शनिवार, 22 सितंबर 2018

ज्ञान का दसवाँ अध्याय सिर्फ़ बुद्धि नहीं, प्रेरणा का स्त्रोत भी है.#सुधा वर्गीस #कर्मवीर #KBC #KBC21सितम्बर2018

कर्मवीर एपिसोड जो कि हर शुक्रवार को आता है,इस बार (21सितम्बर) इसमें पद्मश्री सुधा वर्गीस जी तथा उनका साथ देने के लिए अनुष्का शर्मा, वरुण धवन उपस्थित थे. सुधा जी महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अत्यधिक मेहनत और गंभीरता से कार्य कर रही हैं.उनकी कर्मठता को सलाम कि वे 30 सालों से मुसाहर जाति के उत्थान के लिए प्रयासरत हैं. इसके लिए वे साईकिल से गाँव-गाँव जाकर उन महिलाओं को जागरूक कर रहीं हैं.... जो शिक्षा का अर्थ तक नहीं जानतीं. उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि स्त्रियों पर अत्याचार करना/सहना गलत है, जिन्हें अपने अधिकारों का इल्म तक नहीं! जो ये कहती हैं "पति है तो मारेगा ही न!" ये महिलाएँ यह मानकर मौत से बदतर ज़िंदगी जी रहीं थी कि "शराब पीने के बाद पुरुष द्वारा शोषण होना सहज है". ये आमदनी ख़त्म हो जाने के भय से शराब बेचना बंद नहीं करना चाहतीं थीं.

उफ़, यह जानकर ही दिमाग झन्ना उठा कि "औरतों को इतना भी नहीं पता था कि बलात्कार अपराध है और पीड़िता को इसकी शिकायत करनी चाहिए". सुधा जी ने उनमें यह चेतना जागृत की. उन्होंने शराब, घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़, महिलाओं के समवेत स्वर को गुंजायमान करने के उद्देश्य से 'नारी गुंजन' संस्था की स्थापना की. स्त्रियों को आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाया. आज उनका अपना बैंड भी है. सुधा जी 'प्रेरणा' स्कूल के माध्यम से बच्चों को शिक्षित कर रही हैं तथा आत्मरक्षा हेतु उन्हें कराटे का प्रशिक्षण भी दिलवा रही हैं.
वरुण और अनुष्का के साथ से साईकिल वाली ये दीदी आज  25 लाख जीतीं. जिस अंदाज़ से उन्होंने "देखा है पहली बार...." के जवाब में "देखेंगे बारम्बार...." गाया, उनकी यह अदा दिल जीत लेने वाली थी.

सचमुच ज्ञान का दसवाँ अध्याय सिर्फ़ बुद्धि नहीं, प्रेरणा का स्त्रोत भी है.
- प्रीति 'अज्ञात
#KBC #KBC21सितम्बर2018 #अमिताभ_बच्चन #बिग_बी #कर्मवीर #कौन_बनेगा_करोड़पति #ज्ञान का दसवाँ अध्याय #सुधा वर्गीस 
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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

#KBC20सितम्बर2018 #देवेन्दर_सिंह #जितेंद्र_प्रसाद



20 सितम्बर का एपिसोड देवेन्दर सिंह के नाम रहा. वे 6,40,000 जीतकर गए पर बात यहाँ सिर्फ़ ज्ञान के दसवें अध्याय की ही नहीं है। देवेन्दर जी की विनम्रता और संवेदनशीलता भी बेहद प्रेरणादायी थी। उनकी माँ उनके बारे में बात करते हुए जब भावुक हुईं तो वह उनका अपने बेटे के प्रति गर्व की सुखद स्मृतियाँ भी थीं कि कैसे वे अपना भोजन दूसरे को दे देते थे और देखिये देवेन्दर जी के इसी भाव ने उन्हें कम्युनिटी किचन की स्थापना की उम्दा सोच भी दे दी. 
इससे भी अच्छी बात यह थी कि वे भरपेट भोजन के लिए मात्र पाँच रुपए लेते हैं, वो भी इसलिये कि भोजन करने वालों का स्वाभिमान बना रहे! सचमुच ऐसे समय मे अपने देशवासियों पर अत्यधिक गर्व का अनुभव होता है. देवेन्दर जी को मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएं! कभी अवसर मिला तो उनके इस किचन में मदद अवश्य करना चाहूँगी.
उनकी फ़रमाईश पर “आज खुश तो बहुत होगे तुम! जो आज तक तुम्हारे मंदिर की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ा, जिसने कभी तुम्हारे सामने हाथ नहीं जोड़े; वो आज तुम्हारे सामने हाथ फैलाये खड़ा है ……" अमिताभ की इस संवाद अदायगी के बाद तो दर्शकों का ख़ुश होना बनता ही था.

उनके बाद बुद्धिमानी और ज़ज़्बे की अनूठी मिसाल लिए जितेंद्र प्रसाद जी हॉट सीट पर आए, जिनकी शिक्षा के लिए उनके भाई औऱ पिता ने दिन-रात एक कर दिया. पिता की चाय की दुकान है. मित्र के भाई ने भी उन्हें बिना फ़ीस लिए पढ़ाया.  जितेंद्र जी बहुत अच्छा खेल रहे थे और 25 लाख के प्रश्न तक पहुंच चुके थे. और इसी प्रश्न पर पक्का उत्तर न पता होने और अमिताभ का quit का विकल्प याद दिलाने के बाबजूद भी वे खेल गए और 3,20,000 से ही उन्हें संतोष करना पड़ा. 
बहुत अफ़सोस हुआ क्योंकि उन्होंने यह बात साझा की थी कि वे अपने पैरों की shape के कारण बहुत परेशान रहे हैं और वे इसे ठीक करके जूते पहन पूरे गाँव में घूमना चाहते हैं. एक तरफ जहाँ लोग दुनिया भर की सुख-संपत्ति की चाहत रखते हैं वहाँ 'संतोष' की सही परिभाषा जितेन्द्र जी की इसी छोटी सी अभिलाषा से व्यक्त होती है. 
KBC सिर्फ़ धन से ही नहीं, सोच से भी समृद्ध कर रहा है. हम इसे यूँ ही नहीं देखते हैं भई! क्या समझे? हईं 
-प्रीति 'अज्ञात'
#KBC #KBC20सितम्बर2018 #अमिताभ_बच्चन #बिग_बी #देवेन्दर_सिंह #जितेंद्र प्रसाद #कौन_बनेगा_करोड़पति #ज्ञान का दसवाँ अध्याय 
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परमाणु बम पर बैठी दुनिया से शांति की उम्मीद!

