बुधवार, 30 अप्रैल 2014

अनजानी सी पहचान

संभवत: दो वर्ष पूर्व की ही बात रही होगी ये ! मैं ट्रेन में सफ़र कर रही थी, दुर्भाग्य से ऊपर की बर्थ ही मिली थी मुझे. मैं उन लोगों में से हूँ, जो ट्रेन में सफ़र करते ही इसलिए हैं कि 'विंडो सीट' का भरपूर मज़ा ले सकें. बाहर के नज़ारे, रास्ते में पड़ते छोटे-छोटे गाँव, रेलवे लाइन के आसपास खेलते-कूदते बच्चे, भागते हुए पेड़, रेलवे-क्रॉसिंग के नीचे रुके लोग और जीभ दिखाते हुए खी-खी करके उन्हें चिढ़ाना मुझे अभी भी खूब भाता है. रात होते-होते ये अफ़सोस भी जाता रहा. ट्रेन में नींद अच्छे से आती नहीं कभी, अपनी और सामान दोनों की ही फ़िक्र. हालाँकि इस समय सामान की उतनी चिंता नहीं थी. ये भी अजीब ही आदत है मेरी, कि लगेज की परवाह जाते समय ही ज़्यादा रहती है, मुझे. लौटते वक़्त तो यही लगता है, कि चोरी हो भी गया तो क्या हुआ, घर ही तो जाना है, अब ! पर हाँ, सबकी गिफ्ट्स का बेग अपने सिरहाने ही रखती हूँ, अभी भी ! खैर...चलती ट्रेन में लिखाई-पढ़ाई मुझसे होती नहीं, पर कुछ विचार बुरी तरह उथल-पुथल मचा रहे थे, सो पर्स में से अपनी डायरी और पेन निकाल ही लिया. माहौल एकदम प्रतिकूल था. लिखते समय जो एकांत चाहिए उसकी उम्मीद रखना भी बेमानी था, मैं दरवाजा बंद करके और कभी-कभार तो पंखे को भी बंद करके लिखने वालों में से हूँ, ज़रा भी व्यवधान हुआ, कि किस्सा ख़त्म ! पर यहाँ ऐसा सोचना भी बेवकूफी थी !

ऐसे में उसकी आवाज़ मुझे बहुत इरिटेट कर रही थी, वो बोले ही चली जा रही थी, चुप न होने का तय करके ही बैठी हो जैसे. तभी मैंनें पूरी गर्दन ही लटका दी और ऊपर से नीचे झाँका, फिर बच्चों से पूछा..'सो गये ना ?' दोनों ने एक साथ मुस्कुराते हुए कहा, 'आपको क्या लगता है ? ' फिर आँखों-आँखों में ही हम तीनों हँस पड़े. तभी कहीं से आवाज़ आई, 'आंटी, मैं डिस्टर्ब तो नहीं कर रही ना ?' मैंनें झट से बोल दिया...'नहीं तो !' पर अचानक ही मैं एकदम असहज-सी हो गई.....आंटी ? हुहह..मेरे जानने वाले तो कहते हैं, कि मैं अभी भी कॉलेज गोइंग टाइप लगती हूँ, और इसने मुझे.......!! फिर खुद ही मन में आए विचार को झटक दिया मैंने, तो क्या हुआ, मेरे को क्या !!! पर सच तो यह है कि मैं मन में खिसिया-सी रही थी..कोई बच्चा आंटी बोले तो चलता है, पर एक शादीशुदा महिला ? यहाँ गौर करने वाली बात ये है, कि महिला शब्द का प्रयोग मैंनें जान-बूझकर ही किया है, वो एक शादीशुदा लड़की ही थी !

