मंगलवार, 31 जुलाई 2018

दो मिनट मौन

बकरी का किस्सा जब सुनने में आया तब समझ से बाहर था कि इसे क्या कहा जाए! क्योंकि इस घटना के सामने 'पाशविकता' एक सभ्य शब्द लगने लगता है और 'जानवर' इंसान से कहीं बेहतर नस्ल के प्राणी जान पड़ते हैं. दुःख यह है कि उनके पास  विरोध का कोई माध्यम नहीं.  न तो उन्हें गाली-गलौज़ कर अपना आक्रोश व्यक्त करना आता है और न ही उनमें पोस्टर लगा, मोमबत्तियाँ जलाकर शांतिपूर्ण तरीके से रैलियाँ निकालने की सभ्यता ही विकसित हुई है. संभव है यह भी कहा जाए कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं....तो चलो, मुज़फ्फ़रपुर की बात करते हैं. यूँ भी क्या फ़र्क़ है, इस बकरी और उन बच्चियों में! दोनों ही निरीह, दूसरों पर आश्रित, जिनके दुःख-दर्द से दस दिन बाद किसी को कोई वास्ता नहीं रहने वाला!  बड़ी-बड़ी घटनाएँ, हादसे, नृशंस हत्या, गैंगरेप के हज़ारों किस्से आसानी से गटकने वाले हम लोग अब चीख-चीखकर हार चुके हैं और मजबूरीवश ही समझिये पर पक्के हो चुके हैं. हमारी इस कमजोरी को आती-जाती सभी सरकारें और मीडिया तंत्र अच्छे से जान चुका है. तभी तो उस निर्लज़्ज़ अपराधी की हँसी यूँ ही नहीं है. यह धन का गरूर है, न्याय को खरीदने का दंभ है, ऊँची पहुँच का घिनौना प्रमाण है, आगे भी शोषण करते रहने का बुलंद दस्तावेज है.

सूरत, पानीपत, जींद, कठुआ, दिल्ली के उदाहरण तो बस अभी-अभी के हैं. अपराधी, अपराध करते समय एक बार भी नहीं सोचता होगा कि वह जिसके साथ कुकर्म कर रहा है वह एक मासूम बच्ची है, महिला या अधेड़ उम्र की महिला लेकिन 'न्याय-तंत्र' की व्यवस्था एकदम केयरिंग है वह पीड़िता की उम्र के आधार पर किसी वहशी की सजा 'एडजस्ट' कर अपनी महानता का परिचय देना नहीं भूलती. यूँ हम सभी जानते हैं कि भूले-भटके से कभी किसी को जेल की हवा खानी भी पड़ी तो पैसों की गर्मी उसे ससम्मान बरी कर ही देगी और न किया तब भी यहाँ 'दंड' का तात्पर्य वर्षों तक मुफ्त की रोटियाँ तोडना ही तो है, और इन्हें पालने-पोसने का खर्च करने को जनता है ही. उसे जब चाहे नोचा, निचोड़ा जा सकता है.

हम इतने आशावादी हैं कि तब भी सरकारों से उम्मीद रखते हैं और जुए  की तरह कांग्रेस, बीजेपी, आप की गोटियाँ फेंक जीतने की कोशिश करते हैं, जबकि राजनीति एक ऐसा खेल है जिसमें हर हाल में हार प्रजा के ही हिस्से आती रही है.
नेता बहुत बेचारे हैं, न छेड़िये उन्हें! उनके पास समय ही नहीं ... वे स्वयं को घोटालों और स्टिंग ऑपरेशन से बचाने की जुगत भिड़ायें या आपकी बकवास सुनें! आप ICU में तैरें या बाढ़ में डूबकर मर जाएँ, उन्हें तो हेलिकॉप्टर से बाढ़ पीड़ितों का दौरा कर ऊपर से टॉफियाँ उछालनी हैं, सभी बुरी घटनाओं की निंदा कर उसका ठीकरा अपने विरोधी पर फोड़ना है, विदेशों में अपनी महानता के पर्चे बाँट जयकारा लगवाना है. हम कहाँ गँवारों की तरह वही राग गाये जा रहे हैं! जबकि अब तक हमें आदत पड़ जानी चाहिए थी कि रोज सिर झुकायें और इंसानियत के नाम पर 'दो मिनट मौन की' श्रद्धांजलि अर्पित करें.
इस विषय पर मेरी यह आखिरी पोस्ट है.
- प्रीति 'अज्ञात' 
#मुज़फ्फ़रपुर

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

रोटी

'मृत्यु' बिकाऊ है और बेहद आसान भी! पैसों की गर्मी ने, संवेदनाओं को सोख लिया है। रुपया ही बोलता है, वही चलता है! जीवन उसी को कमाने की मशीन जो बन चुका है! भावनाओं का मूल्यांकन, संबंधों की सुंदरता, बचपन की मासूमियत, किशोरों की ठिठोली और मन की संतुष्टि अब ज़रूरतों की बाढ़ में डूबकर अपने अस्तित्व की खोज में भटक रही है! यहाँ जमीन के लिए लड़ाईयां होती हैं, इस सच को जानते हुए कि एक दिन इसी जमीन के अंदर गाड़े जाने वाले हैं, बम-विस्फोट की योजनाएं बनती हैं अपने ही देश को उड़ाने के लिए, कायदे-कानून की धज्जियाँ; खोए आदर्शों की तरह हर तरफ बिखरी दिखाई दे रही हैं। हड़ताल, अब अपनी जायज़ मांगों की पुकार न होकर सुनियोजित दंगे का भरम देने लगी है। अपने ही देश की संपत्ति को आग में झोंककर आखिर हम किस मुँह से अधिकारों की मांग करते हैं? 

गरीब बचपन चीखकर रोता है, एक बेबस पिता कहीं बोझा ढोता है, इधर रोटी की प्रतीक्षा में तीन भूखे पेट दरवाजे पर आँखें रख हमेशा-हमेशा के लिए वहीं गहरी नींद सो जाते हैं। जो रोटी न दे सके, वे उन्हीं भूखे पेटों को चीरकर मृत्यु के कारण तलाशने की कोशिशों में जुटे हैं। यह भूख का ही दोष रहा होगा कि वह कुछ नहीं कह पाती। सूखे हलक़ और आँतों से चिपककर सुन्न हो बैठ जाती है। इंसानियत को इन दिनों ज्यादा धक्का नहीं लगता। धक्के खा-खाकर हम सब भी तो अभ्यस्त हो चले हैं। काव्य की आँखों से दो बूँदें गिरती हैं; अदृश्य हो जाती हैं! चहुँ ओर एक मौन पसर जाता है, बीच में झिलमिलाती हुई मोमबत्ती थोड़ी देर जलकर, एक टूटी उम्मीद की तरह अंतत: वहीं हारकर बैठ जाती है! विरोध के स्वर भी उठते हैं और नया विषय मिलते ही उनकी दिशा ऐसे बदल जाती है जैसे किसी बच्चे को अगली कक्षा में प्रोमोट कर दिया गया हो और वो दौड़कर अपनी सारी पुरानी किताबें रद्दी वाले के लिए उठाकर एक कोने में पटक आता है। समय की एकत्रित हुई धूल. इसे पुराना घोषित कर देती है और इसमें रूचि समाप्त हो जाती है। 'मृत्यु अब एक समाचार भर है।'

