रविवार, 24 अगस्त 2025

सबका राज़दार लाल डिब्बा

 


लाल लैटर बॉक्स का जाना हमारी सामूहिक स्मृतियों में दर्ज एक महत्वपूर्ण अध्याय के मिट जाने जैसा है। ऐसा अध्याय जिसे अल्फ़ा नौनिहालों ने कभी पढ़ा ही नहीं! शायद आगे की पीढ़ियाँ अपने बच्चों को बतायें कि 21वीं सदी से पहले सड़क के किनारे मौसम की हर मार सहता एक लाल डिब्बा हुआ करता था जो गाँव-शहर में सबका राज़दार था। वे बच्चे हैरान हो उस किस्से को ऐसे ही सुनेंगे जैसे हमने कबूतरों द्वारा संदेश पहुँचाने की तमाम गाथाओं को सुना था। फिर एक दिन धातु से बने इस डिब्बे को किसी संग्रहालय में भी रख दिया जाएगा और गाइड, पर्यटकों को अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड के अंतर किसी वीडियो द्वारा समझा रहा होगा। यह वो इतिहास है जिसे हम बनता हुआ देख रहे हैं।

जाने कितनी ही यादें हैं जो लैटर बॉक्स और चिट्ठियों से जुडी हैं। अंतर्देशीय की तहों में मूक  भावनाएं लिपटी रहती थीं। हम छोटे-छोटे अक्षरों में लिखते कि ज्यादा कह सकें। संक्षिप्त में लिखना हो, तब भी पोस्टकार्ड को डिब्बे में सरकाते समय एक बार और पढ़ लिया जाता। लिफाफों का वजन तौला जाता। प्रेम की तमाम चिट्ठियां सबकी आँखों से बचाकर चुपचाप लेटर बॉक्स में डाल दी जातीं और मन-ही-मन उनके सुरक्षित पहुँचने की प्रार्थना भी की जाती। फिर धड़कते दिल से पत्र के उत्तर का इंतज़ार होता। कितने ही शहरों के पिनकोड ज़बानी याद थे।

लैटर बॉक्स मानवीय भावनाओं का मौन साक्षी रहा है। अतः उसकी विदाई किसी भौतिक वस्तु की विदाई नहीं बल्कि एक अनुभूति और जुड़ाव की विदाई है। यही तो था जो शहर में गए बेटे को उसके गाँव से और ससुराल में बैठी बेटी को उसके मायके से जोड़ता था। छात्रावास में रहने वाले बच्चे माँ की रसोई याद करते और पिता चिट्ठियों में तमाम सलाह लिख इसी लैटर बॉक्स में उड़ेल दिया करते। डाकिया इनके बीच जादूगरी का काम करता और कभी सुख तो कभी दुःख बाँट आता। वह तो नियति का वाहक ही रहा। उसकी साइकिल की मधुर घंटी किसी पवित्र ध्वनि से कमतर न थी। वह परिवार का सदस्य ही माना गया जिसकी राह सभी ताका करते। उसने हमारे जीवन की खुशियों और त्रासदियों को देखा। अच्छा रिजल्ट आने पर मिठाई खाने को कहा और हर आँसू के बोझ को मौन हो सहता रहा। आजकल वह घंटी भी खामोश है। यांत्रिक तेजी से रोज अलग चेहरों के साथ कूरियर डिलीवरी आती है पर वो गर्मजोशी, वो अपनापन और मुस्कान गायब है। ये वाहक, सामान तो अवश्य पहुँचाते हैं पर फिर भी इनकी उपस्थिति उस गहराई से दर्ज़ नहीं हो पाती।

अब पलक झपकते ही संदेश तो पहुँच जाते हैं पर भावनाएं सुप्त रहती हैं। न प्रतीक्षा की गहराई का अहसास है और न भाषा के विस्तार की आवश्यकता। नई पीढ़ी की बातचीत किसी ख़ुफ़िया एजेंसी के संदेश जैसी है जहाँ 'ओके' भी 'के' रह गया है। पहले शब्द लापरवाही से नहीं उछाले जाते थे, एक अंतरंगता हुआ करती थी।

यह तर्क दिया जायेगा कि डिजिटल संचार त्वरित और कुशल है। हाँ, सो तो है पर इसने हमसे आत्मीयता छीन ली है। हम इतने अधिक जुड़े हैं कि  भावनात्मक दूरियाँ बढ़ती जा रहीं हैं। निरंतर सम्पर्क के इस युग में अकेलापन सबसे बड़ी समस्या है। अवसाद एक व्यापक बीमारी की तरह फैला हुआ है।

तक़नीक ने हमसे वो धैर्य भाव छीन लिया जो प्रतीक्षा से आता है। पत्र लिखने की कोमलता और उससे जुडी संवेदना, पत्र को पाने की प्रसन्नता अब कहाँ है? पत्र,  समय का भार ढोता था। हमें दूरी का सम्मान करना और उत्तर की प्रत्याशा का आनंद लेना सिखाता था। कितना विचित्र है कि मोबाइल पढ़े गए मैसेज को अनसीन करने का विकल्प देता है। संवेदनशीलता में यह गिरावट चिंताजनक है।

इस लाल पत्र पेटी का जाना एक और विरासत के क्षरण का संकेत दे रहा है जहाँ पत्र इतिहास की तरह संजोये जाते 
थे।  एक लकड़ी के गट्टे में लोहे का मोटा तार लगा होता जिसमें पढ़ लिए जाने के बाद पत्र फंसाए जाते थे।  यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक है कि कुछ खास पत्र गद्दे के नीचे अलमारी में कहीं छुपा भी लिए जाते थे और निकालकर बार-बार पढ़े जाते। ये जीवंतता ई मेल के फोल्डर से नहीं आती साहिब। तात्कालिकता के उत्साह ने सब कुछ सतही बना दिया है जहाँ चिंतन से कहीं अधिक प्रतिक्रिया पर जोर है और वह भी सबसे पहले देनी है। यह तथ्य तक़नीक का विरोध नहीं क्योंकि समाज तो आगे बढ़ता ही है। लेकिन इस प्रगति में हमें उन मूल्यों को नहीं खोना चाहिए जिन्होंने गहन मानवीय संबंधों की नींव रखी थी। हम समुदाय से व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं। हमारे सामाजिक ताने-बाने से सहजता, सौम्यता भी खिसकती जा रही है। आइए कोशिश करें कि संचार क्रांति के इस युग में लैटर बॉक्स या अन्य वस्तुएँ भले ही यादों की संदूकची बनती रहें पर उनसे जुड़े अहसास और आत्मीयता मिटने न पाए। 

