शनिवार, 31 जुलाई 2021

बापू के नाम पत्र

प्रिय बापू
सादर चरण स्पर्श

आज जब मुझे आपको यह पत्र लिखने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है तो ऐसे में मेरी प्रसन्नता अपने चरम पर है। मैं स्वयं को संयत नहीं कर पा रही हूँ कि इतने कम शब्दों में सब कुछ कैसे कह दूँ। वे बातें, वे किस्से जो मैं बीते लम्बे समय से आपको सुनाने की इच्छा रखती रही हूँ, न जाने इन पन्नों पर ठीक से उतर पायेंगे भी या नहीं! पर प्रयास अवश्य करुँगी। मेरी इस व्यग्रता के दो प्रमुख कारण हैं, प्रथम यह कि मेरे अब तक के जीवन में यदि मैंने किसी के आदर्शों को हृदय से अपनाया है तो वह आप ही हैं, बापू। आप सशरीर मेरे साथ उपस्थित न भी होकर परछाई की तरह सदैव साथ चलते हैं। मेरी समस्याओं का समाधान हैं आप! दुःख की उदास घड़ी में मेरे चेहरे की मुस्कान हैं आप! घनघोर निराशा के स्याह अँधेरों में किसी झिर्री से प्रविष्ट होती प्रकाश की एकमात्र किरण हैं आप! मेरी टूटी उम्मीदों का हौसला हैं आप!
द्वितीय कारण मेरा पत्र-लेखन के प्रति अपार प्रेम है। जब मैं छोटी थी न, तो अपने घर-परिवार, मित्रों को ख़ूब पत्र लिखा करती थी। उनके जन्मदिवस, वर्षगाँठ इत्यादि पर अपने हाथों से बनाये 'शुभकामना-पत्र' भी भेजा करती। यहाँ तक कि मम्मी और भैया की ओर से भी पत्र लिख दिया करती थी। सबको अच्छा लगता तो मेरी ख़ुशी भी दोगुनी बढ़ जाती। उस समय का जीवन मुझे बहुत आसान लगता था। कोई जल्दी नहीं थी। पत्र पहुँचने में अपना निश्चित समय लेते और प्रत्युत्तर कब आएगा; मैं हिसाब लगा लिया करती थी। वे कितने अच्छे दिन थे न बापू! अब तो बेचैनियाँ, प्रतीक्षा, प्रसन्नता ये सब भाव मोबाइल और उसके इमोजी ने निगल लिए हैं। अब आप सोचते होंगे कि ये 'मोबाइल', 'इमोजी' क्या बला हैं? जब हम मिलेंगे न तो दिखाऊँगी और आपको सिखा भी दूँगी। वैसे देश को ये नई तरह की व्याधि लगी है बापू, घर-मित्र-परिवार से विमुख हो सोशल बनने की! ये जो उपकरण है न, ये एक ही क्षण में सारे समाचार दुनिया भर में प्रसारित कर देता है। तस्वीरें खींचता है, भेज देता है और तो और...सामने बैठे हों ऐसे बात भी कर सकते हैं इसके द्वारा। इसको वीडियो चैटिंग कहते हैं। कितना अच्छा होता न, अगर ये आजादी की लड़ाई के समय साथ होता! संगठित होने में कितनी आसानी होती! सत्याग्रह आंदोलन और दांडी यात्रा के ख़ूब अपडेट्स होते! ये सब पढ़कर आप हँस रहे होंगे, मुझे भी बताने में बहुत आनंद आ रहा है। हाँ, एक सच्ची बात और कह दूँ कि इस मोबाइल के लाभ भी कम नहीं। यूँ समझिये कि विज्ञान की तरह यह भी विनाशकारी और लाभदायक दोनों है। सब अपनी-अपनी मानसिकता के आधार पर इसका प्रयोग करते हैं। 

बापू, मेरा और आपका साथ बहुत पुराना है। माता-पिता ने हमेशा सादा जीवन एवं सद्कार्यों को अपनाया तो हम बच्चों (मैं और मेरा भाई) में भी ये संस्कार स्वतः आ गए। 'सत्य' और 'अहिंसा' का प्रथम पाठ भी मैंने घर से ही सीखा और अब तक उस पर अडिग हूँ। बचपन में ही एक दिन मेरे माता-पिता ने बताया था कि वे आपके रास्ते पर चल रहे हैं और ये सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, प्रार्थना सब आपके ही विचार हैं जिनका वे सदैव अनुकरण करते आये हैं। तब मुझे बहुत अच्छा लगा था क्योंकि आपकी तस्वीर को जब भी देखती थी तो मेरे प्यारे दादू का चेहरा दिखाई देता था। वे मुझसे अपार स्नेह करते थे। जब थोड़ी बड़ी हुई तो पापा ने आपकी दो पुस्तकें 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' (आत्मकथा) और 'मेरे सपनों का भारत' पढ़ने को दीं। तब से ये दोनों ही मेरी प्रिय पुस्तकों में से हैं।
 
पता नहीं, मुझे आपसे ये कहना चाहिए भी या नहीं.... पर बापू, अत्यंत भारी हृदय के साथ आपको यह सूचना दे रही हूँ कि वो भारत जिसका आप स्वप्न देखा करते थे और जिस स्वप्न को हम भारतवासियों ने भी आत्मसात कर अपनी आँखों में भर लिया था, हमें अब तक उस भारत की प्रतीक्षा है। न जाने ऐसा क्या हुआ है और क्यों हुआ है बापू, कि मनुष्य बहुत स्वार्थी हो चला है। झूठ का बोलबाला है और हिंसा तो ऐसी कि आप भी घबराकर आँखें मूँद लें! मैं तो कई बार जब भेदभाव और छुआछूत के बुरे समाचार अखबार में पढ़ती हूँ तो फूट-फूटकर रोने लगती हूँ कि हम बापू के आदर्शों को क्यों न संभाल सके!
सच! अब जबकि पूरा देश आपकी 150वीं जयंती मना रहा है तो ऐसे में यह तथ्य और भी दरकता है कि जिन बापू ने हमें आजादी दी, हम उनको क्या दे सके! आपकी विरासत को सहेजना तो हमारी ही जिम्मेदारी थी न! ऐसे में आपकी और भी याद आती है और लगता है कि देश ने आपको कितना निराश किया। आपके हत्यारे के समर्थकों को जब पढ़ती सुनती हूँ तो मुझे बहुत बुरा लगता है और जाकर उन पर अपना क्रोध जाहिर करने का मन भी करता है। लेकिन ऐसे में भी आप ही मुझे रोक लेते हो! अब आप सोच रहे होंगे कि आप तो मुझे जानते तक नहीं, तो रोकेंगे कैसे भला? हा, हा, हा...बापू ये आपकी 'गाँधीगिरी' ही है जो मुझ पर सदैव हावी रहती है और मैं किसी से झगड़ा नहीं कर पाती। मैं ही नहीं, इस देश के जन-जन के लहू में आप संस्कारों की तरह बहते हैं। तभी तो हम आपको 'राष्ट्रपिता' कहते हैं।

