'गर्व से कहो हम भारतीय हैं !' कहते थे, कहते हैं और आगे भी कहते ही रहेंगे. पर, अब ये कहने में वो पहले सा आत्मविश्वास नहीं रहा. बल्कि कई बार तो ग्लानि ही होती है ! हाँ, आज भी मन-मस्तिष्क में अनगिनत तरंगें उठती हैं, शरीर में फूरफ़ुरी-सी दौड़ जाती है. जब भी अपने राष्ट्र-गान की धुन सुनाई देती है ! हृदय भाव-विह्यल हो उठता है, जब विदेशी धरती पर भारतीय टीम विजय की पताका फहराती है. खुशी से आँखें नम हो उठती हैं जब ओलंपिक में हमारा देश मेडल जीतता है. सुष्मिता सेन के विश्व-सुंदरी बनते ही यूँ पगलाते हैं, जैसे हमें ही वो खिताब मिल गया हो ! अच्छा लगता है जब कोई भारत-वासी नोबल पुरस्कार, या ऑस्कर जीतता है ! यहाँ तक कि उसके भारतीय मूल का होना भी अपार प्रसन्नता दे जाता है और भी ऐसे कई पल अवश्य ही रहे हैं, जब माउंट-एवरेस्ट पर जाकर दुनिया को ठेंगा दिखाने का मन हुआ है ! लेकिन, आज़ादी से लेकर अब तक की खुशियों को गिनने बैठें, तो १०० से ज़्यादा ऐसी घटनाएँ शायद ही ढूँढ सकें !
अब आज का समाचार-पत्र उठाइए.... मात्र एक ही दिन में चोरी, आगज़नी, बलात्कार, लूटपाट, हत्या, अपहरण, यौन शोषण, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की न जाने कितनी खबरें आपको व्यथित कर देंगीं. रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएँ, अपने ही लोगों द्वारा अपनों पर अत्याचार, धर्म के नाम पर मारामारी और उस पर खेली जा रही गंदी राजनीति....कुछ इस अंदाज़ में कि अपने ही देश से घिन होने लगे ! अभी तो इसमें रोज होने वाली दुर्घटनाएँ और प्राकृतिक आपदाओं का ज़िक्र ही नहीं, जिससे समय रहते लोगों की जानें बचाई जा सकतीं थीं !! और बची-खुची क़सर बाकी लोग सब जगह गंदगी फैलाकर, पान की पीक, गुटके के गंदे बदबूदार निशान, सड़कों पर भटकते आवारा कुत्ते और गाय, और उन बेचारों के लिए हमारे ही द्वारा फेंका गया खाना और उस पर भिनकती मक्खियाँ पूरी कर देते हैं ! क्या इस पर गर्व किया जाए ????
किसी भी बात का निर्धारण अनुपात से ही होता है, न ? यदि वर्ष में १-२ अच्छी घटनाएँ और १०,००० से भी ज़्यादा बुरी हों,, तो क्या गौरवान्वित होना जायज़ है ? अफ़सोस नहीं होना चाहिए, कि इतनी अधिक आबादी वाले देश में दुष्कर्मों की संख्या ज़्यादा है ! चिंताजनक स्थिति ये भी है, कि इसके विरोध में बोलने वालों की संख्या बहुत कम है. ज़्यादातर लोग चुप बैठकर तमाशा देखना ही पसंद करते हैं, यही सोचकर कि कौन इन फालतू पचड़ों में पड़े ! कुछ लोग इसे बेमतलब का ज्ञान बाँटना कहकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं, कुछ यह कहकर बच निकलते हैं कि उन्हें ये सब बातें समझ ही नहीं आतीं और बचे-खुचों ने तो यह मान ही लिया है, कि इस देश का कुछ नहीं होने वाला ! ये वही लोग हैं, जो अपने ही राष्ट्र का मज़ाक तो उड़ाते हैं, पर उसे बदलने के लिए खुद कुछ भी नहीं करना चाहते ! पर क्या यह ज़रूरी है, कि वही व्यक्ति आवाज़ उठाए, जिस पर बीत रही हो ?? और हम सब अपनी बारी आने तक तमाशबीन बने रहें ??
