सादर चरण स्पर्श
आज जब मुझे आपको यह पत्र लिखने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है तो ऐसे में मेरी प्रसन्नता अपने चरम पर है। मैं स्वयं को संयत नहीं कर पा रही हूँ कि इतने कम शब्दों में सब कुछ कैसे कह दूँ। वे बातें, वे किस्से जो मैं बीते लम्बे समय से आपको सुनाने की इच्छा रखती रही हूँ, न जाने इन पन्नों पर ठीक से उतर पायेंगे भी या नहीं! पर प्रयास अवश्य करुँगी। मेरी इस व्यग्रता के दो प्रमुख कारण हैं, प्रथम यह कि मेरे अब तक के जीवन में यदि मैंने किसी के आदर्शों को हृदय से अपनाया है तो वह आप ही हैं, बापू। आप सशरीर मेरे साथ उपस्थित न भी होकर परछाई की तरह सदैव साथ चलते हैं। मेरी समस्याओं का समाधान हैं आप! दुःख की उदास घड़ी में मेरे चेहरे की मुस्कान हैं आप! घनघोर निराशा के स्याह अँधेरों में किसी झिर्री से प्रविष्ट होती प्रकाश की एकमात्र किरण हैं आप! मेरी टूटी उम्मीदों का हौसला हैं आप!
बापू, मेरा और आपका साथ बहुत पुराना है। माता-पिता ने हमेशा सादा जीवन एवं सद्कार्यों को अपनाया तो हम बच्चों (मैं और मेरा भाई) में भी ये संस्कार स्वतः आ गए। 'सत्य' और 'अहिंसा' का प्रथम पाठ भी मैंने घर से ही सीखा और अब तक उस पर अडिग हूँ। बचपन में ही एक दिन मेरे माता-पिता ने बताया था कि वे आपके रास्ते पर चल रहे हैं और ये सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, प्रार्थना सब आपके ही विचार हैं जिनका वे सदैव अनुकरण करते आये हैं। तब मुझे बहुत अच्छा लगा था क्योंकि आपकी तस्वीर को जब भी देखती थी तो मेरे प्यारे दादू का चेहरा दिखाई देता था। वे मुझसे अपार स्नेह करते थे। जब थोड़ी बड़ी हुई तो पापा ने आपकी दो पुस्तकें 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' (आत्मकथा) और 'मेरे सपनों का भारत' पढ़ने को दीं। तब से ये दोनों ही मेरी प्रिय पुस्तकों में से हैं।
पता नहीं, मुझे आपसे ये कहना चाहिए भी या नहीं.... पर बापू, अत्यंत भारी हृदय के साथ आपको यह सूचना दे रही हूँ कि वो भारत जिसका आप स्वप्न देखा करते थे और जिस स्वप्न को हम भारतवासियों ने भी आत्मसात कर अपनी आँखों में भर लिया था, हमें अब तक उस भारत की प्रतीक्षा है। न जाने ऐसा क्या हुआ है और क्यों हुआ है बापू, कि मनुष्य बहुत स्वार्थी हो चला है। झूठ का बोलबाला है और हिंसा तो ऐसी कि आप भी घबराकर आँखें मूँद लें! मैं तो कई बार जब भेदभाव और छुआछूत के बुरे समाचार अखबार में पढ़ती हूँ तो फूट-फूटकर रोने लगती हूँ कि हम बापू के आदर्शों को क्यों न संभाल सके!
