सोमवार, 21 नवंबर 2022

तबस्सुम की मुस्कान हमारे साथ है

तबस्सुम के बारे में सोचती हूँ तो एक हँसता-खिलखिलाता चेहरा सामने आ खड़ा होता है। हँसी ऐसी कि जैसे सर्दियों की सुबह में धरती पर महकता हरसिंगार बिखरा हो। आवाज में इतनी मधुरता कि जैसे मीठे पानी का कोई झरना कलकल बहता ही जा रहा हो। उनकी तस्वीर भर भी देख लें तो एक उदास दिल को सुकून आ जाए, निराश हृदय में आस के तमाम दीप जल उठें! अब ऐसी शख्सियत का नाम 'तबस्सुम' न हो तो और क्या हो! मुस्कान की मूरत उन सी ही तो होती होगी न!  

वे नाम की ही नहीं, टीवी के दर्शकों के होंठों की भी तबस्सुम थीं। यहाँ 'थीं' लिखना खटक रहा है पर नियति पर किसका बस चला है! उसे तो सिर झुकाकर स्वीकार करना ही होगा। सबके दिलों में फूल खिलाने वाली तबस्सुम का दिल 18 नवम्बर 2022 की शाम अपने धड़कने की जिम्मेदारी निभाने से चूक गया और एक बुरी खबर उनके प्रशंसकों के हिस्से आ पड़ी। तबस्सुम नहीं रहीं।

बेबी तबस्सुम के नाम से फ़िल्मी दुनिया में अपनी शुरुआत करने वाली तबस्सुम ने कई भूमिकाओं को निभाया लेकिन भारतीय दूरदर्शन के पहले टॉक शो 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' की होस्ट बनकर वे हर दिल अजीज बन गईं। उनके बोलने का अंदाज़ तो निराला था ही लेकिन प्रस्तुति में जो मासूमियत और किसी बच्चे सी जो निश्छलता छलकती थी, वही बात उनके कार्यक्रम को जीवंत बनाती थी। 21 वर्षों तक इस कार्यक्रम का प्रसारित होना अपने-आप में एक मिसाल है। वे 15 वर्षोंतक महिलाओं की पत्रिका गृहलक्ष्मी की संपादक भी रहीं। उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं।‘तबस्सुम टॉकीज’ नाम से उनका यू ट्यूब चैनल भी था।  

जीते-जी हम किसी के बारे में उसके काम से ही जानते हैं। लेकिन उसके चले जाने के बाद उसके जीवन से जुड़ी कुछ अन्य बातें भी पता चलती हैं। जैसे कि मैंने आज ही जाना कि उनका आधिकारिक नाम किरण बाला सचदेव था लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। हाँ, इसके पीछे की कहानी बड़ी ही खूबसूरत है। तबस्सुम के पिता अयोध्यानाथ सचदेव स्वतंत्रता सेनानी थे तथा उनकी माता असगरी बेगम भी स्वतंत्रता सेनानी एवं लेखक थीं। तबस्सुम के जन्म के बाद, उनके पिता की भावनाओं का ध्यान रखते हुए असगरी बेगम जी ने अपनी बेटी का नाम किरण बाला रखना तय किया तो वहीं माँ की भावनाओं के मद्देनज़र पिता को 'तबस्सुम' नाम रखना सुहाया। तबस्सुम का विवाह, अभिनेता अरुण गोविल के बड़े भाई विजय गोविल से हुआ था। लेकिन 'तबस्सुम' नाम ही उनका पूरा परिचय बता देने के लिए पर्याप्त है। 

अब जबकि एक ज़िंदादिल शख्सियत ने इस दुनिया से अचानक ही रुखसती ले ली है, हमें यक़ीन है कि उनके चाहने वालों के  दिलों में उनकी मनमोहक मुस्कान सदा ज़िंदा रहेगी।

- प्रीति अज्ञात



रविवार, 13 नवंबर 2022

खेल भावना

जैसे कम अंक आने पर, कुटाई का खतरा महसूस होते ही बच्चा झट से अपने मम्मी-पापा को बताता है कि "वो शर्मा अंकल जी के गुड्डू के मार्क्स तो मुझसे भी कम हैं।" फिलहाल ठीक वैसे ही पाकिस्तान वाले अपना मन बहला रहे। 