मौतें रोज होती हैं, कारण बदलते रहते हैं! रोज हजारों लोग किसी-न-किसी अपराध की बलि चढ़कर अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं, परिवार ख़त्म हो जाता है, आँसू सूख जाते हैं, ह्रदय भीतर तक कसैला हो जाता है और एक परिवार समाज को घृणित भाव से देख अपनी सारी आशाएँ, किसी नदी में पार्थिव शरीर-सा प्रवाहित कर आता है! उसके विश्वास को किसने तोड़ा? इस समाज ने ही उसका सर्वस्व छीना है. इसीलिए जिस अनुपात में अपराध होते हैं, उसी अनुपात में उतनी ही नकारात्मकता समाज के प्रति बढ़ती जाती है।

विकास करना है, तो अपराध को रोकना होगा! रोते, उदास, मायूस चेहरों से परिवर्तन की उम्मीद न कीजिये साहेब ! उन्हें हौसला दीजिये, विश्वास दीजिये, उनकी खोई मुस्कान वापिस लौटाने की हलकी-सी कोशिश भी कुछ दिलों को रोशनी से भर देगी। और गर हमारे समाज में 'मौत' यूँ ही  सामान्य घटना बनकर रह गई तो फिर इस  'दर्पण' के टूटकर बिखरने में भी अधिक वक़्त नहीं लगेगा!

कवि ह्रदय और आम आदमी अब क्या करे? क्या लिखे? क्या पढ़े? क्या देखे? वेदना को मसोसते हुए झूठी तसल्लियाँ दे? या कि लाशों के ढेर से मुँह फेरकर, अपनी दो वक़्त की रोटियों की फ़िक्र करे!
- प्रीति 'अज्ञात' 
Repost 
Pic Credit: Google

बुधवार, 25 जुलाई 2018

मृत्यु तो नूतन जनम है, हम तुम्हें मरने न देंगे!

वे कहते थे, 'मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य'
यदि आपको कविता पसंद है तो आपने गोपालदास नीरज को अवश्य पढ़ा होगा, यदि संगीत के प्रेमी हैं तो उनके गीतों को भी ख़ूब सुना होगा। ख़ूब इसलिए क्योंकि जिसने एक बार सुन लिया तो वह उनका ही होकर रह गया और फिर एक बार से तो जी भरता ही कहाँ है! उनका जीवन जितने संघर्ष से गुजरा उतनी ही मजबूती से उन्होंने इसको जिया भी और अपनी मेहनत के दम पर उच्च शिखर तक पहुँचे। जिस दर्द को उन्होंने महसूस किया, वही शब्द बन काग़ज़ पर कुछ यूँ ढलता रहा कि जनमानस के दिलों को भीतर तक स्पर्श कर गया। उनकी कविताओं के हाथ में उन्होंने जो प्रेम रुपी दीपक थमाया था, उसी ने हिन्दी साहित्य के हर गलियारे को अपनी रोशनी की चमक से जगमग कर दिया। वे जनहित की बात करते थे, उनकी भाषा मानवीयता से परिपूर्ण थी और लेखनी भी इन्हीं गुणों की कुशल संवाहक बनी। समाज के प्रति उनकी चिंता, उनके संवेदनशील हृदय की परिचायक थी। धर्मनिरपेक्षता, उनके व्यवहार और लेखनी में कूट-कूटकर भरी थी। वे कहते थे, "अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए; जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।" वे राजनीतिज्ञों की टेढ़ी चाल भी ख़ूब समझते थे तभी तो जनता को सचेत कर बोल उठते थे, "हाथ मिलें और दिल न मिलें, ऐसे में नुक़सान रहेगा/ जब तक मंदिर और मस्जिद हैं, मुश्किल में इंसान रहेगा।"
उनके अवसान से साहित्य की बगिया का सबसे सुर्ख गुलाब मुरझाया-सा लगता है। सूरज की चमक में फीक़ापन है, चाँदनी ने उदासी का रंग ओढ़ लिया है। अब जबकि मैं उन्हें श्रद्धांजलि स्वरुप कुछ कहना चाहती हूँ तो शब्द जैसे बिखर से रहे हैं, इन्हें समेटना असंभव जान पड़ता है।

नीरज जी को प्राप्त पद्मश्री, पद्मविभूषण, यश भारती सम्मान हिंदी साहित्य जगत में उनके अभूतपूर्व योगदान की गाथा स्वयं गाते हैं। तीन बार मिले फिल्मफेयर पुरस्कार, गीतकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा का यशगान करते नज़र आते हैं। वे कवि थे और गीतकार भी। अपनी दोनों ही पारियाँ उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बन खेली हैं। उनकी प्रमुख कृतियाँ- आसावरी, दर्द दिया है, कारवां गुजर गया, बादलों से सलाम लेता हूँ, गीत जो गाए नहीं, नीरज की पाती, नीरज दोहावली, गीत-अगीत,  पुष्प पारिजात के, काव्यांजलि, नीरज संचयन, बादर बरस गयो, वंशीवट सूना है, नीरज के संग-कविता के सात रंग, प्राण-गीत, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये इत्यादि रहीं। मंच पर भी उन्हें श्रोताओं का भरपूर स्नेह और सराहना मिली।

पद्मश्री गोपालदास नीरज मूलतः कवि ही थे पर गीतकार के तौर पर उनका हिन्दी सिनेमा को दिया गया योगदान अतुलनीय है। इंसानी भावनाओं के हर रंग को उन्होंने ख़ूब निखारा है। तभी तो प्रेम की शोख़ी में डूबकर वे लिखते हैं-
"याद अगर वो आये, कैसे कटे तनहाई /सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई/ आना हो, जाना हो, कैसा भी ज़माना हो/ उतरे कभी ना जो खुमार वो, प्यार है"
इन पंक्तियों में इस क़दर नशा है कि कई दशक बीत जाने पर भी इनकी ख़ुमारी प्रेमियों के दिलों पर अब तक चढ़ी हुई है। प्रेमिका के हृदय की धड़कन को उन्होंने 'आज मदहोश हुआ जाए रे' के तराने से अभिव्यक्त किया है तो उसकी याद में ख़त भी इश्क़ की गाढ़ी स्याही में डुबोकर, टूटकर लिखा है और उसे इतनी सुन्दर उपमाएँ दी हैं कि चाँद-तारों को भी उससे ईर्ष्या होने लगे। मदहोशी में ही सही, पर कोई यूँ भी प्रेमपत्र लिखता है क्या!
"कोई नगमा कहीं गूँजा, कहा दिल ने के तू आई/ कहीं चटकी कली कोई, मैं ये समझा तू शरमाई/ कोई ख़ुशबू कहीं बिख़री, लगा ये ज़ुल्फ़ लहराई" (लिखे जो ख़त तुझे)
प्रकृति की सारी सुन्दरता समेटकर इश्क़ की गहराई को उन्होंने "फूलों के रंग से, दिल की कलम से तुझको लिखी रोज पाती" में भी इतनी खूबसूरती से व्यक्त किया है कि यह प्रेमियों का प्रतिनिधि गीत बन बैठा है। "खिलते हैं गुल यहाँ, खिल के बिखरने को", "ओ मेरी, ओ मेरी, ओ मेरी शर्मीली" गीत भी यही रूमानी छटा बिखेर वर्षों से जवां दिलों के सरताज बन गए। "चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है/ देखो-देखो टूटे ना" में वे मनुहार कर अपने शरारतीपन का भी बड़ा प्यारा परिचय देते हैं।