न चाहते हुए भी उसकी बातें मेरे कानों में पड़ रहीं थीं. वो अपने आसपास बैठे लोगों से खूब घुल-मिलकर बातें कर रही थी. अपने स्कूल, कॉलेज और दोस्तों की, पसंद-नापसंदगी की और भी जाने क्या-क्या ! अचानक उसकी बातों में मेरे शहर का नाम आया, अरे तो ये भी यहीं की है क्या ? मैंनें पूछना चाहा, पर ऊपर से चिल्लाकर पूछना जँचा नहीं, सो चुप ही रही. थोड़ी देर बाद किसी ने उससे उसका गंतव्य जानना चाहा, अब मेरे भी कान खड़े हो गये थे, एक अजीब सी फ़िक्र होने लगी थी मुझे उसकी...अकेले सफ़र कर रही थी वो, जमाना भी खराब है और मेरे दिमाग़ में ढेरों ऊल-जलूल बातों ने पल भर में ही धरना दे दिया ! जैसे ही उसने फिर से मेरे वर्तमान शहर का नाम लिया, तो मैं उछल ही पड़ी ! बिना उसके पूछे ही मैंनें कह दिया, अरे हम भी वहीं जा रहे हैं. एक तसल्ली सी हुई, कि चलो अब ये खुद को अकेला नहीं समझेगी. हालाँकि उसे देखकर ऐसा बिल्कुल भी लगता नहीं था, कि वो ऐसी तसल्लियों की मोहताज़ भी है ! उसे नींद आने लगी थी शायद, प्यार से मेरी तरफ देखकर बोली..गुड नाइट आंटी ! पता नहीं क्यों, इस बार बुरा नहीं लगा मुझे, और जवाब में हंसते हुए मैंनें भी उसे गुड नाइट कह डाला ! 

हमेशा की तरह सुबह जल्दी ही नीचे उतर आई मैं, बाथरूम भी साफ मिलते हैं और फ्रेश होकर सबसे पहले चाय वाले से चाय लेने का सुख भी अमूल्य होता है. वो भी उठ गई थी, और बातों-बातों में ही उससे अच्छी दोस्ती भी हो गई. एक-दूसरे के नंबर भी लिए हमनें. फेसबुक पर अपने होने की जानकारी भी दी गई. मैं लिखती भी हूँ, इस बात से वो बेहद प्रभावित थी. मैंनें उसे कहा भी, कि मैं इस यात्रा पर ज़रूर लिखूँगी. पर जीवन की जद्दोजहद में कितनी ही प्लान की हुई बातें फेल हो जाती हैं, यहाँ भी यही हुआ ! इस बीच एक बार उससे तभी ही फोन पर बात हुई थी और दो बार कुछ संदेशों का आदान-प्रदान ! पर इतना तो जान ही गई, कि वो बहुत प्यारी इंसान हैं, पागलपन में ठीक मेरी ही तरह, और दूसरों पर तुरंत ही विश्वास कर लेने में भी मेरे ही जैसी ! बस यही दुआ है कि ईश्वर उसके विश्वास को हमेशा बरक़रार रखे. उसे जीवन की तमाम खुशियाँ हासिल हों ! शायद मैं आज भी उसे ये सब ना कह पाती, आज अचानक ही उसके जन्मदिवस का नोटिफिकेशन आया, तो सारी यादें ताज़ा हो गईं ! वैसे भी अब एक नया नियम बना लिया है मैंनें, कि जब जो भी महसूस करो, कह डालो.... बहुत कुछ इसलिए ही पीछे छूट जाता है, कि कह सकने की हिम्मत ही नहीं होती ! पर अब जीवन के उस मोड़ पर हूँ, जहाँ न कुछ पाने की ज़्यादा खुशी होती है और न ही खोने का अफ़सोस ! ये उदासीनता ज़िंदगी का हिस्सा खुद कभी नहीं होती, पर कब शामिल हो जाती है..पता ही नहीं चलता ! जीना इसी को ही तो कहते हैं ना ! खैर....ये बातें फिर कभी !