हम भारतवासी फाइनल नहीं खेल सके तो क्या हुआ, पर ठीक इसी भाव ने ही हमारे सदमे को भी कम कर दिया है। हमारी हार, दुख और जलन पर जैसे बर्फ़ के ठंडे छींटे आ गिरे हैं कि "हीहीही पाकिस्तान भी तो नहीं जीता न! हुँह बड़े आए थे फाइनल वाले!" 😁

पाकिस्तान वाले भी अपनी हार के ग़म से कहीं अधिक इस बात से प्रसन्न होंगे कि भारत भी तो  नहीं जीता। इसी एक बात के बल पर, वो हारने के बाद भी अपने देश में अकड़कर चल सकेंगे और जनता की गालियों से बचते रहेंगे। शायद फूलमालाओं से स्वागत भी हो जाए। 😜
पुनः ठीक इसी बात ने ही भारतीयों को भी राहत दी कि कम-से-कम पाकिस्तान से तो नहीं हारे! हमारे खिलाड़ी भी आज मन में सोच रहे होंगे कि "भिया, अब तो..स्वागत नहीं करोगे हमारा!" 😎

इसी बीच इंग्लैंड वाले यह सोच हलकान हुए जा रहे कि उन्हें इतनी जबरदस्त बधाइयाँ क्यों मिल रहीं? पहले तो भारत उनसे हारकर दुखी था लेकिन अब उनकी जीत से प्रसन्न है! पाकिस्तान वाले भी हारने के बाद इतने कम दुखी क्यों लग रहे! 😕
तभी कुछ लोग फोन पर बताएंगे कि यही तो हमारी सच्ची 'खेल भावना' है। 
इस नवीन जानकारी को पाते ही भारत-पाकिस्तान अपनी महानता पर थोड़ा गर्व से इतराएंगे। लेकिन मंद मंद मुस्काये बिना भी न रह सकेंगे। लज्जा का यहाँ कोई स्कोप नहीं है। 😌

कल प्रमुखता से कुछ अखबारों में छपेगा कि कैसे सुनक जी भारत के लिए शुभ हैं। उधर वे (ऋषि सुनक जी) इंग्लैंड की टीम को बधाई देते हुए मन में एक बार तो सोच ही लेंगे कि "बेटा! जीत का असली हीरो तो मैं हूँ! बधाई की सौगात.. इधर भी है, उधर भी!" 😎
उफ़! ये मुझे चक्कर क्यों आ रहे! 😦
- प्रीति अज्ञात 

यूँ ही

 कहते हैं आपके अच्छे कर्म सदा आपके साथ चलते हैं। वो इंसान जिसने मन से एक पल को भी किसी का बुरा नहीं चाहा, ईश्वर उसके साथ ही रहता है। अब इस बात में कितना सच है, उसे संवेदनशील लोगों के अलावा कोई और नहीं समझ सकता।

इस दुनिया में अब भी ऐसे तमाम भावुक लोग मिल जाएंगे जो दूसरे के दुख को अपना समझते हैं। उनके दर्द को भीतर तक महसूस करते हैं। उनकी एक मुस्कान के पीछे सब कुछ लुटा देने को तत्पर रहते हैं। इनका स्नेह निस्वार्थ होता है पर किसी के निश्छल मन और ईमानदारी पर संदेह करने की रीत भी इसी दुनिया से निकली है। न हम उन्हें बदल सकते हैं, न वो हमें।

हमारी Good deed, हमारी kindness हमारी अपनी है , उसे दिखावे की आवश्यकता नहीं होती। इसे किसी पर थोपा भी नहीं जा सकता। यह एक ऐसा सकारात्मक भाव है जो किसी अनजान व्यक्ति के साथ भी हमें जोड़ देता है, एक रिश्ता सा बन जाता है जैसे। किसी के चेहरे पर खिलती मुस्कान का बिम्ब हमारे चेहरे पर भी उभरता है।

जीवन यही है, इतना सा ही तो है। न जाने क्यों बेवज़ह की बातों पर समय खर्च करते लोग इस बात को समझ नहीं पाते। इतिहास साक्षी है कि ईर्ष्या, द्वेष, बदले की भावना ने कभी किसी का भला नहीं किया बल्कि सब खत्म ही किया है। 