- प्रीति अज्ञात

*24 अगस्त 2025 को स्वदेश में प्रकाशित 

रविवार, 17 अगस्त 2025

‘शोले’ @ 50: एक चिरस्थायी सिनेमाई महाकाव्य की अद्भुत गाथा




कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें आप देखते हैं
 और कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें आप विरासत में पाते हैं। ‘‘शोले’’  दूसरी श्रेणी में आती है—पीढ़ियों से चली आ रही एक ऐसी विरासत जिसकी लपटें आधी सदी बाद भी कम नहीं हुईं।

वह 15 अगस्त 1975 का समय था। भारत आपातकाल के बोझ से जूझ रहा था और कहीं दूर  रामगढ़ के काल्पनिक गाँव में एक तूफ़ान चुपचाप अंगड़ाई ले रहा था। उस दिन ’शोले’ ने सिल्वर स्क्रीन पर धमाकेदार एंट्री की और भारतीय सिनेमा के डीएनए को हमेशा के लिए बदल दिया। तभी तो पचास साल बाद भी इसकी चिंगारी हमारी सामूहिक स्मृति में आज तक सुलगती है।

‘शोले’ ने एक ब्लॉकबस्टर के रूप में न केवल हमारे चेतन और अवचेतन में अपनी जगह बनाई, बल्कि यह फिल्म भारत की सांस्कृतिक, पौराणिक कथाओं का स्थायी अध्याय बन गई।

प्रश्न यह है कि फिल्में तो कई ब्लॉकबस्टर हुईं तो फिर ‘शोले’ को इतनी महान भारतीय फ़िल्म क्या क्यों माना जाता है?  इसका उत्तर आँकड़ों में नहीं (हालाँकि वे चौंका देने वाले हैं) बल्कि कहानी, अभिनय और आत्मा के अद्वितीय संगम में निहित है।

रमेश सिप्पी ने सिर्फ़ एक फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया; उन्होंने आग और पानी से एक मिथक गढ़ा। धूप से झुलसती पहाड़ियों से लेकर राधा के आँगन के भयावह सन्नाटे तक,  हर फ्रेम एक अनोखी शाश्वतता के भार से चमक रहा था। यह डाकुओं और पुलिसवालों की कहानी ही नहीं थी यह एक आधुनिक सिनेमाई महाकाव्य था, जिसे गोलियों, बिखर सपनों और नई उम्मीदों से बुना गया था।

रामगढ़ का धूल भरा परिदृश्य लगभग पौराणिक गाथाओं से मेल खाता लगता था जहाँ नैतिकता और क्रूरता दोनों ही घोड़े पर सवार थी, दोस्ती गोलियों की बौछार के मध्य गढ़ी जा रही थी। यहाँ खलनायक भी नायकों की तरह अमर हो जाते थे।

ठाकुर का फौलादी हाथ और उसका कट जाना सिर्फ़ कथानक का मोड़ नहीं था; यह नियति द्वारा शक्तिहीन कर दी गई न्याय व्यवस्था का प्रतीक था। गब्बर सिंह लोककथाओं के किसी क्रूर राक्षस की तरह पर्दे पर दहाड़ता हुआ सिर्फ़ एक खलनायक नहीं, बल्कि भय की परिभाषा बन गया। उसकी हँसी दुष्टतापूर्ण और भयावह थी। उसने सिर्फ़ कालिया को गोली नहीं मारी, बल्कि देश के दुःस्वप्नों में अपनी स्थायी जगह बना ली। ‘नहीं तो गब्बर आ जाएगा’ महज संवाद नहीं, चेतावनी बन गया।

और फिर थे दो छोटे-मोटे भाड़े के सिपाही जय और वीरू  जो अटूट दोस्ती के प्रतीक बन गए। वीरू, तूफ़ानी और बच्चों जैसी शरारतों से भरा, अपनी बसंती के साथ कहानी में हल्की, खुशमिज़ाज रोशनी भरता रहा। इधर मौन और सुलगता हुआ जय जब राधा की मौजूदगी में हारमोनिका बजाता था, तो खामोशी एक किरदार बन जाती थी। जब वह मरा, तो दर्शकों के बीच कुछ ऐसा टूट गया जो पचास साल बाद भी पूरी तरह से भर नहीं पाया है।

बसंती और राधा दो विरोधाभासी सभ्यताओं की तरह खड़ी थीं। एक ध्वनि का तूफ़ान और विद्रोही, दूसरी मौन का मंदिर और पार दुःख से भरी। राधा की आँखें खामोशी में वह सब कह गई जो संवाद कभी नहीं कह सकते थे। पितृसत्ता के बीच तांगा चलाती हुई बसंती जीवन-शक्ति का विस्फोट थी।  मानो वह अपनी नियति खुद तय कर रही हो। उसका तांगा सिर्फ़ एक वाहन नहीं, आज़ादी का रथ था। बंदूकधारी पुरुषों वाली फ़िल्म में, उसकी आवाज़  की धमक सबसे ज़ोरदार थी।

सलीम-जावेद के बिना ’शोले’ की बात अधूरी है। ‘कितने आदमी थे? भारत का सबसे ज़्यादा दोहराया जाने वाला प्रश्न बन गया। ‘’जो डर गया, समझो मर गया’ एक दर्शन बन गया।
‘अब तेरा क्या होगा, कालिया? से लेकर सांभा के एकमात्र संवाद तक हर पंक्ति जैसे राष्ट्रीय स्मृति में दर्ज हो गई। जिन्होंने शोले नहीं देखी, उन्हें धिक्कारा जाने लगा। मानो फिर उनकी सिनेमाई समझ  पर  प्रश्नचिह्न ही लग गया। 

इसके हर किरदार में गंभीरता थी। यहाँ तक कि क्षणभंगुर किरदारों में भी। चाहे वो सूरमा भोपाली का अतिरंजित हास्य हो, जेलर असरानी की व्यंग्यात्मक झलक  और सांभा, जिसे अमर होने के लिए बस एक पंक्ति की ज़रूरत थी। यहाँ कोई भी परछाइयों में रहने को तैयार नहीं था। रामगढ़ का हर कोना, हर चरित्र, अपनी कहानी पूरी ठसक से कहता था।

उस पर आर.डी. बर्मन का संगीत फिल्म की धड़कन बन आज भी गूँजता हैये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेतो जैसे दोस्ती का राष्ट्रगान बन गया। “होली के दिन” में बसंती की ऊर्जा और राधा के मौन में छुपी धुनें, दोनों ही कालजयी हैं। और उस पर हारमोनिका की धुन के साथ जय का खामोश गीत, हवा में उस विदाई की याद की तरह तैरता रहता है जिसकी टीस से हम कभी उबर नहीं पाए। मौन का ऐसा इस्तेमाल यक़ीनन साहसिक था।  