एक अच्छी बात बताऊँ, आपको? पता है ये लोग जो हिंसा और असत्य के समर्थक हैं, ये बस मुट्ठी भर ही हैं। परेशानी ये है कि अच्छी ख़बरें दिखाई जानी कम हो गई हैं। ऐसे में बुराई चहुँ ओर दृष्टिगोचर होती है एवं उसी की चर्चा अधिक होती है। बीते कुछ वर्षों से मैं और मेरे साथियों ने यह बीड़ा उठाया है कि हम समाज में 'अच्छा भी होता है' की तस्वीर पेश करें। कर रहे हैं बापू और सफलता भी मिल रही है। हमसे बहुत लोग हैं जो एक ऐसे  सकारात्मक समाज की संकल्पना करते हैं जिसमें प्रेम हो, भाईचारा हो और सारे भेदभाव से ऊपर उठकर सत्य और अहिंसा की लाठी के साथ चलने की ललक हो।

इसी बात से एक किस्सा याद आया। मैंने आपको तस्वीरों में हमेशा धोती पहने, लाठी और चश्मे के साथ ही देखा था। बचपन में ही एक बार जब टीवी पर गाँधी फ़िल्म आई, तब परिवार के साथ मैं भी उत्सुकता से दूरदर्शन के सामने जम गई थी। पूरी फ़िल्म देखते समय मुझे यही लगता रहा कि ये आप ही हो और आपकी हत्या के दृश्य को देखकर मैं चीखने लगी थी। सबने समझाया कि ये पिक्चर है और ये अभिनेता हैं जो कि आपकी भूमिका अदा कर रहे हैं। मैं कई दिनों तक आश्चर्य में रही कि कोई मेरे बापू जैसा कैसे दिख सकता है? बड़े होने पर सारी बातें समझ आने लगीं। हाँ, एक बात अवश्य पूछूंगी आपसे कि आप सिनेमा के विरोधी क्यों थे? देखिये तो, अगर फ़िल्में न होतीं तो आज की पीढ़ी आपसे कैसे मिलती? कैसे विस्तार से जान पाती? मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आप आज के समय में होते तो सिनेमा के समर्थन में होते क्योंकि इन दिनों कई ऐसे निर्माता-निर्देशक हैं जो यथार्थ दिखाने का साहस रखते हैं और युवा पीढ़ी उनकी ख़ासी प्रशंसक है। आप पर एक मजेदार फ़िल्म भी बनी थी, जिसे देखकर आप भी बहुत हँसते-खिलखिलाते। उसमें गाँधीगिरी से ही सब समस्याओं का समाधान बताया गया था और 'जादू की झप्पी' से किसी का भी दुःख साझा करने का प्रयास दिखाया गया था। इसे विश्व भर में बहुत सराहना मिली और  इतना अधिक पसंद किया गया था कि मुझे यक़ीन हो गया था कि जिन बापू को हमसे पहले की पीढ़ी स्नेह करती थी, वे वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे क्योंकि गाँधी मात्र नाम नहीं, समग्र विचारधारा है और विचार कभी मरते नहीं! वे अमर हो जाते हैं, सदा-सदा के लिए!

बापू आपको जब भी सोचा तो वही स्मित मुस्कान लिए प्रिय दादू- सा कोई चेहरा दिखाई दिया जो सदैव सही राह पर चलना सिखाता है। जिसके पास प्रत्येक जिज्ञासा का हल है। जिसका निश्छल, शांत स्वभाव और शालीन भाषा ऐसे अपनेपन में बाँध लेती है कि पल भर को भी यह अनुभव नहीं होता कि ये दुनिया के सबसे महान व्यक्ति हैं।

आप जिन सिद्धांतों पर चलने की बात करते थे, उस पर अभी भी कुछ लोग टिके हुए हैं। वे आपके आदर्शों को अब भी अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं। वे एक थप्पड़ के बाद दूसरा गाल भले ही आगे न करें, पर अपशब्द एवं हिंसा का प्रयोग नहीं करते एवं अपने सत्य के साथ अडिग खड़े रहते हैं। यही 'गाँधीगिरी' है जो अब भी देखने को मिल जाती है।
बापू, आपका वो भारत जहाँ सर्वधर्मसमभाव सबके ह्रदय में था, जहाँ सब बराबर थे, सबको जीने का हक़ था और जहाँ बुराई के रावण का दहन होता आया है। जहाँ  सत्य और अहिंसा को ही हथियार मान पूजा जाता है...उस भारत की तस्वीर में वो पहले सा नूर अभी नहीं दिखता पर इनसे सच्चे भारतीयों का हौसला टूट जाए, ऐसा भी नहीं! क्योंकि हम आपकी कही इन बातों को अब तक भूले नहीं हैं -
"जब मैं निराश होता हूँ, मैं याद कर लेता हूँ कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है। इसके बारे में सोचो- हमेशा।"
"मैं मरने के लिए तैयार हूँ, पर ऐसी कोई वज़ह नहीं है जिसके लिए मैं मारने को तैयार रहूँ।"
"आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है; अगर सागर की कुछ बूँदें गन्दी हैं, तो सागर गन्दा नहीं हो जाता।"
सम्पूर्ण विश्व आपके विचारों का समर्थन करता है। आप और आपके विचार अमर हैं बापू। भारतवासियों के हृदय में आप सदा यूँ ही मुस्कुराते रहेंगें। 
शेष शुभ!
पूज्य बा को मेरा चरण-स्पर्श कहियेगा, छोटों तक स्नेहाशीष पहुँचे। 
पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में 
आपकी 
प्रीति 
19 नवम्बर 2019 को बापू के नाम लिखी इक चिट्ठी 
#बापू #पत्र  #अंतरराष्ट्रीयपत्रदिवस #प्रीति अज्ञात #पत्रलेखन #Newblogpost 


गुरुवार, 29 जुलाई 2021

बॉलीवुड की मसाला फ़िल्मों की मसालदानी के चुनिंदा मसाले

बीते दो दशकों में हिंदी फ़िल्मों में बहुत कुछ बदल गया है. आपको तो पता ही है कि पुरानी फ़िल्मों के विषय गिने-चुने ही हुआ करते थे. ये फ़िल्में घर-परिवार, रिश्ते या बदले की भावना को लेकर बनतीं. कुछेक में माँ की ममता, बड़े भैया का त्याग या पिता की मजबूरी की भावनात्मक कहानी भरपूर छलकती. कुछ में दो घरानों के बीच में दुश्मनी और उनके नौनिहालों की तड़पती मोहब्बत के तराने गूँजते. तो कहीं क्रूर जमींदार के कब्ज़े में, गरीब नायक/नायिका का घर या गहने होते. 