जीवन जो यूँ भी एक न एक दिन ख़त्म होने ही वाला है, हमारी कोशिश रहे कि हम उसका हर पल खूबसूरत बनाए। सबसे प्रेम करना सीखें, हर रिश्ते का सम्मान करें। यदि हम किसी के लिए कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो कम से कम किसी का बुरा तो न ही चाहें।

एक कमरे में सब उदास बैठे हों तो वहाँ की हवा तक मायूस हो जाती है लेकिन हँसी का एक ठहाका जैसे माहौल में जान ही फूँक देता है। ' Smile is contagious' यूँ ही नहीं कहा गया है।

किसी को कुछ donate करें, किसी को treat देकर सरप्राइज करें, किसी के काम में उसके कहने से पहले ही मदद कर दें, किसी अपने का हाथ थाम बस कुछ पल बैठें। किसी को Thank you कहें।

आज World Kindness Day भी है। कुछ अच्छा, इसी बहाने ही सही ...

Let's celebrate it together! 💐

Facebook की दो वर्ष पुरानी पोस्ट 

https://www.facebook.com/photo/?fbid=3494473860606756&set=a.387983091255864



गुरुवार, 10 नवंबर 2022

कहीं ‘विज्ञान’ संवेदनाओं पर भारी तो नहीं पड़ रहा?

आज ‘विश्व विज्ञान दिवस’ है अर्थात मनुष्य के लिए स्वयं पर गर्व करके का दिन। आदिम सभ्यता से आधुनिक काल की यात्रा के मध्य इस पृथ्वी पर उपस्थित समस्त प्रजातियों में यह मनुष्य ही है जिसने अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर सर्वश्रेष्ठ होने का घमंड बरक़रार रखा है। विज्ञान के दम पर अपनी इस गौरव यात्रा में अनवरत चलता हुआ वह अत्यधिक प्रसन्न है। क्यों न हो! दो-तीन दशक पूर्व जो बातें स्वप्नलोक की कोई अनूठी पटकथा सी लगतीं थीं, आज वे बड़ी सहजता से उसके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। फिर चाहे वह किसी प्रिय से वीडियो कॉल के माध्यम से यूँ बात करना हो, मानो आमने-सामने ही बैठे हैं या फिर घर बैठे मात्र एक क्लिक भर से बिजली, टेलीफोन के बिल का जमा हो जाना। यही कारण है कि इंटरनेट पर नित नए विकास से लेकर, अंतरिक्ष की सैर तक की चर्चाएं भी अब उतनी आश्चर्यजनक नहीं लगतीं!

हम जिस काल के साक्षी बन रहे हैं, वह नवीन अनुसंधानों और अथाह संभावनाओं का युग है। यहाँ सब कुछ संभव है। ऐसे में मनुष्य के मस्तिष्क और उसके बनाए, समझे विज्ञान के प्रति सिवाय धन्यवाद के भला और क्या ही भाव उपज सकता है! लेकिन जब संवेदनाओं और मनुष्यता पर विचार करने बैठती हूँ तब हृदय ठिठक जाता है। क्या आपको नहीं लगता कि इतनी भौतिक सुविधाओं को भोगते और तकनीकी माध्यम से नित सरलीकरण की ओर अग्रसर जीवन को जीना, अब पहले से अधिक तनावपूर्ण और दुष्कर होता जा रहा है? न केवल सामाजिक तौर पर हम अपना जुड़ाव और संवेदनशीलता खोने लगे हैं बल्कि हमारे मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसके दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। विज्ञान की दी हुई सुविधाओं से हम इतने आह्लादित हो गए कि उन्हें भोगने की तमीज़ भुला बैठे!

