बैठना बुरा लगता रहा है, चलाने वाला पसीने में तर-बतर और हम बेशरम-से उस पर लदे हुए ! पैदल जाने के हिसाब से उम्र कम थी और दूरी ज़्यादा, सो और कोई विकल्प ही नहीं था. ४ बच्चे आगे और ३ पीछे लटके हुए, और उस पर उनके बेग भी...१०-१२ बच्चों का वजन वो काका कैसे खींचा करते होंगे , पता नहीं ! पर मैं, एक भी अतिरिक्त 'नोटबुक' नहीं ले जाती थी, कि कुछ तो वजन कम हो ! मन हमेशा ग्लानि से भरा रहता था. जैसे ही सातवीं कक्षा में आई, फिर इससे स्कूल जाना तो छोड़ दिया था. लेकिन 'रिक्शा' फिर भी नहीं छूटा, बस स्टैंड या मार्केट जाते समय फिर उस पर लद जाते, जब साथ की सहेली उन्हें जल्दी चलाने को बोलती, तो मैं सर झुकाए उसका हाथ खींचकर टोक देती, "क्या यार, देख तो..कितनी मेहनत लगती है इसमें !"

एक बार, सामान कुछ ज़्यादा ही था...तो मैंनें 'रिक्शे वाले' को थेन्क यू और सॉरी भैया, दोनों बोला. उन्होंनें चौंककर मुझे कहा, "थेन्क यू तो समझा, पर सॉरी किसलिए ?" मैंनें खिसियाते हुए जवाब दिया, "वो आप को हमारी वजह से इतनी मेहनत करनी पड़ी न, इसलिए ! मुझे रिक्शे में बैठने में अफ़सोस होता है, पर मजबूरी में बैठना पड़ता है" मेरी बात सुनकर वो हँसे भी और उनकी आँखें भी भीग गईं. फिर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, अगर ऐसा ही सब सोचने लगे, तो हम कमाएँगे कैसे गुड़िया ? मैं चुप हो, सोच में पड़ गई ! उसके बाद जब भी दूर जाना होता, निगाहें उन्हें ही ढूँढा करतीं. वो भी देखते ही तेज़ी से आ जाते थे. मम्मी ने भी एक दिन पूछा, कि "तुझे जानते हैं ?" और मैंनें गर्व से 'हाँ' बोल दिया ! :)

समय का पहिया चलता रहा.....जगह बदलती रहीं ! ७-८ वर्ष पूर्व की बात है, मैं मायके गई हुई थी. मम्मी और अपनी बेटी के साथ मार्केट जाने को निकली ही थी, कि एक रिक्शा अचानक आकर रुका और वही आवाज़.."बैठो, गुड़िया". मैं तो जैसे खुशी से पगला ही गई. अरे, आप ! आपने मुझे पहचान भी लिया ? मम्मी तुरंत बोलीं, तुम्हारी शादी के बाद से ये मुझे भी लेके जाते हैं और तुम्हारे हाल-चाल भी पूछा करते हैं ! उन्होंनें बड़े स्नेह के साथ, मेरी बेटी को गोदी में लेकर उसे रिक्शे में बैठाया और बोले "ये है, हमारी गुड़िया की गुड़िया, बिल्कुल हमारी गुड़िया जैसी !" उसे आशीर्वाद दिया . ज़िद करने पर भी उन्होनें एक रुपया तक नहीं लिया, बोले "बेटियों से भी कोई लेता है क्या?"
घर पहुँचकर, बेटी ने पूछा, " मम्मी आप उन अंकल जी को जानती थी क्या ?" मैंनें उसी गर्व के साथ जवाब दिया, और नहीं तो क्या ! पर इस बार मेरी पलकें भीगीं थीं. :)
- प्रीति 'अज्ञात'

* आज नेट पर 'रिक्शे' की इतनी सुंदर तस्वीर देखकर ये पुरानी बात याद आ गई और साझा करने का मन हुआ !