जन्मदिवस मुबारक हो, प्रिया ! देखो, मैंनें अपना वादा निभा दिया है आज ! :)

प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

'एकालाप'


जानती हूँ, अब यहाँ आने का कोई फायदा नहीं ..फिर भी आती हूँ रोज, उसी तयशुदा समय पर ! ये भी पता है कि अब मेरी हर दस्तक़ का जवाब नहीं मिलेगा या शायद, सुनकर भी अनसुनी कर दीं जाएँगी, कुछ रुंधीं-सिसकती आवाज़ें ! फिर भी खटखटाती हूँ..रोज वही दरवाज़ा ! कई बार ये भी अहसास हुआ है, कि है कोई वहाँ, शायद मुझसे भी ज़्यादा ज़रूरी ! फिर हँस पड़ती हूँ, अपनी ही इसी सोच पर कि मैं ज़रूरी थी ही कब. बिन बुलाए हर समय उपस्थित, मैंनें तुम्हें मुझे 'मिस' करने का मौका ही नहीं दिया न ! हा-हा-हा, तुम्हें भी पता ही है, कि इसका कोई और ठौर नहीं...नाराज़ होगी या खुश, आएगी तो इधर ही ! इसी निश्चिंतता ने तुम्हें, मुझसे दूर कर दिया है...हाँ, तुमने इसे व्यस्तता का सुखद नाम देने की कोशिश बहुत बार की है. यह एक लंबी चर्चा का विषय हो सकता है, पर मैं इस सबसे बचना चाहती हूँ. तुम्हें खो देने का वही पुराना डर आज भी रह-रहकर जेहन में उभरने लगा है. यहाँ आकर मेरी सारी समझदारी मेरा साथ छोड़ देती है, याद रह जाता है, तो बस तुम्हारा नाम, हमारा नाम, मैं और तुम, सिर्फ़ हम.....!

कहा है तुमने पहले भी, समझाया भी तो है..कई दफे, कि न आया करूँ मैं यहाँ..तुम्हें पता है, कि तुम्हें न पाकर मैं उदास हो जाती हूँ, टूट-सी जाती हूँ और कितनी ही बार अवसादग्रस्त भी हो चुकी हूँ. फिर भी मैं आती हूँ, तो बस यही सोचकर, कि क्या पता तुम आओ, कभी मेरी उम्मीद लिए और मैं न मिली, तो तुम भी तो उदास हो जाओगे न फिर ! नहीं चाहती, कि तुम्हारे इस साँवले-सुंदर से चेहरे पर चिंता की एक भी लकीर हो. हाँ, ये बात अलग है..कि मैं उन परेशानियों को कभी दूर न कर सकी..कभी करना चाहा भी, तो हमारे बीच और दूरियाँ बनती चली गईं....ये हम दोनों की ही बदक़िस्मती रही है शायद !

खैर......फिक़्र न करना कोई, मैं आऊँगी, आती रहूंगी....तो बस तुम्हारे लिए ! बाकी दुनिया और उससे जुड़े सारे अहसास अब सुन्न हो चुके हैं और मैं अब उन्हें जगाना भी नहीं चाहती ! जब तक तुम हो....मैं भी हूँ. पास रहो या यूँ दूर-दूर.....अब बस 'होना' ही काफ़ी है. 
सौदामिनी
'तुम्हारी' भी लिख दूं क्या ?

*एक और अंश, सौदामिनी के कई अंशों में से... .

प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

प्रेम डगर

Disclaimer :  यह एक अच्छे मूड में लिखे गये विचार हैं, जिसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं !

