मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना....
फिर ये 'मज़हब' है ही क्यों ?
क्योंकि ये जो नहीं सिखाता, वही तो सब सीखते आए हैं !
'धर्म' न होता तो लड़ने के लिए कौन सा मुद्दा होता ? देश में जितने भी दंगे-फ़साद , आगजनी, हत्याएँ और इस तरह के असंख्य अमानवीय कृत्य होते रहे हैं , इनका जिम्मेदार कौन है ? क्या सचमुच 'धर्म' ही इसकी वज़ह है या उन अराजकीय तत्वों की मानसिकता, जिन्हें 'घृणा' से 'प्रेम' है ? पर फिर भी जनता बेवकूफ बनती आ रही है, ये 'जनता' भोली नहीं रही, बल्कि चंद सिक्कों के लिए आसानी से अपना ईमान बेचना सीख गई है। इन लोगों को होश तभी आता है, जब स्वयं पर बीतती है, इनके ही 'धर्म' की आड़ में जब इन पर प्रहार होता है।
'धर्म' का इंसान से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं सिवाय इसके कि ये जन्म के साथ आपको 'बोनस' में मिलता है. बात इसके सही इस्तेमाल की है. इंसानियत पैदाइशी नहीं होती, ये आपको सीखनी होती है. आप 'इंसान' बनें रहें, 'धर्म' कहीं नहीं जाने वाला ! एक इंसान, अच्छा या बुरा हो सकता है, धर्म का उसकी सोच से क्या संबंध ? क्या किसी धर्म ने बुरा व्यक्ति बनने के रास्ते दिखाए हैं ? संवेदनहीनता, हिंसा, अमानवीय और पाश्विक व्यवहार का समर्थन कौन सा धर्म करता है ? और यदि धर्म के कारण ऐसा हो रहा है, तो फिर ये 'धर्म' ही हर परेशानी की जड़ है ! इसे हटाने की हिम्मत जुटानी होगी ! पर अगर सारे धर्मों के लोगों के अपराधों का हिसाब-क़िताब लगाया जाए, तो हरेक के हिस्से में हर तरह का अपराध आएगा ! फिर तो सारे ही धर्म, अत्याचार के समर्थक हुए ? जो धर्म जितना बड़ा, उसका हिस्सा उतना ही ज़्यादा ? ये भी संभव है कि जो धर्म छोटा, उस पर अत्याचार ज़्यादा ? दुनिया की रीत है, पलटवार करने वाले से सब भयभीत रहते हैं और दुर्बल को सताने में सबको अपार आनंद की अनुभूति होती है ! लेकिन जब 'दुर्बल' की सहनशक्ति टूट जाती है, तो उसके सामने कोई नहीं टिक पाता. ये इंसानी फ़ितरत है. पुनश्च, इसका आपके 'धर्म' से कोई ताल्लुक़ नहीं !
अपराधी, 'अपराधी' ही है. बहस, उसके जघन्य कृत्य पर ही होना चाहिए. उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता. पर इस सुशिक्षित, सभ्य समाज का सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है, कि लोग अपराधी की जात पर पहले गौर करते हैं, और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है. दुर्भाग्य की बात है कि अपराध के विरोध और समर्थन में दो गुटों का निर्माण उसी वक़्त हो जाता है।
अगर समाज में परिवर्तन चाहते हैं, तो 'उपनाम' के मोह से बचें ! ज़्यादातर लोग धर्म के नाम पर मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं. आपकी इज़्ज़त, आपका रूतबा, आपके प्रति लोगों का नज़रिया...आपके व्यवहार पर निर्भर करता है. दूसरे के बुरे व्यवहार को अपनी क़ौम पर हमला न समझें. वो बुरा है, इसलिए उसने ऐसा किया. वो आपको मारना चाहता है, इंसानियत का विरोधी है, आप 'उसका' विरोध करें, पर अपने धर्म की महानता का बखान करे बिना. क्योंकि जब गिनाने की बात आएगी, तो आप बगलें झाँकते नज़र आएँगे ! सच तो यह है कि सबका हृदय जानता है, कि धर्म हमें सही राह दिखाते हैं और सभी धर्म 'सर्वश्रेष्ठ' हैं ! विचारणीय बात यह है कि इसके बावज़ूद भी आतंक का इतना गहरा साया क्यूँ है. बाहरी ताक़तों की बात तो समझ आती है, पर जो घर में होता आ रहा है उसका क्या ? ये सब, कौन करवा रहा है ? कहीं राजनीतिक पार्टियां , वोट बैंक की लालसा में आम जनता को ही बलि का बकरा तो नहीं बना रहीं ? गरीबी-भुखमरी, अशिक्षा , बेरोजगारी ; इन समस्याओं का निवारण हो गया है क्या ? या इनकी चर्चा 'आउटडेटेड' है !
इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण आप लोगों ने भी अवश्य देखे होंगे कि कई घरों में ऐसी घटनाओं की निंदा करते समय ऐसे वाक्य सुनने को मिलते हैं....'इनकी तो जात ही ऐसी है' 'ये लोग बहुत कट्टर होते हैं, किसी को नहीं छोड़ते', 'इनके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए' वग़ैरह-वग़ैरह ! अगले दिन, उन घरों के बच्चे यही बात अपने साथियों से कह रहे होते हैं, बिना किसी प्रामाणिक तथ्य के। ये आगामी पीढ़ी के 'सोच' के पतन की शुरुआत है ! हमें इन्हें, यहीं से रोकना होगा ! अन्यथा ये समस्या जस-की-तस रहेगी !
यदि आप ईश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं तो अपने-अपने घरों में, अपने बच्चों को सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाएं ! यदि नास्तिक हैं तो यह आपकी स्वतंत्रता है पर किसी और को सोच बदलने के लिए बाध्य न करें। हर इंसान को धर्म, जाति से ऊपर उठकर अपनी एक पहचान बनाने का अवसर दें यही एक तरीका है, आने वाली नस्लों को हैवानियत से बचाने का !
एक सवाल, स्वयं से भी करें ! आप कौन हैं ? आप किस रूप में याद किये जाना पसंद करेंगे या अपने धर्म से ही अपनी पहचान बनाएंगे ? वो पहचान जो पहले से ही तय की जा चुकी है , तो फिर आपके होने-न-होने का मतलब ही क्या ? क्या धर्म , इंसानियत से भी बड़ा होता है ?
विमर्श करें -
'मैं कौन हूँ'
मेरा उठना-बैठना
खाना-पीना, रहन-सहन
बातचीत का तरीका
स्वभाव,शिक्षण,व्यवसाय
विवाह की उम्र
शिष्टाचार,जीवन-शैली
यहाँ तक कि
मौत के बाद की
विधि भी,
सब कुछ तय है
मेरे जन्म के समय से.
पैदा होते ही तो लग जाता है
ठप्पा उपनाम का
जुड़ जाता है धर्म
पिछलग्गू बन
नाम के साथ ही
और उसी पल हो जाती है
सारी राष्ट्रीयता एक तरफ.
आस्था हो, न हो
विश्वास हो, न हो
पर इंसान को जाने बिना ही
समाज निर्धारित कर लेता है
उसके गुण-अवगुण,
चस्पा कर दी जाती हैं
उसके व्यक्तित्व पर
कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ.
सीमाएँ लाँघने पर
तीक्ष्णता-से घूरती हैं
एक साथ कई निगाहें
फिर समवेत स्वर में उसे
नास्तिक करार कर दिया जाता है,
उन्हीं लोगों के द्वारा
जिन्होंने संकुचित कर रखी है
अपनी विचारधारा !
अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
ये बुहारा करते हैं, रोज ';अपना'; आँगन
सँवारते हैं, उसे
गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम.
धर्म-विधान के नाम पर
हो-हल्ला मचाते
ये तथाकथित संस्कारी लोग
रख देते हैं अपनी भारतीयता
ऐसे मौकों पर, दूर कहीं कोने में.
राष्ट्र-हित की आड़ में
बातें करने वालों ने
बो दिया है ज़हरीला बीज
तुम्हें खुद ही तोड़ने का
और हो गये हैं सभी सिर्फ़
अपने-अपने धर्म के अधीन.
तो फिर स्वतंत्र कौन है ?
मैं कौन हूँ?
तुम कौन हो?
जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
तो तोड़ना होगा सबसे पहले
धर्म और प्रांत का बंधन.
ईश्वर एक ही है
मौजूद है, हर शहर, हर गली
हर चेहरे में,
हटा दो मुखौटा
और देखो
एक ही खुश्बू है
हर प्रदेश की मिट्टी की
हरेक घर का गुलाब
एक-सा ही महकता है
महसूस करना ही होगा
तुम्हें ये अपनापन,
तभी पा सकोगे
दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
सारी अराजकताओं से दूर
एक स्वतंत्र-भारत !
- प्रीति 'अज्ञात'
*राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, 'वर्तमान मीडिया' , फरवरी'२०१५ अंक में प्रकाशित
चित्र - गूगल से साभार
फिर ये 'मज़हब' है ही क्यों ?