नीरज, प्यार में भीतर तक डूब जाने की बात करते हैं तो टूटे हुए दिलों पर मरहम रख उसे सांत्वना भी देते आये हैं और उदासी भरे लम्हों में उनकी क़लम दर्द की जीती-जागती तस्वीर बन उभरती है। कभी यह भीतर तक टीस बन ठहर भी जाती है, जब वे कहते हैं-
"ये प्यार कोई खिलौना नहीं है/ हर कोई ले जो खरीद /मेरी तरह ज़िंदगी भर तड़प लो/ फिर आना इसके क़रीब" (दिल आज शायर है, ग़म आज नग़मा है)
मात्र प्रेम ही नहीं 'दर्शन' भी उनकी लेखनी का आवश्यक तत्त्व बनकर उभरा है। 'ए भाई, ज़रा देखके चलो' जीवन-दर्शन से भरा हुआ गीत है। इसका एक-एक शब्द जीवन की उस कड़वी सच्चाई का दस्तावेज है, जिसका सामना हम सब कभी-न-कभी करते आये हैं। उनके ये शब्द कितनी कटु स्मृतियों की धुंधली तस्वीर खींच देते हैं-
"जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है/ खाता है कोड़ा भी/ रहता है भूखा भी/ फिर भी वो मालिक पर करता नहीं वार है/ और इन्सान? माल जिसका खाता है/ प्यार जिससे पाता है/ गीत जिसके गाता है/ उसके ही सीने में भोंकता कटार है।"
“कहता है जोकर सारा ज़माना, आधी हक़ीकत आधा फ़साना/ चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो, दुनिया नयी है, चेहरा पुराना” भी इन्हीं अहसासों को ईमानदारी से अभिव्यक्त करता चलता है। 
उनके ये शब्द "बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ, आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ" भी वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में एक क़सक छोड़ जाते हैं। इंसानियत की गुहार लगाने वाले नीरज जी की नज़र समाज के हर पहलू पर थी और वे मानवता को हर धर्म से श्रेष्ठ समझते थे। यहाँ इस बात की पुष्टि भी होती है कि जब तक इंसान इस धरती पर है उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता बनी रहेगी।

"ताक़त वतन की हमसे है" जैसा कालजयी गीत लिखकर उन्होंने न केवल सैनिकों का सम्मान किया बल्कि जनमानस की भुजाओं को फड़कने पर मजबूर कर उनमें देशभक्त की पवित्र भावना का संचार भी किया। उनके स्वर, चेतना के स्वर थे। 
पद्मभूषण गोपालदास नीरज जी प्रेम की बात करते थे, वीर रस से भरे ओजपूर्ण गीत लिखते थे, अपने दार्शनिक अंदाज़ से सबके चहेते बन बैठे थे। जीवन के हर रस का उन्होंने अपने शब्दों से शृंगार किया। हर भाव को उत्कृष्ट अभिव्यक्ति दी। अब जब गए हैं तो उनकी लेखनी की अमूल्य निधि हम सबके पास विरासत में छोड़ गए हैं, जिसे हम सदैव गुनगुनाते रहेंगे, जिसे हमारे पूर्व की पीढ़ी ने ख़ूब पढ़ा, सराहा और सम्मानित भी किया, आगे वाली पीढ़ियाँ भी इस धरोहर को संभालकर रखेंगीं।

नीरज जी के निधन ने जो शून्य उत्पन्न कर दिया है, उसे कभी भरा नहीं जा सकता; पर हम यह भी जानते हैं कि कलाकार कभी मरते नहीं! वे अपनी कृति के रूप में हम सबके हृदय में सदैव धड़कते हैं। उनके शब्द एक गहरी सीख बन साथ चलते हैं, प्रेरणा देते हैं, सच्चा मार्गदर्शन करते हैं।
"गीत अश्क बन गए, स्वप्न हो दफ़न गए/ साथ के सभी दिये, धुआं पहन-पहन गए/ और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके/ उम्र की चढ़ाव का उतार देखते रहे/ कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे"
नीरज जी जानते थे कि उनके कितने दीवाने हैं तभी तो उन्होंने कहा था "आँसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा/ जहाँ प्रेम का चर्चा होगा, मेरा नाम लिया जाएगा" (धर्म है..)
उन्हीं की लिखी पंक्तियों से श्रद्धासुमन अर्पित करती हूँ-

धूल कितने रंग बदले डोर और पतंग बदले
जब तलक ज़िन्दा कलम है हम तुम्हें मरने न देंगे
खो दिया हमने तुम्हें तो पास अपने क्या रहेगा
कौन फिर बारूद से सन्देश चन्दन का कहेगा
मृत्यु तो नूतन जनम है, हम तुम्हें मरने न देंगे

यूँ ही नहीं कोई देशराग गाता है, यूँ ही नहीं कोई प्रेम धुन बजाता है, सदियाँ लग जाती हैं उन-सा कुछ बनने में, यूँ ही नहीं कोई नीरज बन जाता है।
विदा, प्रिय कवि....शत शत नमन!
- प्रीति 'अज्ञात'
#नीरज #हस्ताक्षर_वेब_पत्रिका
http://hastaksher.com/rachna.php?id=1515

बुधवार, 18 जुलाई 2018

उम्मीदों की टूटती इमारतें

'रोटी, कपड़ा और मकान' जीवन की मूलभूत आवश्यकता है. मेहनत से रोटी और कपड़े की व्यवस्था तो हो जाती है पर दो दशक पहले तक मध्यमवर्गीय इंसान के लिए अपना मकान एक स्वप्न ही था. सारी कमाई खाने-पीने, बच्चों की स्कूल फ़ीस और घरेलू खर्चों में ही ख़त्म हो जाया करती थी. जैसे-तैसे करके कुछ धन जोड़ा भी जाता था, तो वह भी शादी-ब्याह में पल भर में स्वाहा हो जाया करता था. ऐसे में 'अपना घर' सोचना और मन-मसोसकर रह जाना ही इन परिवारों की नियति थी. भारतीय फिल्मों में भी इस इंसानी चाहत को ख़ूब भुनाया गया है और 'दो दीवाने शहर में......आशियाना ढूँढते हैं' हो या 'देखो मैंने देखा है ये इक सपना, फूलों के शहर में हो घर अपना' गीत दर्शकों की इसी आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते नज़र आते रहे हैं.

बदलते समय के साथ सुविधाओं में भी वृद्धि हुई. बैंकों से लोन मिलने लगे और अपने घर तक पहुँचने की नई राहें खुलने लगीं पर यह ऋण भी ब्याज सहित चुकाना होता है. इसे चुकाने के लिए न जाने कितनी बार अपनी इच्छाओं में कटौती करनी पड़ती है, मन-मारकर रह जाना पड़ता है पर अपने सपनों के पल्लवित होने की आशा लिए यह सब सह जाता है आदमी.  
लेकिन वही सपनों का महल जब पल भर में धराशायी हो जाए तो उस इंसान के दिल पर क्या गुज़रती होगी यह समझना मुश्किल नहीं! मुश्किल ग़र कुछ है तो वो है भ्रष्टाचार से लड़ना, उस व्यवस्था से उम्र-भर जूझना जिसके आगे आप निरीह, लाचार नज़र आते हैं! ये कैसी नियति है कि वो घर जिस पर आपका मालिकाना हक था, उसका सुख भोगे बिना आप या तो मलबे के ढेर के नीचे दम तोड़ देते हैं या फिर आपके हिस्से आई वसीयत में न्याय की आस में अदालत-दर-अदालत चप्पलें घिसना लिखा होता है.
इमारतों का ढहना कंक्रीट और रेत की चादर का भरभराना भर नहीं है यह परिश्रमजनित उन स्वेद कणों की भी बड़ी निर्मम मौत है जिसके लिए किसी व्यक्ति ने अपना दिन-रात एक कर दिया था. ये लाशें उन उम्मीदों की अंतिम विदाई है जो एक हँसते-खेलते परिवार को कफ़न की श्वेत चादर ओढ़ा वहीं दम तोड़ देती हैं. जो शेष हैं उनके हिस्से वो कराहता, छटपटाता स्वप्न है जिसे देखने के लिए वे जीवन भर अपने-आप को कोसेंगे.