इस समय विश्व भर में जो हालात हैं और जिस तरह गोला-बारूद बनाते-बनाते विकास ने हमें मानव-बम तक पहुँचा दिया है उसे देख 'शांति' की बात करना थोड़ा अचरज से तो भर ही देता है! पहले नुकीले पत्थर, भाले इत्यादि का प्रयोग जंगली जानवरों से स्वयं की सुरक्षा हेतु किया जाता था. चाकू-छुरी ने रसोई में मदद की. लेकिन फिर आगे बढ़ने की चाहत और स्वार्थ के लालच में मनुष्य ने इन्हें एक-दूसरे को घोंपने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इससे भी उसे शांति प्राप्त नहीं हुई तो ऐसे अत्याधुनिक हथियारों का निर्माण हुआ, जिससे एक बार में ही कई लोगों को सदा के लिए सुलाया जा सकता है. मानव अब भी खुश नहीं था और स्वयं को सबसे अधिक ताक़तवर सिद्ध करने की फ़िराक़ में रहने लगा. इसी प्रयास को मूर्त रूप देने के लिए उसने परमाणु बम का निर्माण कर डाला, जहाँ एक ही झटके में शहर और सभ्यता को समाप्त किया जा सकता था और उसने ये किया भी. भय से या फिर 'हम किसी से कम नहीं' की तर्ज़ पर धीरे-धीरे सभी देश इस दिशा की ओर बढ़ने लगे और इस तरह मानवता ने अपनी क़ब्र खुद ही खोद ली. विश्व-युद्ध हुए और इसका असर तथा पुनः होने की आशंका अब तक जारी है.

हम लोग कबूतर उड़ाते-उड़ाते 'कबूतरबाज़ी' तक पहुँच चुके हैं अतः शांति की बात कर लेने भर से ही शांति नहीं आ जायेगी. पहले हथियार फेंकने होंगे, विध्वंसक तत्त्वों से दूरी बनानी होगी. 'इक मैं ही सर्वश्रेष्ठ' के भ्रम से बाहर निकलना होगा. यदि शांति के इतने ही प्रेमी या मसीहा हैं तो सभी देश मिल-जुलकर परमाणु हथियारों से दूरी बनाने का निर्णय क्यों नहीं ले पाते? हर समय हमले की फ़िराक़ में क्यों रहते हैं? इन उपकरणों ने सिर्फ़ मानव और सभ्यता का ही नहीं बल्कि प्रकृति का भी समूल विनाश किया है. 'विश्व-बंधुत्व' में यक़ीन है तो किसी को भी अपनी सीमाओं पर सेना क्यों रखनी है? आख़िर पूरा विश्व एक परिवार की तरह क्यों नहीं रह सकता?

रही बात मानसिक शांति की! तो यह उतना मुश्किल नहीं! बस इसके लिए मनुष्य को अपने स्वभाव में कुछ मूलभूत परिवर्तन करने की आवश्यकता है. यह मानव की विशेषता रही है कि वह अपने दुःख से कहीं ज्यादा दूसरे के सुख से व्यथित रहता है. किसी के पास आपसे बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, उसके बच्चे अच्छे से सेट हो गए या विवाह अच्छे घरों में हो गया, कोई आपसे ज्यादा प्रतिभावान है या उसे वह सम्मान मिल गया जिसके लिए आप स्वयं को बेहतर उम्मीदवार समझते थे, किसी का स्वास्थ्य अच्छा तो कोई आपसे ज्यादा ख़ूबसूरत/आकर्षक है.... यही सब बातें हैं, जिन्होंने मनुष्य को जलन और द्वेष के चक्रव्यूह में उलझाए रखा है. वह स्वयं को बेहतर बनाने से कहीं अधिक दिलचस्पी इस बात को जानने में रखता है कि सामने वाला शख़्स उससे आगे क्यों और कैसे निकल गया! यही चिंता, ईर्ष्या भाव ही तनाव और अपने चरम में कभी-कभी अपराध को भी जन्म देते हैं. समय के साथ ये विकृतता चेहरे पर भी उतर ही आती है. समाज को इसी मानसिक दुष्चक्र से बाहर निकलना होगा. मानसिक शांति और सुखी जीवन का यही एकमात्र मन्त्र है कि हमारा मन निश्छल हो और हम सब जीवों के प्रति दया-स्नेह भाव रखें; सबके सुख से प्रसन्न हों और दुःख में उनकी पीड़ा महसूस कर सकें.  
मदर टेरेसा ने सटीक बात कही थी कि "एक हल्की-सी मुस्कराहट से ही शांति आ सकती है". हम शांतिदूत गाँधी जी के देश में रहते हैं और विश्व शांति के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गए पंचशील के सिद्धांत भी हमारी ही धरती की उपज हैं. चिंतन और मनन ही हमें आध्यात्म की ओर ले जाता है, जिसके साथ हम स्वयं और घर-परिवार की मानसिक शांति पा सकते हैं. जब हमारा मन शांति और प्रेम से भरा होगा तो समाज स्वतः ही इस धारा एवं मानव-कल्याण की ओर अग्रसर होने लगेगा. फ़िलहाल उम्मीद रखना ही हमारे हाथ में है. हमारे बच्चों के लिए यह जानना बेहद जरुरी है कि ये दुनिया अब भी रहने लायक है.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्॥
'विश्व शांति दिवस' की असीम शुभकामनाएँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व शांति दिवस #world_peace_day

