यह 'काल' और 'पानी' दो शब्दों से मिलकर बना है। 'काल' अर्थात मृत्यु, जहाँ से कोई ज़िंदा वापिस नहीं आ सकता। तात्पर्य यह कि यदि कोई अंडमान आ गया तो समझिए काल का ग्रास बन गया। 'पानी' तो स्पष्ट ही है, अंडमान निकोबार द्वीप समूह के चारों ओर हजारों मील तक पानी ही पानी है कोई क़ैदी भागे भी तो कहाँ तक! भागकर आसपास के जंगलों में पहुँचते तो आदिवासी देखते ही मार डालते थे। जंगल में खाने को कुछ नहीं था, इन आदिवासियों से बचते तो भूख से मरना तय था या फिर उन दिनों मलेरिया से उनकी मृत्यु हो जाती थी।
सेनानियों को यहाँ लाने का उद्देश्य -
जेल के गाइड की मानें तो किसी भी राजनीतिज्ञ/नेता को अंडमान में फाँसी नहीं दी गई। उन्हें भारत के अन्य जेलों में फाँसी दी जाती थी। यहाँ स्वतंत्रता सेनानी, आजीवन कारावास के लिए भेजे जाते थे। भीषण यंत्रणा, बीमारी और जबरन भोजन खाने से उनकी मृत्यु हुआ करती थी। जबरदस्ती खाना तब खिलाया जाता था जब क़ैदी भूख हड़ताल करते थे। वे मुँह से नहीं खाते या इंकार करते, तो हड़ताल तोड़ने के लिए उनके हाथ-पाँव बाँधकर नाक में नली डालकर द्रव्य पदार्थ पिलाया जाता था, जैसे - चावल का मांड या दूध। इस कारण महावीर सिंह, मोहित मोइत्रा आदि की मृत्यु हुई। फाँसी केवल उन्हीं लोगों को दी जाती थी जो अंडमान में आने के बाद दोबारा कोई अपराध करते थे। cellular jail के फाँसी घर में कम लोगों को फाँसी दी गई पर कितनों को दी गई, इसका कोई रिकॉर्ड भी उपलब्ध नहीं है।
ब्रिटिशर्स द्वारा क्रांतिकारियों को अंडमान लाने का मुख्य उद्देश्य उन्हें शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देना और किसी से संपर्क न करने देना था। तात्पर्य यह कि एक बार जो यहाँ आ गया तो उसके पास किसी की कोई जानकारी न रहे और न ही कोई उसके बारे में कुछ जान सके।
क़ैदी और अत्याचारी में भेद -
क़ैदियों की सामान्य यूनिफॉर्म में कुर्ता और हाफ पेंट हुआ करते थी, गले में लोहे का छल्ला, लोहे की प्लेट उनकी पहचान थी, उस पर जेल का नंबर और दंड की अवधि लिखी होती थी। उनके पाँव में कड़ा, हाथ में हथकड़ी बाँधकर उन पर शारीरिक अत्याचार किये जाते थे जिससे मारते समय क़ैदी हिल भी न पाए। यह सजा बाक़ी कैदियों में भय उत्पन्न करने के लिए किसी एक कैदी को दी जाती थी। दुर्भाग्य यह कि मारने वाला भी भारतीय ही होता था। स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा वहाँ असल अपराधी भी आते थे। इन अपराधियों में से जो हट्टा कट्टा, दिमाग से कमजोर पर अत्याचारी प्रवृत्ति का होता था, ऐसे लोगों को पहचानकर ब्रिटिशर्स काम पर रखते थे। इनमें से ही अटेंडेंट, जमादार, वार्डन बनाये जाते थे। इनको कैदियों से काम करवाने तथा उन पर शारीरिक अत्यचार करने को कहा जाता था। बदले में इन्हें अच्छा खाना मिलता था और साथ ही यह सुविधा भी कि न तो कभी इन्हें इस तरह का कठिन परिश्रम करना पड़ता और न ही इन्हें कोई मारपीट ही सकता था। यही इनकी तनख्वाह भी थी।
फ़ाँसी घर -
यहाँ जब बाहर खड़े होते हैं तो पता ही नहीं चलता कि यह सुन्दर सा दिखने वाला कक्ष 'फाँसीघर' है। आसपास की हरियाली और टूरिस्ट के बीच यह चित्र देखने में बहुत सुंदर लगता है लेकिन इसके भीतर की कहानी उतनी ही भयावह एवं दुखदायी है। पहले खुले में फाँसी दी जाती थी, वुडन बीम और प्लेटफॉर्म उस समय के ही हैं एवं रस्सी नई है। यहाँ तीन लोगों को एक साथ फाँसी दी जाने की व्यवस्था थी। बायीं तरफ़ लोहे का lever है। गले में फंदा डालने के बाद इस lever को pull करते ही प्लेटफार्म नीचे की तरफ़ खुल जाता था, नीचे आठ फ़ीट गहरा कमरा है। फाँसी पर झूलते ही क़ैदी की मृत्यु हो जाती थी। शव को साइड के गेट से बाहर ले जाकर अंतिम संस्कार करते थे।