सुना था, पढ़ा था और स्कूल की परीक्षाओं के दौरान हिन्दी निबंध में लिखा भी है. विषय होता था- 'अनेकता में एकता', और हम सभी इसमें वही बरसों से घोंट-घोंटकर याद की हुई बातें लिख आते थे...... "भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है, यहाँ सभी धर्मों को समान भाव से देखा जाता है. इतने धर्म, जाति, पहनावा, ख़ान-पान में विभिन्नता होते हुए भी हम सब एक हैं, वग़ैरा, वग़ैरा.." और अंत में यह लिखना कभी नहीं भूले कि....."इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारे यहाँ 'अनेकता में एकता' पाई जाती है." लो जी हो गये मार्क्स पक्के ! पर मन तब भी बहुत कचोटता था, शर्मिंदा होता था क्योंकि ये न तो तब सच था और न ही अब है ! रोज ही सुनाई दे जाते हैं, धर्मगुरुओं के दंभी स्वर....अपने-अपने धर्म के गुणगान के साथ, दूसरे को नीचा दिखाती हुई आवाज़ें ! साधु-संतों के बारे में हमेशा से यही जाना है, कि इनका सबसे प्रमुख गुण धैर्य और संयम है....पर जब इन्हें चीखते-चिल्लाते और अभद्र भाषा का प्रयोग करते देखा तो इनकी विश्वसनीयता पर और भी संदेह हुआ. अगर ये सही हैं, तो फिर इनकी परिभाषाएँ ग़लत हैं. धर्मांधता, आस्था और धर्म-भीरू होना बिल्कुल अलग हैं, पर क्या ये वैयक्तिक नहीं होना चाहिए ? गंदी सोच और घटिया मानसिकता वाले लोगों को इतना प्रचार-प्रसार देने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है ? 'प्रजातंत्र' का ये कैसा घिनौना रूप है ! लेकिन हम भारतीयों की भी एक खूबी है, हम ऐसे लोगों को पूजते बहुत हैं ! खुश भी तुरंत ही हो जाते हैं, कल तक जो १०० बुरी घटनाओं पर दहाड़ें मारकर रोते थे, कुछ अच्छा हुआ नहीं कि खिलखिला उठे !
जहाँ मुखपृष्ठ तमाम राजनीतिक और आपराधिक खबरों से पटा पड़ा है, वहीं अख़बार के किसी कोने में एक छोटा-सा समाचार दिखता है, किसी अच्छी घटना के होने का ! शीर्षक ज़्यादातर यही रहता है...... "इंसानियत आज भी ज़िंदा है !" कैसी विडंबना है, इंसानों के वेश में, इंसानों के देश में.... अपने ही होने का प्रमाणपत्र ढूँढना !
तभी अचानक पीछे से एक स्वर सुनाई देता है....... "गर्व से कहो, हम भारतीय हैं !'
O' Yeah ! Proud Of It !!
हमने भी तुरंत ही आंग्ल-भाषा में इसकी पुष्टि करके अपने भारतीय-बुद्धिजीवी होने का पुख़्ता सबूत दे डाला !
-प्रीति 'अज्ञात'
अब आज का समाचार-पत्र उठाइए.... मात्र एक ही दिन में चोरी, आगज़नी, बलात्कार, लूटपाट, हत्या, अपहरण, यौन शोषण, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की न जाने कितनी खबरें आपको व्यथित कर देंगीं. रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएँ, अपने ही लोगों द्वारा अपनों पर अत्याचार, धर्म के नाम पर मारामारी और उस पर खेली जा रही गंदी राजनीति....कुछ इस अंदाज़ में कि अपने ही देश से घिन होने लगे ! अभी तो इसमें रोज होने वाली दुर्घटनाएँ और प्राकृतिक आपदाओं का ज़िक्र ही नहीं, जिससे समय रहते लोगों की जानें बचाई जा सकतीं थीं !! और बची-खुची क़सर बाकी लोग सब जगह गंदगी फैलाकर, पान की पीक, गुटके के गंदे बदबूदार निशान, सड़कों पर भटकते आवारा कुत्ते और गाय, और उन बेचारों के लिए हमारे ही द्वारा फेंका गया खाना और उस पर भिनकती मक्खियाँ पूरी कर देते हैं ! क्या इस पर गर्व किया जाए ????
