मेरा जन्म गूगल युग से दो दशक पहले ही हो गया था और तब स्कूल के अलावा ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र सुलभ माध्यम पुस्तकें ही थीं। हाँ, दूरदर्शन ने भी चाहे-अनचाहे मस्तिष्क की माँसपेशियों को उद्वेलित करना प्रारम्भ कर दिया था। रामायण, महाभारत ने न केवल हमें उन घटनाओं की बारीक़ियों से परिचित कराया बल्कि सामाजिकता का प्रथम पाठ भी मैंनें यहीं से सीखा है। यहाँ मैं उस सीरियल की नहीं अपितु उस माहौल की चर्चा कर रही हूँ जो उन दिनों बना करता था। तब सबके घरों में टीवी भले ही नहीं होता था पर अपनेपन की डोर इतनी सहज थी कि सब अपने-आप नियत समय पर इकट्ठे हो जाते।
औपचारिकताओं की शुष्क मरुभूमि से कोसों दूर हर व्यक्ति के बैठने के लिए जगह रखी जाती। बड़े बुज़ुर्ग लोगों के लिए सोफ़ा स्वतः ही छोड़ दिया जाता, महिलायें पीछे दीवान पर बैठ जातीं और बच्चे फ़र्श पर अपनी-अपनी सीट निर्धारित कर लेते। ब्रेक में सब रायचंद बनते और साथ में ख़ूब हँसते थे। कुछ बच्चे सरपट दौड़ते हुए जाते और फिर निक्कर पकड़े-पकड़े दौड़े आते कि कहीं कुछ छूट न गया हो! भुक्खड़ बच्चे हाथ में पुंगी बनाकर कचर-पचर खाते रहते पर क्या मज़ाल कि हिल भी जाएँ! 😜बस सब दम साधे देखते और ख़त्म होते ही प्रसन्न मन से विदा लेते।
हम लोग तब एक मकान में फर्स्ट फ़्लोर पर रहते थे। यहाँ हमसे और भी किरायेदार थे। रविवार शाम को सब आते थे। ठीक से याद नहीं पर शायद शाम 6 के आसपास फ़िल्म शुरू होती थी और उसके 10 मिनट पहले से सबकी आवाजाही। सबसे प्यारी बात ये थी कि हमारे ठीक पीछे वाले घर के लोग भी अपनी छत पर बैठ वहीं से टीवी के कार्यक्रम देखते थे क्योंकि हमारे ड्रॉइंग रूम का पीछे का दरवाजा उस ओर ही खुलता था। इसलिए हम लोग बैठने की व्यवस्था कुछ इस तरह से भी करते कि कोई उनको अड़े नहीं। हालाँकि गर्दन के दायें-बायें ज्यादा घुमाने पर वो निस्संकोच टोक ही दिया करते कि 😟"थोड़ा साइड में हो जाओ, देखने में दिक़्क़त आ रही।" और वो इंसान तुरंत ही अपनी पोजीशन एडजस्ट कर भी लेता था।
रामायण, महाभारत और पिक्चर के समय दो इंसान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। एक तो वो जो टीवी के बग़ल में स्टूल डालकर बैठता। उसका एक ही सवाल रहता था, "अब ठीक आ रहा है?" जिसके छह अलग-अलग उत्तर उसे हर बार मिलते पर अधिकांश लोग यही बोलते, "बस, थोड़ा और!" इस थोड़े और के करते ही बुज़ुर्ग अंकल जी (जो बाद में फूफा बने) की टिप्पणी आती, "पहले ज्यादा सही आ रहा था।" 😑उस समय स्टूल वाले बन्दे के भुनभुनाने की मद्यम ध्वनि अहसासों की जीवंतता बनाये रखती।
दूसरा महत्त्वपूर्ण इंसान वो होता था जो दरवाजे के पास बैठता था। इसका काम था कि जैसे ही कोई दरवाजा खटखटाये, इसे दौड़कर जाना है और सेकंड के हजारवें हिस्से में वापिस आकर फिर चुपचाप बैठ जाना है। वो आँखों के इशारे से बता देता कि कौन आया था पर बेचारे को बोलने की अनुमति ब्रेक में ही मिलती थी। यहाँ यह भी स्पष्ट करती चलूँ कि इन कार्यक्रमों के दौरान आये हुए व्यक्ति को (जिसे टीवी नहीं देखना होता था) अत्यंत हिक़ारत भरी नज़रों से देखा जाता था और उसे घड़ों भर-भर बददुआएँ भी मिलतीं। 😠मतलब कुछ ऐसा कि "कौन है ये नामुराद जो ये देखता ही नहीं!" तब छोटे घर थे भई और टीवी रूम जैसी बात मध्यम वर्ग की कल्पना से भी परे थे।
