अपेक्षाओं और उम्मीद के परे भी एक जीवन है यहाँ...! जीने के लिए न कोई शर्तें हैं और न ही स्नेह को पाने के लिए व्यर्थ के बने कायदे-कानून ! ये सब तो स्वार्थी समाज की सुविधा के लिए उगाई गई फसलें हैं; जहाँ हर बरस नए रिश्तों और मौकों की खेती होती है और पुराने स्नेह बीजों को खरपतवार समझ उखाड़ फेंक देना ही आपके समझदार और व्यवहारिक होने का प्रामाणिक तथ्य माना जाता है।
यहाँ न सपने हैं न ख्वाहिशें। उम्मीदों की टूटन, रिश्तों की सघन गर्मी, मन की उष्णता, ह्रदय की घुटन और इस सबको भुलाने की नाक़ाम कोशिशों में लगे तमाम अनुभवों की ठिठुरन है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाकर और कर्तव्यों के आगे स्व की तिलांजलि देने के बाद जो शेष है वही इनका जीवन है. अपनों का दूर जाना जितना आसान है उन्हें भूल पाना उतना ही जटिल। इसीलिए अब भी कहीं, मायूसी के भंवर से जूझते हुए एक झिझक भरी निग़ाह दरवाजे की तरफ देख न जाने क्या टटोला करती है....!
यही वो दरवाजा है जहाँ आप थोडा संकोच के साथ कुछ लोगों को मुस्कान देने के ज़ज़्बे के साथ प्रवेश करते हैं और उनके गले लग स्वयं के वजूद को बेहद बौना पाते हैं। पता ही नहीं चलता कि कब चेहरे की सलवटों से झांकती एक जोड़ी आँखों की टिमटिमाती रोशनी, आपके ह्रदय को भीतर तक रोशन कर जाती है ! मन में पैदा हुई कुछ ख्वाहिशें जो यूँ भी बेबुनियाद ही ठहरीं, हंसती हैं अपने होने पर ! मन कचोटने लगता है, ह्रदय से एक आह निकलती है, पीड़ा असहनीय है लेकिन जीवन के प्रति अगाध स्नेह आपको हैरत में डाल देता है. एक कमरे से सुरीले गीत की ध्वनि, कहीं बैसाखी की थाप पर चलती ज़िंदगी, ढोलक का मधुर संगीत और एक साथ बजती तालियां ! भजन ढोलक और सिर्फ दो वक़्त की रोटी की जरुरत।
एक प्रश्न उठता है मन में.....! क्या वाक़ई इससे अधिक की आवश्यकता है ? पैसे कमाने की जद्दोजहद में लगे लोगों के पास शेष क्या रहेगा ? मैं पलटकर फिर उस दरवाजे की ओर देखती हूँ। उसी गीत को बार-बार रिवाइंड कर सब एक साथ थिरक रहे हैं......... " अपने लिए जिए तो क्या जिए... " मेरा पसंदीदा गीत और उन खामोश चेहरों की हंसी दिल को गहरी तसल्ली दे जाती है ! हालांकि इसके भीतर की मायूसी भी अपनी उपस्थिति का अहसास बख़ूबी कराती है। मैं सर झुका, प्रणाम कर वहां से निकल पड़ती हूँ। दिमाग में अब भी वही बारह-तेरह वर्षों से घुमड़ती उथल-पुथल बरक़रार है कि "वृद्ध आश्रम होने चाहिए या नहीं?". मेरा मूरख दिल आज भी इसके पक्ष और विपक्ष में बराबर की गवाही देता है !
- प्रीति 'अज्ञात'
यहाँ न सपने हैं न ख्वाहिशें। उम्मीदों की टूटन, रिश्तों की सघन गर्मी, मन की उष्णता, ह्रदय की घुटन और इस सबको भुलाने की नाक़ाम कोशिशों में लगे तमाम अनुभवों की ठिठुरन है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाकर और कर्तव्यों के आगे स्व की तिलांजलि देने के बाद जो शेष है वही इनका जीवन है. अपनों का दूर जाना जितना आसान है उन्हें भूल पाना उतना ही जटिल। इसीलिए अब भी कहीं, मायूसी के भंवर से जूझते हुए एक झिझक भरी निग़ाह दरवाजे की तरफ देख न जाने क्या टटोला करती है....!
यही वो दरवाजा है जहाँ आप थोडा संकोच के साथ कुछ लोगों को मुस्कान देने के ज़ज़्बे के साथ प्रवेश करते हैं और उनके गले लग स्वयं के वजूद को बेहद बौना पाते हैं। पता ही नहीं चलता कि कब चेहरे की सलवटों से झांकती एक जोड़ी आँखों की टिमटिमाती रोशनी, आपके ह्रदय को भीतर तक रोशन कर जाती है ! मन में पैदा हुई कुछ ख्वाहिशें जो यूँ भी बेबुनियाद ही ठहरीं, हंसती हैं अपने होने पर ! मन कचोटने लगता है, ह्रदय से एक आह निकलती है, पीड़ा असहनीय है लेकिन जीवन के प्रति अगाध स्नेह आपको हैरत में डाल देता है. एक कमरे से सुरीले गीत की ध्वनि, कहीं बैसाखी की थाप पर चलती ज़िंदगी, ढोलक का मधुर संगीत और एक साथ बजती तालियां ! भजन ढोलक और सिर्फ दो वक़्त की रोटी की जरुरत।
एक प्रश्न उठता है मन में.....! क्या वाक़ई इससे अधिक की आवश्यकता है ? पैसे कमाने की जद्दोजहद में लगे लोगों के पास शेष क्या रहेगा ? मैं पलटकर फिर उस दरवाजे की ओर देखती हूँ। उसी गीत को बार-बार रिवाइंड कर सब एक साथ थिरक रहे हैं......... " अपने लिए जिए तो क्या जिए... " मेरा पसंदीदा गीत और उन खामोश चेहरों की हंसी दिल को गहरी तसल्ली दे जाती है ! हालांकि इसके भीतर की मायूसी भी अपनी उपस्थिति का अहसास बख़ूबी कराती है। मैं सर झुका, प्रणाम कर वहां से निकल पड़ती हूँ। दिमाग में अब भी वही बारह-तेरह वर्षों से घुमड़ती उथल-पुथल बरक़रार है कि "वृद्ध आश्रम होने चाहिए या नहीं?". मेरा मूरख दिल आज भी इसके पक्ष और विपक्ष में बराबर की गवाही देता है !
- प्रीति 'अज्ञात'