चुनिंदा फ़िल्में किसी उपन्यास पर भी आधारित होतीं या सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर बनाई जातीं. जिनमें छुआछूत, दहेज और स्त्री-विमर्श प्रधान विषय होते. इन बाद वालियों को प्रायः कलात्मक श्रेणी में डाल दिया जाता. मतलब तब इनके नाम सुनते ही हम जैसे बच्चे नाक-मुँह सिकोड़ लिया करते. हाँ, मसाला फ़िल्में बड़े चाव से देखी जाती थीं. जबकि भारतीय सब्जियों की तरह उनका मसाला पहले से ही तय रहता था और दर्शकों के लिए कुछ भी रहस्यमयी नहीं होता था. पर स्वाद तो स्वाद है, एक बार ज़बान पर चढ़ जाए बस!

1. इन फ़िल्मों की विशेषता यह थी कि हर दृश्य के साथ-साथ अगले दृश्य का अनुमान स्वतः होता जाता. लेकिन खलनायक का नायक के हाथों पिटना हम जैसे गाँधीवादी को भी एक अलग ही क़िस्म का सुख दिया करता. हर ढिशुम- ढिशुम के साथ मन से यही ध्वनि आती कि "और मार, और मार! ये इसी लायक़ है!". उधर अमिताच्चन जब प्राण या अमज़द खान को कूट रहे होते, इधर अपन सीट पर उछल-उछल तालियाँ पीट उन्हें प्रोत्साहित करते. लड़के लोग तो सीटी मार, सिक्के भी उछाल लिया करते थे. 

2. इनमें खलनायक का कुछ हसीनाओं के साथ घिरे रहकर, तेल मालिश कराने का दृश्य भी अवश्य रहता था. वो वनमानुष सा पड़ा रहता और इन्हीं सुंदरियों में से एक अंगूर का गुच्छा लिए उसे लपर-लपर खिला रही होती. उसी समय एक दूत (खबरी) का आगमन होता और उससे सूचना प्राप्त करते ही खलनायक के चेहरे पर कुटिल हँसी छा जाती. 

3. इन फ़िल्मों में जमकर तस्करी (स्मगलिंग) दिखाई जाती थी. इसमें काले कोट और काले गॉगल पहने एक मनुष्य चेहरे पर अति गंभीर भाव लिए ब्रीफकेस लेकर तीव्र गति से चलता. बस, दर्शक देखते ही तुरंत समझ जाते कि तस्कर (स्मगलर) है. यह वेशभूषा मन में इस हद तक घर कर चुकी है कि आज भी कोई इस तरह तैयार हो दिख जाए तो यही लगता है कि डॉन का कोई गुर्गा है. जिसे काली पहाड़ी के पीछे एक संकेत-शब्द (कोडवर्ड) बोलकर इस संदूकची का हस्तांतरण करना है. 

4. अच्छा, खलनायक भले ही कितना निर्दयी हो, पर उसके मन का एक कोना नृत्य और संगीत के प्रति समर्पित रहता. यही कारण था कि दुश्मन के अड्डे पर नायिका का नृत्य हर फ़िल्म का आवश्यक अंग बन जाता. आजकल तो नायिका स्वयं ही उचित अवसर देख 'आइटम नंबर' शुरू कर देती हैं. लेकिन उस समय ये विवशता में होता था. इधर नायिका अपनी कला प्रस्तुत करते हुए उनके हथियार, हथिया लेती और उधर गीत समाप्त होते ही नायक आ धमकता. उसके बाद दुष्चरित्रों की पिटाई का वर्णन पहले बिंदु में कर ही दिया गया है. 

पर हाँ, एक बड़ी कॉमन परेशानी थी. जैसे ही नायक सबको पीटकर सुस्ता रहा होता तभी अचानक से उसकी माँ दुश्मन के कब्ज़े में आ जाती! इतना क्रोध आता था न तब कि इतनी मुसीबत के समय माँ, घर से अपहरण करवाने निकली ही क्यों!
वो तो भला हो पुलिस का कि इतना कुछ निबट जाने के बाद अंततः आ ही जाती. उसे देखते ही दर्शक खलनायक से स्वयं ही बोलने लगते, "अपने हाथ ऊपर कर दो. अब तुमको कोई नहीं बचा सकता! पुलिस ने इस इलाके को चारों तरफ से घेर लिया है!".  

5. उन दिनों मेले में बिछड़ना भी आम था. तब मोबाइल तो थे नहीं. अतः ट्रैक करने के लिए सबके गले में एक सा लॉकेट डाल दिया जाता या फिर एक कॉमन पारिवारिक गीत होता जिसकी धुन हर सदस्य को पता होती. कभी- कभी एक फोटो होता जिसे दो टुकड़ों में बाँट दिया जाता. फ़िल्म जब समाप्ति के चरण में होती तब ये लोग वही गीत गाकर एक दूसरे को पहचानते. कभी लॉकेट खोल अचंभित हो भरे गले से 'भैया' कह बाँहें फैला मिलते तो कभी उन दो टुकड़ों को जोड़ पूरी तस्वीर बना लेते. दर्शक पूरी फ़िल्म में घबराते हुए बार-बार उन्हें याद दिलाते कि अरे यही तेरा भाई है. खैर! इन्हीं पलों की प्रतीक्षा में सब साँसें थामे रहते और अब कहीं जाकर इनकी प्रतीक्षा को विराम मिलता. प्रायः आँखें भी भर आया करतीं. 

6. प्रेम तो शाश्वत है. उसके बिना फ़िल्में कभी बनी ही नहीं. हाँ, समय के साथ प्रेम प्रदर्शन की  पद्धति जरूर परिवर्तित हो चली है. पहले पुस्तकों के गिरने-उठाने के मध्य आँखों-आँखों में कहानी का आरंभ होता था. दो फूलों के मिलन या बरसात होते ही ज्ञात हो जाता था कि अब अगला संवाद 'मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ', ही होगा. आजकल तो कहानी की माँग के बहाने जो हो जाए, कम है. 

7. उन फ़िल्मों में प्रेम त्रिकोण के समय एक ऐसा गाना भी होता था जिसमें नायक या तो नशे में या फिर आँखों पर मास्क सा लगाकर प्रेमगीत गाता. प्रेमिका अपने पिता या सौतेली माँ के घूरने के बावजूद भी हाथ छुड़ा, नायक के पास दौड़ी चली आती. दिल को चैन मिलता. आजकल 'तू प्यार है किसी और का', 'मेरा दिल भी कितना पागल है'  गीतों का दौर समाप्तप्राय है. 

8. ऐसे तो उस दौर से जुड़ी बहुत सी बातें हैं. पर चलते-चलते एक और याद करा देती हूँ. जब डॉक्टर ये कहता कि "इनको दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'. तो उफ़! नायक मंदिर-मस्जिद की चौखट पर पहुँच ऐसे-ऐसे संवाद बोलता कि कलेजा मुँह को आता. तभी अचानक जोर-जोर से मंगल ध्वनियाँ वातावरण में गूँजने लगतीं और हम ये जान लेते कि 'हैप्पी एन्डिंग' होने वाली है. लेकिन जब हीरो अपनी माँ की गोदी में सिर रख लेता और बचपन याद करता तो जी भर आता. पूरे सिनेमा हॉल से सुबकने की आवाज आती क्योंकि इतिहास गवाह है कि इस पोज़ वाला नायक जीवित न रहा कभी! रुमाल निचोड़कर सुखाते कि फिर भीग जाता. बाहर निकलते समय सब बस एक ही बात कहते कि "यार, पिच्चर तो अच्छी थी पर हीरो को ज़िंदा रहना चैये था". 
- प्रीति अज्ञात 
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फोटो: गूगल 




मंगलवार, 27 जुलाई 2021

#Mimi : बधाई हो! हमारा सिनेमा बदल रहा है!

