यूँ तो मानव मस्तिष्क ही अपने-आप में सारी स्मृतियों को समेटे रखने के लिए पर्याप्त है. आँख मूँदकर बैठो तो बचपन से लेकर अब तक के सारे पलों की तस्वीर खिंचती चली जाती है. हँसी-ख़ुशी के पल, नाच-गाना, भाई-बहिनों के साथ मारकुटाई, झगड़ा, दोस्तों के साथ मस्ती और भी जाने क्या-क्या; सब किसी लाइट एन्ड साउंड शो की तरह चलने लगते हैं. लेकिन फिर भी तस्वीरों की अपनी एक ख़ास अहमियत होती है कि इसे आप सबके साथ बाँट सकते हैं. जब जी चाहे, देख सकते हैं. याद है न जब घर में album खोलकर बैठते हैं तो कैसे सारा घर इकट्ठा होकर हर तस्वीर की कहानी सुनाने बैठ जाता है और फिर घंटों उन्हीं स्मृतियों के पृष्ठ पलटते गुजर जाते हैं. कितना अच्छा महसूस होता है उस एल्बम को देखने के बाद!
सच! तस्वीरों ने हम सबको जोड़ रखा है. समुंदर पास की कहानी, पहाड़ पर चढ़ने की कहानी, जंगल में पेड़ की शाखा से झूलने के किस्से, पार्क, बाज़ार, फिल्म या यायावरी से जुड़ी तमाम बातें बस एक ही क्लिक से सामने आ जाती हैं. तभी तो कहते हैं, 'तस्वीरें बोलती हैं'.
कैमरा!! कितना सहज, सरल उपकरण लगता है लेकिन दो दशक पहले तक आम आदमी के लिए ये भी लक्ज़री ही था. इसकी विकास यात्रा के हम सब साक्षी हैं. विशिष्ट अवसरों पर सपरिवार फोटो खिंचाने जाना एक इवेंट की तरह होता था या फिर विवाह योग्य होते ही लड़के-लड़की की तस्वीर स्टूडियो में खींची जाती थी. बैकग्राउंड के लिए कश्मीर की सुरम्य वादियों से लेकर नकली ताजमहल तक के परदे उपलब्ध होते थे वहाँ. ब्याह-शादी में तीन-चार किलो की भारी-भरकम एल्बम बनती (अभी भी बनती है) थी जिसे देखने का सब ख़ूब बेसब्री से इंतज़ार करते.
बहुत बड़े या फिर मूवी कैमरे हुआ करते थे जिनका प्रयोग आसान नहीं था. कहीं घूमने जाते (दुर्लभ था उन दिनों) तो टूरिस्ट स्पॉट पर फोटोग्राफर हुआ करते थे. उनसे ही विभिन्न अदाओं में तस्वीरें खिंचवाई जातीं. बाक़ी किस्से बिना तस्वीरों के ही मसाला डाल सुना दिए जाते थे. आनंद और उत्साह से छलकते उन किस्सों का भी एक अलग रस था. अब उनमें वो मजा नहीं और उन फोटोग्राफरों का व्यवसाय भी समाप्तप्राय: है.
बाद में बच्चों के लिए टॉय कैमरा आया और हैंडी कैमरा आने के बाद हम जैसे अनाड़ी भी स्वयं को फोटोग्राफर समझने की गफ़लत में रहने लगे. राह अब भी आसान नहीं थी. फोटो खींचने के बाद, नेगेटिव के रोल को डेवलप कराने स्टूडियो देने जाना पड़ता और फिर वही हफ़्तों का चक्कर. ये चक्कर उतने ही दुखदायी होते थे जितने कि दर्ज़ी लोग लगवाते हैं. देखने के बाद और दुःख होता क्योंकि आधे फोटो तो ख़राब ही हो जाते पर पैसे पूरे लगते. इस तरह यह शौक़, बहुधा शोक में भी बदल जाया करता था.