आपातकाल के दौरान आई इस फिल्म ने बिना नारे लगाए, न्याय और विद्रोह की बात कही। सेंसरशिप के दौर में, यह बिना आवाज़ ऊँची किए भी दहाड़ती रही। जय-वीरू की लड़ाई सिर्फ़ ईनाम के लिए नहीं थी, यह अन्याय और आंतरिक राक्षसों के ख़िलाफ़ थी।

तभी तो पचास साल बाद ’शोले’ केवल एक फ़िल्म नहीं रह गई बल्कि उसकी सीमाओं से भी  कहीं आगे निकल गई है। ‘शोले’ को मापने के लिए कोई मीटर नहीं है। यह एक लोकगीत, एक चलचित्रीय शास्त्र है जो आज भी बोलता है, परिवारों में बाँचा जाता है। हर पीढ़ी इसमें अपना अर्थ ढूंढती है। यह हमारी भाषा, मुहावरों, मीम्स, व्हाट्सएप स्टिकर्स, रंगमंच और पेंटिंग्स तक में समा गई है।

जब जय मरता है, तब हम सिर्फ़ एक नायक नहीं खोते बल्कि यह भ्रम भी खो देते हैं कि सभी महान कहानियों का सुखद, आदर्श अंत होना चाहिए।
हम इसे बार-बार देखते हैं, उद्धृत करते हैं, गुनगुनाते हैं। क्योंकि ’शोले’  भूलने की नहीं, बल्कि याद रखने की गाथा है।

जय की खामोशी में, वीरू की मस्ती में, बसंती के बड़बोलेपन में, गब्बर के अट्टहास में, राधा के विलाप में, ठाकुर के अंतिम प्रहार में, टॉस के सिक्के में एक ऐसी आग मिलती है जो कभी बुझती नहीं। हम कहाँ भूले हैं वो 'जेल में सुरंग' वाला दृश्य, 'हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसे ही नहीं हैकह गौरवान्वित होता भोपाली और बसंती के रिश्ते वाले किस्से में 'आय हाय! बस यही एक कमी रह गई थी तुम्हारे दोस्त में!’ कहती तुनकती हुई मौसी! सांभा, कालिया, अहमद, रहीम चाचा और उनकी वह डूबती आवाज़ - 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?' आज भी अमर है। ‘शोले’ पर कई पुस्तकें लिखी जा सकती हैं। 

आज भी ‘शोले’  की लगाईं आग उसी रफ़्तार से जलती है।

- प्रीति अज्ञात
अहमदाबाद, गुजरात
संपर्क - preetiagyaat@gmail.com

        * 17 अगस्त 2025 के स्वदेश 'सप्तक' में प्रकाशित 

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

देश की उम्मीदों का चाँद

 


यूँ तो 'चंद्रयान मिशन' की सफलता और इस मिशन की कल्पना से भी बहुत पहले हमने चाँद को अपना माना हुआ है और यह कोई छोटा-मोटा रिश्ता नहीं बल्कि नेह का वह असाधारण बंधन है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी गहराता ही रहा। ये चाँद कभी बच्चों का चंदा मामा बना तो कभी इसमें सूत कातती हुई कोई दादी-नानी माँ सरीखी वृद्धा नजर आईं। करवा-चौथ में यह सुहागिनों की प्रतीक्षा का सबब बना तो वहीं ईद पर भी इसके दीदार को दुनिया तरसी। कोई न दिखे और फिर एक अंतराल के बाद मिल जाए तो यकायक मुँह से निकलता, "अरे मियाँ! तुम तो ईद के चाँद हो गए हो!" प्रेमियों ने अपनी महबूबा की सुंदरता के बखान के सारे बहाने इसी की आड़ में पेश किए और हमारी हिन्दी फिल्में इसी चाँद को मोहब्बत का हमराज बना सारे गिले-शिकवे दूर करतीं रहीं। 

वो चाँद जो सपनों का बादशाह बना बैठा था, जो हमारी प्रतीक्षाओं के मजे लिया करता था, वो जिसकी मखमली चाँदनी में बैठ हमने ख्वाबों के अनगिनत महल बनाए और उनमें उसी की दूधिया रोशनी भर कुछ मुस्कानें अपने नाम कर लीं, वो चाँद हमारे विक्रम बाबू और छुटके प्रज्ञान को देख चौंका तो जरूर होगा! उसे कहाँ पता कि जिनकी उम्मीदों की झोली वो सदियों से भरता रहा, आज उसी देश से कोई अपने इस बचपन के साथी के गले लग उसकी तमाम तस्वीरें खींचना चाहता है। वो जानना चाहता है कि "तुम्हारे पास पानी-वानी तो है न! कहो तो हम आ जाएं, तुम्हारा घर संभालने?"

चाँद को नहीं पता कि इस पल के लिए एक देश ने कितना लंबा सफ़र तय किया है। न जाने उस चाँद को, हमारी खुशियों का अंदाज़ होगा भी या नहीं! न जाने उसने हमारी धड़कनों को कितना समझा होगा! लेकिन आज का चाँद कुछ अलग है, आज उसका नूर देखने लायक है, आज का ये खूबसूरत चाँद हमारे इतिहास के पन्नों पर मानव सभ्यता के आखिरी चरण तक उभरता रहेगा। ये चाँद हर भारतीय को दुनिया में थोड़ी और ठसक के साथ चलने का हक़ दे रहा है। इस चाँद को उसके हिस्से का सारा प्यार मिले और उसके बाद थोड़ा और भी कि उसने अपनी जमीं पर भी हमें मोहब्बत ही दी। इस चाँद के आँगन में सितारों की झमाझम बारिश होती रहे। 

सबको उनके हिस्से का चाँद मुबारक़ और बाकियों को उम्मीद की दूधिया रोशनी!

बधाई मेरे देश को और ISRO का तो ये देश ऋणी हो गया है। 

Once again..... Thank You ISRO - Indian Space Research Organisation 

- प्रीति अज्ञात 

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कहीं हम अपनी स्वतंत्रता को हल्के में तो नहीं ले रहे?


