बकरी का किस्सा जब सुनने में आया तब समझ से बाहर था कि इसे क्या कहा जाए! क्योंकि इस घटना के सामने 'पाशविकता' एक सभ्य शब्द लगने लगता है और 'जानवर' इंसान से कहीं बेहतर नस्ल के प्राणी जान पड़ते हैं. दुःख यह है कि उनके पास विरोध का कोई माध्यम नहीं. न तो उन्हें गाली-गलौज़ कर अपना आक्रोश व्यक्त करना आता है और न ही उनमें पोस्टर लगा, मोमबत्तियाँ जलाकर शांतिपूर्ण तरीके से रैलियाँ निकालने की सभ्यता ही विकसित हुई है. संभव है यह भी कहा जाए कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं....तो चलो, मुज़फ्फ़रपुर की बात करते हैं. यूँ भी क्या फ़र्क़ है, इस बकरी और उन बच्चियों में! दोनों ही निरीह, दूसरों पर आश्रित, जिनके दुःख-दर्द से दस दिन बाद किसी को कोई वास्ता नहीं रहने वाला! बड़ी-बड़ी घटनाएँ, हादसे, नृशंस हत्या, गैंगरेप के हज़ारों किस्से आसानी से गटकने वाले हम लोग अब चीख-चीखकर हार चुके हैं और मजबूरीवश ही समझिये पर पक्के हो चुके हैं. हमारी इस कमजोरी को आती-जाती सभी सरकारें और मीडिया तंत्र अच्छे से जान चुका है. तभी तो उस निर्लज़्ज़ अपराधी की हँसी यूँ ही नहीं है. यह धन का गरूर है, न्याय को खरीदने का दंभ है, ऊँची पहुँच का घिनौना प्रमाण है, आगे भी शोषण करते रहने का बुलंद दस्तावेज है.
सूरत, पानीपत, जींद, कठुआ, दिल्ली के उदाहरण तो बस अभी-अभी के हैं. अपराधी, अपराध करते समय एक बार भी नहीं सोचता होगा कि वह जिसके साथ कुकर्म कर रहा है वह एक मासूम बच्ची है, महिला या अधेड़ उम्र की महिला लेकिन 'न्याय-तंत्र' की व्यवस्था एकदम केयरिंग है वह पीड़िता की उम्र के आधार पर किसी वहशी की सजा 'एडजस्ट' कर अपनी महानता का परिचय देना नहीं भूलती. यूँ हम सभी जानते हैं कि भूले-भटके से कभी किसी को जेल की हवा खानी भी पड़ी तो पैसों की गर्मी उसे ससम्मान बरी कर ही देगी और न किया तब भी यहाँ 'दंड' का तात्पर्य वर्षों तक मुफ्त की रोटियाँ तोडना ही तो है, और इन्हें पालने-पोसने का खर्च करने को जनता है ही. उसे जब चाहे नोचा, निचोड़ा जा सकता है.
हम इतने आशावादी हैं कि तब भी सरकारों से उम्मीद रखते हैं और जुए की तरह कांग्रेस, बीजेपी, आप की गोटियाँ फेंक जीतने की कोशिश करते हैं, जबकि राजनीति एक ऐसा खेल है जिसमें हर हाल में हार प्रजा के ही हिस्से आती रही है.
नेता बहुत बेचारे हैं, न छेड़िये उन्हें! उनके पास समय ही नहीं ... वे स्वयं को घोटालों और स्टिंग ऑपरेशन से बचाने की जुगत भिड़ायें या आपकी बकवास सुनें! आप ICU में तैरें या बाढ़ में डूबकर मर जाएँ, उन्हें तो हेलिकॉप्टर से बाढ़ पीड़ितों का दौरा कर ऊपर से टॉफियाँ उछालनी हैं, सभी बुरी घटनाओं की निंदा कर उसका ठीकरा अपने विरोधी पर फोड़ना है, विदेशों में अपनी महानता के पर्चे बाँट जयकारा लगवाना है. हम कहाँ गँवारों की तरह वही राग गाये जा रहे हैं! जबकि अब तक हमें आदत पड़ जानी चाहिए थी कि रोज सिर झुकायें और इंसानियत के नाम पर 'दो मिनट मौन की' श्रद्धांजलि अर्पित करें.
इस विषय पर मेरी यह आखिरी पोस्ट है.
- प्रीति 'अज्ञात'
#मुज़फ्फ़रपुर
सूरत, पानीपत, जींद, कठुआ, दिल्ली के उदाहरण तो बस अभी-अभी के हैं. अपराधी, अपराध करते समय एक बार भी नहीं सोचता होगा कि वह जिसके साथ कुकर्म कर रहा है वह एक मासूम बच्ची है, महिला या अधेड़ उम्र की महिला लेकिन 'न्याय-तंत्र' की व्यवस्था एकदम केयरिंग है वह पीड़िता की उम्र के आधार पर किसी वहशी की सजा 'एडजस्ट' कर अपनी महानता का परिचय देना नहीं भूलती. यूँ हम सभी जानते हैं कि भूले-भटके से कभी किसी को जेल की हवा खानी भी पड़ी तो पैसों की गर्मी उसे ससम्मान बरी कर ही देगी और न किया तब भी यहाँ 'दंड' का तात्पर्य वर्षों तक मुफ्त की रोटियाँ तोडना ही तो है, और इन्हें पालने-पोसने का खर्च करने को जनता है ही. उसे जब चाहे नोचा, निचोड़ा जा सकता है.
हम इतने आशावादी हैं कि तब भी सरकारों से उम्मीद रखते हैं और जुए की तरह कांग्रेस, बीजेपी, आप की गोटियाँ फेंक जीतने की कोशिश करते हैं, जबकि राजनीति एक ऐसा खेल है जिसमें हर हाल में हार प्रजा के ही हिस्से आती रही है.
नेता बहुत बेचारे हैं, न छेड़िये उन्हें! उनके पास समय ही नहीं ... वे स्वयं को घोटालों और स्टिंग ऑपरेशन से बचाने की जुगत भिड़ायें या आपकी बकवास सुनें! आप ICU में तैरें या बाढ़ में डूबकर मर जाएँ, उन्हें तो हेलिकॉप्टर से बाढ़ पीड़ितों का दौरा कर ऊपर से टॉफियाँ उछालनी हैं, सभी बुरी घटनाओं की निंदा कर उसका ठीकरा अपने विरोधी पर फोड़ना है, विदेशों में अपनी महानता के पर्चे बाँट जयकारा लगवाना है. हम कहाँ गँवारों की तरह वही राग गाये जा रहे हैं! जबकि अब तक हमें आदत पड़ जानी चाहिए थी कि रोज सिर झुकायें और इंसानियत के नाम पर 'दो मिनट मौन की' श्रद्धांजलि अर्पित करें.
इस विषय पर मेरी यह आखिरी पोस्ट है.
- प्रीति 'अज्ञात'
#मुज़फ्फ़रपुर