बदलता सामाजिक व्यवहार

व्हाट्सएप अफवाह का तो कहना ही क्या! अब अध्ययन करने का कष्ट कौन उठाए! तो आँख मूँद राजनीति एवं स्वार्थ से प्रेरित लिखे गए हर शब्द पर विश्वास किया जाता है। इसके चलते चाहे परिवार के सदस्य हों या वर्षों पुराने मित्र, वे सब दुश्मनों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। जबकि व्हाट्सएप का मूल उद्देश्य रिश्तों को क़रीब लाना और जोड़ना था लेकिन सब बिखरने लगा। अब हर व्यक्ति संदेह के घेरे में है। यात्राओं में भी देखिए तो अब कोई, किसी से बात नहीं करता। सब मोबाइल में ही घुसे रहते हैं।

पहले कैमरा होता था तो फोटो खींचना भी एक ईवेंट होता था। अब मोबाइल में कैमरा आ जाने के बाद किसी को, किसी की जरूरत ही नहीं। बस सेल्फ़ी क्लिक किया और हो गया। जबकि सेल्फ़ी की सुविधा उस समय के लिए है, जब आपके साथ कोई न हो या समूह चित्र लेना हो।

टीवी एक बड़ी तस्वीर की तरह दीवार पर टंगा है क्योंकि ओटीटी ने मनोरंजन की जिम्मेदारी संभाल ली। अब साथ बैठकर कार्यक्रम देखने की परंपरा भी नष्टप्राय है। अपने-अपने कमरे में बैठ मोबाइल या लैपटॉप पर कार्यक्रम देख लिए जाते हैं। वो साथ में टीवी देखते समय की मस्ती और ठहाके अब नहीं सुनाई आते।

कोई आता-जाता तो स्टेशन लेने जाने या छोड़ने की रीत थी। उसका भी अपना एक आनंद था। उबर या ओला कैब की उपलब्धता ने बहुत सुविधा दी लेकिन वो अपनापन भरा साथ चला गया। अपनी गाड़ी से कहीं बाहर जाना हो तो यात्रा रोमांचक होती थी। साथ हँसते थे, मजे लेते थे। घूमते- पूछते हुए जाने में सामाजिक जुड़ाव भी बनता था लेकिन जीपीएस के आते ही हम पूरी तरह से उस पर निर्भर हो गए। जैसे स्वयं पर से विश्वास ही उठ गया।

सुविधायुक्त जीवन-शैली

रिमोट कितनी छोटी सी वस्तु है लेकिन इसके आने के बाद से हम सोफ़े पर और आराम से बैठने लगे हैं। टीवी, लाइट को ऑन-ऑफ करने के लिए एलेक्सा है ही। बस चादर तानी और सो गए। फिर स्वास्थ्य संबंधी परेशानी के चलते मॉर्निंग वॉक पर डिजिटल घड़ी पहनकर जाना शुरू करते हैं जिससे हमारे क़दमताल का लेखा-जोखा मिलता रहे। मशीनें ही बता रहीं कि शरीर के घटकों का अनुपात क्या चल रहा। प्रत्येक व्यक्ति आधा डॉक्टर है। धड़कनों की गति और ऑक्सीजन प्रतिशत का हिसाब उसके पास है।

संतुलित भोजन को एक तरफ रख प्रोटीन शेक और मल्टी विटामिन की गोलियों को ‘फिटनेस मंत्र’ मानकर जीने लगे हैं। दिन-रात चौके चूल्हे में उलझी गृहिणियों के लिए भी अब किचन और घर के प्रबंधन हेतु मशीनें हैं। उस पर खाने की होम डिलीवरी से अब माँ के हाथ का खाना, ममता सब ज़ोमेटो और स्विगी ने संभाल लिया है। सोचना होगा कि इनके अधिकाधिक प्रयोग से कहीं हम पहले से अधिक अकर्मण्य और बीमारियों को न्योता देने वाले तो नहीं बन रहे?

सुविधाओं की तो अंतहीन सूची है। हमें बिल भरने की लंबी पंक्तियों में, घंटों खड़े रहने से आजादी मिली। अब किसी बाबू को नहीं कोसना होता है और बैंकिंग भी घर बैठे हो जाती है।

अमेजॉन, फ्लिपकार्ट सपनों की होम डिलीवरी करने लगे हैं। गोबर के उपलों से लेकर हीरों के हार तक सब ऑनलाइन उपलब्ध है। खरीदा जा सकता है, लौटाया जा सकता है। ऐसे में बाज़ार जाने की जरूरत ही नहीं। यहाँ डिस्काउंट तो मिलते ही हैं, साथ ही समय की भी बहुत बचत होती है। अभी ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ेगी ही।

समय कहाँ गया?