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

#KBC19सितम्बर2018 #सोमा_चौधरी


KBC हमेशा से ही मेरी पसंद रहा है, इसकी और अमित जी की प्रशंसा इतनी बार कर चुकी हूँ कि अब मैं स्वयं से ही परेशान हो गई हूँ. इस बार मेरा इरादा इसके हर एपिसोड पर लिखने का था. पुराने अभी ड्राफ्ट से आगे नहीं बढ़ सके तो सोचा आज जहाँ हूँ वहीं से क़दम बढ़ा लिए जाएँ.

सच कहूँ तो 19 सितम्बर की प्रतियोगी सोमा चौधरी जी (जो कि 18 को ही हॉट सीट पर आ गई थीं) का पहला इम्प्रेशन अच्छा नहीं था. मेरा मतलब, अमिताभ के फैन तो बहुत हैं पर इस अंदाज़ में भला कौन बात करता है! उनके सपने वाली बात से तो अमित जी भी असहज हो गए थे पर बाद में उन्होंने श्रोताओं का ओपिनियन लेकर माहौल को हल्का कर दिया था. यह देखना भी मज़ेदार था कि किसी के भी सपने में उनके पति नहीं आते!

बाद में जब सोमा जी को खेलते हुए देखा तो उनकी बुद्धिमानी के साथ-साथ, निश्छलता और मासूमियत भी सामने आई. फिर चाहे वो धरम जी से उनकी फ़ोन पर की गई बात हो या केक को देखकर उत्साही होना. 'पूर्व' भारतीय क्रिकेटर को हड़बड़ी में 'ईस्ट' का समझ लेना जितना दिलचस्प था उससे भी कहीं ज्यादा ईमानदारी उनके इस सच को स्वीकारने में थी. वहीं सोमनाथ चटर्जी वाले जवाब में जब वे भोलेपन से कहती हैं कि "हाँ, यही उत्तर है पर (चलो 60 सेकंड हैं तो) टाइम पास करते हैं", तो दर्शक भी अपनी हँसी नहीं रोक पाए थे. उसके बाद जीत की रक़म को बिछाकर उस पर सोने वाली बात पर तो अमिताभ भी ठहाका लगा उठे.
पर जो लोग 'लिफ़ाफ़ा देखकर मज़मून भाँप लेने' का राग अलापा करते हैं, उनकी इस सोच पर पुनर्विचार करने का काम तो सोमा जी ने उन्हें सौंप ही दिया है. एपिसोड रोचक रहा.

#KBC #KBC19सितम्बर2018 #अमिताभ_बच्चन #बिग_बी #सोमा_चौधरी #कौन_बनेगा_करोड़पति #ज्ञान का दसवाँ अध्याय 
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बिग बॉस

'बिग बॉस' जब शुरू हुआ था तो यह कॉन्सेप्ट एकदम नया और कुछ अलग सा लगा था. शायद इसीलिए यह आते ही हिट भी हो गया था. एक घर में अलग-अलग क्षेत्रों, विभिन्न विचारधारा और संस्कृति से जुड़े लोगों का आपस में पटरी बैठाते हुए रहना; साथ ही एक-दूसरे को बाहर निकालने की जुगत भिड़ाते हुए स्वयं अंत तक गेम में बने रहने की कोशिश दर्शकों को ख़ूब भाती थी. मज़ेदार टास्क दिए जाते थे जिन्हें तमाम लड़ाइयों के बावजूद भी टीमवर्क से नियत समय में पूरा करना होता था. यह कहना गलत न होगा कि अपने प्रारंभिक वर्षों में यह जितना रुचिकर प्रतीत होता था, अब उतना ही भौंडा और अविश्वसनीय होता जा रहा है.
विगत वर्षों में इस कार्यक्रम में आने वाली जोड़ियों के रिश्ते बनने से कहीं ज्यादा बिखरते रहे. वाद-विवाद की जगह गालीगलौज़ और हाथापाई ने ले ली, जो जितनी जोर से चीखे-चिल्लाये, वो उतना ही लम्बा टिकता भी था.
पहले मुझे लगता था कि मानव व्यवहार और मनोविज्ञान को समझने के लिए इससे बेहतर कोई शो नहीं! क्योंकि यहाँ अच्छे से अच्छे, संवेदनशील, भावुक और सच्चे लोगों को एक अलग ही रंग में परिस्थितियों के आगे टूटते या जूझते देखा. लड़ाकू और तेजतर्रार लोगों की कितनी श्रेणियाँ संभव हैं उसका ज्ञान भी यहीं से मिला. इसमें रोटी, अंडे के लिए लड़ाई हुआ करती थी, काम के लिए भी यही हाल और सफाई को लेकर भी परस्पर लानत-मलानत का दौर चला करता था. धीरे-धीरे प्रेम कहानियाँ भी पैर पसारने लगीं और विवादास्पद लोगों को ही प्रतियोगी बनाकर चयनित किया जाने लगा. 