हम कड़ी निंदा, भर्त्सना करेंगे और प्रशासन आश्वासन देगा. उस मुआवजे की घोषणा भी अवश्य होगी जिसे पाने के लिए आपको तमाम कार्यालयों की देहरी पर वर्षों नाक रगडनी होगी. लेकिन तब भी मौत का यह खेल जारी रहेगा...इन कमजोर इमारतों, पुलों का बनना और गिर जाना कभी नहीं रुकेगा. क्यों रुके? कभी किसी बिल्डर को फांसी चढ़ते देखा है?लोकतंत्र की मोटी त्वचा में भ्रष्टाचार के नुकीले दांत इतना भीतर और गहरे धँसे हुए हैं कि जान लेकर ही बाहर आते हैं और फिर कहीं दूसरे शिकार को घोंपने चल पड़ते हैं.
चलो, सपनों का छोडो...इस दर्द की भरपाई कौन करेगा?
आम जनता की जान की क़ीमत क्या है?
जीवन भर खटने के बाद उसके हिस्से में क्या आया?
कोई बाढ़ में बह गया तो कोई आँसुओं की नदी में....
बात यहाँ आकर भी ख़त्म नहीं होती.  
अभी तो मुआवज़े की बंदरबाँट होना शेष है.
- प्रीति 'अज्ञात' 
#टूटती_इमारतें #भ्रष्टाचार 
Image Credit: Google

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

मेरा शहर

यह प्रश्न कि आप कहाँ की हो या कि आपका शहर कौन-सा है? सदैव ही असमंजस में छोड़ जाता है मुझे, अजीब लग सकता है पर मैं जब-जब होती हूँ जहाँ-जहाँ, तब-तब बस वहीं की ही होकर रह जाती हूँ.
 प्रत्येक शहर में छूटता जाता है, कुछ-कुछ मेरा हिस्सा और कुछ मैं ही हो जाती हूँ ऋणी इसकी; क्योंकि ज्यूँ ही रखती हूँ क़दम उस धरती पर....ओढ़ लेती हूँ वहाँ की धूप, श्वांसों को मिलती है गति वहीं की वायु से, जीवित रखता है मुझे उसी शहर का जल और भोजन...तभी तो आज मेरी उपस्थिति कृतज्ञ है, हर बीते शहर की.

यूँ भी नहीं कि इतनी भाग्यवान हूँ और सुखद ही रही हों सारी स्मृतियाँ, किसी शहर, किसी यात्रा, किसी व्यक्ति से, कभी भी नहीं मिली हो पीड़ा.............मिली है, असहनीय मिली है, पर तब भी मैंने शहर को नहीं धिक्कारा और उन पलों को गिनती गई जिनमें सुख के तमाम जुगनू 
चमचमा रहे थे उत्साह से, मेरी निराशा, मेरी उदासी, मेरा दुःख 
खाना चाहता था मुझको पर मेरी आशा, मेरा विश्वास, मेरा साहस 
सदैव निगलता रहा उसको.

मैं जानती हूँ हर शहर मेरा है तो जब तुम पूछते हो कहाँ की हो?
मैं पड़ जाती हूँ सोच में, किसे याद करूँ? वो घर जहाँ मैंने जन्म लिया, माता-पिता की गोदी में खेली, पढ़ाई की या कि छुट्टियों में दादा -दादी, नाना-नानी का घर, जहाँ स्नेह की छाँव में ऊँची कुलाँचें भरता रहा मेरा बचपन. मेरी सखियों के घर, रिश्तेदारों-परिचितों के घर जहाँ तमाम उत्सवों, शादी-ब्याह का उल्लास भरता रहा जीवन का इंद्रधनुष.  
अहा! कितनी यात्राएँ, कितने शहरों में....अलग-अलग संस्कृतियों से जुड़ाव, एकदम अपना सा ही तो लगता है सब कुछ.

अब बताओ मैं कहाँ की हूँ?  
मुझमें लखनवी सभ्यता है 
तो चम्बल की गर्ज़ना भी 
बनारसी मिठास है तो 
दिल्ली का ठसका भी 
मैं पंजाब का पनीर हूँ 
यू पी की खीर हूँ 
गुजरात की गांधीगिरी 
राजस्थान की शमशीर हूँ 
उत्तर में दर-बदर 
तय किये कितने सफ़र 
दक्षिण की बाँहों में भी
झूली हूँ कितने पहर  
हर जगह मेरे अपने 
वही मेरा जहान है 
पूरब में सूरज चचा 
पश्चिम में आसमान है 
कैसे चुनूँ किसी एक को 
जब दिल हुआ हिन्दुस्तान है 
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 9 जुलाई 2018

संजीव कुमार: इस मोड़ से जाते हैं....!

"सुनो, आरती! ये जो फूलों की बेलें नजर आती हैं न; दरअसल ये बेलें नहीं हैं अरबी में आयतें लिखी हैं इसे दिन के वक़्त देखना चाहिए, बिल्कुल साफ़ नज़र आती हैं. दिन के वक़्त ये सारा पानी से भरा रहता है. दिन के वक़्त जब ये फ़व्वारे......"

निश्चित तौर पर गुलज़ार जी की ये पंक्तियाँ हर सिने-प्रेमी को शब्दशः याद होंगी और इसे  सुनते ही जो शानदार चेहरा उभरकर सामने आता है वह है - संजीव कुमार
किशोर दा, रफ़ी साब के गाये कितने ही गीतों को उन्होंने अपने जानदार अभिनय से अमर कर दिया. आम हीरो की छवि से एकदम अलग प्यारा सा, मुस्कुराता चेहरा लिए, शिष्टता की प्रतिमूर्ति थे संजीव कुमार, जिनकी विशिष्ट अभिनय शैली के हम सब हमेशा से क़ायल रहे हैं. खिलौना, शोले, आंधी, मौसम, अंगूर, अनहोनी, त्रिशूल, मनचली, अनामिका, कोशिश, नौकर, नया दिन नई रात, सीता और गीता, श्रीमान श्रीमती, पति पत्नी और वो, सिलसिला, शतरंज के ख़िलाड़ी, हमारे तुम्हारे, बेरहम, त्रिशूल और ऐसी ही कई फिल्मों में अपने हर किरदार को निभाते हुए उन्होंने अभिनय के नए मापदंड स्थापित कर उन ऊँचाइयों को स्पर्श किया कि वे इतने वर्षों बाद भी प्रशंसकों के दिलों में घर बनाये हुए हैं और पूरी शिद्दत से याद किये जाते हैं.