टॉर्चर फैक्ट्री (प्रताड़ित करने का कारखाना) -
प्रताड़ना का कोई एक तरीक़ा तो था नहीं, अंग्रेज़ों ने हमारे सेनानियों को कष्ट देने के लिए वीभत्सता की सारी हदें पार कर ली थीं। यह 'टॉर्चर फैक्ट्री' उनकी इसी घृणित सोच का जीता-जागता उदाहरण है। यहाँ पहुँचते ही आपका ह्रदय उन जालिमों के प्रति नफ़रत से भर जाता है और आप उन्हें कोसे बिना रह ही नहीं सकते।
कोल्हू - इसका भार 150 किलो है। इससे एक कैदी को एक दिन में 30 पौंड नारियल तेल निकालना होता था। जो बैल भी सारा दिन जुतकर नहीं निकाल सकते थे; तो इंसान कहाँ से निकाल पाते! जब हमारे सेनानी कोल्हू चलाते-चलाते थक जाते और इंकार करने लगते थे तब अंग्रेज़ उनका हाथ पकड़कर जबरन चलवाते और पीछे से हंटर भी मारते थे। कुछ क़ैदी इसी कोल्हू को चलाते-चलाते बीमार पड़ जाते और कुछ की मृत्यु हो जाती थी। जो जीवित शेष रहते तो उनका जीवन नर्क़ से भी बदतर बना दिया जाता और उन्हें भयावह यातना और अथाह पीड़ा के विभिन्न चक्रों से गुजरना पड़ता था।
सेलुलर जेल में यातना के कई प्रकार थे -
*जो क़ैदी अपना काम पूरा नहीं करते थे, एक हफ्ते के लिए उन्हें कोठरी के बाहर हथकड़ी में रखा जाता था। पहली बार एक दिन में 8 घंटे हथकड़ी लगाई जाती। उसके बाद दो दिन बोरे की बनी ड्रेस पहननी होती थी, जिससे उन्हें गर्मी ज़्यादा लगे और पूरे शरीर में खुजली होती रहे। बँधे हुए हाथों से कोई कैसे खुजा सकता था! हमारे सेनानी इस अपार वेदना को सहते रहे।
तीन तरह के punishment chain fetters थे। इन्हें एक वर्ष पहनाते थे, पहले में हाथ फ्री है और क़ैदी चल सकता था। पर पैरों में वजन बंधा होता था।
Bar fetters, छह माह पहनाते थे। चलते समय इन्हें पकड़कर चलना पड़ता था और काम करते समय छोड़ देते थे।
Danger cross में पाँव के नीचे लोहे की छड़ होती थी। जिससे सबके पैरों में घाव हो जाते थे क्योंकि चलते वक़्त ये rod उनके पाँव से घिसती जाती थी।
क़ैदियों की दिनचर्या -
खाना खाने के लिये लोहे की प्लेट होती थी जिसमें दाल, चावल, रोटी सब्ज़ी, उतना ही दिया जाता था जितना कि जीवित रहने को आवश्यक है पर उतना नहीं कि पेट भर सके। पीने के लिए दिन में दो बार गंदा पानी ही मिलता था। रात में बिजली नहीं होती थी । बस सुरक्षाकर्मी एक लालटेन लिए बाहर घूमा करता था। और वे उसी घुप्प अंधेरे में सोया करते थे। बेड, लकड़ी के बने थे।
दिन भर क़ैदी बाहर काम करते थे। ग्राउंड में उनके लिए कॉमन toilets थे। कुछ कैदियों को कोठरी के अंदर ही काम देते थे, उनके लिए नियम यह था कि वे दिन में 3 बार बाहर जाकर टॉयलेट्स का इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन ब्रिटिशर्स के तय किये समय पर ही। शाम 6 से सुबह 6 तक सब लॉकअप में ही रखे जाते थे जहाँ उन्हें मिट्टी का कटोरा दिया जाता था, जिसे हम सकोरा कहते हैं। जो भी करना इसी सकोरे में,रात में उन्हें इसी का प्रयोग कर उसी दुर्गंध में सोना होता था। सुबह स्वीपर आकर ले जाता था।
काल कोठरी
एक cell में एक ही व्यक्ति रहता था जिससे वह मानसिक रूप से भी प्रताड़ित हो, बातचीत न कर सके और शोषकों के विरुद्ध कोई योजना न बना पाए।
बात करना तो दूर, एक विंग का क़ैदी, दूसरे विंग के क़ैदी को देख भी नहीं सकता था। लॉक भी इस तरह के कि खोल पाना असंभव क्योंकि कुंडा दूर लगा हुआ था और वहाँ हाथ पहुंच ही नहीं सकता था।