हिन्दी में ही बात करने का नियम इस शो का सबसे आकर्षक पहलू था और एक कारण भी जिसने इसे जन-जन तक पहुँचा दिया. सीरियल की दुनिया से उकताए दर्शकों के लिए यह रियलिटी शो एक अच्छा विकल्प बन गया था. 
इस समय जबकि सिरदर्द देने के लिए न्यूज़ और चर्चा के नाम पर चैनलों पर चीख-पुकार का प्रसारण हो ही रहा है, तो ऐसे में 'बिग बॉस' की कोई आवश्यकता रह ही नहीं जाती उस पर KBC के ही समय इसका प्रसारण अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. 

खैर,इस बार का यह बारहवाँ सीजन है और मेरे लिए यह पहली ही बार है कि मैं इसे नहीं देख रही हूँ. जबकि मुझे इसे कुछ वर्ष पहले ही देखना बंद कर देना चाहिए था.
- प्रीति 'अज्ञात'
#बिग_बॉस #Bigboss

सोमवार, 17 सितंबर 2018

#चूर-चूर पराँठा

दूर से देखने पर यह खुला हुआ समोसा लगता है या फिर नाचोस/ स्प्रिंग डोसा जैसा कुछ-कुछ. पर इसे देखकर इसके चटपटे स्वाद का अंदाज़ जरूर हो जाता है. अब अनुमान से तो पेट भर नहीं सकता न! तो क्यों न इसे खा ही लिया जाए! एक बार मस्तिष्क तक जब यह संदेश पहुँच गया तो स्वाद कलिकायें भी जैसे बावरी हो उठीं! उस पर प्यारी सखियों का साथ हो तो कहना ही क्या!
वैसे इसे 'चूर-चूर पराँठा' कहते हैं और इसे जब दाल मखनी और रायते के साथ खाया जाता है उस समय चेहरे पर खिली मुस्कान, तृप्ति के जिस मधुर भाव का संचार कर वातावरण में सरगम की तरह बज उठती है; उसे ही परम सुख कहते हैं जी.
इस दिव्य ज्ञान का आभास होते समय हमें सचेत करते मस्तिष्क विभाग के कुछ तंतु पछाड़ें खा-खाकर याद दिलाते रहे कि प्रीति बेन यह भोजन आपके स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं! पर दिल और दिमाग़ की लड़ाई में जो इंसान सदैव दिल के साथ खड़ा होता आया है वो ऐसे बेहूदा तंतुओं की बातों में क्यों आये भला!
अतः वर्ड ट्रेड पार्क,जयपुर के हे चूर-चूर पराँठे.... जग घूमिया थारे जैसा न कोओई 😍
मोरल: महीने में एक-दो बार यदि आपकी आत्मा आपको धिक्कारे, लानत भेजे और सौ बार कहे कि "तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता!"
तो ज़िंदा हो तुम! 😝😎
- प्रीति 'अज्ञात'
#जयपुर #चूर-चूर पराँठा#हिन्दुस्तानी_स्वाद 

सोमवार, 10 सितंबर 2018

'बंद' आँखों से विनाश की गली में भटकता विकास

'बंद' विकास की रामायण का धुँधला स्वप्न संजोये हुए विनाश के महाभारत की सत्यापित तस्वीर है. यह प्रजा का, प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा मचाया गया वह क्रूर आतंक है जिसकी डोर राजा बनने की लालसा पाले हर नेता के हाथ में होती है. बंद किसी एक राजनीतिक दल से सम्बंधित उपक्रम नहीं बल्कि यह सभी दलों का वह साझा प्रयास है जो सत्ता या विपक्ष में रहते हुए परिस्थितिनुसार अपनी-अपनी पाली बदल लेता है.
यह वह सोची-समझी घटना भी है जो निकम्मे, नाकारा लोगों की भीड़ जुटाकर विभिन्न पार्टियों द्वारा स्वहित में समय-समय पर आयोजित की जाती है स्पष्ट है कि इसका जनता की सुख-सुविधा से कोई लेना-देना नहीं होता। बंद का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र्रीय सम्पत्ति को तहस-नहस कर उसी कायराना मुँह से अपने अधिकारों की बात करना है जिससे यह 'हिंसक विरोध' को आंदोलन के रूप में प्रक्षेपित करने का निकृष्टतम प्रयास करता है!

बंद चाहे सत्ता का हो या विपक्ष का.....यह विकास का मार्ग कभी प्रशस्त नहीं कर सकता. तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा को विरोध नहीं गुंडागर्दी कहा जाता है. कैसी विडम्बना है कि जिनके अधिकारों की माँग के लिए इसका आह्वान किया जाता है वही वर्ग इसकी सबसे बुरी मार झेलता है. इस आह्वान को पुष्ट बनाने के लिए बसें जलाई जाती हैं, ट्रेन रोक दी जाती हैं, वाहनों की तोड़फोड़ होती है जाहिर है इस उग्र भीड़ का तो कोई भविष्य है नहीं; पर इनके ऐसे व्यवहार से इंटरव्यू/ परीक्षा के लिए जाते युवा का एक वर्ष ख़राब हो जाता है, अस्पताल जाते मरीज़ों की बीच राह ही साँसें टूट जाती हैं, निर्दोष बच्चे भयभीत हो माँ के आँचल में छुप जाते हैं. हर रोज अपनी रोटी कमाने को घर से निकले मजदूरों को उस दिन भूखे पेट ही सोना पड़ता है. ठेला चलाने वाले का सामान सड़कों पर बिखेर दिया जाता है और इस तरह विकास की आभासी चादर ओढ़े अपने अधिकारों की माँग करते ये दंगाई विनाश की घिनौनी तस्वीर हर जगह चस्पा कर आगे बढ़ लेते हैं. 