'खिलौना' के मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति का अत्यधिक भावुक, संवेदनशील अभिनय और वह गीत, "खिलौना जानकर तुम तो....." आज भी मन भिगो जाता है. एक तो रफ़ी साहब की दर्दभरी आवाज़ का जादू, उस पर संजीव कुमार का भावपूर्ण अभिनय; हिट तो होना ही था. याद है न! कैसे प्रतिशोध की ज्वाला में जलते 'शोले' के ठाकुर के मिसमिसाते डायलॉग, "सांप को हाथ से नहीं, पैरों से कुचला जाता है गब्बर." ने  सिनेमा हॉल को तालियों की गडगडाहट से पाटकर रख दिया था.
'सिलसिला', 'अनामिका','आँधी' में वे संज़ीदा पति/प्रेमी के रूप में नज़र आये और इनके गीत आज लगभग चार दशकों बाद भी उतने ही लोकप्रिय बने हुए हैं. 

अनामिका का 'मेरी भीगी-भीगी सी पलकों पे रह गए, जैसे मेरे सपने बिखर के....' और आँधी का 'तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं...' आज भी लाखों उदास प्रेमियों की एकाकी रातों और तन्हाई के साथी बनते हैं.
'कोशिश' में मूक-बधिर इंसान के रूप में अपने उत्कृष्ट अभिनय से उन्होंने सबके ह्रदय पर ऐसी छाप छोड़ी कि इसके लिए उन्हें दूसरी बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. पहला उन्हें फ़िल्म 'दस्तक' के लिए प्राप्त हुआ था. 'आँधी' के लिए भी उन्हें 'फिल्मफेयर' पुरस्कार मिला.

पर ऐसा नहीं कि संजीव कुमार ने केवल गंभीर भूमिकाएँ ही निभाईं. मस्तमौला प्रेमी और इश्कबाज़ पति के रोल भी उन्होंने बेहद ख़ूबसूरती से निभाये. पारिवारिक और जासूसी फ़िल्में भी कीं. वे नए प्रयोग करने से भी नहीं हिचकते थे और उनकी फ़िल्म 'नया दिन नई रात में' उन्होंने एक साथ नौ विविध चरित्र निभाकर सबको अचंभित कर दिया था. यह उनकी असाधारण अभिनय क्षमता ही थी कि जीवन के हर रस को वे पर्दे पर बड़ी सहजता से जीवंत कर देते थे. 'अंगूर' में उन्होंने दर्शकों को खूब हँसाया और 'नौकर' में भी अपनी अभिनय प्रतिभा से सबको लाज़वाब कर दिया. इस फिल्म का 'पल्लो लटके' गीत तब ख़ूब बजा करता था और अब इसके रीमिक्स ने भी वर्तमान पीढ़ी तक इसकी लोकप्रियता की ख़बर पहुँचा ही दी है. यह संजीव कुमार का ही असर है कि 'पति, पत्नी और वो' का यह गीत, 'ठन्डे-ठन्डे पानी से नहाना चाहिए' आज भी सबका प्रिय बाथरूम सॉंग बना हुआ है. उन दिनों सब माता-पिता अपने नन्हे-मुन्नों को यही गीत सुनाते हुए स्नान करने के लिए फुसलाया करते थे.

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन (मौसम), तुम आ गए हो नूर आ गया है (आँधी), इस मोड़ से जाते हैं (आँधी), ग़म का फ़साना बन गया अच्छा (मनचली), हवा के साथ-साथ (सीता और गीता) मनचाही लड़की कहीं कोई मिल जाए (वक़्त की दीवार) ... उनकी सुपरहिट फिल्मों और गीतों की फ़ेहरिस्त काफी लम्बी है.

हरिभाई के नाम से लोकप्रिय, अभिनेता संजीव कुमार की फिल्मों और उनके उत्कृष्ट अभिनय की ऐसी ही न जाने कितनी अनूठी स्मृतियाँ आँखों में तैर रही है. उन पर फिल्माए कई गाने भी सदैव साथ चला करते हैं. अभी उनकी फ़िल्म 'अनोखी रात' का ये सदाबहार गीत याद आ रहा है -
"ओहरे ताल मिले नदी के जल में,
नदी मिले सागर में,  
सागर मिले कौन से जल में
कोई जाने न....!'
कलाकार मरते नहीं! हमारी यादों में वे सचमुच अमर हो जाते हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

संजू: 'नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज़ को चली।'


'संजू' फ़िल्म प्रारम्भ में ही यह लिखकर अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ स्वयं को सुरक्षित कर लेती है कि "यह आत्मकथा नहीं है।" तो फ़िर टीज़र में इसे संजय दत्त की आत्मकथा कहकर क्यों प्रमोट किया जा रहा है? और रणबीर को संजू के अवतार में ढालने और इतने बवाल की क्या तुक थी? यहाँ तक कि कई इंटरव्यू में भी इस बात को स्वीकारा जा चुका है। 
संजय दत्त के जीवन पर आधारित यह फ़िल्म मूलतः दो बातों के लिए याद रखी जायेगी, पहली रणबीर की शानदार परफॉरमेंस और दूसरी मीडिया की सच्ची तस्वीर खींचने के लिए। ख़बरों को मसालेदार, चटपटा बनाने के लिए उसे कैसे तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है और एक प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर क़ानूनी अड़चनों से कैसे बचा जाता है, इस तथ्य को यहाँ सटीकता के साथ उकेरा गया है। टी.आर.पी की अंधी दौड़ से तो हम सब वाक़िफ़ हैं ही। 

संजू का ड्रग्स की लत को छोड़ने और सुनील दत्त के सामने रोने का दृश्य निस्संदेह भावुक कर जाता है पर कुछ अन्य दृश्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बुरी आदतों का ठीकरा दत्त साब पर फोड़ते हुए वे रत्ती भर भी संवेदना नहीं बटोर पाते। अरे, लड़का नालायक़ निकलेगा, बुरी संगत में पड़ेगा तो पिता टोकेगा नहीं? उनके समय में तो थप्पड़ ही मिलता था। वे चाहते तो दत्त साब से सेवाभाव सीख सकते थे, जैसा उनकी बहनों ने सीखा पर उन्होंने अपनी परेशानियों का हल ड्रग्स में ढूंढ निकाला तो पिता क्या करे? माँ मौत के मुंह में और बेटे को लड़कियों के साथ की और ड्रग्स की तलब उठ रही! कभी सुना, देखा किसी ने ऐसा!!

ग़लतियों पर सुपर रिन की चमकार मारते समय फ़िल्म में एक स्थान पर बताया गया है कि सुनील दत्त सिगरेट पीते थे और उन्हें ऐसा करते देख ही संजू बाबा ने बचपन में इसका क़श लगाना प्रारम्भ कर दिया था। उनकी इन्हीं बिगड़ती आदतों के कारण उन्हें बोर्डिंग स्कूल में भेजना पड़ा। चलो, ये बात मानी जा सकती है। लेकिन फ़िर अंतिम दृश्य के लिए कोई माफ़ी नहीं, जहाँ सिगरेट सुलगाते हुए संजू अपने बच्चों से कहते हैं कि "तुम अपने पापा जैसा नहीं, मेरे पापा जैसा बनना।" ठीक है, पर आप कब सुधरेंगे जनाब? यदि यही बात उन्होंने सिगरेट को पैरों तले मसलते हुए या फेंकते हुए कही होती तो यह दृश्य प्रभावी बन सकता था।  