प्रेम' मात्र एक शब्द ही नहीं, जीवन है पूरा ! यह वो 'शै' है, जिसे हरेक ने किसी-न-किसी रूप में पाया है, सराहा है, महसूसा है या खोया है. पर इसके अस्तित्व से कोई भी अनजान नहीं. कुछ लोग इसे 'रोग' भी कहते हैं, यदि यह सच है..तो ये ऐसा रोग है; जिससे हर कोई ग्रसित होना चाहता है. वजह ठीक वैसी ही, जैसे कि किसी रेस्टोरेंट में खाना ऑर्डर करने के बाद बगल वाली टेबल पर नज़र जाते ही लगता है, उफ्फ..हमने ये क्यूँ नहीं मँगाया ! कहते हैं न, 'दूर के ढोल सुहावने लगते हैं'...पहली दृष्टि में ही सब कुछ खूबसूरत दिखाई देता है. आसपास के नज़ारे, फूल-पत्ती, ज़मीं-आसमां, यहाँ तक की खाने की थाली में भी वही एक चेहरा प्रतिबिंब बनकर उभरता रहता है. दिलो-दिमाग़, आँखों में वही बसा हुआ...अनायास ही होठों पर वो हल्की सी मुस्कुराहट बयाँ कर ही देती है, कि जनाब / मोहतरमा इश्क़ के मरीज बन चुके हैं. ये खुद ही खोदी गई ऐसी क़ब्र है, जिस पर फूल चढ़ाने भी हमें ही आना है. इसके सुखद होने तक सब आपके साथ होते हैं, और साइड इफेक्ट्स दिखते ही दुनियादारी की तमाम बातें कानों में पड़ने लगती हैं. फिर भी यह एक ऐसी डगर है, जिस पर सब चलना चाहते हैं, मंज़िल मिले न मिले पर रास्ता तो तय करना ही है !

मुझे लगता है, इसका दोषी 'बॉलीवुड' है. फिल्मों ने हम सबके दिमाग़ में कूट-कूटकर भर दिया है, कि प्रेम से बेहतर कुछ नहीं. यही है, जो सारे दुखों का अंत करता है. वरना 'प्रेम' के हर मूड के हिसाब से हम सबके दिमाग़ में गाने क्यूँ बजने लगते हैं ? गाने न होते तो, प्रेम में क्या रह जाता..बिना घी की रोटियों सा सूखा, बेस्वाद, कड़कड़ाता-सा ! दुख में क्या गाया जाता फिर ? अगर 'तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही...' न होता तो ! गीत-संगीत की धुन पर आँसू भी तो कैसे सुर में और सूपर-फास्ट बहते हैं ! पर उनका क्या जो फिल्में देखते ही नहीं......क्या उन्हें भी 'प्रेम' होता है ??????

जो भी है..होना चाहिए. पा लिया, तो जीवन खुशी से कटेगा और न पाया तो उम्मीद में ! नहीं कोसना चाहिए इस अहसास को, भ्रम ही क्यूँ न हो, इसका होना ही काफ़ी है !

MORAL :  सॉरी, पर 'इश्क़' में काहे का मोरल ! :P 

प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

'जान'

'जान' का अर्थ उसके लिए जीवन ही हुआ करता था. जब कभी आज के जमाने के लोगों को, या यूँ कहें कि प्रेमी-प्रेमिकाओं को एक दूसरे के लिए 'जान' शब्द का प्रयोग करते देखती-सुनती. तो बहुत कोफ़्त होती थी उसे ! छी ! ये भी कोई शब्द है, जान, बेबी..उफ्फ, ये आजकल के लोग, हाउ चीप ! क्या हुआ है, इन्हें !!

पर उस दिन जब प्रियम ने उसे प्यार से देखते हुए अपनी क़ातिलाना मुस्कान के साथ एकदम से कह दिया...." love u Jaan, can't live without u ! u r really sweet " तो जैसे रोम-रोम झनझना उठा था, उसका ! रग-रग में एक अजीब-सी खुशी की लहर दौड़ गई थी, पलकें नम और मन तरंगित था. धीमे स्वर में सौदामिनी भी बोल ही उठी, " love u too, jaan " और फिर सारे दिन पगलाती-सी घूमी थी. पहली बार किसी की 'जान' बनने का अहसास कितना खूबसूरत होता है, आज पता जो चला था उसे ! उफ्फ, कितना प्यारा है, ये अहसास ! फिर कागज़ पर कई बार लिखा, टाइप भी किया...पढ़कर देखा और खुद ही हँस दी, हाय ! कित्ता प्यारा शब्द है.....'जान' ! 