विशेषज्ञों द्वारा चर्चाओं में 'बंद' के सफ़ल/ असफ़ल होने की विवेचना प्रसारित होती हैं. प्रायः इस सफ़लता/असफ़लता को आक्रामकता के तराजू में तौला जाता है और इस तरह घनी आबादी वाला यह देश एक और छुट्टी मनाकर स्वयं को धन्य महसूस करता है. इस अवकाश ने देश के विकास में कितना सहयोग दिया उसका आंकलन कर सके; यह साहस कभी किसी में देखने को नहीं मिला.

क्या कभी किसी ने सोचा है कि -
राष्ट्रीय त्योहारों पर बंद का आह्वान क्यों नहीं होता?
धार्मिक उत्सवों (दीवाली, ईद, रक्षाबंधन, संक्रांति इत्यादि) के समय भी किसी बंद की घोषणा नहीं होती! पूरा कमाने के बाद ही लोग साथ देते हैं भले ही फिर दिहाड़ी पर जीने वालों के यहाँ चूल्हा जले, न जले!
चुनाव प्रचार के समय तो बंद भूल ही जाइये, उल्टा दिन-रात का भी पता नहीं चलता!
आंदोलन के नाम पर हड़ताल/ बंद और इस बंद की आड़ में हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी; लगता है हिंदुस्तान की यही नियति रह गई है. अधिकारों की माँग लेकर, 'भले लोग' धरने पर बैठते हैं या दुकानों के शटर गिराते हैं. सारे कामकाज ठप्प करते हैं और इसका अंत पुलिसिया बल-प्रहार, फिर बचाव के लिए जनता का उन पर पथराव, जिसके बदले में गोलीबारी, आँसू गैस और फिर सरकारी संपत्ति को अग्नि के हवाले कर देना! हर बार यही क्रम दोहराया जाता है ! परिणाम ?
विचार कीजिये, 'बंद' का लाभ आख़िर किसे मिलता है? कब मिलता है? और क्या मिलता है??
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 5 सितंबर 2018

#शिक्षक_दिवस

क्लेमर : नीचे दी गई घटनाएँ पूर्णत: सत्य हैं और इनका हर 'जीवित' या 'मृत' व्यक्ति से सीधा संबंध है. इसे पढ़कर आपका किसी अपने को याद करना महज़ संयोग नहीं, बल्कि हक़ीक़त है. इसे खुद से जोड़कर ज़रूर देखें!

'शिक्षक-दिवस' पर याद आते हैं सभी गुरुजन, आचार्य जी, सर, मेडम और कुछ बेतुके नाम भी, जो हम सभी मस्ती मज़ाक में अपने प्यारे शिक्षकों को दे दिया करते थे. इससे उनको दिया जाने वाला सम्मान कम नहीं होता था, वो तो सबको आगाह करने के लिए बस हमारा 'कोड-वर्ड' हुआ करता था. खीखीखी 😁
हाँ, इस मामले में लड़कियाँ भी कम नहीं होतीं. पढ़ाई में काफ़ी अच्छी रही हूँ, तो ऐसी बातों में भी दिमाग़ लगना तय ही था. तब हमारी टोली के अलावा ये नाम किसी को पता नहीं होते थे, तो हम बड़ी ही सहजता से सबके सामने भी वो नाम ले लिया करते थे. कई बार तो 'टीचर' के सामने भी! 😜असली नाम तो आज भी नहीं बताऊंगी, क्योंकि उनके लिए हृदय में अभी भी उतना ही सम्मान है और जैसी भी इंसान बनी हूँ, अपने माता-पिता और शिक्षकों द्वारा दी गई सीख को अपनाकर ही.

खैर..इस लिस्ट में सबसे ऊपर नाम आता है, हम सबके पसंदीदा 'पॉपिन्स' सर का..उनकी आँखें खूब गोल-मटोल थीं और हर विषय पर बखूबी बोलते थे, मैं उनकी प्रिय विद्यार्थी थी, सो अपनी पसंदीदा गोली का ख़िताब ही हमने उन्हें दे डाला. नये जमाने के लोगों को बता दें, कि ये संतरे के स्वाद वाली अलग-अलग रंगों की खट्टी-मीठी गोलियाँ हुआ करती थीं, जो बाद में और फ्लेवर में भी आने लगीं थीं. इतने ही शानदार थे, हमारे 'पॉपिन्स' सर! 😊

'कन्हैया' सर साँवले-सलौने, प्यारी-सी मुस्कान वाले हुआ करते थे, ये हमें पढ़ाते भी नहीं थे. लेकिन कॉलेज में आते-जाते बस एक बार इनके दर्शन हो जाते, तो बस...हम सबका दिन बन जाता था. एकदम धन्य टाइप फीलिंग आ जाती थी. कई बार किसी मित्र को वो नहीं दिखते, और हमें पूछ बैठती तो हम बड़े ही आराम से बता देते..अभी नहीं मिलेंगे. वो तो फलानी क्लास में बाँसुरी बजा रहे हैं. वैसे इसे सामान्य भाषा में 'पीरियड लेना' भी कह सकते हैं. 😌