कुल मिलाकर कहना यह है कि विज्ञान ने हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाया, समय की बचत की लेकिन यह बचा हुआ समय किधर है? क्या अब हमारे पास, अपनों से दो मीठे बोल बोलने का समय दिखता है कहीं? पहले तमाम असुविधाओं में रहते हुए भी किसी से भी मिलना हो, तो बेझिझक जाया करते थे लेकिन अब बिना सूचित किये जाना भी असभ्यता है क्योंकि सभी व्यस्त हैं।

तात्पर्य यह कि विज्ञान ने हमें सुविधा दी परंतु सामाजिकता की बलि हमने स्वयं ही चढ़ाई है। तभी तो मनुष्य इतना अकेला और अवसादग्रस्त हो गया है कि उसकी समझ ही खोती जा रही है। उंगलियों पर बड़ी सरलता से किये जाने वाले हिसाब भी वह अपने मोबाइल का केलकुलेटर खोलकर करता है। उसका आत्मविश्वास पहले सा नहीं रहा। तकनीक पर निर्भरता इस हद तक कि अब घरवालों के फोन नंबर भी याद नहीं रखे जाते।

कहीं उसकी बुद्धि छीनी तो नहीं जा रही? रोबोट और आर्टिफ़िशियल इन्टेलीजेंस का प्रवेश हो चुका है। इनकी बहुलता के बाद अपनी बुद्धि और संवेदनशीलता को गिरवी रखने वाले मनुष्य के पास अपनी मनुष्यता सिद्ध करने को बचेगा क्या? कहीं हम स्वयं मशीन में परिवर्तित तो नहीं हो रहे?

इधर मोबाइल, तमाम तरह के सूक्ष्म कैमरा के माध्यम से हुए अपराध तथा बढ़ते साइबर क्राइम ने विज्ञान के दुरुपयोग की भयावह तस्वीरें भी सामने रख दी हैं। कोई किसी को पीट रहा हो, दुर्घटनाग्रस्त हो, हत्या हो रही हो वहाँ उपस्थित अधिकांश लोग उसे बचाने के स्थान पर कंटेंट अपलोड करने में रुचि रखते हैं। इस दुष्चक्र से कौन, कब तक बच सकेगा, यह देखना होगा। लेकिन तकनीक के माध्यम से हमारी मानसिकता, सोच, संवेदनशीलता का जिस तरह अपहरण एवं क्षरण किया जा रहा है वह और भी भयाक्रांत कर देने वाला है!

विज्ञान ने तो जीवन को सरल बनाने के उद्देश्य से हमें सुविधाएं दीं लेकिन हमने ही उनका दुरुपयोग कर जीवन जटिल बना दिया है। हमें चाहिए था कि सुविधाओं को भोगते हुए, मानवीय मूल्यों को संरक्षित रखें लेकिन हम अपनी सामाजिकता और उत्तरदायित्व को विस्मृत कर उसे नरक के द्वार तक ले आए हैं। विज्ञान ने हमसे हमारी मनुष्यता नहीं छीनी बल्कि झूठे अहंकार और स्वार्थ के चलते हमने ही, उसे ताक पर रख दिया है। वस्तुतः हमने पाया विज्ञान से है और जो गंवाया, उसमें हमारी मूर्खता ही एकमात्र कारण है।

काश विज्ञान का कोई अविष्कार मनुष्य को धर्म, जाति, सम्प्रदाय की बेड़ियों से मुक्त कर जीना सिखा दे, प्रेमभाव से इस सृष्टि को पूजना सिखा दे! क़ाश कोई मनुष्य को उसकी मनुष्यता लौटा दे! राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक लगती हैं –

हम कौन थेक्या हो गये हैंऔर क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल करयह समस्याएं सभी