कुछ शब्द, सुनने-कहने में बड़े अजीब लगते हैं..पर वो हमेशा ही बुरे हों, ज़रूरी नहीं ! एक व्यक्ति, हर शब्द के मायने बदल सकता है....चाहे वो आपकी ज़िंदगी में ठिठककर ही चला गया हो !

* 'सौदामिनी'.......पूरा हुआ तो एक उपन्यास, वरना कुछ अधूरी कहानियों का संकलन मात्र !
प्रीति 'अज्ञात'

स्कूल की घंटी



स्कूल की घंटी से ज़्यादा मधुर ध्वनि किसी भी वाद्य-यंत्र से नहीं निकल सकती, इसके संगीत से रग-रग कैसे झूमने लगती है ! मन-मस्तिष्क में प्रसन्नता की लहरें हिलोरें मारती हैं ! वातावरण संगीतमय हो उठता है, मयूर बन नाचने को जी करता है ! वो भी क्या दिन थे ! आख़िरी पीरियड के वो आख़िरी 5-10 मिनट निकालने कितने दुष्कर हो जाया करते थे ! कोहनियाँ मार के या आँखों से ही अपनी बेचैनी सभी विद्यार्थी एक-दूसरे को बताया करते . कई बार यूँ भी लगता था, कि बजाने वाले भैया भूल तो नहीं गये ! नये जमाने वालों को बता दें, उस समय लोहे का एक मोटा सा तवा टाइप हुआ करता था, उस पर लकड़ी का मोटा, सोटा मारने से जो ध्वनि उत्पन्न होती थी, उसे ही घंटी कहा जाता था. शैतान बच्चे भी उस सोटे को छूते तक नहीं थे. :)

तो फिर, क्या पता बजी हो और हमने ही नहीं सुन पाई ! फिर खुद ही अपनी इस सोच को नकार दिया करते थे. नहीं-नहीं ये तो हो ही नहीं सकता, जो आवाज़ प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय है, वो सुनाई न दे ! ना रे ! फिर कोई बच्चा पानी पीने के बहाने चेक करने का सोचता. लेकिन तभी टीचर की गुस्से से लाल आँखें उसके इरादों पर तुरंत ही पानी फेर दिया करतीं ! " नहीं, अभी नहीं..छुट्टी होने ही वाली है " 
कुछ हमारे टाइप के स्मार्ट बच्चे तुरंत ही पूछ लेते, " कितनी देर है, मेडम "  :P

उनका जवाब सुनकर दिल को बड़ी तसल्ली मिलती थी, गोया वो न कहतीं तो जैसे उस दिन छुट्टी होती ही नहीं . उनके उत्तर के हिसाब से धीरे-धीरे चुपके से अपने सामान की पैकिंग शुरू कर देते, जिससे टन-टन सुनते ही एक सेकेंड भी वेस्ट ना हो और हम सब टनाटन सीढ़ियाँ उतर जाएँ ! :P :D
उफ्फ. काश वो घंटी की आवाज़ें फिर से सुनाई दें, फिर से पैकिंग का मौका मिले, फिर से वही खोयी चमक लौट आए और भाग जाएँ कहीं.........! 
जीवन के चार दशक पूरे करने के बाद, एक ब्रेक तो बनता है ! :D

MORAL : तंग आ चुके हैं, कशमेकशे ज़िंदगी से हम
               ठुकरा न दें, जहाँ को कहीं बेदिली से हम...... :P :D 
( इन २ पंक्तियों के लिए शुक्रिया साहिर   लुधियानवी जी, मो. रफ़ी साहब, सचिन दा और गुरुदत्त जी )

प्रीति 'अज्ञात'