27 जुलाई को कृति सेनन के जन्मदिवस के अवसर पर उनकी फ़िल्म 'मिमी' नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ कर दी गई.  निर्धारित तिथि से चार दिन पहले आने के कारण, इस रिलीज़ को प्री-मैच्योर बेबी की उपमा भी दी गई है. लेकिन परिपक्वता की दृष्टि से यह फ़िल्म हर मायने में पूरी तरह खरी उतरती है. 

इधर हमारा समाज अभी तक इसी प्रश्न में ही उलझा हुआ है कि जन्म देने वाली या पालने वाली माँ में से कौन बड़ा! हम माता देवकी और मैया यशोदा की तुलना सदैव करते आए हैं. लेकिन अब विज्ञान ने हमारा सिर खुजाने को एक वज़ह और दे दी है- सरोगेट मदर. 

सरोगेसी पर आधारित इस फ़िल्म 'मिमी' का ट्रीटमेंट बेहद मनोरंजक तरीके से किया गया है. यह अपने पहले ही सीन से इस हद तक बाँध लेती है कि फिर आप एक पल को भी बीच में उठना नहीं चाहेंगे.  

बिना रोमांस और अश्लीलता के भी एक शानदार फ़िल्म बनाई जा सकती है. 

हिन्दी फ़िल्म हो और उसमें कोई प्रेम कहानी न हो! यह बात हम भारतीय दर्शकों को चौंका सकती है. मिमी ठीक ऐसी ही है. इसमें नायक-नायिका दोनों हैं पर उनमें प्रेम नहीं. दोनों दोस्त भी नहीं हैं. नायिका मिमी के बॉलीवुड को लेकर अपने सपने हैं और वह खूब पैसा कमाना चाहती है. नायक भानु भी यही चाहता है. एक विदेशी जोड़ा, सरोगेट मदर की तलाश में जयपुर आता है और जैसे इनके सपनों को मंज़िल मिल जाती है. बिना गरीबी का रोना रोए इस पूरी कहानी को बहुत ही सहजता से फ़िल्मांकित किया गया है. कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं और यह सारे इमोशन्स को बड़ी ही खूबसूरती से साथ लेकर चलती है. 

गंभीर विषय को गुदगुदाते हुए भी कहा जा सकता है. 

हम हिन्दी फ़िल्मों के दर्शक जब सरोगेसी विषय देखते हैं तो सीधे-सीधे दो बातें दिमाग़ में आती हैं, पहली तो यह कि चूँकि गंभीर और नया विषय है तो इसमें बहुत ज्यादा उपदेशात्मक या ज्ञान भरी बातें होंगीं. और दूसरी वही माँ की ममता से लबरेज़ महान भावनात्मक चित्रपट की तस्वीर आँखों में कौंध जाती है. क्या करें, हमने त्याग, बलिदान, तपस्या में डूबी हुई रोने-धोने की इतनी फ़िल्में देख रखी हैं कि सिवाय इसके और कुछ और सोच ही नहीं पाते! लेकिन जैसा कि मिमी की टैगलाइन में भी कहा गया है कि 'इट्स नथिंग लाइक व्हाट यू आर एक्सपेक्टिंग' तो हम भी यही कहेंगे कि ये हमारी घिसी-पिटी सोच से हटकर एकदम नए कलेवर में बनाई गई फ़िल्म है. 

 यह फ़िल्म ज्ञान तो देती है पर उपदेश नहीं. इसके संवादों पर आप मुस्कुराते हुए हामी भरते जाते हैं. हास्य का पुट देते हुए गंभीर विषय को सहजता से कैसे समझाया जा सकता है, यह फ़िल्म उसका सटीक, सशक्त उदाहरण है.

हिन्दू-मुस्लिम साथ में हँसते भी हैं.  

इस फ़िल्म में हिन्दू-मुस्लिम हैं पर उनके कट्टरपन को भुनाने की कोई चेष्टा नहीं की गई है. यहाँ एक-दूसरे को देखते ही उनका खून नहीं खौलता! लेकिन कुछ भी कहिए पर यह फ़िल्म भारतीय दर्शकों की नस जरूर पकड़ के रखती है. निर्देशक जानते हैं कि चोट भी कर दो और ज़ख्म दिखाई न पड़े. बल्कि यहाँ तो हमारी मानसिकता को सोच बार-बार हँसी ही आती है. एक स्थान पर भानु स्वयं को मुसलमान बताता है और उस की टैक्सी पर जय श्री राम लिखा देख दो लोगों के चौंकने का अभिनय सहज हास्य पैदा करता है. वहीं जब मिमी की माँ, स्थिति को समझे बिना मिमी के गर्भवती होने की खबर जान पछाड़ें खा छाती कूट रही होती है. तभी उसे पता चलता है कि लड़का मुसलमान नहीं है. उस वक़्त उसके चेहरे की प्रसन्नता देखते ही बनती है. वो सारे दुख भूल इस बात से सुकून महसूस करती है कि लड़की ने ज्यादा नाक नहीं कटाई! 

एक जगह मिमी की सहेली शमा के घर जब भानु मुस्लिम बनकर रहता है तो उससे नमाज़ के बारे में किये गए प्रश्न पेशानी पर बल नहीं डालते बल्कि भीतर तक गुदगुदा जाते हैं. 

हालाँकि यह फ़िल्म अपने मूल विषय सरोगेसी से एक पल को भी हटती नहीं लेकिन फिर भी घर-परिवार से जुड़े हर दृश्य से एक जुड़ाव सा महसूस होता है और संवाद अपने से लगते हैं. यक़ीनन यह फ़िल्म कई सामाजिक धारणाओं को बदलने का माद्दा रखती है.

मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों की खूबसूरती का संगम है यह फ़िल्म  

एक बच्चे के घर आने से कैसी रौनक आ जाती है और सब दुख बौने लगने लगते हैं, इसे अत्यंत भावुक और संवेदनशील तरीके से फिल्माया गया है. कई दृश्य ऐसे हैं जहाँ गला रुँधने को आता है पर अचानक ही कोई फुलझड़ी सी छूटती है और मन स्वयं को संभाल लेता है. बच्चे से जुड़ाव और मोह के सारे रंग तो हैं ही इसमें, पर इसके साथ ही बच्चे, रिश्ते कैसे जोड़ देते हैं यह भी बड़ी सरलता और संतुलित ढंग से दिखाया गया है. वहीं गोरे बच्चे को लेकर जो आकर्षण है, उसे दिखाने में भी निर्देशक ने कामयाबी हासिल की है. बकौल भानु, "रंगभेद से छुटकारा जाने कब मिलेगा". 