- प्रीति अज्ञात https://hastaksher.com/

'हस्ताक्षर' नवम्बर 2022 के इस संपादकीय को आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं -

https://hastaksher.com/14856-2is-science-overpowering-the-senses/ 

#हस्ताक्षरवेबपत्रिका #हस्ताक्षर #हिन्दीसाहित्य #हिन्दी #प्रीतिअज्ञात #संपादकीय

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

भ्रष्टाचार की आँखों देखी

ट्रेन में अपनी सीट पर बैठी हुई थी कि साइड लोअर वाली बर्थ पर बैठे व्यक्ति का मोबाइल बज उठा। बात करते हुए उन्होंने फोन करने वाले से कहा कि 'अरे! आप क्यों परेशान हो रहे हैं? आपका काम हो जाएगा। हमारी बात कभी गलत नहीं होती। आपको तो हमारा पूरा इतिहास पता ही है।' दो-तीन मिनट बाद हे हे हे की ध्वनि के साथ कॉल समाप्त कर उन्होंने गर्व भरी मुस्कान फेंकते हुए इधर-उधर देखा। जैसी कि उन्हें उम्मीद थी, उनकी बर्थ के ऊपर उपस्थित और आमने-सामने जमा कुल पाँच चेहरों में से दो की उत्सुक दृष्टि उन पर थी। उत्सुकता तो मुझे भी थी, बस जाहिर नहीं किया था। 


दरअसल सेकंड एसी के इस कूपे में चार पुरुष सहयात्री थे तथा ऊपर की बर्थ पर एक लड़की थी। कुछ पल पहले ही उसकी माँ ने आकर उसे रात ग्यारह  बजे तक दूसरी बोगी में आने का निर्देश दिया था। यहाँ उसके स्थान पर उसके पापा या भाई के आने की बात हो रही थी। डिब्बे में कोई परिवार के साथ हो, बच्चे वगैरह हों तो मुझे बहुत अच्छा लगता है अन्यथा सहज नहीं हो पाती। तो मुझे इस बात की भी चिंता हो रही थी कि अब नींद तो लगने से रही। खैर! मोबाइल गैलरी में तस्वीरों को देखने का नाटक करते हुए कान तो मेरे भी खड़े हो ही चुके थे।

तभी मेरे ठीक सामने वाले व्यक्ति ने, उन ठसके के साथ बैठे फोन सेलिब्रिटी से चर्चा प्रारंभ करते हुए पूछा,‘भाईसाब! ये आप अभी कुछ एग्ज़ाम क्लियर कराने की बात कर रहे थे न?’‘जी, जी। अब अपन किसी का भला कर सकते हैं तो उसमें बुराई क्या!’ उसने आत्ममुग्धता के सागर में हिलोरें मारते हुए उत्तर दिया। ‘हाँ, कोई बुराई नहीं! यह तो सेवा का काम है। किसी बेचारे का जीवन संवर जाए, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है!’ प्रश्नकर्ता ने विशुद्ध चमचे की तरह हुंआं हुंआं की। मैं समझ गई कि अब इन सहृदय, समाजसेवी बाबूजी का अगला प्रश्न क्या होगा। उन्होंने मेरी आशाओं की लाज रखते हुए ठीक वही पूछा। ‘वैसे भाई साहब, आप कौन-कौन सी कक्षाओं में पास करा देते हो? वो क्या है न, जाने कब जरूरत पड़ जाए!’ अपनी शर्मिंदगी पर समझदारी का ढक्कन लगाते हुए वे सहसा बोल उठे। 

उनके इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में बैठे सेलिब्रिटी बाबू तो जैसे चहक ही उठे। तुरंत पुलकित भाव से उनके मुखारविंद से निकला, ‘अजी, आप तो ये पूछिए कि कौन सी नहीं करा सकते! दसवीं/ बारहवीं सेंट्रल बोर्ड अपने हाथ में है। पर भैया,परीक्षा में बैठना जरूरी है, उसके बिना मुश्किल होगी।‘ उनके शब्द सुनकर मुझे लगा कि अब और क्या ही जानना शेष रह गया है! एक भ्रष्टाचारी के भी नियम सख्त हैं कि ‘परीक्षा में बैठना जरूरी है!’ मेरे कान बस अब ढहने की ही तैयारी में थे कि उन महात्मा ने पुनः उवाचा,‘ग्रेजुएशन, इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. सब निकलवा देता हूँ। अब आजकल किसी लड़के/लड़की से रिश्ते के लिए सब डिग्री तो पूछते ही हैं, तो कर देते हैं दुनिया का भला!’ 