क्योंकि ये जो नहीं सिखाता, वही तो सब सीखते आए हैं !
'धर्म' न होता तो लड़ने के लिए कौन सा मुद्दा होता ? देश में जितने भी दंगे-फ़साद , आगजनी, हत्याएँ और इस तरह के असंख्य अमानवीय कृत्य होते रहे हैं , इनका जिम्मेदार कौन है ? क्या सचमुच 'धर्म' ही इसकी वज़ह है या उन अराजकीय तत्वों की मानसिकता, जिन्हें 'घृणा' से 'प्रेम' है ? पर फिर भी जनता बेवकूफ बनती आ रही है, ये 'जनता' भोली नहीं रही, बल्कि चंद सिक्कों के लिए आसानी से अपना ईमान बेचना सीख गई है। इन लोगों को होश तभी आता है, जब स्वयं पर बीतती है, इनके ही 'धर्म' की आड़ में जब इन पर प्रहार होता है।
'धर्म' का इंसान से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं सिवाय इसके कि ये जन्म के साथ आपको 'बोनस' में मिलता है. बात इसके सही इस्तेमाल की है. इंसानियत पैदाइशी नहीं होती, ये आपको सीखनी होती है. आप 'इंसान' बनें रहें, 'धर्म' कहीं नहीं जाने वाला ! एक इंसान, अच्छा या बुरा हो सकता है, धर्म का उसकी सोच से क्या संबंध ? क्या किसी धर्म ने बुरा व्यक्ति बनने के रास्ते दिखाए हैं ? संवेदनहीनता, हिंसा, अमानवीय और पाश्विक व्यवहार का समर्थन कौन सा धर्म करता है ? और यदि धर्म के कारण ऐसा हो रहा है, तो फिर ये 'धर्म' ही हर परेशानी की जड़ है ! इसे हटाने की हिम्मत जुटानी होगी ! पर अगर सारे धर्मों के लोगों के अपराधों का हिसाब-क़िताब लगाया जाए, तो हरेक के हिस्से में हर तरह का अपराध आएगा ! फिर तो सारे ही धर्म, अत्याचार के समर्थक हुए ? जो धर्म जितना बड़ा, उसका हिस्सा उतना ही ज़्यादा ? ये भी संभव है कि जो धर्म छोटा, उस पर अत्याचार ज़्यादा ? दुनिया की रीत है, पलटवार करने वाले से सब भयभीत रहते हैं और दुर्बल को सताने में सबको अपार आनंद की अनुभूति होती है ! लेकिन जब 'दुर्बल' की सहनशक्ति टूट जाती है, तो उसके सामने कोई नहीं टिक पाता. ये इंसानी फ़ितरत है. पुनश्च, इसका आपके 'धर्म' से कोई ताल्लुक़ नहीं !
अपराधी, 'अपराधी' ही है. बहस, उसके जघन्य कृत्य पर ही होना चाहिए. उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता. पर इस सुशिक्षित, सभ्य समाज का सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है, कि लोग अपराधी की जात पर पहले गौर करते हैं, और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है. दुर्भाग्य की बात है कि अपराध के विरोध और समर्थन में दो गुटों का निर्माण उसी वक़्त हो जाता है।
अगर समाज में परिवर्तन चाहते हैं, तो 'उपनाम' के मोह से बचें ! ज़्यादातर लोग धर्म के नाम पर मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं. आपकी इज़्ज़त, आपका रूतबा, आपके प्रति लोगों का नज़रिया...आपके व्यवहार पर निर्भर करता है. दूसरे के बुरे व्यवहार को अपनी क़ौम पर हमला न समझें. वो बुरा है, इसलिए उसने ऐसा किया. वो आपको मारना चाहता है, इंसानियत का विरोधी है, आप 'उसका' विरोध करें, पर अपने धर्म की महानता का बखान करे बिना. क्योंकि जब गिनाने की बात आएगी, तो आप बगलें झाँकते नज़र आएँगे ! सच तो यह है कि सबका हृदय जानता है, कि धर्म हमें सही राह दिखाते हैं और सभी धर्म 'सर्वश्रेष्ठ' हैं ! विचारणीय बात यह है कि इसके बावज़ूद भी आतंक का इतना गहरा साया क्यूँ है. बाहरी ताक़तों की बात तो समझ आती है, पर जो घर में होता आ रहा है उसका क्या ? ये सब, कौन करवा रहा है ? कहीं राजनीतिक पार्टियां , वोट बैंक की लालसा में आम जनता को ही बलि का बकरा तो नहीं बना रहीं ? गरीबी-भुखमरी, अशिक्षा , बेरोजगारी ; इन समस्याओं का निवारण हो गया है क्या ? या इनकी चर्चा 'आउटडेटेड' है !
इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण आप लोगों ने भी अवश्य देखे होंगे कि कई घरों में ऐसी घटनाओं की निंदा करते समय ऐसे वाक्य सुनने को मिलते हैं....'इनकी तो जात ही ऐसी है' 'ये लोग बहुत कट्टर होते हैं, किसी को नहीं छोड़ते', 'इनके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए' वग़ैरह-वग़ैरह ! अगले दिन, उन घरों के बच्चे यही बात अपने साथियों से कह रहे होते हैं, बिना किसी प्रामाणिक तथ्य के। ये आगामी पीढ़ी के 'सोच' के पतन की शुरुआत है ! हमें इन्हें, यहीं से रोकना होगा ! अन्यथा ये समस्या जस-की-तस रहेगी !
यदि आप ईश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं तो अपने-अपने घरों में, अपने बच्चों को सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाएं ! यदि नास्तिक हैं तो यह आपकी स्वतंत्रता है पर किसी और को सोच बदलने के लिए बाध्य न करें। हर इंसान को धर्म, जाति से ऊपर उठकर अपनी एक पहचान बनाने का अवसर दें यही एक तरीका है, आने वाली नस्लों को हैवानियत से बचाने का !
एक सवाल, स्वयं से भी करें ! आप कौन हैं ? आप किस रूप में याद किये जाना पसंद करेंगे या अपने धर्म से ही अपनी पहचान बनाएंगे ? वो पहचान जो पहले से ही तय की जा चुकी है , तो फिर आपके होने-न-होने का मतलब ही क्या ? क्या धर्म , इंसानियत से भी बड़ा होता है ?
विमर्श करें -
'मैं कौन हूँ'
मेरा उठना-बैठना
खाना-पीना, रहन-सहन
बातचीत का तरीका
स्वभाव,शिक्षण,व्यवसाय
विवाह की उम्र
शिष्टाचार,जीवन-शैली
यहाँ तक कि
मौत के बाद की
विधि भी,
सब कुछ तय है
मेरे जन्म के समय से.
पैदा होते ही तो लग जाता है
ठप्पा उपनाम का
जुड़ जाता है धर्म
पिछलग्गू बन
नाम के साथ ही
और उसी पल हो जाती है
सारी राष्ट्रीयता एक तरफ.
आस्था हो, न हो
विश्वास हो, न हो
पर इंसान को जाने बिना ही
समाज निर्धारित कर लेता है
उसके गुण-अवगुण,
चस्पा कर दी जाती हैं
उसके व्यक्तित्व पर
कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ.
सीमाएँ लाँघने पर
तीक्ष्णता-से घूरती हैं
एक साथ कई निगाहें
फिर समवेत स्वर में उसे
नास्तिक करार कर दिया जाता है,
उन्हीं लोगों के द्वारा
जिन्होंने संकुचित कर रखी है
अपनी विचारधारा !
अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
ये बुहारा करते हैं, रोज ';अपना'; आँगन
सँवारते हैं, उसे
गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम.
धर्म-विधान के नाम पर
हो-हल्ला मचाते
ये तथाकथित संस्कारी लोग
रख देते हैं अपनी भारतीयता
ऐसे मौकों पर, दूर कहीं कोने में.
राष्ट्र-हित की आड़ में
बातें करने वालों ने
बो दिया है ज़हरीला बीज
तुम्हें खुद ही तोड़ने का
और हो गये हैं सभी सिर्फ़
अपने-अपने धर्म के अधीन.
तो फिर स्वतंत्र कौन है ?
मैं कौन हूँ?
तुम कौन हो?
जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
तो तोड़ना होगा सबसे पहले
धर्म और प्रांत का बंधन.
ईश्वर एक ही है
मौजूद है, हर शहर, हर गली
हर चेहरे में,
हटा दो मुखौटा
और देखो
एक ही खुश्बू है
हर प्रदेश की मिट्टी की
हरेक घर का गुलाब
एक-सा ही महकता है
महसूस करना ही होगा
तुम्हें ये अपनापन,
तभी पा सकोगे
दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
सारी अराजकताओं से दूर
एक स्वतंत्र-भारत !
- प्रीति 'अज्ञात'
*राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, 'वर्तमान मीडिया' , फरवरी'२०१५ अंक में प्रकाशित
चित्र - गूगल से साभार