भानु के कोई बच्चा नहीं लेकिन उसके पास सरोगेट मदर अफोर्ड करने के लिए पैसा भी नहीं है. एक दृश्य में वह कहता है कि 'बच्चों को पढ़ाने के लिए लोन लेते हैं, पैदा करने के लिए कौन लेगा!' लेकिन वहीं वो विदेशी जोड़े को एक फ़िट सरोगेट मदर दिलाने में कोई क़सर नहीं छोड़ता. एक अन्य जगह, जब मिमी बेहद निराश होकर उससे पूछती है कि वो अब तक उसका साथ क्यों दे रहा है?  तो उसका जवाब है कि "ड्राइवर हूँ,एक बार पैसेंजर को बिठा लिया तो हम उसे मंजिल पे छोडे बग़ैर वापिस नहीं लौटते". 

जीवन-दर्शन का पाठ भी है यहाँ कि "हम जो सोचते हैं वो ज़िंदगी नहीं होती है, हमारे साथ जो होता है वो ज़िंदगी होती है". 

ज़बरदस्त कलाकारों का कॉम्बो पैक है यह फ़िल्म.  

मिमी के माता-पिता के रूप में सुप्रिया पाठक और मनोज पाहवा का अभिनय, अभिभूत कर देता है. उनके चेहरे के हाव भाव ही आधी बात कह जाते हैं. मिमी की सहेली शमा के रूप में सई बेहद प्रभावित करती हैं. उनकी बोलती आँखें दीप्ति नवल और स्मिता पाटिल की याद दिलाती हैं. पंकज त्रिपाठी के बारे में तो अब क्या ही और कितना कहा जाए! हर फ़िल्म में वे अपनी कला से दर्शकों का दिल जीत लेते हैं. उनके लिए एक ही बात बार-बार ज़हन में आती है कि 'एक ही दिल है, कितनी बार जीतोगे!' 

कृति सेनन ने मिमी के चरित्र में जान फूँक दी है. जहाँ भी उनका ज़िक्र होगा, मिमी खुद ब खुद उधर चली आएगी. यह फ़िल्म उनके करिअर में मील का पत्थर तो साबित होगी ही, साथ ही अब उनको ध्यान में रखते हुए कहानी भी लिखी जाया करेंगीं.   

इस फ़िल्म की सफलता में इसकी ज़बरदस्त स्टार कास्ट का होना भी जरूर गिना जाएगा. हर कलाकार ऐसा है जिसकी जगह और किसी को सोचा ही नहीं जा सकता! सबने अपना-अपना रोल दमदार तरीक़े से निभाया है. जीत का सेहरा कलाकारों के सिर बाँधते हुए, तालियों की गड़गड़ाहट इसके निर्देशक लक्ष्मण उटेकर के लिए भी होनी चाहिए. क्योंकि उन्होंने ही यह साबित किया कि गंभीर विषय पर चर्चा मुस्कुराते हुए हो, तो उसका असर गहरा और प्रभावी होता है. ए.आर.रहमान का नाम देख यदि अपेक्षाएं हावी न हों तो गीत संगीत ठीक-ठाक है. यद्यपि फ़िल्म के इस पक्ष पर अधिक ध्यान नहीं जाता क्योंकि हमारा मन तो इस कहानी से इतर कहीं भटकता ही नहीं! 

एक बार फिर याद दिला रहे हैं  कि पहली फ़ुरसत में ही इसे देख डालिए, क्योंकि 'इट्स नथिंग लाइक व्हाट यू आर एक्सपेक्टिंग'. 

बधाई हो! हमारा सिनेमा बदल रहा है!

- प्रीति अज्ञात 

आप इसे यहाँ भी पढ़ सकते हैँ -

https://www.ichowk.in/cinema/mimi-movie-review-on-netflix-pankaj-tripathi-kriti-sanon-starrer-mimi-is-one-of-the-best-film-in-recent-time-reasons-stating-why/story/1/20971.html

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फोटो: साभार गूगल 



गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मन दौड़ने लगता है....

बीते समय में एक ज्ञान हमने बहुत अच्छे से ले लिया है कि जब तक किसी बात को कहने के लिए दिल स्वयं राजी न हो, जुबां पे ताला लगाकर रखना चाहिए. बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देने से लेने के देने पड़ जाते हैं. यूँ तो इस संदर्भ से जुड़े कई किस्से हैं लेकिन अभी आपको ताजातरीन घटना सुनाती हूँ. 
एक दिन रफ़ी साब की बात चल रही थी. चर्चा में पूरी तरह सहभागिता दर्शाते हुए हमने आगे होकर कह दिया कि किशोर और रफ़ी का कोई मुक़ाबला ही नहीं! गायन के मामले में मोहम्मद रफ़ी का अंदाज़ तो अद्भुत है ही, लेकिन किशोर दा भी कहीं उन्नीस नहीं ठहरते जबकि उन्होंने तो संगीत की विधिवत शिक्षा भी नहीं ली है. अब शायद तब हमारी बुद्धि ही भ्रष्ट हो चली थी जो हमने इसमें एक पंक्ति और जोड़ दी कि 'मुकेश मुझे उनसे कम पसंद हैं." मेरा यह मानना है कि जब कोई 'कम पसंद' कहता है तो वह उस इंसान की आलोचना नहीं कर रहा होता बल्कि अपना रुझान बताना चाहता है. लेकिन मित्रों के सामने इतनी आसानी से कोई बात कह बचकर निकल जाओ तो लानत है ऐसी मित्रता पर! 
रफ़ी-किशोर की प्रशंसा तत्काल समाप्त करके मित्र की सुई मुकेश पर अटक गई. उन्होंने हमारी बात को सुन तुरंत ही जिस टोन में 'अच्छा!' कहा, हम समझ गए कि "अबकी कुल्हाड़ी पर सीधे ही पैर मार लिया है हमने, बचना मुश्किल है". उनकी खतरनाक मुखमुद्रा देख हमें अपनी गलती का जरूरत से ज्यादा ही एहसास हो गया था. सच्चाई यह है कि मुकेश ने राज कपूर जी के जितने भी गाने गाए हैं, हमने जमकर सुने हैं और सदैव दिल से उनके प्रशंसक रहे हैं. इसके अलावा भी बेशुमार बेहतरीन गीत हैं उनके. 