डिजिटल कैमरे के आगमन ने क्रांति ला दी. तब तक लोन कंपनियों ने भी अच्छी पैठ बना ली थी. मध्यम वर्ग के लिए अब कैमरा भी भौतिक प्राथमिकताओं की सूची में प्रवेश कर चुका था.
इस समय हम मोबाइल के महान दौर में जी रहे हैं जहाँ मोबाइल खरीदते समय बाक़ी सुविधाओं से ज्यादा अच्छे कैमरे पर जोर दिया जाने लगा है, पिक्चर क्वालिटी, ज़ूम इत्यादि. स्वार्थ की हद ही समझिये इसे कि अब सभी का फोकस स्वयं पर अधिक रहता है. सेल्फी इसी का परिणाम है. अब किसी को किसी की ज़रूरत ही नहीं! बस, मुँह बिचकाया और क्लिक कर दिया.
कहीं-कहीं मोबाइल कैमरा निजता का हनन भी करता है और इससे सम्बंधित कोई कानून शायद बना ही नहीं है.
मोबाइल के इसी कैमरे से कितनी घटनाएँ वायरल होने लगी हैं. नेताओं की गद्दी पर बन आई है तो कहीं अपराध को बढ़ावा भी मिलने लगा है. अगर ये कहा जाए कि कुछ लोग इसे हथियार की तरह उपयोग में लेने लगे हैं तो भी ग़लत न होगा!
इंटरनेट के सुविधाजनक ऑफर्स के कारण कैमरे का प्रयोग आवश्यकता से अधिक होने लगा है और यह दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुका है. पर कहते हैं कि अति हर चीज़ की बुरी होती है. हालत यह है कि सेल्फी के चक्कर में पिछले सात वर्षों में हमारे देश के 259 लोगों की मृत्यु हो चुकी है. ये उपकरण जो हम सबका प्यारा हुआ करता है, अब जानलेवा भी हो गया है. लेकिन दोष किसका है? कहाँ से कहाँ आ गए हैं हम?
कैमरा हमारे सुखद पलों को सँजोने के लिए है कि हम उम्रभर उस उल्लास को बनाए रखें. आज 'राष्ट्रीय कैमरा दिवस' पर ढूँढ निकालिए अपनी सबसे शानदार तस्वीर या फिर सामने वाले से मुस्कुराकर कहिये कि बोलो cheese, कुछ यहाँ भी 'श्री' बोलने की सिफ़ारिश करते हैं. मैं कहती हूँ दांत निपोरते हुए 'ही ही' बोलिए जी!
- प्रीति 'अज्ञात'
#राष्ट्रीय_कैमरा_दिवस
सच! तस्वीरों ने हम सबको जोड़ रखा है. समुंदर पास की कहानी, पहाड़ पर चढ़ने की कहानी, जंगल में पेड़ की शाखा से झूलने के किस्से, पार्क, बाज़ार, फिल्म या यायावरी से जुड़ी तमाम बातें बस एक ही क्लिक से सामने आ जाती हैं. तभी तो कहते हैं, 'तस्वीरें बोलती हैं'.
कैमरा!! कितना सहज, सरल उपकरण लगता है लेकिन दो दशक पहले तक आम आदमी के लिए ये भी लक्ज़री ही था. इसकी विकास यात्रा के हम सब साक्षी हैं. विशिष्ट अवसरों पर सपरिवार फोटो खिंचाने जाना एक इवेंट की तरह होता था या फिर विवाह योग्य होते ही लड़के-लड़की की तस्वीर स्टूडियो में खींची जाती थी. बैकग्राउंड के लिए कश्मीर की सुरम्य वादियों से लेकर नकली ताजमहल तक के परदे उपलब्ध होते थे वहाँ. ब्याह-शादी में तीन-चार किलो की भारी-भरकम एल्बम बनती (अभी भी बनती है) थी जिसे देखने का सब ख़ूब बेसब्री से इंतज़ार करते.