'मधुमती' और 'चिड़िया' जी भी थीं. एक के लड्डूनुमा केशों की, मोगरे के महकते फूल बाउंड्री बना दिया करते थे, पढ़ाई के साथ-साथ बगीचे की खुश्बू से हम सब खूब मंत्र-मुग्ध हो उठते. जिस दिन वो गजरा लगाना भूल जातीं, उनसे ज़्यादा अफ़सोस तो हमें होता..यूँ लगता था, मानो रेगिस्तान में ऊँट की तरह घिसटते हुए चले जा रहे हैं. 😞 वक़्त काटे न कटता ! बार-बार घड़ी को घूरते, तो वो हमें घूरने लगती. गोया कह रही हो,' मैं तो एक मिनट में 60 बार ही चलूंगी, तेरा मन हो तो ब्लेंडर में घुमा दे. 'चिड़िया' जी भी बहुत अच्छी थीं. बस, उनकी फिक़्र बहुत होती थी. वो डाँटने के बाद मुँह बंद करना भूल जाती थीं. हम सबको डर लगता, मच्छर न चला जाए. Well, It was a serious concern, you know! सोचो, क्या हाल होता होगा, उस स्टूडेंट का..जिसको ज़्यादा हँसने की वजह से खड़ा किया गया हो और उसके खड़े होते ही हम भोलेपन में टीचर से कहें..'मेम, देखिए ना वो पेड़ पर कित्ती सुंदर चिड़िया बैठी है' 😝...उफ्फ, उसकी विवशता पर कलेजा मुँह को आता था. क़िस्मत है कि पूरी स्कूल, कॉलेज लाइफ में कभी किसी से कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ. In fact, सबको हमारी इस कला पर बड़ा नाज़ था! 😞 एक सच यह भी है कि बचपन में हम भी चिड़िया ही थे.

'बैंगन राजा' का त्वचा के रंग से कोई लेना-देना नहीं है, हाँ, बैंगनी उनका पसंदीदा रंग लगता था और मजेदार बात ये थी कि वो स्कूटर से उतरने के बाद भी बैंगनी हेल्मेट नहीं उतारते थे, 😕 इसलिए मजबूरी में उन्हें ये नाम देना पड़ गया था. उनके बारे में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
Volcano हमारे H.O.D.हुआ करते थे, भयानक गुस्सा और उसके बाद सब एकदम शांत..कुछ देर हम कंपकंपाते और फिर उर्वर भूमि में खूब दिल लगाकर पढ़ते.

बहुत-सी बेहतरीन यादें हैं, यादगार किस्से हैं. मैं स्वयं भी एक वर्ष, कॉलेज में बॉटनी पढ़ा चुकी हूँ. सच्ची बोलूं तो, अपने स्टूडेंट्स के अच्छे मार्क्स आने की चिंता के अलावा मुझे इस बात की भी बड़ी उत्सुकता रहती थी, 😰कि इन 'दुष्टों' ने मेरा नाम क्या रखा होगा! अपनी ग़लतियों का फल, इसी जन्म में मिलना चाहिए ना! वैसे अच्छे थे सभी और सम्मान भी खूब करते थे, पर वो गुण तो मुझमें भी थे..तो भी मैं कहाँ मानी!😜
खैर...'गुरु-शिष्य' परंपरा भी सच है और ये भी होता ही है...हर समय, हर कोई सज्जन नहीं हो सकता है, शैतानी इस उम्र का अहम हिस्सा है. आज भी ये 'दिवस' वगैरह मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. अगर ये तिथियाँ और दिवस न हों, तो हमारे और चींटी के जीवन में फ़र्क़ ही क्या? बस मेहनत करो और रेंगते रहो......हँसोगे कब? 😮

* MORAL : हर पल, हर दोस्त, हर रिश्ता बहुत कुछ सिखाता है. एक बच्चा अपनी मासूमियत से बहुत कुछ सिखा सकता है और वृद्ध अनुभवों से. सीखने में झिझक कैसी? यही तो जीवन है....जिसकी कक्षा में प्रतिदिन शिक्षक बदलते हैं! अपने पसंदीदा शिक्षक का साथ कभी न छोड़ना, ताने देंगे..डाँटेगे भी...... पर उनसे ज़्यादा परवाह और कोई नहीं करता! है, न!!
 HAPPY TEACHERS' DAY 😍
- प्रीति 'अज्ञात'.... Repost (2014) 
*चित्र में आँखों के ऊपर जो काँच की दो कटोरियाँ दिख रहीं वो चश्मा है जी.
#TEACHERS_DAY #शिक्षक_दिवस

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

करोड़पति कोई भी बने बस ये जादू यूँ ही चलता रहे!

अमिताभ, भारतवर्ष के उन चुनिंदा लोगों में से हैं जिन्हें सुनकर भी हिंदी सीखी जा सकती है. भाषा की सभ्यता और बोलने का सलीक़ा क्या होता है, तमाम सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए भी एक अनुशासित जीवन कैसे जिया जाता है, कई दशकों से अमित जी इसके जीते-जागते साक्ष्य  बन हमारे जीवन को प्रेरणा देते रहे हैं. कार्य के प्रति उनकी मेहनत, लगन, निष्ठा और अनुशासन देख अच्छे-अच्छे भी उनके सामने पानी भरते नज़र आते हैं. पर यहाँ यह भी जानना आवश्यक है कि इतने दशकों से सभी के दिलों पर कोई यूँ ही राज नहीं कर लेता! इस क़ाबिल बनने के लिए वर्षों की अपार मेहनत और संघर्ष की भीषण आँधियों से गुज़रना होता है. अमिताभ भी सारी मुश्किलों को झेलते हुए अपने बुरे समय से जूझकर आगे बढ़ते रहे. इस उम्र में भी KBC के अब तक के सभी सीजन की लगातार सफ़लता और दसवें अध्याय की शानदार शुरुआत सारी कहानी स्वयं ही कह देती है.