तो हमने बात संभालते हुए कहा, "अरे! मेरा ये मतलब नहीं था. राज कपूर जी की तो आवाज़ थे वे. आवारा, श्री 420, संगम, मेरा नाम जोकर, अनाड़ी और कितनी ही अनगिनत फ़िल्मों का पार्श्वगायन उन्होंने किया है. जिस देश में गंगा बहती है का 'होठों पे सच्चाई रहती है' गीत तो हम भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि गीत मानते हैं. 
तुमको क्या पता, जब हमको प्रेम हुआ था न तो हमने अपने प्रेमी को सबसे पहले यही गीत सुनाया था, "खयालों में किसी के, इस तरह आया नहीं करते" और चिट्ठी लिखकर हम दोनों ने परस्पर "फूल तुम्हें भेजा है खत में" भी गुनगुनाया था. सावन के महीने में पवन ने उन दिनों भी खूब सोर किया था. हमारे नसीब में बिछोह था जिसके कारण रो-रोकर "छोड़ गए बालम, हमें हाय अकेला छोड़ गए" का सहारा भी हमने लिया ही है". 

हमारे दुख को दरकिनार कर मित्र ने दूसरी गोली दागी. "राज कपूर जी की तो आवाज़ थे वे!!!" ये कहकर आप क्या सिद्ध करना चाह रही हैं? दिलीप कुमार से लेकर अमिताभ तक सबको सुपरहिट गाने दिए हैं उन्होंने". अब हम समझ गए कि उन्होंने हमारी बात सीधे दिल पर ले ली है, समझाने का कोई फायदा नहीं! हाथ जोड़कर शब्द वापिस लेना ही एकमात्र उपाय बचता है. शर्मिंदगी में सिर को जमीन में गाड़ते हुए भरे गले से हमने कहा कि 'हाँ, दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा', 'कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है', 'मैं पल दो पल का शायर हूँ, मुझे भी बेहद प्रिय हैं. उन्होंने तो मनोज कुमार, संजीव कुमार, राजेश खन्ना सबके लिए शानदार गाया है. 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए', 'महबूब मेरे', 'धीरे-धीरे बोल कोई सुन न ले', 'कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे', 'इक प्यार का नगमा है','सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं', 'चल अकेला' और ऐसे ही शानदार सैकड़ों गीत उनके खाते में हैं. तभी तो उनकी आवाज़ को 'गोल्डन वॉयस' कहा जाता है". हमने उनकी जानकारी में इज़ाफ़ा कर रिरियाते हुए अपनी खिसियाहट दूर करने की एक और नाकाम कोशिश की. 

खैर! दिल का मामला था और वो भी संगीत से जुड़ा. दोनों पक्षों का भावुक होना स्वाभाविक था.  हम मौन होकर 'दोस्त दोस्त न रहा', 'सजन रे झूठ मत बोलो', 'सजनवा बैरी हो गए हमार' जैसे दर्द भरे नगमों में डूब गए. उस दिन इतने गहरे दुख और सदमे में चले गए थे कि स्वयं ईश्वर ने आकर हमारी स्मृति से सभी गायकों को विलुप्त कर केवल मुकेश को छोड़ दिया था. हम तबसे यही सिद्ध करे जा रहे हैं कि वे मेरे भी प्रिय गायक हैं. 
लेकिन सच तो ये है कि हम उन्हें दीवानों की तरह चाहते हैं. हमारे दुख को उन्होंने अल्फ़ाज़ दिए हैं. 'वक़्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते', 'दीवानों से ये मत पूछो', 'मुझको इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो' ने हमारे आँसुओं को खूब कांधा दिया है. 
उस दिन जरूर हम, अपनी बात हम ठीक से रख नहीं पाए थे, इसलिए मित्र की नाराज़गी छलक पड़ी. बाद में उनको हमने ग्रुप छोड़ते हुए 'हम छोड़ चले हैं महफ़िल को, याद आए कभी तो मत रोना' गीत व्हाट्स एप कर दिया था.  जिस पर उन्होंने सहृदयता दिखाते हुए हमें मुस्कान वाला इमोजी भेजा था. 

लेकिन मुकेश जी, आप तक हमारा प्यार पहुँचे. सैकड़ों गीतों के साथ-साथ, आपके लंदन अल्बर्ट हॉल वाले कार्यक्रम का कैसेट भी था घर में, जिसे सुनकर हम बड़े हुए हैं. पता नहीं कैसा जादू है आपकी गायकी में कि हजारों बार सुनकर भी जी नहीं भरता! आपके गीत इतना चलाते थे कि कई बार कैसेट की रील उलझ जाती. फिर जैसे-तैसे उसमें पेंसिल फंसा धीरे-धीरे घुमाते और ठीक करके ही दम लेते थे. जब तक ठीक न होता, मुँह लटका ही रहता था. 
आप सबके प्रिय गायक हैं और हमेशा रहेंगे. मन टेप रिकॉर्डर और कैसेट के जमाने की स्मृतियों के पन्ने पलट रहा है. एक बार फिर रजनीगंधा महक रहा है. आप मन के भीतर उतर आए हैं, रील गोल गोल घूमने लगी है -
कई बार यूँ भी देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है
अन्जानी प्यास के पीछे
अन्जानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता है....  
- प्रीति अज्ञात 
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बुधवार, 21 जुलाई 2021

चाय में डूबे बिस्कुट की भी अपनी एक कहानी है

आलू गोभी, कढ़ी चावल, छोले कुलचे की तरह एक और भारतीय जोड़ी है चाय-बिस्कुट की. लेकिन इन दोनों का किस्सा ही अलग है. हम ये बात आज तक नहीं समझ सके कि चाय के साथ अगर बिस्कुट या टोस्ट आता है तो उसको डुबोना किसलिए है? आखिर इनके मेलजोल की प्रथा कब से प्रारंभ हुई? अब सुबह-सुबह बिस्कुट महाराज हाथ से ऐसे फिसले जैसे गंगा नहाने घाट से उतर गए हों. खुद तो डूबे ही सनम, हमारी सुबह भी ले डूबे हैं. हम तो इतने आहत हैं कि क्या ही कहें!

सच मानिए, जीवन में असली दर्द की पहचान तो तब होती है जब सुबह की पहली चाय के साथ अपना बिस्कुट खुदकुशी कर ले. आप सबने भी यह दुख कभी न कभी झेला ही होगा! ये भी जानते ही होंगे कि यही दर्द तब नासूर बन जाता है जब उस दिवंगत बिस्कुट को बचाने के चक्कर में, बचा हुआ भी डूब जाए! आज इस गहरे ज़ख्म की पीड़ा की प्रक्रिया से इतना बुरी तरह गुजरे हैं हम. क़सम से पहली बार तो दिल पर पत्थर रख लिया था हमने और वक़्त के इस घनघोर सितम को चुपचाप सह गए थे. लेकिन दूसरी बार तो यूँ लगा जैसे बचाव दल (रेस्क्यू टीम) का एक बंदा खामखां शहीद हो गया. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उसे तो बचाया जा सकता था!  लेकिन अब अफ़सोस के सिवाय और कुछ हाथ न था. इस गरीब के किचन में वही दो बिस्कुट शेष थे जो आज साथ छोड़ गए. गए भी तो वहाँ, जहाँ से आज तक कोई भी साबुत न लौटकर आ सका. ज्ञानी लोगों ने तो कब का बता दिया था कि कमान से निकला तीर, मुँह से निकले शब्द और चाय में डूबे बिस्कुट को लौटा पाना असंभव है. अब मति तो हमारी ही मारी गई थी कि ज्ञानियों की बातों को हल्के में ले लिया. 