लो, हम बड़े हो गये.. :P

आज किसी ने मुझे बड़े होने का अल्टीमेटम दे दिया है...उफ्फ, अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊं ? :(
हेलो, हाँ..जी आप से ही
ये समझदारी कौन सी दुकान में मिलती है ?
क्या ?? आगे जाके राइट टर्न लूँ ?
ओके, . ., भैया......पर मैं पहचानूँगी कैसे ? :/
अच्छा, वहाँ बहुत भीड़ है ! लंबी लाइन ?
कर लेंगे इंतज़ार.... हमें तो आदत है....!
मिल गई रे...राइट में ही तो थी, पहले क्यूँ नी दिखी ! :P
अपने हिसाब से भी राइट ही तो जा रहे थे, बस इस स्पीडब्रेकर पे आके लड़खड़ा गये
किसी महापुरुष ने कहा था कि , सड़क पे चलने से पहले रास्ते की पूरी जानकारी ले लेनी चाहिए
कोई नी.... भगवान के घर 'अंधेर' है, 'देर' नहीं ! ( ये उलटफेर हमने किया, नो टाइपिंग मिस्टेक ) :D
१ किलो समझदारी खरीद ही लूं
;) ग़लतियाँ तो और करूँगी ही.... अरे, सुनना दुकान वाले भैया... ज़्यादा लूँ, तो डिसकाउंट मिलेगा ? (कौन बार-बार आएगा)
कुछ लोग कित्ते दुष्ट होते हैं, न ! सुधरते ही नहीं ! :D

MORAL : उम्र ज़्यादा होने से समझदारी नहीं आ जाती... ! hey, look.. I m trying वो भी happily  :)

प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

आख़िरी ख़त (लघुकथा)

शनिवार को मैंने तुम्हें एक ख़ास बात कहने के लिए ही कॉल किया था. मन-ही-मन कितना खुश थी मैं, कि जो बोलूँगी सुनकर तुम्हें भी बहुत अच्छा लगेगा और फिर अपने exams की तैयारी और बेहतर तरीके से कर सकोगे. पर अपनी रूचि की बात सुनी तुमनें और फिर तुरंत ही व्यस्तता का कहकर फोन रख दिया, जो कि मैं वाकई समझ सकती हूँ. बुरा तब लगता है, जब तुम कहने के बाद भी कॉल रिटर्न नहीं करते. क्या हो जाएगा, यदि किसी दिन ५ मिनिट देर से चले जाओगे तो ? रोज भी तो शाम तक ही जाते हो न ? आज तो वैसे भी जल्दी ही जाना होता है. खैर.....इंतज़ार का नतीज़ा वही निकला ! रात में बात हुई, तब भी तुमने नहीं पूछा..फिर मैंने ही बेशर्म होके याद दिलाया..और वहाँ न कह पाने की विवशता भी जाहिर की ! फिर मुझे सोमवार का इंतज़ार था, तुम्हें तब भी फ़र्क नहीं था, कि मैं क्या कहना चाहती थी, इसलिए जानना भी नहीं चाहा. हारकर मैंने फिर फोन लगाया, जो निरुत्तरित रहा..दोपहर तुमने बताया कि तुम ३ दिन के लिए बाहर हो, अचानक से प्रोग्राम बन गया था. खुशी हुई मुझे, कि अच्छा वक़्त बीतेगा तुम्हारा !

पर एक बात कहीं चुभ-सी भी गई, क्योंकि यही वो तय वक़्त था..जबकि मैंने तुमसे वहाँ आकर मिलना चाहा था और तुमने छुट्टी न मिल पाने की असमर्थता जाहिर की थी. बात इतनी सी ही होती, तो भी बर्दाश्त थी..पर जब तुमने अपने मित्र को यह कहा, कि तुझे महीने भर पहले ही तो बताया था..तो सच में बहुत-बहुत बुरा लगा.....'झूठ' ??? नफ़रत हुआ करती थी न, इससे तो तुम्हें..और आज मेरे से ही...क्यों ??? महीनों पहले से ही तुम्हारा मुझे टालना, दूरी बनाना देखती आ रही हूँ, रोज मरी हूँ, अब भी मर ही रही हूँ..और मेरी फूटी क़िस्मत ने अब परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी हीं बना दीं.....कि अपने ही घर में नज़रबंद हूँ ! पर मैंनें हिम्मत नहीं हारी, तुम तक पहुँचने की हर कोशिश की और तुम ऐसे हर इरादे पर पानी फेरते चले गये. गुरुवार को फ्रस्ट्रेशन में आकर मैंने फिर एक ग़लती की..जिससे तुम मुझे कभी देख ही ना सको..खुश रहो,  हमेशा के लिए..पर तुरंत ही मुझे इसका अहसास हुआ..कि फिर मैं भी तुम्हें नहीं देख सकूँगी..कैसे रहूंगी फिर !! और फिर मेरा एक कॉल तुम तक गया....खुशी हुई कि तुमने दोस्ती स्वीकार करी !