फ़िल्म की दो घटनाएँ अत्यधिक निंदनीय हैं एक में नायक अपनी पत्नी के सामने निर्लज़्ज़ होकर स्वीकारता है कि उसने 350 से अधिक स्त्रियों के साथ दैहिक सम्बन्ध बनाये हैं। वहीं दूसरी घटना में वह अपने मित्र के सो जाने पर उसकी गर्लफ्रेंड के साथ भी यही करता है। इससे भी ज्यादा शर्मनाक उसका अपने मित्र को यह कहना कि "मैं चेक़ कर रहा था, लड़की में भाभी मटेरियल है कि नहीं! नहीं यार! इसका चरित्र अच्छा नहीं। मैनें तुझे बचा लिया।" उस समय थिएटर में उपस्थित लड़कों का ताली पीटकर सीटी बजाना यह सुनिश्चित कर देता है कि आदर्शवाद के तमाम ढोंग रचाने के बाद भी स्त्रियों की स्थिति वही है। शादी के लिए सबको वर्जिन चाहिए पर चरित्र प्रमाणपत्र देते हुए एक पल को भी इनकी नज़रें शर्मिंदगी से नहीं झुकतीं! ताली क्या एक हाथ से बजती है?  यदि ये दृश्य संजय दत्त की ईमानदारी और सच्चाई को बेझिझक बयां करने की नीयत से रखे गए थे तो इन्हें इतने हल्केपन से नहीं फ़िल्माना चाहिए था। फ्लैशबैक में आत्मग्लानि का बोध होते हुए भी दिखाया जा सकता था, पर वे तो यह बात मर्दानगी के घमंड में बोलते नज़र आये। सचमुच निर्माता विधु विनोद चोपड़ा और निर्देशक राजू हिरानी की फ़िल्म में ऐसे दृश्य बेहद खलते हैं क्योंकि ये दोनों अच्छे एवं संवेदनशील फिल्मकार माने जाते रहे हैं, उनकी कई फ़िल्में भी इस बात की साक्षी हैं पर लगता है कि उनकी इस संवेदनशीलता पर संजय दत्त की मित्रता भारी पड़ गई। तभी तो उन्होंने इस फ़िल्म में अश्लीलता से भरपूर, द्विअर्थी संवाद रखने में भी कोई गुरेज़ नहीं किया। संजू फ़िल्म से किसी को लाभ हो या न हो पर अपनी इस सोच के कारण यह जोड़ी तो नुक़सान में ही रहेगी। 

रणबीर के अभिनय का लोहा अब सभी मानते हैं और यह फ़िल्म उनके लिए मील का पत्थर साबित होगी इसमें दो राय नहीं। जहाँ तक संजू का प्रश्न है तो उन्हें स्वयं को सही सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं थी। हो सकता है कि वे अपने पापा का नाम ख़राब करने के लिए अब राजनीति में भी प्रवेश को इच्छुक हों और अपनी छवि को स्वच्छ करने हेतु यह फ़िल्म बनवाई हो /अथवा अपने क़रीबी मित्रों की चाहत पूरी करने के लिए स्वीकृति दी हो। पर बेहतर यही होता कि वे ऐसा करने से बचते। उन पर हथियार रखने का जो आरोप था उसके लिए वे अपने हिस्से की सज़ा काट चुके हैं और उनकी फ़िल्मों के अच्छे आंकड़ों को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि जनता उन्हें माफ़ कर चुकी थी। वरना मुन्ना भाई इतना रिकॉर्ड तोड़ बिज़नेस नहीं करती। इसलिए भले ही उन्होंने कितनी भी सच्ची और ईमानदार कहानी कहलवाने की कोशिश की है फिर भी अंत में उनके लिए एक ही बात उभरती है कि 'नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज़ को चली।' 
फ़िल्म का गीत-संगीत अच्छा और अनुकूल है। 'कर हर मैदान फ़तह' शानदार, प्रेरणात्मक गीत है जो वर्षों गुनगुनाया जाएगा। 'मैं बढ़िया तू भी बढ़िया' शादी-ब्याह में ख़ूब बजेगा। अखबार गीत भी सटीक है पर मीडिया उसके प्रचार से बचती नज़र आ रही है। 
परेश रावल, अनुष्का, सोनम, मनीषा सभी कलाकार अपनी जगह बेहतरीन है। मित्रता के भावपूर्ण रिश्ते को इस फ़िल्म में बहुत अच्छी तरह दर्शाया गया है और कमलेश के रोल को इतनी जीवंतता से निभाने के लिए विकी कौशल बधाई के पात्र हैं। यह फिल्म उनके लिए और भी कई रास्ते खोल सकती है।
यदि आप रणबीर कपूर के प्रशंसक हैं तो 'संजू' फ़िल्म आपको कहीं भी निराश नहीं करेगी। शानदार अभिनय और जी-तोड़ मेहनत के लिए रणबीर कपूर को पूरे 5 स्टार, सामान्य फ़िल्मों और विशुद्ध मनोरंजन के लिए इसे देखा जाए तो 3 और अच्छी-ख़ासी चलती ज़िंदगी में अतिरिक्त सहानुभूति बटोरने की संजू बाबा की बेतुकी कोशिशों के लिए ज़ीरो बटा सन्नाटा। 
- प्रीति 'अज्ञात'
#Sanju#Ranbir#Vicky_Kaushal
Pic. Credit: Google

सोमवार, 2 जुलाई 2018

मंदसौर रेप: ये सूची कब ख़त्म होगी?

मंदसौर की सम्पूर्ण घटना का विवरण इतना क्रूर और जघन्य है कि उसे बोलते समय आपकी ज़बान साथ छोड़ देती है. शब्द लड़खड़ाकर न बोले जाने की भीख मांगते हैं. पूरा शरीर कांपने लगता है और उस मासूम बच्ची की पीड़ा को महसूस कर हृदय चीत्कार कर उठता है.

यक़ीन मानिये इसे पढ़ते-सुनते समय आप दुःख और ग्लानि के इतने गहरे समंदर में डूब जाते हैं कि इस समाज में अपने होने का अर्थ एवं औचित्य तलाशने लगते हैं. अनायास ही उन तमाम खिलखिलाते बच्चों के चेहरे आंखों में घूमने लगते हैं, जिन्हें इस दुनिया के सुन्दर होने पर अब भी भरोसा है. जो अब भी बाग़ में खिलते फूलों पर भटकती तितलियों को देख हंसते हुए उनके पीछे दौड़ते हैं. जिन्हें चॉकलेट, आइसक्रीम, टॉफ़ी खाना ख़ूब सुहाता है और जिनका मासूम हृदय किसी अंकल की घिनौनी सोच और निकृष्टम कुत्सित इरादों को पढ़ नहीं पाता. ये इनकी नहीं, इस उम्र की स्वाभाविक असमर्थता है, क्योंकि हमारे जिग़र के ये टुकड़े बस इतना ही जानते, समझते हैं कि मनुष्य तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ समाज में रहता है और खूंखार जानवर जंगल में. अभी उनकी इतनी उम्र ही कहां हुई कि वे समझ सकें कि कुछ पुरुष शरीर के भीतर एक खूंखार, जंगली जानवर भी दांत निकाले चीर डालने को बैठा होता है.