इस समय 7 में से 3 ही विंग शेष हैं। जो हिस्सा रहने लायक नहीं वहाँ हॉस्पिटल बना दिया गया है। विंग के टूटे हुए हिस्सों के स्थान पर हॉस्पिटल है जहाँ दवा, उपचार, एक्सरे, स्कैन सारे परीक्षण निशुल्क होते हैं। विंग में एक जगह प्रदेश के आधार पर क्रांतिकारियों की सूची लगी हैं। गाइड की मानें तो सबसे अधिक बंगाल और फिर पंजाब के क्रांतिकारी यहां रहे थे।
वीर सावरकर जी की कोठरी
वीर सावरकर जी की कोठरी में दो दरवाजे लगे हैं। इनमें खतरनाक क़ैदी को रखा जाता है। उन्हें 10 वर्षों तक यहां रखा गया। सावरकर जी को जब इंग्लैंड से गिरफ्तार कर भारत लाया जा रहा था तब वे जहाज के टॉयलेट का glass तोड़ वहाँ से कूदे और तैरते हुए दूसरे बंदरगाह पहुंचे। जहाँ फ्रांसीसी गार्ड ने उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद उन्हें ब्रिटिश गार्ड्स ने अपने कब्जे में ले लिया। भारत लाकर उन पर केस चला। 6 माह बाद उन्हें अंडमान भेजना तय किया गया। ब्रिटिशर्स डरते थे कि ये दोबारा न भागें, इसलिये उन्हें कड़े पहरे में रखा गया। उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर जी उनसे पहले से ही यहाँ थे, पर दो वर्ष तक दोनों आपस में मिल भी न सके। जब बड़े भाई बीमार हुए तब पहली बार वीर सावरकर जी से उनकी अस्पताल में मुलाकात हुई। उसके बाद 1921 में उन्हें cellular jail से रत्नागिरी महाराष्ट्र ट्रांसफर करवा दिया गया। 3 साल बाद वहां नज़रबंद रख फिर उन्हें छोड़ा गया।
सोचकर भी रूह काँप जाती है कि जिस स्थान पर हमारा 10 मिनट खड़े रहना भी मुश्क़िल है वहां उन्होंने दस वर्ष गुजारे।
आज अंडमान एयरपोर्ट उन्हीं के नाम पर है।
जापानी कब्ज़ा -
सेलुलर जेल को ब्रिटिशर्स ने 1938 में खाली कर दिया था एवं सभी क़ैदियों को भारत की जेलों में ट्रांसफर करवा दिया था। इस तरह 1858 से 1938 तक चली कालापानी की अमानवीय सज़ा का पटाक्षेप हुआ। उसके बाद अंग्रेजों का राज रहा पर यह अत्याचार बंद हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान ने अंडमान पर कब्ज़ा कर लिया था । साढ़े तीन साल उनका कब्ज़ा रहा। जो इंडियन यहाँ बसे हुए थे, उनमें से कुछ शिक्षित और कुछ इंडियन इंडिपेंडेंट लीग से जुड़े लोग थे। जापानीज को संदेह होता था कि वे अंगेज़ों के लिए जासूसी कर रहे हैं। जिसके प्रति भी ब्रिटिशर्स के प्रति सहानुभूति का शक होता, वे उसे जेल में लाकर प्रताड़ित करते थे। जापानियों के अत्याचार और भी भयावह थे।
यदि अंग्रेजी बम न गिरते तो आज अपना अंडमान जापानी कब्ज़े में होता।
भारतीय झंडा-
उसी दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी का अंडमान आना हुआ था। 30 दिसंबर 1943 को वे सेलुलर जेल आये और उन्होंने पहली बार यहाँ भारतीय झंडा फहराया था। उसके बाद उन्होंने इस द्वीप समूह को दो नाम भी दिए। अंडमान को 'शहीद द्वीप' और निकोबार को 'स्वराज द्वीप'।
ब्रिटिशर्स के रॉयल एयर फोर्स ने अंडमान में जापानियों के ऊपर बहुत बम गिराए उसके बाद जापनियों ने सरेन्डर कर दिया। और कुछ समय बाद 1945 में वे अंडमान छोड़कर चले गए। डेढ़ साल पुनः अंग्रेजों का राज़ रहा। चूँकि यहां भारतीय अधिक थे अतः स्वतन्त्रता के समय उन्होंने यह हमें सौंप दिया और इंग्लैंड लौट गए।
भारतीय यहाँ इसलिये अधिक थे क्योंकि जब अंडमान में क़ैदियों को भेजना शुरू किया गया था तो जो क़ैदी एक बार यहाँ आ गया उसे तब वापिस ही नहीं भेजते थे, चाहे सजा पूरी हो गई हो या उसमें छूट भी हो। एक बार जो आ गया वो वापिस जा नहीं सकता था। उन्हें यहीं बसाते थे। जमीन देते थे, खेती बाड़ी करो या अंग्रेजों के पास काम कर जीविकोपार्जन करो। कहते हैं, आज अंडमान में जो लोग हैं वे उन्हीं के वंशज हैं।
- प्रीति 'अज्ञात'
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