अचानक तभी ही तुम्हें, मेरी वो बात भी याद आई..और तुमने जानना चाहा, मैंने मना किया क्योंकि अब उस बात की उपयोगिता ही नहीं रह गई थी..खैर, तुमने कहा कि तुम सुनना चाहते हो..पर मेरे यह कहते ही कि "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती" तुमने झट से फोन रख दिया, बाद मैं बात करते हैं, कहकर....वो बाद अब तक नहीं आया ! ये जानते हुए, कि अगले दिन छुट्टी है, तब भी तुमने घर जाते हुए मुझसे बात नहीं की, मैं रोती ही रही इधर....हाँ, उस दिन रात में तुम्हारी औपचारिक बात से मुझे अंदाज हो गया था, कि अब तुम्हारी दुनिया में मेरी जगह किसी और ने ले ली है ! क्योंकि तुमने तब भी नहीं बताया, कि मेरी बात पर तुम्हें क्या कहना है. लेकिन मेरी एक बात का यक़ीन ज़रूर करना कि मैंने तुम्हें कभी कुछ न भी  दिया हो पर तुम तक पहुँचने के लिए सब कुछ छोड़ा है...

मैं हमेशा से ही Giver रही हूँ, पर ऐसी तक़लीफ़ कभी नहीं हुई, पहली बार कुछ पाना चाहा था..ज़्यादा नहीं, बस थोड़ा ही ! ये अलग बात है, कि तुम्हें मेरा थोड़ा भी ज़्यादा लगा. यदि तुम्हारा झुकाव किसी की ओर बढ़ रहा है, तो कमी मेरे प्यार में ही रही होगी...पर इससे ज़्यादा करना या कहना मुझे आता ही नहीं. मैं तुम्हारे लायक भी नहीं, किसी के भी लायक नहीं..वरना इतनी उम्र बीत जाने पर भी कोई तो होता, जिसने मुझे चाहा होता..जो मेरे लिए यूँ ही व्याकुल होता, यूँ ही मुझसे मिलने को तड़पता..मैं सच में दिन में ख्वाब देखने लगी थी..दोष तुम्हारा नहीं, मेरी इन अधूरी आँखों का है.....पर अब कोई ग़म नहीं, वरना हमेशा यही सोचा करती थी कि मुझे कुछ हो गया, तो कैसे रहोगे तुम, कौन ख्याल रखेगा, कौन बेवजह समझाएगा..कि अपने खाने-पीने का ध्यान रखना, टाइम टेबल फॉलो करना, exercise करना, पढ़ने को भी वक़्त निकालो, पीठ-दर्द का इलाज कराओ, acidity की प्राब्लम बार-बार क्यूँ हो रही है..अच्छे डॉक्टर को दिखाओ.......पर अब मरी तो इस तरह की फ़िक्र न हो शायद..'शायद' इसलिए क्योंकि मुझे खुद मेरा भरोसा नहीं रहा, हो सकता है कभी ना सुधर सकूँ.......पर जहाँ हो, जैसे हो, जिसके साथ हो..स्वतंत्र हो तुम ! मैं अब तुम्हारा पीछा नहीं करूँगी, मुश्किल है, लगभग नामुमकिन सा ही.....तुमने कहा भी था एक बार कि 'उम्र ज़्यादा होने से समझदारी ज़्यादा नहीं आ जाती' सच है, मैं अब समझदार होना भी नहीं चाहती........पर उस दिन जब तुमने ही कह दिया....."पहले भी जी रही थी ना" सो जी ही लूँगी..अच्छी रहूं या बुरी...अब तो बस मेरा 'होना' ही काफ़ी है......!