मैच के दौरान भी कुछ ऐसा ही समां बँधता।
अरे हाँ, एक और बंदा जिसके बिना टीवी देखने की ये पूरी परिकल्पना ही निरर्थक सिद्ध होती! वो था एंटीना ठीक करने वाला लड़का। ये घर के सबसे छोटे पर सक्रिय बच्चे हुआ करते थे। जिनका बचपन एंटीना घुमाते-घुमाते ही जवानी की दहलीज़ तक पहुँचा है। इन्हें न दिन का होश, न रात का। न कड़ी धूप, न बारिश का। ठिठुरती सर्द रातों में भी कम्बल ओढ़े छत तक जाना ही इनका प्रारब्ध रहा। 😝उस पर बोरी भर-भर लानतें भी इनके ही हिस्से आतीं। ध्यान से देखियेगा यदि आपको अपने आसपास कोई जलकुकड़ा, बात-बात में भिनकने वाला, पतला-दुबला, सुराहीदार गर्दन धारण किये पुरुष दिखाई दे तो समझ जाइये कि ये वही एंटीना ठीक करने वाला बालक है जो अब तक इस अभिशाप से मुक्त नहीं हो सका है। उसकी गर्दन को ये कमनीयता एंटीना को महबूबा की तरह देखने से प्राप्त हुई है और अगरबत्तीनुमा काया उस यात्रा का प्रमाण हैं जो उसे घरवालों के कहने पर एंटीना ठीक करने के लिए अरबों-ख़रबों बार सीढ़ियों से चढ़ने-उतरने के कौशल के चलते हासिल हुई है। 'स्किल इंडिया' का कॉन्सेप्ट तो तबका है जी।
अच्छा! यदि आप यह जानना चाहते हैं कि बर्र के छत्ते में हाथ डालने या ततैया के काटने से कैसा महसूस होता है तो एक बार इस व्यक्ति के पास जाकर बस इतना कह दें कि "भैया, जरा एंटीना ठीक करोगे?" 😛
नारायण, नारायण
है दखे येलिके टवकारु (उल्टा बोलने की जो हमारी कला है वो भी दूरदर्शन की ही देन है)
विराम! रोटी भी बेलनी हैं अभी! 😞
- प्रीति 'अज्ञात'
औपचारिकताओं की शुष्क मरुभूमि से कोसों दूर हर व्यक्ति के बैठने के लिए जगह रखी जाती। बड़े बुज़ुर्ग लोगों के लिए सोफ़ा स्वतः ही छोड़ दिया जाता, महिलायें पीछे दीवान पर बैठ जातीं और बच्चे फ़र्श पर अपनी-अपनी सीट निर्धारित कर लेते। ब्रेक में सब रायचंद बनते और साथ में ख़ूब हँसते थे। कुछ बच्चे सरपट दौड़ते हुए जाते और फिर निक्कर पकड़े-पकड़े दौड़े आते कि कहीं कुछ छूट न गया हो! भुक्खड़ बच्चे हाथ में पुंगी बनाकर कचर-पचर खाते रहते पर क्या मज़ाल कि हिल भी जाएँ! 😜बस सब दम साधे देखते और ख़त्म होते ही प्रसन्न मन से विदा लेते।
हम लोग तब एक मकान में फर्स्ट फ़्लोर पर रहते थे। यहाँ हमसे और भी किरायेदार थे। रविवार शाम को सब आते थे। ठीक से याद नहीं पर शायद शाम 6 के आसपास फ़िल्म शुरू होती थी और उसके 10 मिनट पहले से सबकी आवाजाही। सबसे प्यारी बात ये थी कि हमारे ठीक पीछे वाले घर के लोग भी अपनी छत पर बैठ वहीं से टीवी के कार्यक्रम देखते थे क्योंकि हमारे ड्रॉइंग रूम का पीछे का दरवाजा उस ओर ही खुलता था। इसलिए हम लोग बैठने की व्यवस्था कुछ इस तरह से भी करते कि कोई उनको अड़े नहीं। हालाँकि गर्दन के दायें-बायें ज्यादा घुमाने पर वो निस्संकोच टोक ही दिया करते कि 😟"थोड़ा साइड में हो जाओ, देखने में दिक़्क़त आ रही।" और वो इंसान तुरंत ही अपनी पोजीशन एडजस्ट कर भी लेता था।