रेप, बलात्कार, अपराध, कानून, सजा बच्चों को तो हर इंसान अपना-सा लगता है और इसी अपनेपन में वे अनजान शख़्स पर भरोसा कर उसकी उंगली थाम चल पड़ते हैं. किसी की नीयत पढ़ पाने का हुनर बचपन में नहीं आता! बचपन, छल-कपट से दूर भरोसे में जीता है. प्यार की भाषा ही बोलता-समझता है, ईमानदारी में विश्वास रखता है. जीवन की कड़वी सच्चाइयां तो इस पड़ाव के दो दशक पूर्ण होने के बाद ही समझ आती हैं. वरना हर मां अपने बच्चे को सिखाती ही है कि किसी अनजान व्यक्ति के साथ कभी नहीं जाना चाहिए, लेकिन इस बात की समझ भी तो एक पकी उम्र की मांग करती है. आज जबकि हम उस समाज में रह रहे हैं जहां बलात्कारी छह माह की बच्ची से लेकर अस्सी वर्ष की वृद्धा तक को नहीं बख़्शता, तो ऐसे में हमारे बच्चे कहां जाएं? क्या जन्म लेते ही सबसे पहले उन्हें बलात्कार का मतलब समझाया जाए? उनके भोले बचपन को छिन्न-भिन्न कर अब तक हुई सारी अमानवीय घटनाओं को उन्हें पढ़ाया जाए कि देखो! तुम जहां जन्मे हो, वहां यह भी होता है. क्या हम हर समय एक सहमे, भयभीत चेहरे को देखने के लिए तैयार हैं? पर यदि बच्चों को बचाना है तो यह तैयारी तो अब हमें करनी ही होगी. उनके मस्तिष्क में यह ठूस-ठूसकर भरना होगा कि तुम्हारे आसपास कोई जंगली भेड़िया भी घूम रहा है. दुःखद है कि इतना सब कुछ बार-बार होने के बाद भी न तो अपराध रुके और न ही उस पर होने वाली राजनीति. कुछ निर्लज़्ज़ तो यह भी कहने में नहीं हिचकते कि "विधायक आए हैं, उन्हें धन्यवाद दीजिए." किस बात का धन्यवाद चाहिए था इनको कि

"धन्यवाद, आप और आपका प्रशासन निकम्मा है?"

"धन्यवाद, कि आज हमारी बेटी जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही है!"

"धन्यवाद, कि हमारी इस अथाह पीड़ा में भी आप मुस्कुराने का साहस कर पा रहे हैं!"

"धन्यवाद, कि आपको इस दर्द के राजनीतिकरण का एक और विषय मिल गया!"

धिक्कार है ऐसे लोगों पर और उनकी गिरी हुई सोच पर कि इन्हें किसी के दर्द से कोई मतलब नहीं. तुम और तुम्हारे जैसे सभी घटिया लोग, कान खोलकर सुनो और यदि थोड़ा भी शेष है तो उस दिमाग़ में ये बात अच्छे से गुदवा लो कि "ख़ून या दर्द कभी हिन्दू-मुस्लिम नहीं होता! 'हिन्दू-मुस्लिम' शब्द के नाम पर प्रायोजित दंगे होते हैं, यह चुनाव का मन्त्र होता है, वोट को भुनाने और मानवता की जड़ में ज़हर का बीज रोपने का वीभत्स तरीक़ा होता है." भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले तथाकथित देशभक्तों को हर बात में अपराधी की जात देखने के पहले अपराध को समझना होगा, उसके विरोध में बेझिझक खड़ा होना होगा. इन्हें सजा देने के लिए सत्ता-विपक्ष, धर्म-जाति के निंदनीय कुतर्कों से परे हो समवेत स्वर में आवाज़ उठानी होगी. यह भी समझिये कि जिस भी दल का झंडा थामे आप लोगों से निरर्थक भिड़ रहे हैं, उस दल के लिए आप एक प्यादे भर हैं जो केवल बलिदान के काम आता है.

बलात्कार जैसे कुकृत्य तब तक नहीं रुकेंगे जब तक कि अपराधियों को उनके किये का क्रूरतम दंड नहीं मिलेगा. इनके लिए कोई वक़ील नहीं होना चाहिए. इनके शरीर को कहीं भी जगह न मिले. इनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार हो. फांसी एक आसान सज़ा है. इन्हें भूखे शेर के आगे फेंक देना चाहिए. जंगली कुत्तों से नुचवाना चाहिए. इनके हाथ-पैर काट देने के बाद इन्हें किसी गहरी खाई में उछाल देना चाहिए कि इनकी आने वाली पीढ़ियां भी ये दुर्गति देख सदियों सिहरती रहें. समाज और प्रशासन को उन माता-पिता से हाथ जोड़ क्षमा मांगनी चाहिए, उनके पैरों में गिर जाना चाहिए कि "हम आपकी बेटी को इस पीड़ा से बचा पाने में असमर्थ रहे." यूं दर्द तो यह जीवन भर का है. किसी की सज़ा या किसी का गिड़गिड़ाना इसे रत्ती भर भी कम नहीं कर सकता. उन बदहवास माता-पिता के कानों में अपनी बेटी की चीखें गूंजती रहेंगी, उसका बहता लहू उनकी पलकों तले रिसता रहेगा. सरकार से यही विनती है कि हो सके तो, वो जो एक कानून बनाया है, उम्र के हिसाब से. उसी के तहत ही सही पर इस कुकर्मी, दरिंदे को दुनिया से हटा दो और जिन्हें इससे हमदर्दी है उन्हें भी.

ऐसे अपराध अब नहीं होंगे, यह सोच लेना भी मन को झूठा भरमाना ही है. ये क्रम कब और कहाँ रुकेगा, पता नहीं! 'मानवता' शब्द भी मज़ाक भर रह गया है. इंसानियत मर ही चुकी है.

क्या करें! क्या कहें!

बच्चों से उनका बचपन और सभी माँओं से उनके हिस्से की नींद छीन ली गई है. 
इधर एक सर्वे में 'भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश' कहा गया है. इस ख़बर से एक पक्ष शर्मिंदा और दुःखी महसूस कर रहा तो वहीं दूसरों का चेहरा तमतमाया हुआ है. वे चीखकर कहते हैं "तो फिर पाकिस्तान में रहो, सीरिया में रहो" लेकिन इस बात को स्वीकारने और मूल समस्या को समझने में उनको लकवा मार जाता है कि तमाम ख़ूबियों और सुंदरता के बाद भी यही वह देश भी है जहाँ विदेशी सैलानियों के साथ दुर्व्यवहार और बलात्कार की ख़बरें आम हैं. जहाँ हर दूसरे दिन किसी न किसी शहर में एक स्त्री की लाश नाले में पड़ी मिलती है. हारे हुए तथाकथित प्रेमी द्वारा उसे कभी एसिड डालकर जला दिया जाता है तो कभी ससुराल पक्ष द्वारा पेट्रोल डालकर. कभी फ्रीज़र तो कभी तंदूर से उसके टुकड़े मिलते हैं. रेप के सरकारी आँकड़े देखकर ही पसीना छूट जाए जबकि उसके दोगुने तो भय और अपमान के कारण दर्ज़ भी नहीं होते. कन्या भ्रूण हत्या की बात भी किसी से छिपी नहीं रही. बेटे की आस में घरेलू हिंसा और मानसिक प्रताड़ना की तो अनगिनत; अनसुनी, अनकही कहानियाँ हैं. विकास के इस स्वर्णिम दौर में बाल-विवाह अब भी होते हैं. विधवाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं. अकेली स्त्री को उपलब्ध मान लिया जाता है. न्याय की गुहार लगाते हुए एक शिक्षिका सस्पेंड कर दी जाती है.

जी, हो सकता है कि यह सर्वे और उस पर आधारित रिपोर्ट पूर्ण रूप से सच न भी हो पर क्या हमारा सातवाँ नंबर ही रहता तो हम तसल्ली से हाथ झाड़ शर्मिंदा नहीं होते? सूची से आप इसलिए सहमत नहीं क्योंकि आपका नंबर पहला है पर क्या इस सूची में होना ही वस्तुस्थिति स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं?