तुम्हारी भी नहीं कह सकती...ये हक़ तो अब तुमने......लेकिन 'मैं' आज भी 'तुम्हारी' हूँ......रहूंगी, जब मिलो तो 'जान' कहकर ही पुकारना..जीवित होने का एक वही अहसास आज भी सलामत है, इस शब्द से जुड़ा हुआ...

सिर्फ़ सौदामिनी

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ULLU BANAAVING


१ अप्रैल, २०१४
'मूर्ख-दिवस' , ह्म्‍म्म्मम...... !  कित्ता बुरा लगता है न, जब कोई अपने को उल्लू बनाए ! थोड़ी सी शर्म भी आती है, कि हाए राम, हम तो खुद को इत्ता हुसियार समझते हैं और इसने कैसे ठग लिया ! फिर मन-ही-मन उससे बदला लेने का प्लान करते हैं, पर सेम टाइम होने की वजह से अपुन का प्लान तुरंत ही फेल हो जाता है ! और तब खिसियाते हुए अपनी बत्तीसी निपोरना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है ! :)

हुन्ह, हामी भरने की कोई ज़रूरत नहीं !  :/ बुरा लगता है, तो इतने सालों से इन भ्रष्ट, झूठे लोगों को ( सिर्फ़ नेता ही हों, ज़रूरी नहीं, झूठ तो हर तबके के लोग बोलते हैं, ये तो बस Expert हो गये हैं) बर्दाश्त क्यूँ कर रहे हो ?? ये सब बड़े खुश होंगे आज तो, कि हम बरसों से सब को कैसे ' ULLU BANAAVING ', वो भी बिना IDEA Network के !  :D

आज तो मातम का दिन है,  हिन्दी में बोले तो - "विश्वास टूटन दिवस" !    :P :D

प्रीति 'अज्ञात'

काश !

काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता, फिर न कुचले जाते ये इस तरह, हर बार, हर जन्म में ! एक जीवन में पलकों तले पलते हुए अनगिनत स्वप्न जोड़ लेते हैं, खुद ही उछलकर, उम्मीदों का ताना-बाना ! ये अक़्सर एकतरफ़ा ही हुआ करते हैं, फिर भी घसीट लाते हैं दूसरे पक्ष को जबरन अपने साथ कि पूरे न होने पर दोषारोपण के लिए कोई तो हो ! गुज़रते हैं जीवन के तमाम झंझावातों के बीच से और दो पल साँस लेने को ज्यों-ही ठहरते हैं कहीं, समय आकर बेरहमी से उनका गला घोंट दिया करता है; नोच लेता है बोटी-बोटी उनकी कि कराहने की ताक़त भी बाक़ी न रहे उनमें और वो ध्वस्त हो जाएँ हमेशा-हमेशा के लिए !
" काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता"
काश, हर सपना अपनी मौत मरता ! सुनिश्चित अवधि पूरी होने पर, कुछ पल और जी लेने के बाद ही !
* एक आधी-अधूरी कहानी के कुछ अंश ( Unedited )

प्रीति 'अज्ञात'

:(

सत्य अक़्सर ही कोने में छुपा अकेला सूबकता है, लोग झूठ की तलाश में व्यस्त जो रहते हैं ! सत्य कायर तो नहीं है ,ये ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही आशावादी हैं , तभी तो चुप हो बैठ जाता है, और झूठ की प्रतिरोधक-क्षमता इससे कहीं ज़्यादा दिखाई पड़ती है. जो दिखता है, उसे ही दुनिया भी सच मान लेती है, क्योंकि असली मज़ा तो उन्हें झूठ ही देता है. 
एक जीवन सरल सा.......ज़िंदगी बेहद मुश्किल !

प्रीति 'अज्ञात' —