आज हम अपनी आधुनिक साज-सामानों से सुसज्जित जिस दुनिया में आनंद लेते हुए अपनी स्वतंत्रता का उत्सव मनाते हैं, वहाँ यह भी आवश्यक है कि कुछ पल ठहर उस कठिन यात्रा पर विचार किया जाए जो हमारे पूर्वजों ने हमारी स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए प्रारंभ की थी। जिस स्वतंत्रता का मार्ग अमर शहीदों के बलिदान, साहस, समर्पण और अटूट संकल्प के साथ प्रशस्त हुआ था, वह एक ऐसी भावुक गाथा है जिसे हमें न केवल अपने इतिहास की किताबों में, बल्कि अपने दिलों और कार्यों में भी संजोना चाहिए।

आज़ादी की लड़ाई कोई सामान्य बात नहीं थी. यह वर्षों के उत्पीड़न, दमन और भीषण अत्याचार का संघर्षपूर्ण प्रतिरोध था। जिसके लिए औपनिवेशिक शासन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले देशवासियों ने अपने जीवन, परिवार और भविष्य को दांव पर लगाकर अकल्पनीय कठिनाइयों का सामना किया। उन्होंने एक ऐसी भूमि का स्वप्न देखने का साहस किया, जहां नागरिक अपने बोलने की, धर्म की स्वतंत्रता और अपनी नियति निर्धारित करने के अधिकार का आनंद ले सकें। इस स्वतंत्रता को पाने और हमारा भविष्य सुरक्षित करने के उद्देश्य की खातिर  युद्ध के मैदानों में, क्रांतियों में, जेलों में, प्रताड़ना और अमानवीय अत्याचारों से अनगिनत महत्वपूर्ण जीवन नष्ट हो गए। यह स्वतंत्रता, अमर शहीदों का एक ऐसा ऋण है जो हम कभी भी चुका नहीं सकते। लेकिन इसका मान कभी कम न हो और इस आजादी को हल्के में न ले लिया जाए; इस उत्तरदायित्व को निभाना प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य है।

स्वतंत्रता, अपने मूल में, मुक्ति के लिए संघर्ष का दूसरा नाम है। यह मानव इतिहास के ताने-बाने में गहराई से रची-बसी वह अवधारणा है, जो बाहरी नियंत्रण या प्रभुत्व से मुक्त होने की एक मौलिक स्थिति का प्रतीक है। इतिहास में, समुदाय और राष्ट्र अपनी स्वायत्तता सुरक्षित करने के लिए दमनकारी ताकतों के विरुद्ध सदैव ही उठ खड़े हुए हैं। समय-समय पर इस संघर्ष को क्रांतियों, स्वतंत्रता संग्राम और विभिन्न आंदोलनों द्वारा चिह्नित किया जाता रहा है।

यद्यपि स्वतंत्रता, किसी भी राष्ट्र के लिए एक शक्तिशाली उपलब्धि है परंतु यह संघर्षों का समापन बिंदु नहीं बल्कि एक सतत यात्रा है। इसे सुरक्षित रखने की प्रक्रिया भी उतनी सरल नहीं! स्वतंत्रता की इस सुरक्षा में समावेशी समाजों का पोषण, नागरिकों का सम्मान एवं रक्षा, लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण एवं वैश्विक शांति को बढ़ावा देने के विविध प्रयास निहित हैं। आने वाली पीढ़ियाँ एक स्वस्थ, स्वच्छ वातावरण में निवास करें इसके लिए पर्यावरणीय स्थिरता का पुष्ट रूप से समर्थन भी यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

स्वतंत्रता, व्यक्तियों को अपने अंतर्निहित अधिकारों और स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए भी सशक्त बनाती है। यह नागरिकों को दमन के डर के बिना अपनी राय व्यक्त करने, अपनी पहचान व्यक्त करने और अपने जीवन को आकार देने का अधिकार देती है। यह अधिकार ही ऐसे लोकतांत्रिक समाज का आधार बनता है, जहां नागरिक सक्रिय रूप से शासन में भाग लेते हैं और सामूहिक रूप से अपने राष्ट्र की दिशा और दशा निर्धारित करते हैं।

कह सकते हैं कि स्वतंत्रता के मूल्यों को मात्र इतिहास से ही नहीं मापा जाता है और न ही अतीत की उपलब्धियों का उत्सव मनाने से, बल्कि इस बात से भी मापा जाता है कि कैसे समाज और व्यक्ति स्वतंत्रता को रेखांकित करने वाले मूल्यों को बनाए रखने में अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं।

वर्तमान समय में हम तेजी से आगे तो बढ़ रहे हैं पर  यह देखना निराशाजनक है कि बलिदानों के प्रति हमारा सम्मान कितना कम हो गया है। जिन सिद्धांतों पर हमारे देश का निर्माण हुआ था, वे अधिकार, शालीनता और विभाजनकारी व्यवहार की संस्कृति के बीच लुप्त होते जा रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने जिन मूल्यों के लिए संघर्ष किया, उनके प्रति अनादर की घटनाएं अब बहुत प्रचलित हैं, जो कि उनके बलिदानों की विरासत को धूमिल कर रही हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिसके लिए बहुत बहादुरी से संघर्ष किया गया था, अब कभी-कभी घृणास्पद भाषण और गलत सूचना के लिए ढाल के रूप में उसका दुरुपयोग किया जाता है। जिस अधिकार का उद्देश्य लोकतांत्रिक चर्चा को बढ़ावा देना था, उसे रचनात्मक बातचीत और सामूहिक विकास के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग करने के स्थान पर व्यक्तिगत एजेंडे के लिए भुनाया जा रहा है।

हमारे पूर्वज समस्त मतभेदों को पार कर, एक समान उद्देश्य के लिए एकजुट हो खड़े थे। लेकिन वर्तमान में हम प्रायः विभाजनकारी आख्यानों को एकजुटता की भावना पर हावी होते हुए देखते हैं। नागरिकों के बीच बढ़ता वैमनस्य, द्वेषभाव उस एकता से कोसों दूर है जिसने स्वतंत्रता के संघर्ष को वर्षों पहले परिभाषित किया था।

हम एक न्यायसंगत समाज के स्वप्न तो देखते हैं पर इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ बनी हुई हैं। अतीत के संघर्ष समानता और सम्मान की खोज से प्रेरित थे, फिर भी हमारा समकालीन समाज उन मुद्दों से जूझ रहा है जिन्हें इतिहास के पाठों के माध्यम से अब तक हल हो जाना चाहिए था।

अब समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें। हम उन आदर्शों को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएं, जिनके लिए देश के अनगिनत वीरों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उस असीम पीड़ा, बलिदान और साहस का स्मरण करें जिसने हमें आजादी दिलाई। हम अपनी सोच, विचारधारा और मानसिकता को दलगत राजनीति से परे रख, केवल अपने देश की सोचें। हमारे तिरंगे के तीनों रंगों को बराबर मान दें और इनमें विभाजन करने वालों को सरेआम चिह्नित करें। जैसे हम अपने विशेषाधिकारों का आनंद लेते हैं, वैसे ही उस स्वतंत्रता का भी संरक्षण करें जिसमें परस्पर सम्मान,  सहानुभूति और समझ की संस्कृति साथ बहती है।

हमें एक पल को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता को रेखांकित करने वाले महापुरुषों, उनके मूल्यों और सिद्धांतों का अनादर करना  उन लोगों के संघर्षों और बलिदानों के साथ विश्वासघात है जिनके कारण हम आज खुली हवा में साँस ले पा रहे हैं। हमारी यह स्वतंत्रता हमें सोने की थाली में सजाकर नहीं दी गई थी; यह देश के प्रति समर्पण में डूबे अनगिनत सेनानियों, क्रांतिकारियों, वीर-पुरुषों के साहस, संघर्ष, अश्रु, रक्त और बलिदान से अर्जित की गई विरासत है। उनके संघर्ष को नमन करते हुए और उनके द्वारा संजोए गए आदर्शों को अपनाकर, हम इस तथ्य को तो सुनिश्चित कर ही सकते हैं कि उनकी इस पावन धरा पर हम किसी भी भेदभाव, अराजकता और नागरिकों के बीच खाई खोदते व्यवहार को सहन नहीं करेंगे और  स्वतंत्रता को पाने के लिए उन्होंने जो पीड़ा सही, वह अंततः निरर्थक नहीं जाएगी।

जय हिन्द!