'हाँ, सो तो है ही। अपने हाथों किसी का अच्छा हो जाए तो क्या नुकसान!’ प्रश्नकर्ता ने उनकी महानता को बधाई देते

हुए, भाव विह्वल होकर कहा। इन उच्च विचारों के लेनदेन में अब आगे की बर्थ के यात्रियों की रुचि भी जागृत होने लगी थी। उन्होंने भी उनसे कई जानकारियाँ एकत्रित कर तुरंत ही उनका फोन नंबर सुरक्षित कर लिया। एक ने पूछा कि ‘भई, इसमें कोई रिस्क तो नहीं है न? बाद में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?’ ‘बिल्कुल नहीं होगी। जैसे सबका आता है, वैसे ही ऑनलाइन रिजल्ट आएगा। कोई अंतर नहीं होगा। रिस्क कहाँ से होगी? मंत्रियों के ही तो कॉलेज हैं। हाँ, बस परीक्षा में बैठना जरूरी है। ऊपर से नीचे तक की सेटिंग है। सबके रेट फ़िक्स हैं।’ खींसे निपोरते हुए उनका बेशर्मी से भरा उत्तर सामने आया। चूँकि विषय उठ ही चुका था तो राष्ट्रहित को समर्पित इस चर्चा में उन महानुभाव ने निस्संकोच दरें भी बता दीं। दसवीं, बारहवीं का पचास हजार, ग्रेजुएशन का एक लाख बीस हजार तथा इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. का एक लाख अस्सी हजार रेट चल रहा है। 

अपने बेटे को कनाडा भेजने की अतिरिक्त जानकारी देते हुए इन सज्जन ने यह बताकर भी उपकार किया कि ‘वे चार वर्षों से इस ‘बिज़नस’ में हैं और जीवन आनंद से कट रहा है।’ उन्होंने यह भी ऑफर किया कि यदि किसी को उनके साथ आना हो तो वे इच्छुक व्यक्ति के राज्य में उसको हेड बना सकते हैं। 'अरे वाह! इनकी शाखाएं भी हैं! यह जानते ही चार-पाँच लोगों ने धड़ाधड़ उनका नंबर नोट कर लिया। एक ने पूछा कि ‘फिर तो कोचिंग इंस्टिट्यूट वालों से आपकी अच्छी सेटिंग होगी?’ उत्तर देते हुए वे तनिक मुस्कुराए कि 'नहीं! जो छात्र पढ़ाई करके अपने-आप परीक्षा पास कर लेते हैं उन्हें हम नहीं कहते। हमारा ऑफर बाकियों के लिए होता है।’


उनकी इस बात को सुनकर सबने धन्य महसूस किया कि ‘भाईसाहब आप तो दिल के बड़े नेक बंदे हैं।’ मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इन समाजसेवियों के बीच क्या प्रतिक्रिया दूँ! मन बहुत ही क्षुब्ध हो उठा था। मुझे अच्छे से याद है कि पहले कभी जब फ़िल्म देखने जाया करती थी तो वहाँ ब्लैक में टिकट बेचने वाला भी धीरे से फुसफुसाता था लेकिन यहाँ तो सब पटाखे की तरह बज रहे थे। ऐसे बात हो रही थी जैसे कि इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के लिए इन साहब की सरकारी नियुक्ति हुई हो। कहीं कोई अपराध बोध या भय का नामोनिशान तक न था। 

अकेली कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी। इसलिए इसके आगे की यात्रा उदासी में कटी। दुख था और नंबर लेने वालों की प्रसन्नता देखते हुए शर्मिंदगी भी। जिन संस्कारों पर हम गर्व करते आए हैं उन्हें अपनी आँखों के सामने खत्म होते देख रही थी। 

ये कहाँ आ गए हैं हम?

- प्रीति अज्ञात

राजधानी से प्रकाशित पत्रिका 'प्रखर गूँज साहित्यनामा' के नवंबर 2022 अंक में 'प्रीत के बोल'

इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -

https://www.readwhere.com/read/3612338/Prakhar-Goonj-Sahitynaama/prakhar-goonj-sahityanama#dual/40/1

#भ्रष्टाचार #रेलयात्रा #प्रखरगूँजसाहित्यनामा #PrakharGoonjSahityanama #corruption #प्रीतिअज्ञात #PreetiAgyaat