वैसे तो हमें भगवान जी ने बहुत तसल्ली से बनाया है पर हमारे तंत्रिका तंत्र की एक-दो ढिबरियाँ गुजरते समय के साथ थोड़ी ढीली पड़ती जा रही हैं. इन्हीं खुलती हुई ढिबरियों के सदक़े आज 'शिक्षक-दिवस' के पावन पर्व पर समस्त शिक्षकों को धन्यवाद देते हुए हमें और भी बहुत कुछ याद आता ही चला जा रहा है. इस बेचैनी को क़रार तब तक नहीं आएगा, जब तक हम आपको बता नहीं देंगे!
अच्छा, उससे पहले ये सूचित कर दें कि भले ही अपन इसे 5 सितम्बर को डिजिटल धूमधाम के साथ मनाते हैं लेकिन हमको तो जैसे ही राह चलते कोई मुर्गा दिख जाता है न! तभी 'शिक्षक दिवस' की शीतल बयार हमरा हिया धड़काने लग जाती है. क्या आज के मुलायम बच्चों को पता है कि एक जमाने में, अपने विद्यालय के दिनों में मनुष्य को मुर्गा बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ करता था! मतलब एक ही जनम में दो-दो योनियों का फल! अहा! ग़ज़बै दिन थे वो. उस समय तो बड़ा दरद देते थे पर अब उन्हें याद कर बत्तीसी मचलने लगती है. आपकी भी मचली न? तबहि तो आप मुंडी हिला मुस्किया रहे!
तो बात मुर्गे की है पर इसे अपनी स्वाद कलिकाओं से न जोड़ लीजिएगा क्योंकि हम विशुद्ध शाकाहारी हैं. अब ये 'मुर्गा' बनाने की प्रथा कब और किन सामाजिक परिस्थितियों के चलते प्रारम्भ हुई, इतिहास में इस पर अब तक कोई पिरकास डाला ही नहीं गया. अतः हमहि लालटेन लेकर टिराई कर रये.
गहन शोध के प्रथम चरण (phase 1) में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम आपको इस अंतरजाल (Internet) युग को विस्मृत करना होगा. तत्पश्चात आँखों के शटर गिरा दीजिए. अब अपने आप से कनेक्ट होते हुए हौले से तनिक बचपन वाली कक्षा में प्रवेश कीजिए.
का दिखा महाराज?
ब्लैकबोर्ड, कुर्सी, मेज, टाटपट्टी, चॉक और ऊधम मचाते बच्चे?
हाँ, एकदमै ठीकै जा रहे हैं आप.
अब पुनः फोकस कर गंभीर मुद्रा में, कक्षा में प्रवेश करते शिक्षक महोदय की मनभावन छवि को हृदय में उतारिए. उई माँ! सर का तो मूडै ख़राब लग रिया (बिना चक्रवर्ती).
देक्खा? शरीर के सारे कोहराम को सडन शॉक लग के छा गई न अपार शांति? अब डस्टर, चिकोटी, छड़ी के अलावा पिटाई से मीलों दूर एक ऐसी अनमोल सज़ा की वादियों में खो जाइए, जहाँ दरद शरीर नहीं डायरेक्ट दिल में होता था. आँसू,आँख से न टपककर, उहाँ ही कहीं तीर से धंस जाया करते थे. खासतौर से तब जबकि आप तो राजा बेटा की तरह ब्रेक में भी पढ़ रहे थे लेकिन अब पूरी क्लास को सजा मिली है तो भोगिए न पिलीज़. 'गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है' वाली कहावत तो चलो ठीक, पर नोट करते चलो कि हियाँ कक्षा काल से ही इतिहास में घुन के चक्कर में गेहूं पिसने की प्रथा प्रारम्भ हो गई थी.
इसके अतिरिक्त ताड़ासन (लड़कियों को ताड़ने वाला नहीं यू डिसगस्टिंग पीपल), बेंचासन और उठक-बैठकासन भी प्रचलन में थे. ये जो जिम में बड़ा कूल डूड बन आप स्क्वैट करते हैं न! दरअसल वो उठक-बैठकासन का ही अपग्रेडेड वर्ज़न है. लेकिन शिक्षकों के लिए जो सुख और अपार आनंद मुर्गा बनाने में था, उसका कोई तोड़ उस युग में तो प्राप्त न हो सका था जी.