'हस्ताक्षर' अगस्त अंक, संपादकीय -

https://hastaksher.com/are-we-taking-our-freedom-for-granted-editorial-by-preeti-agyaat/

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सोमवार, 7 अगस्त 2023

कुकर में उबलती लड़कियाँ (स्त्री की विनाश यात्रा)


हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ सती प्रथा का एक लंबा इतिहास रहा है। सर्वविदित है कि यह कोई धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि एक कुरीति थी जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को भी उसी चिता पर बैठा दिया जाता था। कहते हैं कि प्रेम/ परंपरा के चलते वह आत्मदाह को बैठ जाती थीं। प्रश्न उठता है कि कोई माँ अपने बच्चों को अनाथ करना स्वयं कैसे चुन सकती थी? परिवार ने कैसे इसका समर्थन किया होगा?

सती प्रथा के ‘पक्ष’ में सर्वमान्य कारण यह माना गया कि किसी अन्य पुरुष की कुदृष्टि से रक्षा हेतु यही एकमात्र उपाय था। यह राजा-महाराजाओं के काल में आक्रमणकारियों से स्वयं को बचाने हेतु 'जौहर' से प्रेरित उपक्रम ही था। इसी दबे-छुपे रूप में यह मान्यता भी रही कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री से जमीन जायदाद हथियाने के लिए भी इसका सहारा लिया जाता था। कह सकते हैं कि सैकड़ों वर्ष पहले भी अकेली स्त्री का कोई पालनहार न था और उसे नोच खाने वाले गिद्ध बहुतेरे थे। ऐसे में उसके सती हो जाने पर किसी को क्या ही दुख रहता होगा, यह अनुमान लगा पाना कठिन नहीं।

तात्पर्य यह कि स्त्री सदा से एक वस्तु तुल्य ही रही जिसे समाज की उपस्थिति के मध्य, बेझिझक आग में झोंका जा सकता था। यद्यपि सैकड़ों वर्ष पूर्व इस कुरीति पर प्रतिबंध लग चुका है परंतु फिर एक नई कुरीति नियम सूची के साथ आई, जिसमें स्त्री को जीवित रखे जाने पर सहमति बनी। अब इस विधवा स्त्री के लिए जीवन की कुछ शर्तें तय हो गईं कि वह बिना किसी शृंगार के, श्वेत वस्त्र धारण किये घर के किसी कोने में चुपचाप रह लेगी। शुभ कार्यों से उसे दूर रखा जाने लगा। सुबह-सुबह किसी के सामने पड़ गई तो तरेरी आँखों का प्रकोप भी उसकी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया। 'जीते जी मार डालना' वाली लोकोक्ति संभवतः यहीं से उपजी होगी! यह ‘अद्भुत’ व्यवस्था, भरे समाज के बीचों बीच किसी स्त्री के सती होने से उपजी शर्मिंदगी से बचने का उपाय तो था ही, साथ ही उस स्त्री की जीवन रक्षा का महान काम भी लगे हाथों संपन्न हो रहा था। अतः सारे नियम पूरे हर्षोल्लास के साथ स्वीकार कर लिए गए। दुखद है कि सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी यह परम्परा अब तक हमारे समाज में विद्यमान है। परिवर्तन आया है लेकिन वह भी बाहरी तौर पर ही है। क्योंकि यही लोग, समाज के बीच अपनी शान बघारने से नहीं चूकते कि "हम तो उसे रंगीन कपड़े पहनने देते हैं!", "वह जमीन पर नहीं बल्कि अपने कमरे में ही सोती है।", "हमने उसे कभी अलग नहीं समझा!" ये सभी वक्तव्य ही यह सिद्ध कर देते हैं कि आपकी सोच कितनी सतही, उथली और मात्र प्रदर्शन हेतु है।

स्त्रियों के साथ मारपीट और हिंसा का विरोध भले ही हर काल में हुआ हो, पर दिनोंदिन इसका रूप वीभत्स ही होता जा रहा है। लोगों की सोच में सुधार के स्थान पर और विकृत रूप नजर आने लगा है। सती प्रथा पर रोक लगी तो विकल्प स्वरूप उन्हें जलाने को स्टोव आ गया। कारण यह कि उसके पिता ने इच्छानुसार दहेज नहीं दिया था। बाद में ये सिलिंडर फटने या बालकनी से 'अचानक' गिरकर मरने लगीं। कुल मिलाकर हर हाल में उनका मरना तय रहा। इन्हें जब जी चाहे, छोड़ा जाना भी सरल था।  इनकी लाशें कभी गहरे कुंए में मिलीं तो कभी किसी पेड़ से निर्वस्त्र लटकती पाई गईं। कभी किसी को नीचा दिखाने या बदला लेने के नाम पर इनकी इज्जत लूट ली गई और फिर अपने परिवार की इज्जत को सुरक्षित बनाए रखने के लिए स्त्रियाँ या तो चुप रहीं या आत्महत्या को विवश कर दी गईं। कभी कुछ जीवित स्त्रियों ने अपना दुख समाज के सामने रखना भी चाहा तो उल्टा उनका ही चरित्र हनन हुआ और उन पर अनर्गल आरोप मढ़ दिए गए। साथ ही उपहास उड़ाते हुए यह भी कहा गया कि “तब क्यों नहीं बोली?” ऐसे कई किस्से हम सबके सामने से रोज गुजरते हैं और हम उन पर मौन साध अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। जबकि समाज और इज़्ज़त के इस फॉर्मूले ने स्त्रियों के भीतर दर्द की एक गहरी घाटी बना दी है, जिसमें उन्हें अकेले रोज ही डूबना और पार आना होता है। ‘देवी’ कहकर उनके आँसू, उनके दुख, उनकी भावनाएं, उनके कष्ट दबा दिए गए।