बहुत बड़े या फिर मूवी कैमरे हुआ करते थे जिनका प्रयोग आसान नहीं था. कहीं घूमने जाते (दुर्लभ था उन दिनों) तो टूरिस्ट स्पॉट पर फोटोग्राफर हुआ करते थे. उनसे ही विभिन्न अदाओं में तस्वीरें खिंचवाई जातीं. बाक़ी किस्से बिना तस्वीरों के ही मसाला डाल सुना दिए जाते थे. आनंद और उत्साह से छलकते उन किस्सों का भी एक अलग रस था. अब उनमें वो मजा नहीं और उन फोटोग्राफरों का व्यवसाय भी समाप्तप्राय: है.
बाद में बच्चों के लिए टॉय कैमरा आया और हैंडी कैमरा आने के बाद हम जैसे अनाड़ी भी स्वयं को फोटोग्राफर समझने की गफ़लत में रहने लगे. राह अब भी आसान नहीं थी. फोटो खींचने के बाद, नेगेटिव के रोल को डेवलप कराने स्टूडियो देने जाना पड़ता और फिर वही हफ़्तों का चक्कर. ये चक्कर उतने ही दुखदायी होते थे जितने कि दर्ज़ी लोग लगवाते हैं. देखने के बाद और दुःख होता क्योंकि आधे फोटो तो ख़राब ही हो जाते पर पैसे पूरे लगते. इस तरह यह शौक़, बहुधा शोक में भी बदल जाया करता था.
डिजिटल कैमरे के आगमन ने क्रांति ला दी. तब तक लोन कंपनियों ने भी अच्छी पैठ बना ली थी. मध्यम वर्ग के लिए अब कैमरा भी भौतिक प्राथमिकताओं की सूची में प्रवेश कर चुका था.
इस समय हम मोबाइल के महान दौर में जी रहे हैं जहाँ मोबाइल खरीदते समय बाक़ी सुविधाओं से ज्यादा अच्छे कैमरे पर जोर दिया जाने लगा है, पिक्चर क्वालिटी, ज़ूम इत्यादि. स्वार्थ की हद ही समझिये इसे कि अब सभी का फोकस स्वयं पर अधिक रहता है. सेल्फी इसी का परिणाम है. अब किसी को किसी की ज़रूरत ही नहीं! बस, मुँह बिचकाया और क्लिक कर दिया.
कहीं-कहीं मोबाइल कैमरा निजता का हनन भी करता है और इससे सम्बंधित कोई कानून शायद बना ही नहीं है.
मोबाइल के इसी कैमरे से कितनी घटनाएँ वायरल होने लगी हैं. नेताओं की गद्दी पर बन आई है तो कहीं अपराध को बढ़ावा भी मिलने लगा है. अगर ये कहा जाए कि कुछ लोग इसे हथियार की तरह उपयोग में लेने लगे हैं तो भी ग़लत न होगा!
इंटरनेट के सुविधाजनक ऑफर्स के कारण कैमरे का प्रयोग आवश्यकता से अधिक होने लगा है और यह दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुका है. पर कहते हैं कि अति हर चीज़ की बुरी होती है. हालत यह है कि सेल्फी के चक्कर में पिछले सात वर्षों में हमारे देश के 259 लोगों की मृत्यु हो चुकी है. ये उपकरण जो हम सबका प्यारा हुआ करता है, अब जानलेवा भी हो गया है. लेकिन दोष किसका है? कहाँ से कहाँ आ गए हैं हम?
कैमरा हमारे सुखद पलों को सँजोने के लिए है कि हम उम्रभर उस उल्लास को बनाए रखें. आज 'राष्ट्रीय कैमरा दिवस' पर ढूँढ निकालिए अपनी सबसे शानदार तस्वीर या फिर सामने वाले से मुस्कुराकर कहिये कि बोलो cheese, कुछ यहाँ भी 'श्री' बोलने की सिफ़ारिश करते हैं. मैं कहती हूँ दांत निपोरते हुए 'ही ही' बोलिए जी!
- प्रीति 'अज्ञात'
#राष्ट्रीय_कैमरा_दिवस