दुर्भाग्य से मासूम बच्चों के लिए इज़्ज़त का सबसे बड़ा फ़ज़ीता (फ़ालूदा जैसा ही) यही सज़ा थी. हम पढ़ने में अच्छे तो थे ही उसपे व्यवहार भी एकदम अनुशासित रानी बिटिया टाइप. लेकिन इतिहास ग़वाह है कि सामूहिक सजा में आम लोग सदा ही पिसते आये हैं तो हम भी बलि का बक़रा बन जाया करते! क़सम से उस समय टसुओं की गंगा-जमुना भर भीतर-ही-भीतर यूँ हुलकारे मारते, जैसे अपनी ही पर्सनल आँखों से अपना जनाज़ा निकलता देख रहे हों. बड़ा पीड़ादायक मंज़र होता. हाँ, बिजली तब और भी जोर से गिरती, जब लड़के उसके बाद भी मस्त हँसते-खेलते दिखते. हैं? जे क्या? हमें लगता, कहीं हम अकेले को ही तो सज़ा नहीं मिल गई थी! वो क्या था न कि अपन ये काम भी बड़े डेडिकेशन के साथ करते थे. अपना पूरा फ़ोकस संतुलन बनाने में रहता था. आसपास की दुनिया से एकदम कट जाते थे और पूरे समर्पण भाव से मुर्गा posture बनाते.
अब सोचते हैं तो एक बात समझ नहीं आती कि हमें मुर्गा बनना इतना बुरा क्यों लगता था? ऐसा भी क्या इशु था बे! योग क्लास में मार्जरी आसन, उष्ट्रासन, भुजंगासन जेई सब तो कर रए. मतलब साँप की तरह मुँह उठाकर करें तो योगा और कुक्कुटासन की बात आई तो सज़ा? कितने दोगले हो भई?
जिन्हें नहीं समझा उनके लिए बता दें कि मुर्गा बनने की विधि बहुत सिम्पल है. बस घुटने मोड़कर बैठो, फिर घुटने के जॉइंट बोले तो बॉल एंड सॉकेट के नीचे से दोनों भुजाओं को कानपुर तक सरकाकर पहुंचा दो. हाँ, तब इस प्रक्रिया में सिर का नीचे झुके रहना अति आवश्यक था तबहि तो तुमको लज़्ज़ित टाइप लगेगा न!
चलते-चलते एक पॉइंट और लिख लीजिए कि कोई-कोई टीचर, मुर्गे (मानव) की पीठ पर डस्टर रख इस परीक्षा को अउर कठिन बना देते थे. अच्छा, यहाँ न्यूटन के गति का तीसरा नियम भी एप्लाई होता था. माने इधर डस्टर गिरा, उधर लात आई.
खैर! कम लिखा, ज्यादा तो आप लोग समझ ही लोगे न!
आजकल के जमाने में तो बच्चों को गुरूजी डांट भी न सकते और एक वो समय था जब बेधड़क रुई की तरह धुन दिया करते थे. डंडे से ऐसी सुताई होती थी कि बच्चा सपने में भी सर/मैडम जी की तस्वीर देख चीत्कार मार बेहोश हो जाता था. बाद में उस भोले बालक को ये भी समझाया जाता कि "बेटा, ये तुम्हारी भलाई के लिए है." बेटे को ये बात भले ही ठीक से न समझ आती पर अगले ही दिन वो अपने छोटे भाई/ बहिन की भलाई करने हेतु डिट्टो यही नुस्खा आजमाता. पर हाय!उसके बाद पिताजी की चप्पल और माता जी के मुक्के जब उस पर ताबड़तोड़ बरसते तो वह भौंचक ही रह जाता कि अपन से गलती किधर हो गई?
तो वर्षों बाद आप यह जान ही चुके होंगे कि कुटाई के महासागर में टीचर की किरपा कहाँ छुपी हुई थी. अब बचपन तो लौटा नहीं सकते पर फिट रहने के लिए योगासन करना न भूलें और अपने सभी शिक्षकों को धन्यवाद भी कहें.
वैसे कोरोना वायरस ने लॉकडाउन के दौरान 'मुर्गा प्रथा' वापिस ला दी है. उल्लंघन करने वालों को पुलिस ने सरेराह खूब मुर्गा बनाया और वीडियो भी अपलोड कर दिए. बाक़ी वैलेंटाइन डे के दिन कुछ स्वघोषित संस्कारी संस्थाएं भी इस परंपरा को जीवित बनाए रखने का काम बड़े जतन से करती ही हैं.
मुर्गा सलामत रहे और हमारे शिक्षकों का वो स्नेह-भाव भी!
हमारे टीचर्स ज़िंदाबाद!
-प्रीति 'अज्ञात'
कल iChowk में प्रकाशित
#HappyTeachersDay
#TeachersDay #TeachersDay2020 #StudentPunishment