दो दशकों से भी ज्यादा पुरानी बात है ! तब जो भी बच्चा कक्षा में ज्यादा बात (बोले तो disturb ) करता था, उसे या तो आखिरी में दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा कर दिया जाता था या फिर बेंच के ऊपर दोनों हाथ करके ! ज्यादा दिलदार टीचर जी हुए तो कान पकड़ के मुर्गे बनने का मनोरम दृश्य भी यदा-कदा दिखाई पड़ जाता था या फिर बच्चा सबकी नजरों से अदृश्य यानि कि सीधे कक्षा से बाहर!
उस समय वो बच्चा तो असहाय दिखता ही था, अंदर बैठे उसके दोस्तों को भी धुकधुकी लगी रहती थी....हाइला , कहीं हमारा नाम न बोल दे ! दुनिया का रिवाज़ है, कि "गेंहूँ के साथ घुन भी पिसता ही है ", सो कई मासूम चेहरे उस बच्चे के अपराध की भेंट चढ़ा दिए जाते थे ! अब जो बचे, उनसे न हँसा जाए और न ही रोया ! "इधर कुआँ उधर खाई टाइप सिचुएशन!"
खैर.... सुधरा कोई भले ही न हो ! पर टीचर जी और सर जी का ख़ौफ़ ज़बरदस्त रहता था ! दिक्क़त बस तभी होती थी, जब ये जिम्मेदारी निरीह 'मॉनिटर' के पल्ले पड़ती थी ! कुछ अपने दोस्तों को भारी डिस्काउंट के लालच (यहाँ इसका तात्पर्य नोट्स से है) में बचा लिया करते थे और कर्तव्यनिष्ठ विद्यार्थी सबकी बराबर क्लास लेता था ! अपनी-अपनी क़िस्मत है भैया !
माराकूटी, बटन तोडना, पेन फेंक देना, पानी फैलाकर निकल लेना जैसी हिंसक और निकृष्ट घटनाओं के लिए एक नियत समय था ! जिसे 'ब्रेक' के आत्मिक नाम से जाना जाता था !
हर शहर, हर स्कूल में लगभग यही प्रथा थी ! वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार इनमें फेरबदल भी प्रचलन में था !
घर में बताओ तो डबल कुटाई का डर! सो, आपसी सहमति से सब चुप्पी लगा जाते ! माता-पिता भी ये तो नहीं कहते न कि"बेटा, ख़ूब टेबल-कुर्सियाँ तोड़ो! कॉपी-क़िताब के पन्ने फाड़ो और फिर अगले दिन शान से अपने टाइप के लोगों के साथ कक्षा में प्रवेश करो! उसके बाद मैम की शिकायत, प्रिंसिपल से कर आओ !"
MORAL : 'अनुशासन', आज भी उतना ही आवश्यक है जितना २० वर्ष पहले हुआ करता था ! ये अलग बात है कि लोग न तब सीखे और न अब कोई चांस हैं ! बच्चे इस कहानी से क्या शिक्षा लेंगे, पता नहीं …बस, आज यूँ ही याद आ गई ! हम कौन, एवीं खामखाँ मरे जा रहे !
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