'वंदना करते हैं हम'..... बचपन में रेडियो ceylon पर बजते इस भक्ति-गीत और हमारी आँख खुलने का बड़ा गहरा रिश्ता रहा है।
सच कहूँ तो मैंने इसे कभी भी बैठकर तन्मयता से नहीं सुना होगा और न ही इसके lyrics याद हैं लेकिन फिर भी हमारी सुबह में यह गीत इस तरह घुल-मिल गया था कि जैसे दिनचर्या का एक हिस्सा हो बिल्कुल बिनाका( बाद में सिबाका) गीतमाला की तरह! इन दोनों में अंतर इतना ही था कि अमीन सयानी और गानों के चढ़ते-उतरते पायदानों की ख़ूब चर्चा होती। पहले पायदान के गीत के लिए बेफ़िज़ूल शर्तें लगतीं और प्रथम पायदान तक पहुँचते-पहुँचते साँसें यूँ अटक जातीं जैसे कि बोर्ड परीक्षा का रिजल्ट निकलने वाला हो! उधर 'वंदना करते...!' पर चर्चा कभी नहीं हुई लेकिन इसकी ख़ुश्बू हम सबकी रूह में तब से अब तक बसी हुई है। बिनाका से जो प्रगाढ़ रिश्ता था, वही रिश्ता इस ख़ूबसूरत और पवित्र सुबह से भी जुड़ गया था। कुछ बातें साथ चलती हैं, हवाओं की तरह! होती तो हैं, बस बयां नहीं की जातीं!
समय के साथ जैसे-जैसे देश का विकास होता गया, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और उसी दर से व्यस्तता और जिम्मेदारियाँ भी। इस सब में रेडियो बहुत पीछे छूट गया। इतना कि मुझे याद भी नहीं कि आख़िरी बार ये दोनों कब सुने थे! परन्तु इतना जरूर याद है कि न तो मेरी किसी सुबह को इससे अड़चन हुई थी और न ही परीक्षा वाली कोई रात को। सब सुचारु रूप से चलता था। कहीं कुछ भी forced नहीं लगता था। हालाँकि रेडियो में तो यूँ भी ऑन/ऑफ़ अपने हाथ में होता है। हमारे घर में मरफी का ट्रांज़िस्टर था, जो एक चपत खाते ही सिग्नल कैच कर लेता था! कई बार अलग-अलग एंगल में भी रखकर शगुन करते थे कि अब सही बजेगा!
ख़ैर, फिर टीवी आया और उसके बाद सा-रे-गा-मा! इसी पर पहली बार सोनू निगम को सुना-देखा। लाखों देशवासियों की तरह उनके ज़बर्दस्त प्रशंसकों में एक नाम हमारा भी जुड़ गया। छोटा-मोटा क्रश भी कह सकते हैं। आज तक इतना तो तय है कि सोनू निगम, अमिताभ बच्चन, जगजीत सिंह, सचिन की बुराई का मतलब कि आप हमारी नज़रों में उसी वक़्त गिरकर हमारी डायरेक्ट घृणा के पात्र बन चुके हैं।
फ़िलहाल सोनू की बात करते हैं..... तो 'कल हो न हो', 'पंछी नदिया, पवन के झोंके' के बाद तो फिर किसी और को सुनने का मन ही नहीं करता था। 'दीवाना', 'जान' एल्बम दो-तीन हज़ार बार तो सुने ही होंगे मैंनें। 'अब मुझे रात-दिन तुम्हारा ही ख़्याल है' सुनकर भला कौन न दीवाना हो जाता!
आज सोनू निगम के एक tweet को पढ़कर गुस्से से कहीं अधिक दुःख हुआ। अभी भी लग रहा कि शायद किसी ने उनका अकाउंट हैक किया होगा! अगर नहीं किया है तो बताओ सोनू......
* चिड़ियों की चहचहाहट और मुर्गे की बाँग से सुबह संगीतमय नहीं लगती क्या? कि उन्हें भी चुप रहने को कहें?
* मस्ज़िद की अजान हो या मंदिर, गुरूद्वारे, किसी भी धार्मिक स्थल के घंटे की आवाज....ये ध्वनियाँ सुबह में पवित्रता नहीं घोलतीं?
अरे, दूधवाले की साइकिल की घंटी, बरामदे में गिरा अख़बार, सड़क पर मॉर्निग-वॉक को जाते लोगों की चहलक़दमी, दुकानों के खुलते शटर ये सब और न जाने ऐसे कितने ही पल हमारी-आपकी सुबह को ख़ुशनसीबी से भर देते हैं। इनसे मन उल्लसित होता है और रोज एक नई
रौशनी का आगाज़ भी।
इनसे शिकायतें तो हरगिज़ नहीं हो सकतीं, बल्कि हमें इन पलों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि सुबह की पहली चाय की, पहली चुस्की में जो मिठास है वो इन्हीं की उपस्थिति घोलती है।
वरना बंद खिड़कियों और चलते ए.सी. के बाद तो हवाओं की भी ज़ुर्रत कहाँ जो किसी की नींद में खलल डाल सके!
*हाँ, इस बात में कोई दो राय नहीं कि ईश्वर तक अपनी बात/ प्रार्थना पहुँचाने के लिए लाउडस्पीकर की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वो अगर है तो हर जगह मौजूद है। सर्वदृष्टा है। हमारे, आपके भीतर ही है। लेकिन फिर तो ये बात बहुत बड़ी बहस में बदल जाने वाली है क्योंकि हम बैंड-बाजों के देश में रहते हैं। लाउडस्पीकर को लेकर ही कई और विषय उठेंगे। यहाँ बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक, हर कार्यक्रम में बिना शोरोगुल के बात हमें हजम ही कहाँ हो पाती है। जब तक सड़क पर नागिन-डांस न हुआ, कोई बियाह ही नहीं पूरा होता! सारे उत्सव धड़ाम-धुड़ूम करके ही मनाये जाते हैं। मैच जीते तो जुलूस, मिस यूनिवर्स बने तो आतिशबाजी, चुनाव जीते तो उम्मीदवार को 21 तोपों की सलामी, कोई विदेश से लौटकर आया तो ढोल नगाड़े ढमाढम बजते हैं। रतजगा होता है, गरबा चलता है, dj वाले बाबू गाने चलाते हैं।
अब हर मौके पर चुपचाप बैठकर तो सेलिब्रेशन होने से रहा! कहने का मतलब ये है कि जब कुतर्क की लाइन लगेगी तो ध्वनि के साथ, वायु प्रदूषण को भी लपेटे में लेकर माहौल को और प्रदूषित ही करेगी।
- प्रीति 'अज्ञात'
17 April'2017 11.33pm