कहते हैं किसी इंटरव्यू में नसीर साब ये कह गए कि "अमिताभ बच्चन का सार्थक सिनेमा में कोई विशेष योगदान नहीं रहा, क्योंकि वे विशुद्ध व्यावसायिक अभिनेता हैं."
कोई और होता तो निश्चित रूप से यह सुनकर उखड़ ही जाता. तो पत्रकार भी इस बात पर बच्चन जी की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक थे पर अमिताभ बच्चन ने कहा, "जब नसीरुद्दीन शाह जैसा अभिनेता कुछ कहता है तो वे प्रतिक्रिया देने से बेहतर आत्म-मंथन करना चाहेंगे."
इसे कहते हैं शिष्टता और विनम्रता! वे चाहते तो अभिमान, आनंद, चुपके-चुपके सरीखी दसियों श्रेष्ठ फिल्मों के नाम गिना सकते थे और बाद में चीनी कम, ब्लैक, पा, सरकार, पिंक, पीकू,102 नॉट आउट इत्यादि भी. यह सूची अभी मीलों बढ़ती ही जानी है.

'कौन बनेगा करोड़पति' जब प्रारंभ ही हुआ था तो उस समय हर शहर का माहौल कुछ ऐसा होता था जैसे कि देश भर में अघोषित कर्फ्यू लग गया हो. सबको घर पहुँचने की बेहद जल्दी रहती थी. उससे पहले यह दुर्लभ दृश्य प्रति रविवार 'रामायण' के प्रसारण के समय देखने को मिलता था.
कुल मिलाकर सच तो यह है कि प्रतियोगी, प्रश्नोत्तर और भव्य सेट एक तरफ़...पर ये अमिताभ का जादू ही है जो KBC में आज भी सर चढ़कर बोलता है. 

जहाँ तक हम जैसे ज़बरदस्त प्रशंसकों की बात है तो अपना तो ये हाल है कि अमिताभ के ख़िलाफ़ कोई कहकर तो देखे, हम तुरंत ही उसे अपनी नजरों से नीचे गिरा देते हैं. पहले जब  परदे पर अमिताभ की एंट्री होती थी तो लड़कों की सीटियों की आवाज़ लगातार सुनाई देती और सिक्के उछालते हुए तालियाँ पीटी जाती थीं. सबका कुदकने का ख़ूब मन करता पर हम तो मैनर्स के पीछे मरे जाते थे, सो मंद-मंद सॉफिस्टिकेटेड टाइप मुस्कान ही रख पाते थे. अब टीवी के सामने नाच भी सकते हैं. हमारी पीढ़ी उन लोगों का प्रतिनिधित्त्व  करती है जो अमिताभ के युग में ही जन्मे और उनकी फिल्मों के साथ-साथ आगे बढ़ते रहे. 

बहुत-सी बातें शेष हैं अभी.......
फ़िलहाल बस इतना ही कहेंगे कि "कौन कमबख़्त इन चैनलों की बहस देखने को टीवी चालू करता है. हम तो इसलिए रिमोट उठाते हैं कि सदी के महानायक की आवाज़ सुन सकें, उन्हें देख सकें, कुछ पल सुकून से जी सकें, ज्ञान के दो घूँट पी सकें और उम्र के हर दौर को ज़िंदादिली से जीने की प्रेरणा ले सकें!"
करोड़पति कोई भी बने बस ये जादू यूँ ही चलता रहे! और क्या!
- प्रीति 'अज्ञात'
#KBC #अमिताभ बच्चन #ज्ञान का दसवाँ अध्याय #कौन_बनेगा_करोड़पति

शनिवार, 1 सितंबर 2018

गोलगप्पा: हाय! इस पर किसी को प्यार क्यों न आये भला!

हम भारतीयों को तीन बातों से बड़ी तृप्ति मिलती है-पहला गोलगप्पे खाने से, दूसरा पाकिस्तान को हराने से और तीसरा फ्री में कुछ मिल जाने से.आज पहले की बात करते हैं -
गोलगप्पा, ज़िंदाबाद है, ज़िंदाबाद था और ज़िंदाबाद रहेगा!
वैसे तो गोलगप्पा किसी परिचय का मोहताज़ नहीं और यदि आपने अब तक इसका नाम नहीं सुना है तो आपको स्वयं ही अपने ऊपर देशद्रोह का आरोप मढ़, चुल्लू भर पानी ले यह देश छोड़ देना चाहिए. कुल मिलाकर लानत है आपकी भारतीयता पर! भई, गोलगप्पे का भी अपना इतिहास है, समझिये उसे पर पिलीज़ बदलियेगा मत!
सब जानते हैं कि हरदिल अजीज गोलगप्पे को देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. पानी पूरी, पकौड़ी, पानी के बताशे, गुपचुप, पुचका, गोलगप्पे, फुल्की और कितने नामों से इसे पहचाना जाता है पर 'नाम जो भी, स्वाद वही चटपटा!'  

'गोलगप्पा' ये नाम ही इतना क्यूट है जैसे कि कोई गोलू-मटोलू बच्चा मुँह फुलाये बैठा हो. हाय! इस पर किसी को प्यार क्यों न आये भला!
गोलगप्पे की कहानी इतनी पुरानी है कि कभी-कभी तो लगता है कि जैसे यह सतयुग से चला आ रहा है. उफ़ ये छोटे-छोटे पुचके जब आलू और चने के साथ तीखे, चटपटे पानी में  लहालोट होते हैं तब हर भारतीय की स्वाद कलिकायें एक ही सुर में जयगान करती हैं "गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त". 
हमारा पाचन तंत्र भी बचपन से इस तरह ही डेवलॅप होता रहा है कि उसमें गोलगप्पे के लिए विशिष्ट स्थान स्वतः ही आरक्षित रहता आया है. अच्छी बात ये है कि अब तक इस पर किसी क़ौम ने अपना कॉपीराइट नहीं ठोका है वरना तो सियासतदां इस पर भी बैन लगा इसे पाचन सुरक्षा के लिए ख़तरा बता रफ़ा-दफ़ा कर दिए होते! ख़ुदा न करे पर यदि किसी ने इसके विरुद्ध एक क़दम भी उठाया न तो उसे इस देश की तमाम जिह्वा कलिकाओं का ऐसा श्राप लगेगा, ऐसा श्राप लगेगा कि वह अपनी सुधबुध के साथ सारे स्वाद भी खो बैठेगा. यूँ मैं धरना, आंदोलन टाइप बातों में क़तई विश्वास नहीं करती पर भइया गोलगप्पे की साख़ पे आँच भी आई न तो फिर हम क्रांतिकारी बनने में एक पल की भी देरी नहीं करेंगे.