किसी आवारा लड़के का प्रेम निवेदन नहीं स्वीकार किया तो तेजाब से झुलसा दी गईं, कोई रईसज़ादा हुआ तो खुलेआम बीच बाज़ार में गोली मार चला गया। कभी उनके साथ सामूहिक बलात्कार कर उन्हें नाले में फेंक दिया गया तो किसी ने अपनी क्रोधाग्नि में उन्हें तंदूर में भून दिया। उसके बाद उनके बत्तीस टुकड़े मिलने का 'रसप्रद' किस्सा मीडिया में खूब सुर्खियाँ बटोरता रहा, जिससे प्रेरित होकर स्त्री देह के इतने टुकड़े किए जाने लगे जैसे कोई रिकॉर्ड बनाने की होड लगी हो। वह फ्रिज़ जो खाने-पीने के सामान रखने के काम आता है अब उसमें स्त्री अंगों को रखा जाने लगा। हाल की घटना में स्त्री को कुकर में उबाल, मिक्सी में पीस लिया गया लेकिन यह घटना भी मीडिया ने आसानी से पचा ली और नेताओं को तो चुप्पी साधनी ही थी, सो साध ली। उनके लिए तो जहाँ हिन्दू-मुस्लिम कोण निकले, वही घटना छाती पीटने लायक़ और वोट बटोरने में सहायक होती है। इनकी कुत्सित मानसिकता के अनुसार, स्त्रियाँ तो बनी ही मरने को हैं। निर्जीव वस्तु की तरह उनका उपयोग कीजिए और फेंक दीजिए।

पत्नी की मृत्यु होते ही फटाफट दूसरी शादी करने के किस्से तो बहुत सुने होंगे पर क्या कभी सुना कि कोई पति चिता पर बैठ गया!

विधुर का सामने आना अशुभ हुआ कभी? कोई नियम बने उसके लिए?

स्टोव फटने से बहूएं ही क्यों मरती रहीं?

कभी प्रेम में हारी लड़की ने प्रेमी पर तेजाब फेंका है क्या?

घर की नाक, पुरुष क्यों नहीं बन सके? उनकी पवित्रता का परीक्षण किसी युग में किया गया है?

कुकर, तंदूर, फ्रिज़, मिक्सी खाना पकाने के उपकरण हैं, स्त्रियों को उबालने, पीसने के नहीं,  लेकिन जब इतनी क्रूरतम घटनाओं पर भी समाज सहज है तो अब स्त्रियों को ही स्वयं अपनी सुरक्षा और आत्मसम्मान का ख्याल रखना होगा। इस विनाश यात्रा में उन्हें बचाने कोई, कभी नहीं आएगा! हाँ, मँझधार में छोड़कर जाने वाले हर मोड़ पर मिलते रहेंगे। रोने के लिए कंधा तलाशने से बेहतर है कि अपनी जिम्मेदारी लें, समय रहते हर अपराध के विरुद्ध खड़े होने का साहस रखें और इस यात्रा में गर स्वयं को नितांत अकेला पाएं, तब भी अकेले जीने का हौसला कभी टूटने न दें।

-प्रीति ‘अज्ञात’

'प्रखर गूँज साहित्यनामा' /मासिक स्तंभ: 'प्रीत के बोल' / अंक: जुलाई 2023  

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गुरुवार, 4 मई 2023

 

‘राजनीति’, एक ऐसा शब्द है जो न चाहते हुए भी हम सबके जीवन में पूरी तरह प्रवेश कर चुका है। जहाँ देखिए वहाँ केवल और केवल चुनाव की चर्चा! चुनाव से पहले चुनाव की चर्चा और उसके बाद भी वही दृश्य। पहले अनुमान पर चर्चा, फिर परिणाम पर चर्चा। तत्पश्चात विजयी दुंदुभि बजाने के विविध प्रकारों पर चर्चा, हार के कारणों पर चर्चा! वे नागरिक जिन्हें लगता है कि देश में और भी बहुत सी घटनाएं हो रहीं हैं जिन्हें चर्चा का विषय बनाया जाना चाहिए था, तंग आकर उन्होंने अखबार पढ़ना बंद कर दिया है।

मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए या कुछ पल सुख से बिताने के लिए चैनल बदलता है लेकिन यहाँ तो हर जगह ही चीखपुकार, उठापटक और गालीगलौज है। चर्चाएं ऐसी, जिनका कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता! गोया वह प्रवक्ताओं को लड़ने के लिए उकसाने के ‘पवित्र’ उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही बनाई गईं हों! इसका साक्ष्य कार्यक्रम का नाम ही दे देता है। इतने तूफ़ानी नाम रखे हुए हैं जिन्हें सुनकर ही पता चल जाता है कि अब इस अखाड़े में दंगल ही हो सकता है। यूँ अतिथिगण पूरी तैयारी के साथ ही इस रणभूमि में उतरते हैं। चुनावी मंचों पर सौम्यता, सज्जनता, शिष्टता, नैतिकता और अनुशासन का ज्ञान बाँटने वाले नेताओं के मुखारविंद से जो पुष्प यहाँ झरते हैं उसके आगे सारे मानवीय भाव माथा टेक लेते हैं। उस पर उनकी भावभंगिमाएं और अनूठी शब्दावली! अब इन्हें देख-सुन आपका सिर शर्म से झुक जाए अथवा आप टीवी बंद कर दें; यह आपका निर्णय है। लेकिन सार यह है कि टीवी से मोहभंग होने लगा है। जिस माध्यम का कार्य, खबरें पहुँचाना है वह या तो तमाशा दिखा रहा या न्यायाधीश बना बैठा है। आम नागरिक के पास मुद्दों की पूरी सूची है, जिन पर बात करने को इक्का-दुक्का चेहरे ही उत्सुक दिखाई पड़ते हैं।

क्या मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपना उत्तरदायित्व भूल बैठा है? क्या उसमें निर्भीकतापूर्वक तथ्य कहने का साहस नहीं बचा? क्या वह अपने मूल्यों, सरोकार और निष्पक्ष पत्रकारिता के तमाम पाठ स्मरण नहीं करना चाहता? यह सब विमर्श का हिस्सा हो सकता है लेकिन उससे भी अधिक आवश्यक यह जानना है कि मलीन राजनीति का आम नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य और सोच पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है! राजनीति में शून्य रुचि रखने वाला व्यक्ति भी इससे प्रभावित है। रिश्तों पर इसके प्रतिकूल परिणाम देखने को मिल रहे और कुंठाएं अपने चरम पर हैं। तात्पर्य यह कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से जितनी दूरी बनाई जा सकती है, बनाइए। क्योंकि आम नागरिक के जीवन में यह किसी भी प्रकार का कोई हित नहीं कर रहा। बल्कि तनाव, अनिश्चितता, भय, चिंता, अलगाव, हताशा और अन्य नकारात्मक भावनाओं में वृद्धि ही हो रही है।