इसमें कोई दो राय नहीं कि समय के साथ परिवर्तन आया है और स्त्रियाँ भी पहले से अधिक जागरूक हो गई हैं. लेकिन जब तक निर्भया, आसिफा और मंदसौर की इस बच्ची के साथ ऐसे घृणित कुकर्म होते रहेंगे, तब तक आईना देखने के लिए इस सूची की भी कोई आवश्यकता नहीं! प्रयास इस सूची से बाहर निकलने का होना चाहिए न कि तमतमाने का. यह भी तय है कि यदि यही सूची सकारात्मक बात के लिए होती तो अभी यही सब लोग एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे होते और तब इसकी विश्वसनीयता पर भी कोई संदेह नहीं होता. हम तारीफ़ पसंद लोग जो हैं. खैर! आप सब सुरक्षित रहें और अपने बच्चों का ध्यान रखें. किसी से कोई भी उम्मीद न रख, उन्हें सुरक्षित वातावरण देने की व्यवस्था स्वयं करें.
- प्रीति 'अज्ञात'
#Mandsaur #iChowk #हस्ताक्षर_वेब_पत्रिका #Rape 
iChowk में 01-07-2018 को प्रकाशित -
https://www.ichowk.in/society/rape-is-biggest-problem-in-india-need-to-take-strict-action/story/1/11554.html

रविवार, 1 जुलाई 2018

'संजू': संजू बने रनबीर को दर्शकों के प्यार से मालामाल करेगी या संजू बाबा को?

आज भारत में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी रनबीर कपूर के प्रशंसकों की संख्या अपार है, और इसका कारण उनकी चाकलेटी छवि नहीं बल्कि 'रॉकस्टार' और 'बरफी' में किया गया शानदार अभिनय है जिसने लाखों सिनेप्रेमियों को उनका मुरीद बना दिया था. रोमांस और डांस भी वे अच्छा ही करते हैं. लेकिन खबरों में बने रहने और ठीक-ठाक अभिनय के बाद भी संजय दत्त के हिस्से इतनी लोकप्रियता कभी नहीं आई. हां, ये अलग बात है कि अधिक संख्या के कारण फिल्में शायद उनकी ही ज्यादा देखी गई हों. जब 'रॉकी' रिलीज हुई वो दौर ही कुछ अलग था. मनोरंजन के नाम पर सिनेमाघर ही थे, सो लोग वहीं चले जाते थे. उन दिनों पसंद से कहीं अधिक जाने का उत्साह हुआ करता था कि "चलो, ये भी देख आयें." उस पर यदि गीत-संगीत मधुर हुआ तो भी पब्लिक के पैसे वसूल हो जाते थे.

वैसे रॉकी का "क्या यही प्यार है" और साजन का "मेरा दिल भी कितना पागल है" आज भी सबके पसंदीदा रोमांटिक गानों की सूची में जगह बनाए हुए है. संजू ने सौ से भी अधिक फ़िल्में की होंगी पर चयन और अभिनय की दृष्टि से रॉकी, साजन, सड़क, नाम, खूबसूरत, मुन्नाभाई और परिणीता ही देखने योग्य रहीं.

पसंद होना तो बाद में, उनकी फ़िल्मों के नाम देखकर ही दिमाग़ ख़राब हो जाता था. कारतूस, जान की बाज़ी, मेरा हक़, मेरा फ़ैसला, कब्ज़ा, मर्दों वाली बात, हथियार, इलाका, ज़हरीले, यलगार, ख़तरनाक,प्लान, अनर्थ और ऐसे न जाने कितने हिंसक नामों वाली फ़िल्में कि मन ही घबरा उठे. अरे, ऐसे विध्वंसक नामों वाली फ़िल्में कौन करता है भई! ये तो ट्रेलर भर है पूरी सूची पढ़ते-पढ़ते तो हो सकता है आप ही हथियार उठाकर आक्रमण करने लग जाओ. न जाने उनकी ऐसी फ़िल्मों को हां करने के पीछे की वजह क्या रही होगी! आर्थिक कारण हो सकता है. खैर! कुछेक कॉमेडी फिल्मों में उनका अभिनय देखकर लगता था कि उन पर ऐसे रोल ज्यादा सूट करते हैं, पर वो दौर भी उतना चला नहीं.

यूं हम भारतीय फ़िल्मी कलाकारों के प्रति काफी भावुक और संवेदनशील हो जाते हैं और उनके विरुद्ध कोई भी बात सुनना हमें बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता! लेकिन संजय दत्त के साथ ऐसा नहीं हो सका. शुरू से ही उनकी इतनी अधिक नकारात्मक बातें पढ़ने-सुनने में आती रहीं कि लोगों में उनके लिए सहानुभूति से कहीं अधिक इस बात का गुस्सा रहा कि सुनील दत्त और नरगिस जी जैसे आदर्शवादी माता-पिता के बेटे को अपने पेरेंट्स की इज्ज़त का जरा भी ख़याल नहीं आता! उन दोनों का सोच जनता का मन दुःख से भर जाता था. संजय का पक्ष जानने में किसी को कभी रुचि नहीं थी.

पर फिल्म संजू दर्शकों की उत्सुकता बढ़ा रही है. इससे उनके जीवन के दूसरे पक्ष का भी पता चल रहा है. लोग जानना चाहते हैं कि उस इंसान ने कितनी पीड़ा झेली, जो आधे से भी अधिक जीवन अपने-आप से जूझता रहा. यद्यपि इस दुःख से उबरने के लिए किये गए उनके व्यवहार एवं बुरी आदतों को किसी भी स्थिति में तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन अपने सच को स्वीकारने और एक दर्द भरी यात्रा को पर्दे पर उतारने की स्वीकृति देने के लिए वे अवश्य ही बधाई के पात्र हैं. संजू के रोल के लिए की गई मेहनत के कारण रनबीर भी खूब वाहवाही लूट रहे हैं.

उम्मीद है यह फ़िल्म दर्शकों को पसंद आएगी और बुरा काम करने से पहले इसकी सच्चाई युवाओं को दसियों बार सोचने पर मजबूर करेगी. आखिर, अपने लिए ऐसा यातना भरा जीवन कौन चाहेगा!
'संजू' न केवल रनबीर की शानदार परफॉरमेंस के लिए जानी जाएगी बल्कि इससे संजय दत्त के प्रशंसकों को उनकी ज़िंदगी को नए सिरे से समझने का अवसर भी मिलेगा. निश्चित रूप से फ़िल्म के ट्रेलर ने ही उनके प्रति सुगबुगाहट पैदा कर नई संवेदनाओं को जागृत करना शुरू कर दिया है.

संजू बाबा भी अब उस दुनिया से बाहर आकर ख़ुशहाल जीवन जी रहे हैं. अब उनके हिस्से में तमाम खुशियों और दुआओं के बरसने का समय है. जहां तक रनबीर की बात है तो यह तय ही है कि यह फ़िल्म उनके कैरियर में मील का पत्थर साबित होगी. देखना यह है कि इस फ़िल्म की सफलता किसकी झोली ज्यादा भरती है, खुद संजू की या संजू बने रनबीर की!
- प्रीति 'अज्ञात'
#Sanju#Pre release#iChowk
iChowk में 29-06-2018 को प्रकाशित -