ये सब हम यूँ ही नहीं कह रहे! दरअसल गोलगप्पे से देशवासियों का असीम भावनात्मक जुड़ाव रहा है. यही एक ऐसा फास्टफूड है जिसने अमीर-गरीब, ऊँच-नीच की गहरी खाई को पाटने का काम किया है. यह उम्र, जाति, धर्म का भेदभाव किये बिना सबको एक ही रेट में, एक-सा स्वाद देता है. यहाँ साइकिल सवार हो या बड़ी गाड़ी के मालिक सब एक साथ पंक्तिबद्ध नज़र आते हैं. कोई असल का भिक्षुक हो या करोड़पति; कटोरी तो साब जी सबके हाथ में होती ही है.
महँगाई चाहे कितनी भी बढ़ गई हो पर यही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जो अब भी सबके लिए अफोर्डेबल है. दस रुपये में कोई चार देता है तो कोई छह, उस पर मसाला वाली अलग से. इतनी उदारता तो उदारवादी संगठनों में भी देखने को नहीं मिलती.  और जहाँ तक विकास की बात है तो वो भी इसने जमकर कर लिया है. पहले रेगुलर मसाला पानी ही आता था और हम खुश हो गटागट पी लिया करते थे पर फिर भी इसने अपने विकास का ग्राफ ऊँचा चढ़ा पुदीना, नींबू, अदरक, लहसुन, जीरा, हाज़मा हज़म के फ्लेवर भी इसमें जोड़ दिए हैं. ये जो लास्ट वाला 'हाज़मा हज़म' है न, ये उन जागरूक नागरिकों के लिए ईज़ाद किया गया है जो अपने बढ़ते वज़न को लेकर चिंता पुराण खोल लेते हैं. हाज़मा हज़म खाते ही इन्हें गोलगप्पे खाने के अपराध बोध से कुछ इस तरह मुक्ति मिल जाती है जैसे कोई महापापी पुष्कर में डुबकी लगा स्वयं को संत महात्मा की केटेगरी में डाल मुख पर वज्रदंती मुस्कान फेंट लेता है.

अच्छा, हम लोग वैसे तो बचपन से ही लम्बी- लम्बी लाइनों में लगने को प्रशिक्षित हैं लेकिन यही वो मुई नासपीटी जगह है जहाँ हमारे सब्र का बाँध टूट जाता है. प्रतीक्षा में खड़े लोग गोलगप्पे देने वाले को यूँ तकते हैं जैसे चकोर ने भी आज तक चाँद को न देखा होगा. 'अच्छे दिन कब आयेंगे?' की चिंता में घुलते लोग भी सब कुछ भूल यही जाप करते हैं कि 'मेरा नंबर कब आएगा?'. कुछ एक्टिविस्ट टाइप लोग तो ये भी गिनते रहते हैं कि फलां हमारे बाद आया, कहीं इसका नंबर पहले न लग जाए. इसी को सत्यापित करने की कोशिश में वो ठेले वाले की ओर लाचार, प्रश्नवाचक नज़रों से से देखते हैं और फिर उसकी मुंडी के सकारात्मक मुद्रा में मात्र दस डिग्री के कोण से झुक जाने पर ही ये अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होकर साक्षात् विजयी भाव को धारण करते हैं.
 फिर भी प्रतीक्षारत लोग खड़े-खड़े प्रश्नों के इस दावानल से तो जूझते ही रहते हैं. 'भैया, मसाला तो और है न?'
 'उफ्फ, ये लोग कित्ता खाते हैं!'
'अपन पाँच  मिनट पहले आ जाते, तो अच्छा था. कहीं ठेला ही न बंद कर दे!' 
और जब अपना टर्न आया तो....हे हे हे, भैया आलू और भरो न थोड़ा सा, नमक भी डाल दो और आराम से खिलाओ, इत्ती जल्दी-जल्दी मत दो, हमको ट्रेन नहीं पकड़नी है....खी खी खी. दोना रखा करो. उसमें खाने में और मज़ा आता है.
इश्श! इतना अपनापन झलकता है कि उई माँ! कहीं नज़र ही न लग जाए इस अपनापे को!
और फिर प्रथम गोलगप्पे के मुँह में जाते ही अहा! सारी क़ायनात एक तरफ....कैसा चमचमाता है, ये चेहरा, सारी दुनिया का नूर छलकता है! जुबां मस्तिष्क तक ये गीत भेजने को लालायित हो उठती है, "तुम आ गए हो, नूर आ गया है/ नहीं तो चराग़ों से लौ जा रही थी" उधर से भी लपककर तुरंत जवाब आता है,"जीने की तुमसे, वजह मिल गई है बड़ी बेवजह ज़िन्दगी जा रही थी." 

नैतिक शिक्षा: उपर्युक्त वर्णन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सत्ता और विपक्ष को एकसूत्र में बाँधने का काम गोलगप्पा ही कर सकता है. इसी के मंच पर खड़े होकर समस्त भारतवासी एक दिखाई देते हैं. अतः हमें इसे राष्ट्रीय स्वाद्कलिका योजना के तहत राष्ट्रीय तेजाहार (फ़ास्ट फ़ूड) घोषित करवाने के लिए संगठित होना ही पड़ेगा. जय भारत!
- प्रीति 'अज्ञात'
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