सोशल मीडिया और चौबीसों घंटों चलते समाचार चक्र, सूचनाओं के अधिभार के साथ मस्तिष्क पर हावी हो रहे हैं। विविध विचारधाराओं के समर्थक आपस में उलझ रहे हैं। सकारात्मक चर्चा अब होती ही नहीं! अलग-अलग राजनीतिक विचारों वाले व्यक्तियों के लिए घनिष्ठ संबंध बनाए रखना कठिन हो रहा है। विभाजन और संघर्ष की कठोर स्थिति पनप रही जो कि अत्यधिक चुनौतीपूर्ण एवं भावनात्मक रूप से तोड़ देने वाली हो सकती है। कोई आश्चर्य नहीं कि कई तो निराशा एवं गहन उदासी के भंवर में जा भी चुके हैं। सोशल मीडिया पर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ व्यक्तियों को समझना या समझाना लगभग असंभव सा है।

यूँ भी राजनीति एक बहुत ही विवादास्पद विषय है। इससे संबंधित विवाद लोगों के बीच असंतोष का कारण सदा ही बनते आए हैं जो उन्हें तो तनावग्रस्त रखते ही हैं, साथ ही समाज की स्थिरता और शांति को भी खतरे में डालते हैं। यह सत्य है कि दुनिया में क्या हो रहा है, इसके बारे में सूचित रहना महत्वपूर्ण है। यह भी मानती हूँ कि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त नकारात्मक समाचारों और सूचनाओं से बचना या दूर रहना भी चुनौतीपूर्ण है, लेकिन फिर भी इस जोखिम को कम करने और अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए कुछ प्रयास तो किए ही जा सकते हैं।

राजनीतिक चर्चाओं के दौर में अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि नकारात्मक सोच प्रायः लोगों को संभावनाओं की बजाय समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करती है। इसके परिणामस्वरूप लोग समाधान खोजने के स्थान पर चुनौतियों से हतोत्साहित होने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं। यह उनके वैयक्तिक विकास के लिए हानिकारक है।

यही प्रतिकूल सोच, समाज के भीतर विभाजन और संघर्ष को जन्म देती है। जब लोग किसी स्थिति या व्यक्तियों के नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो उनके ध्रुवीकृत होने और दूसरों को संदेह या शत्रुता की दृष्टि से देखने की आशंका बढ़ जाती है। इससे सामाजिक विखंडन हो सकता है, एकता और सहयोग बढ़ाने के प्रयासों को कमजोर किया जा सकता है।

राजनीति से दूर रहकर कुछ हद तक तनावमुक्त रहा जा सकता है। निरर्थक समय एवं ऊर्जा भी नष्ट नहीं होती। इसलिए यह समय अन्य महत्वपूर्ण उत्पादक कार्यों पर लगाया जाए तो ही अच्छा! स्पष्टतः यह मानसिक शांति और बेहतर स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभकारी सिद्ध होगा। इसके लिए आवश्यक है कि सचेतन भाव से बिना किसी को जज किए या उसकी बातों से आहत हुए बिना अपने विचारों और भावनाओं के बारे में जागरूक रहा जाए। हम अपने आप को उन लोगों के संपर्क में रखें जो हमारे व्यक्तित्व में निखार एवं जीवन में सकारात्मकता लाते हैं। अकेले हैं तो हम प्रेरणास्पद वीडियोज़ या हास्य कार्यक्रम देखें तथा समाचारों से अपने संपर्क को एकदम सीमित कर दें।

व्यायाम, संतुलित भोजन और पर्याप्त नींद के माध्यम से भी अपने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना मूड को बेहतर बनाने और नकारात्मक भावनाओं को कम करने में सहायक सिद्ध होता है।

हमें कृतज्ञता का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे बहुत लोग हैं जिन्होंने कभी-न-कभी हमारा साथ दिया है, उनके प्रति आभार व्यक्त करने की आदत अपनाएंगे तो हमें भी अच्छा लगेगा और उनके चेहरे पर भी मुस्कान आएगी।

याद रखें कि नकारात्मकता से दूरी बनाना एक दुष्कर यात्रा है और इसके लिए निरंतर प्रयास और अभ्यास की आवश्यकता होती है। कुछ आदतों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके ही हम अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं। जहाँ तक राजनीति का प्रश्न है तो यह सर्वविदित है कि मैली राजनीति के बिना दुनिया एक अधिक सुंदर और सामंजस्यपूर्ण जगह होगी, लेकिन ऐसी दुनिया को हासिल करने के लिए इस क्षेत्र में रहने वालों के मूल्यों और व्यवहार में एक महत्वपूर्ण बदलाव की दरकार है। इस बीच आम नागरिकों द्वारा अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहते हुए, राजनीति से जुड़े लोगों के सुधरने और मूल्यपरक होने की प्रार्थना ही की जा सकती है।

- प्रीति अज्ञात  https://hastaksher.com/

'हस्ताक्षर' मई 2023 अंक, संपादकीय 

https://hastaksher.com/are-we-sacrificing-our-mental-health-in-the-era-of-political-discussions/

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गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

अधिनियम के बाड़े में फंसा सारस

 


आरिफ़ और सारस का किस्सा हम सभी जानते हैं। ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम’ की दुहाई देकर सारस को आरिफ़ से अलग तो कर दिया गया लेकिन जिस तरह से उसे रखा जा रहा है, वह कई प्रश्नचिह्न अवश्य खड़े करता है। यह कैसा अधिनियम है जो आसमान को नाप लेने वाले एक पक्षी को बाड़े में क़ैद कर अपने न्यायसंगत होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है? आप उस पक्षी की व्यग्रता और छटपटाहट को समझिए जो उसे आरिफ़ को सामने देखकर हुई। वह उसके पास जाने को तड़प रहा था। उसका उछल-उछलकर जाली से टकराना और बाहर न निकल पाने की विवशता किसी का भी हृदय पसीज दे लेकिन वन्य विभाग का नहीं! उन्हें यह सही लगता है कि एक पक्षी जो अब तक स्वतंत्र भाव से अपने एक मित्र के साथ रह रहा था, उसे पकड़कर बंद कर दिया जाए। फिर चाहे वह टकरा-टकराकर लहूलुहान हो जाए, भूखा रहे, क्या ही फ़र्क़ पड़ता है! ‘नियम’ हर भाव, हर संवेदना से ऊपर की बात है! और यह इतने ऊपर की बात है जो उड़ने वाले पक्षी को उसके पंख पसारने का ही अवसर नहीं देती! लेकिन इस कृत्य को सही ठहराने में कोई क़सर बाकी नहीं रखती।

घोर आश्चर्य की बात है कि वन्य प्राणियों के प्रति नियम और व्यवस्था की दुहाई देने वाले इस तंत्र को ‘चिड़ियाघरों’ से कभी कोई परेशानी नहीं होती! हमारे यहाँ तो दूसरे देशों से भी वन्य जीवों को लाया जाता रहा है, उन्हें उनके वातावरण और पारिस्थितिकी से पृथक कर कहीं और लाना या ले जाना किस अधिनियम के अंतर्गत आता होगा? क्या यह अन्याय नहीं? उन निरीह प्राणियों के जीवन के प्रति खिलवाड़ नहीं?