रामायण, महाभारत और पिक्चर के समय दो इंसान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। एक तो वो जो टीवी के बग़ल में स्टूल डालकर बैठता। उसका एक ही सवाल रहता था, "अब ठीक आ रहा है?" जिसके छह अलग-अलग उत्तर उसे हर बार मिलते पर अधिकांश लोग यही बोलते, "बस, थोड़ा और!" इस थोड़े और के करते ही बुज़ुर्ग अंकल जी (जो बाद में फूफा बने) की टिप्पणी आती, "पहले ज्यादा सही आ रहा था।" 😑उस समय स्टूल वाले बन्दे के भुनभुनाने की मद्यम ध्वनि अहसासों की जीवंतता बनाये रखती।
दूसरा महत्त्वपूर्ण इंसान वो होता था जो दरवाजे के पास बैठता था। इसका काम था कि जैसे ही कोई दरवाजा खटखटाये, इसे दौड़कर जाना है और सेकंड के हजारवें हिस्से में वापिस आकर फिर चुपचाप बैठ जाना है। वो आँखों के इशारे से बता देता कि कौन आया था पर बेचारे को बोलने की अनुमति ब्रेक में ही मिलती थी। यहाँ यह भी स्पष्ट करती चलूँ कि इन कार्यक्रमों के दौरान आये हुए व्यक्ति को (जिसे टीवी नहीं देखना होता था) अत्यंत हिक़ारत भरी नज़रों से देखा जाता था और उसे घड़ों भर-भर बददुआएँ भी मिलतीं। 😠मतलब कुछ ऐसा कि "कौन है ये नामुराद जो ये देखता ही नहीं!" तब छोटे घर थे भई और टीवी रूम जैसी बात मध्यम वर्ग की कल्पना से भी परे थे।
मैच के दौरान भी कुछ ऐसा ही समां बँधता।
अरे हाँ, एक और बंदा जिसके बिना टीवी देखने की ये पूरी परिकल्पना ही निरर्थक सिद्ध होती! वो था एंटीना ठीक करने वाला लड़का। ये घर के सबसे छोटे पर सक्रिय बच्चे हुआ करते थे। जिनका बचपन एंटीना घुमाते-घुमाते ही जवानी की दहलीज़ तक पहुँचा है। इन्हें न दिन का होश, न रात का। न कड़ी धूप, न बारिश का। ठिठुरती सर्द रातों में भी कम्बल ओढ़े छत तक जाना ही इनका प्रारब्ध रहा। 😝उस पर बोरी भर-भर लानतें भी इनके ही हिस्से आतीं। ध्यान से देखियेगा यदि आपको अपने आसपास कोई जलकुकड़ा, बात-बात में भिनकने वाला, पतला-दुबला, सुराहीदार गर्दन धारण किये पुरुष दिखाई दे तो समझ जाइये कि ये वही एंटीना ठीक करने वाला बालक है जो अब तक इस अभिशाप से मुक्त नहीं हो सका है। उसकी गर्दन को ये कमनीयता एंटीना को महबूबा की तरह देखने से प्राप्त हुई है और अगरबत्तीनुमा काया उस यात्रा का प्रमाण हैं जो उसे घरवालों के कहने पर एंटीना ठीक करने के लिए अरबों-ख़रबों बार सीढ़ियों से चढ़ने-उतरने के कौशल के चलते हासिल हुई है। 'स्किल इंडिया' का कॉन्सेप्ट तो तबका है जी।
अच्छा! यदि आप यह जानना चाहते हैं कि बर्र के छत्ते में हाथ डालने या ततैया के काटने से कैसा महसूस होता है तो एक बार इस व्यक्ति के पास जाकर बस इतना कह दें कि "भैया, जरा एंटीना ठीक करोगे?" 😛
नारायण, नारायण
है दखे येलिके टवकारु (उल्टा बोलने की जो हमारी कला है वो भी दूरदर्शन की ही देन है)
विराम! रोटी भी बेलनी हैं अभी! 😞
- प्रीति 'अज्ञात'