अच्छा! अब आप सोच रहे होंगे कि हमने कौन सा बिस्कुट लिया था. तो हमें यह बताने में रत्ती भर भी संकोच की अनुभूति नहीं हो रही कि ये वही आयताकार खाद्य पदार्थ है जो कि सृष्टि के निर्माण के समय से ही इस धरती पर विद्यमान है. जी, हाँ पारले- G. हमारा तो यह भी मानना है कि ईश्वर ने जब मनुष्य को इस धरती पर भेजा तो टोसे में केतली भर चाय और पारले- G का पैकेट साथ बाँध दिया था. हो सकता है, उन्होंने स्वयं भी अपनी थकान दूर करने के लिए यही खा कर आराम किया हो. तभी तो इसे वरदान प्राप्त है कि युग आते-जाते रहेंगे पर तुम सदैव, सर्वत्र उपस्थित रहोगे.

अब ऐसा भी नहीं कि हमने इसके विकल्प न तलाशे हों. गोल मैरी ट्राई किया पर वो पूरा बैरी निकला. क्रेक्जैक और 50-50 टाइप  को तो स्वयं चाय ने ही ठुकरा दिया. बोली, "मुझे पाने वाले में कुछ तो क़शिश और मौलिकता होना माँगता है बेबी! ये सब तो मोनको की कॉपी करके बड़े हुए हैं". कई चॉकलेटी बंदे भी इस स्वयंवर में आए लेकिन अपने लावा को भीतर ही घोल पराजित हुए. इधर ये कमबख्त पारले यह सोच मंद-मंद मुस्कुराता रहा, मानो कह रहा हो, "अजी, हमसे बचकर कहाँ जाइएगा, जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा!" जाने किस फॉर्मूले से बना है कि इसके सिवाय और कुछ जँचता ही नहीं! या फिर चाय ही नहीं चाहती होगी कि उसके जीवन में कोई नयापन आए. उसे बदलाव की चाहत ही न रही. शायद उसी बोरिंग लाइफ की अभ्यस्त हो चली है.

लेकिन तनिक विचारिए, उस चाय के दिल पर क्या बीती होगी जिसे अपनी बाँहों में समाए उसका प्रेमी चल बसा. आखिर चाय और मुँह के बीच फ़ासला था ही कितना! वैसे भी उस समय कप टेबल और मुख के मध्य स्थान पर लहराती उंगलियों के चंगुल में था. बस, जरा सी ही दूरी तो तय करनी थी. लेकिन ये बेवफ़ा अपनी प्रिया का साथ न दे सका और दो क़दम चले बिना ही एन मौके पर दम तोड़ गया.

यद्यपि हमें इससे सहानुभूति भी कुछ कम नहीं. हमारा वैचारिक गुरु भी यही है. एक बार जब हम अपने प्रेमी की स्मृतियों में औंधे पड़े टसुए बहा रहे थे तब इसी ने सचेत किया था. कह रहा था कि किसी में ज्यादा डूबोगी, तो टूट जाओगी. और आज, खुद ही ऐसा डूबा, ऐसा डूबा कि कोई न बचा सका. आज के जमाने में कोई नैतिक शिक्षा लेना तो नहीं चाहता, पर भावुक मन से बस इतना ही कहेंगे कि मोहब्बत में 'दो ज़िस्म एक जां की तरह' ऐसा डूबो, ऐसा डूबो कि अलग करना मुश्किल हो जाए. इश्क़ करो तो चाय-बिस्कुट की तरह एकाकार हो जाओ.

खैर! यह हादसा ऐसा है जो हम सबके साथ कभी न कभी हुआ है. सच कहूँ तो चाय में डूबा बिस्कुट हमारी भारतीयता की पहचान है. यही वह भीषण दुख और दर्द से भरा रिश्ता है जिसने हम सबको एक सूत्र में बाँधे रखा है. लेकिन अगर डूबने से डर लगता है तो जरा संभलकर रहिए.

कहीं पढ़ा था, "चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते". लेकिन हम कहते हैं, उन पर से ध्यान नहीं हटना चाहिए. न जाने कब उन्हें हमारे सहारे की जरूरत पड़ जाए.  हाँ, लेकिन डूबे हुओं के किस्से मन को भीतर से तोड़ देते हैं! डूबे हुए बिस्कुट को निकालने में संघर्षरत इंसान को देख हमारा तो कलेजा एकदम से फट जाता है जी.  

अच्छा, चलते-चलते एक जरूरी बात और बताते चलें कि अंग्रेजी के 'बिस्किट' सर, हिन्दी पट्टी में आते ही 'बिस्कुट' भाईसाब बन जाते हैं क्योंकि हम लोग चुटुर पुटुर चीज़ों को कुटुर -कुटुर खाते हैं. 

- प्रीति 'अज्ञात'

20/07/2021 

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शनिवार, 10 जुलाई 2021

जब चोर की चिट्ठी ने हमें भावुक कर दिया!

कुछ खबरें ऐसी होती हैं जिन्हें जानने के बाद हम जैसे होमो सेपिएन्स बेहद कन्फ्यूज़ हो जाते हैं. मतलब रत्ती भर भी समझ नहीं आता कि भावुक होकर प्राण तज दें या केवल सिर धुनकर ही इस दिल की बेचैनी को क़रार दें!. 

बताइए, ये भी कोई बात हुई कि एक बंदे ने चोरी की और उसपे सॉरी नोट भी छोड़ गया! कि "मैं मजबूर हूँ. जैसे ही पैसे जमा होंगे, सूद समेत तुम्हारे पास फेंक जाऊँगा. मैं अच्छा इंसान हूँ".  हालांकि इसमें 'फेंकना' शब्द पर मुझे घोर आपत्ति है, थोड़ी शालीन भाषा का प्रयोग किया जा सकता था. पर कोई न! जल्दी में बेचारे के मुँह से निकल गई होगी. वरना उफ़्स! इतना क्यूट और मासूम चोर, न भूतो न भविष्यति! 

मुझे तो लग रहा कि इसका पत्र पढ़कर पीड़ित पक्ष भी एक-दूसरे के गले लग बिलख-बिलख रोया होगा. शायद आँखों ही आँखों में परस्पर बधाई का आदान-प्रदान भी कर लिया हो कि हम कितने भाग्यशाली हैं जो एक चरित्रवान, संवेदनशील और ईमानदार चोर ने हमारा घर चुना. घर की एक-एक ईंट अपने भाग्य को सराह रही होगी कि कैसे एक देवदूत ने उन्हें स्पर्श कर दैवीय बना दिया. 

