लेकिन वो तब भी अपनी गरीबी, फटेहाली को भुला मस्त रहा. बोनट के ऊपर लगे साइलेंसर से अपनी फ्रिक्र को धुएं में उड़ाता रहा. अब वक़्त ने उसे दिल्ली की सड़कों पर लाकर खड़ा कर दिया तो दरद होने लगा सबको. और ऐसा दर्द कि बर्दाश्त ही न हो पा रहा जी. कितने दोग़ले लोग हो यार कि सारा क्रेडिट अन्नदाता को और लानत-मलानत ट्रैक्टर की. भई, वाह! आप तो बम्पर ताली के हक़दार हैं जी.
बताइए, इतनी दूर से चलकर आया और आप कहते हैं कि 'सड़क किनारे चुपचाप खड़े रहो.' मतलब वो वही खेत देखता रहे, जिनसे उकताकर थोड़े चेंज के लिए वह घर से निकल भागा? ये कुछ ज्यादा ही एक्सपेक्ट न कर रहे आप उससे? आई मीन, टू मच हो गया है ये तो. अब ये आप पर है कि आप इसे मासूम के पक्ष में दलील समझें या बिना शर्त माफ़ीनामा.
लेकिन बीते दिनों की घटनाओं के बाद ट्रैक्टर की जो बेइज़्ज़ती हुई है उससे वह भारी दुःख में भर गया है. बेचारा, बस एक दिन के लिए तो दिल्ली आया था, चाह रहा था कि पूरी राजधानी देख ले. हमारा फ़र्ज़ बनता था कि उसे पूरे शहर की सैर कराते. लेकिन पुलिसवालों ने बैरिकेड लगा दिए. किसी को भी गुस्सा आ जाएगा. अब देखो न, अति उत्साह में अपने गांव का छोरा नाहक ही बदनाम हो गया.
आपको लगता है कि Tractor ने बदला character लेकिन एक बार भी सोचा कि उसका दिल कितनी बार रोया होगा? देखिए बेचारा कल से 'हम बेवफ़ा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके' गुनगुना रहा है. समय किसी को क्या से क्या बना देता है, साब! सोचने वाली बात ये भी है कि जिन्होंने ट्रैक्टर परेड की इजाजत दी, उनको देखना चाहिए था कि ये नन्हा फ़रिश्ता, शहर में चल पाएगा या नहीं.
सम्बंधित विभाग के अधिकारियों को राजधानी की चकाचौंध में उसके खो जाने का अंदेशा क्यों न हुआ पहले से ? भूल गये क्या बचपन के उस मेले को जिसमें लाल शर्ट और काली निक्कर पहने, खोया हुआ बच्चा पुलिस चौकी के पास पछाड़े खाता मिलता है. बस, डिट्टो ऐसे ही ये भोलू भी पाया गया. रास्ता भटक गया था तो लोगों ने उसे किले के पास पहुंचा दिया.
सबको पता था कि पुलिस उधरिच मिलेगी और इसे घर भिजवाने में दिल से सहायता भी करेगी. गांव में तो अलाव भी था. वहां सड़क किनारे बेचारा कडाके की सर्दी में ठिठुरता रहा. क्या पता, धूप सेंकने ही निकल गया होगा मेरा बच्चा. अब कोरोना काल में विटामिन-डी की महत्ता से तो आप भी इंकार नहीं कर सकते.
वो मासूम अभी अपने दुःख से बाहर निकलने का रास्ता खोज ही रहा था कि गांव से ट्रॉली मेम का कॉल आ गया. उन्होंने अलग ही लेवल का गदर मचा रखा है. इस मासूम के ज़ख्मों पर रुई का ठंडा फाहा रखने की बजाय, नमक नींबू निचोड़ एकदम मसलकर रख दिया है, बेचारे को.
सरसों के खेत में, धूप लेते हुए अपने चीनी मोबाइल से उन्होंने जो कड़वे स्वर निकाले हैं न कि भगवान बचाए ऐसी ट्रॉलियों से. कह रहीं हैं, 'पिताजी ठीक ही कहत रहे. बिना ट्रॉली वाला ट्रैक्टर छुट्टा सांड हो जाता है. वो का कहत हैं 'Men will be men.' तुमऊ शहर में जाके बैसे ही हो गए हो जी". अब उधर वो घूंघट में लजाय रहीं, इधर ये मारे गिल्ट के लज्जित खड़े हैं.
वैसे ये तो हमें भी लग रहा कि ट्रॉली साथ होती तो ट्रैक्टर को समझा बुझाकर घर ले आती और उसकी देश भर में यूं दुर्गति न हो रही होती. अब अकेले प्राणी को बहकने में समय ही कितना लगता है. लेकिन इन भटके हुए राहगीरों को कौन समझाए कि गृहस्थी की गाड़ी कभी अकेले चली है भला? देखो, जाकर नाक कटा आए न.
दुनिया ग़वाह है कि जैसे बिना डोर के पतंग या कि बिना बोगी के इंजन का कोई अस्तित्व नहीं, ठीक वैसे ही बिना ट्रॉली का ट्रैक्टर पूर्णतः औचित्यहीन है. अकेला जाएगा तो कुसंगति में पड़कर आवारागर्दी ही तो करेगा. मैं तो उस इंसान को भी ढूंढ रही हूं जिसने बिना ट्रॉली के ट्रैक्टर लाने की बात कही थी. ये सब कुछ उसी मनुष्य का किया धरा है. हमारे घर के बच्चे को बिगाड़ने का क्रूर इल्ज़ाम उस मानस के सिर पर तत्काल धरा जाए.
इसके कोमल हृदय में कभी कोई बुरे विचार आए ही नहीं. ये क्यों किसी बैरिकेड को तोड़ेगा या किसी को कुचल ही देगा. एक दुःख है जो अब इसके सीने में टीस की तरह चुभता रहेगा। एक मलाल है जो हम सबको सदा रहेगा. ट्रैक्टर, दोष तेरा नहीं परिस्थितियों का है. तू एवीं बदनाम हो रहा.