किसी भी बात का निर्धारण अनुपात से ही होता है, न ? यदि वर्ष में १-२ अच्छी घटनाएँ और १०,००० से भी ज़्यादा बुरी हों,, तो क्या गौरवान्वित होना जायज़ है ? अफ़सोस नहीं होना चाहिए, कि इतनी अधिक आबादी वाले देश में दुष्कर्मों की संख्या ज़्यादा है ! चिंताजनक स्थिति ये भी है, कि इसके विरोध में बोलने वालों की संख्या बहुत कम है. ज़्यादातर लोग चुप बैठकर तमाशा देखना ही पसंद करते हैं, यही सोचकर कि कौन इन फालतू पचड़ों में पड़े ! कुछ लोग इसे बेमतलब का ज्ञान बाँटना कहकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं, कुछ यह कहकर बच निकलते हैं कि उन्हें ये सब बातें समझ ही नहीं आतीं और बचे-खुचों ने तो यह मान ही लिया है, कि इस देश का कुछ नहीं होने वाला ! ये वही लोग हैं, जो अपने ही राष्ट्र का मज़ाक तो उड़ाते हैं, पर उसे बदलने के लिए खुद कुछ भी नहीं करना चाहते ! पर क्या यह ज़रूरी है, कि वही व्यक्ति आवाज़ उठाए, जिस पर बीत रही हो ?? और हम सब अपनी बारी आने तक तमाशबीन बने रहें ??
सुना था, पढ़ा था और स्कूल की परीक्षाओं के दौरान हिन्दी निबंध में लिखा भी है. विषय होता था- 'अनेकता में एकता', और हम सभी इसमें वही बरसों से घोंट-घोंटकर याद की हुई बातें लिख आते थे...... "भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है, यहाँ सभी धर्मों को समान भाव से देखा जाता है. इतने धर्म, जाति, पहनावा, ख़ान-पान में विभिन्नता होते हुए भी हम सब एक हैं, वग़ैरा, वग़ैरा.." और अंत में यह लिखना कभी नहीं भूले कि....."इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारे यहाँ 'अनेकता में एकता' पाई जाती है." लो जी हो गये मार्क्स पक्के ! पर मन तब भी बहुत कचोटता था, शर्मिंदा होता था क्योंकि ये न तो तब सच था और न ही अब है ! रोज ही सुनाई दे जाते हैं, धर्मगुरुओं के दंभी स्वर....अपने-अपने धर्म के गुणगान के साथ, दूसरे को नीचा दिखाती हुई आवाज़ें ! साधु-संतों के बारे में हमेशा से यही जाना है, कि इनका सबसे प्रमुख गुण धैर्य और संयम है....पर जब इन्हें चीखते-चिल्लाते और अभद्र भाषा का प्रयोग करते देखा तो इनकी विश्वसनीयता पर और भी संदेह हुआ. अगर ये सही हैं, तो फिर इनकी परिभाषाएँ ग़लत हैं. धर्मांधता, आस्था और धर्म-भीरू होना बिल्कुल अलग हैं, पर क्या ये वैयक्तिक नहीं होना चाहिए ? गंदी सोच और घटिया मानसिकता वाले लोगों को इतना प्रचार-प्रसार देने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है ? 'प्रजातंत्र' का ये कैसा घिनौना रूप है ! लेकिन हम भारतीयों की भी एक खूबी है, हम ऐसे लोगों को पूजते बहुत हैं ! खुश भी तुरंत ही हो जाते हैं, कल तक जो १०० बुरी घटनाओं पर दहाड़ें मारकर रोते थे, कुछ अच्छा हुआ नहीं कि खिलखिला उठे !
जहाँ मुखपृष्ठ तमाम राजनीतिक और आपराधिक खबरों से पटा पड़ा है, वहीं अख़बार के किसी कोने में एक छोटा-सा समाचार दिखता है, किसी अच्छी घटना के होने का ! शीर्षक ज़्यादातर यही रहता है...... "इंसानियत आज भी ज़िंदा है !" कैसी विडंबना है, इंसानों के वेश में, इंसानों के देश में.... अपने ही होने का प्रमाणपत्र ढूँढना !
तभी अचानक पीछे से एक स्वर सुनाई देता है....... "गर्व से कहो, हम भारतीय हैं !'
O' Yeah ! Proud Of It !!
हमने भी तुरंत ही आंग्ल-भाषा में इसकी पुष्टि करके अपने भारतीय-बुद्धिजीवी होने का पुख़्ता सबूत दे डाला !
-प्रीति 'अज्ञात'