सच! अब जबकि पूरा देश आपकी 150वीं जयंती मना रहा है तो ऐसे में यह तथ्य और भी दरकता है कि जिन बापू ने हमें आजादी दी, हम उनको क्या दे सके! आपकी विरासत को सहेजना तो हमारी ही जिम्मेदारी थी न! ऐसे में आपकी और भी याद आती है और लगता है कि देश ने आपको कितना निराश किया। आपके हत्यारे के समर्थकों को जब पढ़ती सुनती हूँ तो मुझे बहुत बुरा लगता है और जाकर उन पर अपना क्रोध जाहिर करने का मन भी करता है। लेकिन ऐसे में भी आप ही मुझे रोक लेते हो! अब आप सोच रहे होंगे कि आप तो मुझे जानते तक नहीं, तो रोकेंगे कैसे भला? हा, हा, हा...बापू ये आपकी 'गाँधीगिरी' ही है जो मुझ पर सदैव हावी रहती है और मैं किसी से झगड़ा नहीं कर पाती। मैं ही नहीं, इस देश के जन-जन के लहू में आप संस्कारों की तरह बहते हैं। तभी तो हम आपको 'राष्ट्रपिता' कहते हैं।
एक अच्छी बात बताऊँ, आपको? पता है ये लोग जो हिंसा और असत्य के समर्थक हैं, ये बस मुट्ठी भर ही हैं। परेशानी ये है कि अच्छी ख़बरें दिखाई जानी कम हो गई हैं। ऐसे में बुराई चहुँ ओर दृष्टिगोचर होती है एवं उसी की चर्चा अधिक होती है। बीते कुछ वर्षों से मैं और मेरे साथियों ने यह बीड़ा उठाया है कि हम समाज में 'अच्छा भी होता है' की तस्वीर पेश करें। कर रहे हैं बापू और सफलता भी मिल रही है। हमसे बहुत लोग हैं जो एक ऐसे सकारात्मक समाज की संकल्पना करते हैं जिसमें प्रेम हो, भाईचारा हो और सारे भेदभाव से ऊपर उठकर सत्य और अहिंसा की लाठी के साथ चलने की ललक हो।
इसी बात से एक किस्सा याद आया। मैंने आपको तस्वीरों में हमेशा धोती पहने, लाठी और चश्मे के साथ ही देखा था। बचपन में ही एक बार जब टीवी पर गाँधी फ़िल्म आई, तब परिवार के साथ मैं भी उत्सुकता से दूरदर्शन के सामने जम गई थी। पूरी फ़िल्म देखते समय मुझे यही लगता रहा कि ये आप ही हो और आपकी हत्या के दृश्य को देखकर मैं चीखने लगी थी। सबने समझाया कि ये पिक्चर है और ये अभिनेता हैं जो कि आपकी भूमिका अदा कर रहे हैं। मैं कई दिनों तक आश्चर्य में रही कि कोई मेरे बापू जैसा कैसे दिख सकता है? बड़े होने पर सारी बातें समझ आने लगीं। हाँ, एक बात अवश्य पूछूंगी आपसे कि आप सिनेमा के विरोधी क्यों थे? देखिये तो, अगर फ़िल्में न होतीं तो आज की पीढ़ी आपसे कैसे मिलती? कैसे विस्तार से जान पाती? मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आप आज के समय में होते तो सिनेमा के समर्थन में होते क्योंकि इन दिनों कई ऐसे निर्माता-निर्देशक हैं जो यथार्थ दिखाने का साहस रखते हैं और युवा पीढ़ी उनकी ख़ासी प्रशंसक है। आप पर एक मजेदार फ़िल्म भी बनी थी, जिसे देखकर आप भी बहुत हँसते-खिलखिलाते। उसमें गाँधीगिरी से ही सब समस्याओं का समाधान बताया गया था और 'जादू की झप्पी' से किसी का भी दुःख साझा करने का प्रयास दिखाया गया था। इसे विश्व भर में बहुत सराहना मिली और इतना अधिक पसंद किया गया था कि मुझे यक़ीन हो गया था कि जिन बापू को हमसे पहले की पीढ़ी स्नेह करती थी, वे वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे क्योंकि गाँधी मात्र नाम नहीं, समग्र विचारधारा है और विचार कभी मरते नहीं! वे अमर हो जाते हैं, सदा-सदा के लिए!
"जब मैं निराश होता हूँ, मैं याद कर लेता हूँ कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है। इसके बारे में सोचो- हमेशा।"