हाँ, जहाँ देह का सुख, मन से ऊपर हो, वह छलावा है। मात्र आकर्षण भर होना प्रेम नहीं होता, क्योंकि यह तो परिस्थितिजन्य और अस्थायी भाव होता है। पानी के बुलबुले की मानिंद। जबकि प्रेम दैहिक नहीं, दैवीय घटना है। सोचिए, करोड़ों मनुष्यों से भरी इस दुनिया में एक ऐसा साथी जो हमारा मन पढ़ ले, उसे पाना कितनी अद्भुत बात है। फिर चाहे वह जीवन के किसी भी पड़ाव पर हो। मन से मन का जुड़ाव और जब इसकी अनुभूति होती है, तो हर रिश्ता प्यारा लगने लगता है। किसी से कोई शिकायत नहीं रह जाती। इस स्वार्थी समाज में यदि कोई ऐसा चेहरा हो जो हमारा समर्पण समझ सके, हम पर समर्पित हो सके तो वह अपना सा क्यों न लगे? उससे प्यार क्यों न हो? उसके लिए जमीन-आसमान एक क्यों न कर दिए जाएं? उसकी धड़कनों की ताल पर हमारी साँसें क्यों न चलें? हमारा ऐसा शिरोधार्य रिश्ता, समाज की नज़रों में पाप या अश्लील क्यों हो?
प्रेम के रिश्ते को प्रायः सामाजिक मर्यादा की कसौटी पर कसा जाता है। दबाव यह रहता है कि पहले रिश्ते का अनुमोदन लिया जाए, उसके बाद ही प्रेम की अनुमति होगी! यह क्यों नहीं मान लिया जाता कि प्रेम यदि कोई पौधा है तो वह स्वच्छंद आकाश के नीचे ही फलता-फूलता है। दो प्रेमी यदि परस्पर सुख से रह रहे हैं तो इसमें सामाजिक सद्भाव बढ़ेगा ही, मर्यादाएं कैसे टूटेंगी? इस बात को समझने के लिए समाज को अपनी एक विकृत ग्रन्थि से बाहर आना पड़ेगा! ये जो हम दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में तांकझाँक कर अपने लिए चटकारे जुटाने के आदी हो गए हैं, यह शर्मनाक है। क्या हमने कभी विचार किया कि 'पुलिस ने प्रेमी जोड़े को धर दबोचा!', 'विवाह मंडप से दस मिनट पहले लड़की प्रेमी के साथ फ़रार!', 'नौकरी पर चला बॉस से चक्कर', 'पड़ोसिन पर डाले डोरे!'... कितनी सरलता से कहा और लिखा जाने लगा है। फिल्मी कलाकारों के निजी जीवन पर प्रतिक्रिया करने का स्तर तो और भी रसातल तक जा पहुँचा है। क्या ऐसा नहीं लगता कि 'चक्कर चल रहा', 'लफड़ा', 'टांका भिड़ा है' जैसे विश्लेषणों से हमने सृष्टि के सबसे खूबसूरत भाव को अत्यधिक घिनौना और निकृष्ट मान लिया है?
ऐसी खबरें पढ़कर मुँह पर हाथ रख 'हाय, राम' कहने वालों का मानस समझिए। वे उसी ग्रंथि के शिकार हैं जिसका मैंने अभी-अभी जिक्र किया। हम होते कौन हैं, किसी के रिश्ते पर जज बनने वाले और उस पर टीका-टिप्पणी करने वाले! सबको अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार है। बिना किसी की इजाज़त लिए। समाज की जिम्मेदारी स्पष्ट है, उसे प्रेमियों के रिश्तों को सेलिब्रेट करना ही होगा और प्रेम को आदर के भाव से देखना ही होगा। हम मनुष्य प्रेम करते हैं और हम मनुष्य ही समाज के रूप में उसका विरोध करते हैं। यह विरोधाभास क्यों?
प्रेम की जब भी बात हो, तब क्या इस भाव को थोड़ी मानवीय संवेदना, मृदुता और सरलता के साथ समझा और स्वीकारा नहीं जा सकता?
- प्रीति अज्ञात
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