अच्छा! ये भी इतिहास में पहली बार ही दर्ज़ समझिए कि जब चोर ने अपने ही पर्सनल हाथों से अपना चरित्र प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया हो. सोचिए, चोरी के उन नाजुक क्षणों में जहाँ एक-एक पल कीमती होता है. साँसों की मद्धम आवाज़ भी गुस्ताख महसूस होती है, वहाँ इस मासूम ने चिट्ठी लिखते समय अपनी जान की तनिक भी परवाह न की. हे युवक! तेरी इस वीरता की कहानी पाठ्यपुस्तक का हिस्सा बनेगी. 
सिर्फ़ इतना ही नहीं मैं तो यह सोचकर भी परेशान हूँ कि हिन्दी साहित्य इस बाँके जवान के निश्छल कृत्य से कैसे उऋण हो सकेगा! आखिर उसने रुपये उठाने के साथ-साथ, लुप्त होती पत्र-लेखन विधा को पुनर्जीवित करने का बीड़ा भी तो उठाया है. 

ओ मोरे खुदा! ओ माय भगवन! मतलब इन जैसे लोग हम डिजिटल कार्ड वालों को तो डायरेक्ट गिल्ट में ही मार के चले गए! क्या बताएं! एक जमाने में हम भी दो-दो किलोमीटर लंबी चिट्ठियां लिखा करते थे. अब लज्जा से मुंडी जमीन में धंसी जा रही है. तरन्नुम में सोचती हूँ "हम कितने मासूम थे, क्या से क्या हो गए देखते-देखते!" 
खैर! कलेजे पर पत्थर रख हमने इन मजबूर महाशय को कोसने की बजाय इनकी प्रशंसा का मन बना ही लिया था. अभी प्रशस्ति पत्र का प्रारूप दिमाग की अटरिया में उमड़-घुमड़ ही रहा था कि हाय रे! हमारे कोमल दिल पर एक और आकस्मिक भारी जुलुम हो गया. अब इसे भाग्य की विडंबना कहें या अपने अथाह पनौतीपन की जानी-पहचानी कंटिन्यूटी. पता चला, मामला भिंड (म. प्र.) का है. 

अब साब! लेट मी क्लियर माय ऑरिजिनल मन की बात, कि मामला जब जन्मभूमि (माना कि हम राम जी नहीं, पर कहीं तो पैदा हुए हैं न!) से जुड़ा हो तो संवेदनशीलता अलग ही लेवल पर भभककर बाहर आने को दौड़ती है. आपने एकदम ठीक समझा, भिंडी ऋषि की यह पावन भूमि इस नाचीज़ की अवतरण स्थली भी है. भई, यहाँ का अपना एक समृद्ध इतिहास है. गौरी सरोवर है, किला है. ग़ज़ब की खूबसूरती है, गुलाब की पत्तियों से महकते लिपटे पेड़े तो दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं ही. यहाँ की प्रतिभाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में खूब नाम कमाकर शहर को गौरवान्वित किया है. एक तो आपके सामने अभी है ही. खी खी खी. 

हमें पता है आप मन में क्या सोच रहे हैं! तो सुनिए, ये जो थोड़ी इमेज खराब हुई भी है वो इस चक्कर में कि यहाँ नेक डाकू-वाकू हो गए थे कभी. जैसा कि हमने अभी ही अपने भावपूर्ण उद्बोधन में कहा कि जगह तो लल्लन टॉप है. उसी को विस्तार देते हुए बता रहे हैं कि इधर इटावा वाली साइड में जो बीहड़ है न, वो पहले विला टाइप फ़ील देता था. तो कुछेक दस्यु सम्राट और साम्राज्ञी भी इसी चक्कर में यहाँ सेटल हो गए थे. मल्लब उन की और उनकी बंदूक की पदचाप यहाँ की फिज़ाओं में बेतहाशा गूँजी हैं. लेकिन इस भ्रम में न रहिएगा कि इसके लिए केवल भिंड ही जिम्मेदार है. न, बेटा न! ऐसी मिस्टेक गलती से भी मत करना!
आपने लक्ष्मी-प्यारे, शंकर-जयकिशन, नदीम-श्रवण, सलीम सुलेमान, विशाल-शेखर आदि की संगीत जोड़ी का नाम तो सुना ही होगा.  बस, ठीक वैसे ही हमाई जन्मस्थली की भी जोड़ी याने द्वय है जी. लोग जब डाकुओं का जिक्र करते हैं न, तो बड़े सम्मानपूर्वक भिंड-मुरैना एक साथ जपा जाता है. 

वैसे विषय से इतर एक बात बताएं आपको? पर पिलीज़ पहले प्रॉमिस कीजिए कि आप इसको घमंड समझ, हमको सेलिब्रिटी समझने की भूल कतई न करेंगे. वो बात ये है कि हमको भी दस्यु सुंदरी फूलन देवी और श्री मलखान सिंह जी के साक्षात दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है. पर वो कहानी फिर कभी! अभी जरा चोरी की इस प्रेरणास्पद घटना पर ठीक से पिरकास डाल लें!

तो आगे का किस्सा ये है कि आदरणीय चौर्य महोदय ने अपनी वीरगाथा सुनाते हुए एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी भी दी. सूत्रों से बात करते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने 'धूम-3' के नायक की तरह 'अच्छा काम' किया है. उनके लिखे पत्र में भी धूम-3 और उनके अच्छे इंसान होने की पुष्टि की गई है. लेकिन अंदर की खबर यह है कि पुलिस कुछ पुष्टि स्वयं ही करने की इच्छुक पाई गई है. हो सकता है कि भिंड पुलिस ने ही ससम्मान इस नवयुवक के माथे पर लड्डू उगाके उस को सूद समेत घर लौटाने का मन बना लिया हो. 

जो भी हो, देश भर के अखबारों में इस अच्छे इंसान की धूम मची है. चोरी वोरी की बात कौन करे! वो तो रोज का किस्सा है जी. अपन को तो सेंटीमेंटल होना जमता है. तभी तो खुशी से मेरी शुष्क आँखें छलक उठी हैं. इंतज़ार की घड़ियाँ समाप्त हुईं. अंततः हमारे भिंड के अच्छे दिन आ ही गए! हौसला न छोड़ना. आपके भी आएंगे. 

रात के तीन बजा चाहते हैं. लेकिन सुंदर कल्पनाओं से मन का आँगन सजा हुआ है. हौले-हौले सतयुग में लौट रहे हैं हम. इस सतत प्रक्रिया के मध्य में सिबाका फिर से बिनाका गीतमाला बन चुकी है. अपने अमीन सयानी जी चहकते हुए कह रहे हैं, ऊँ हूँ आहा, तो भाइयों और बहनों, इस बार चार छलाँगे ऊपर लगाता हुआ पायदान नंबर एक पर पहुँचा है, ये गाना -
दुख भरे दिन बीते रे भैया 
अब सुख आयो रे 
रंग जीवन में नया लायो रे 
आए हाए दुख भरे दिन बीते रे भैया, बीते रे भैयाआआ 
- प्रीति अज्ञात 
फोटो: न्यूज का स्क्रीन शॉट लिया है. चिट्ठी हमारे घर नहीं आई थी. 
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