सब जानते हैं कि विकास और आधुनिकता के नाम पर जंगल समाप्त किए जा रहे हैं। जंगलों में आग के मामले भी प्रायः सामने आते रहते हैं। कितनी ही बार वन्यजीवों के शहर में घुस आने की घटनाएं सामने आती हैं। कुछ जीव या तो गाड़ियों से कुचलकर मर जाते हैं या मार दिए जाते हैं। अपने आनंद के लिए इन जंतुओं का शिकार भी मनुष्य करता रहा है और इनके अंगों से निर्मित सामान से जुड़े अनगिनत उद्योग भी वर्षों से फलफूल रहे हैं।

इन सब मामलों में अब तक वन्यविभाग की जवाबदेही क्या रही और अधिनियम का वास्ता कभी क्यों नहीं दिया गया? बल्कि जनता के सामने बड़ी सरलता से आँकड़े जारी कर दिए जाते हैं कि लीजिए यह प्रजाति अब विलुप्त हो गई या उसके कगार पर है। हम जैसे कवि लोग विलुप्त गौरैया, कम होते चीते और सिंहराज पर भावुक कविताएं रच अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। पर वो जंगल कहाँ गए? इन पशु-पक्षियों का घर किसने उजाड़ा? कौन हैं जो इनका शिकार कर रहे? ये सभी प्रश्न कौन करेगा? क्या इनके उत्तर मिलेंगे कभी?

क्या मुर्गा, बत्तख, बकरी, गाय, भैंस, सूअर और ऐसे ही तमाम जीवों को पकाकर खाना किसी ‘पालतू या घरेलू जीव अधिनियम’ के तहत हो रहा है? उन्हें कौन रोकेगा? एक ओर तो पशुओं को अपनी संस्कृति का प्रतीक बताकर उनकी महानता के गान किये जाते हैं और अगले ही पल चटखारे लेकर उनका भक्षण किया जाता है। मनुष्य की महानता और संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तो देखिए कि गाय, भैंस का पर्याप्त दोहन करने के बाद वह उसे कसाई को दे आता है लेकिन जब तक उससे लाभ मिलता रहे, हाथ जोड़ उसे पूजता है। आपकी स्मृति में हो शायद कि बर्ड फ्लू के चलते कानपुर ज़ू के सभी पक्षियों को मारने का आदेश दे दिया गया था और अधिनियम के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी थी।

एक शोध के अनुसार “कुल मांस उत्पादन के मामले में, भारत 2020-21 में 8.80 मिलियन टन मांस के उत्पादन के साथ विश्व स्तर पर 5वें स्थान पर है। 2022-2023 में मांस उत्पादन बढ़कर 90 लाख टन होने का अनुमान है।” क्या इस पर गर्व करें? कर ही लेना चाहिए! लेकिन फिर सारे अधिनियम और उसकी बातें बेमानी हैं।

सारस का क्या होगा! पता नहीं! लेकिन इतनी मनुष्यता और संवेदना तो शेष रहनी ही चाहिए जो किसी पक्षी के प्रेम के आड़े न आएं! अब आप कहेंगे कि हम तो मनुष्यों के प्रेम के भी आड़े आते रहे हैं, प्रेमियों का लहू बहाने में भी गुरेज नहीं करते! तो मैं प्रेम से विनती ही कर सकती हूँ कि निरीह पक्षी पर यह निर्णय छोड़ दें कि उसे कहाँ जाना है! वह मनुष्यों के बनाए नियमों के प्रति बाध्य तो नहीं है न! या उसे भी आपकी नैतिक कक्षा में बैठ ‘अ’ से अधिनियम का पहाड़ा याद करना होगा!
प्रीति अज्ञात https://hastaksher.com/
#​संपादकीय अप्रैल 2023
https://hastaksher.com/vanya-jeev-adhiniyam-aur-baade.../

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गुरुवार, 16 मार्च 2023

चेतना को पुकारती, जंगल की आवाज

सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट कर दूँ कि भले ही ‘The Elephant Whisperers’ को लघु वृत्तचित्र की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार मिला हो लेकिन इसे किसी उबाऊ वृत्तचित्र समझने की भूल बिल्कुल भी नहीं कीजिएगा। यह अपने-आप में परिपूर्ण एक ऐसी उत्कृष्ट लघु फिल्म है जो आपको अंत तक एकटक बाँधे रखती है और मन-मस्तिष्क में सदा के लिए ठहर जाती है। गिलहरी, उल्लू, गिरगिट के चेहरों से प्रारंभ हुई इस फ़िल्म का प्रथम दृश्य ही मंत्रमुग्ध कर देता है और दर्शक को समझ आ जाता है कि वह अपने जीवन के श्रेष्ठतम 41 मिनट का साक्षी होने वाला है।

यह तमिलनाडु के कट्‌टुनायकन (kings of the forest) समुदाय के दो लोगों की कहानी है। मानवीय संवेदनाएं क्या और कैसी होती हैं, हम मनुष्यों का प्रकृति से रिश्ता कैसा होना चाहिए, पर्यावरण के प्रति प्रेम का सही मायनों में अर्थ क्या है इन सभी मूल्यों को गहराई से समझाने में ‘The Elephant Whisperers’ पूर्ण रूप से सफ़ल सिद्ध हुई है। न तो इसमें भारी-भरकम संवाद या नाच गाना हैं और न ही कोई अतिनाटकीयता से भरा वातावरण! बल्कि अपने हर दृश्य में यह बड़ी सहजता से आपको प्रकृति की गोद में लिए आगे बढ़ती है। छायांकन तो अद्भुत है ही, साथ ही इसमें इतने सुंदर पल हैं जो आपके हृदय को भीतर तक नम कर जाते हैं।

यूँ इस वृत्तचित्र का मूल विषय तो रघु (हाथी) ही है लेकिन भावनात्मक स्तर पर यह मनुष्य और उससे जुड़ी संवेदनाओं की भी उतनी ही दक्षता से बात करती है। यह बताती है कि अनेक कठिनाइयों से किसी को पाल-पोसकर बड़ा करना क्या होता है और उसके बाद उसे किसी और के हाथों सौंप देने में दिल पर क्या गुजरती है। कितने भावुक होते हैं वे पल, जब आप उस अपने को दूर से निहारते हैं। यह रघु और अमु की दोस्ती और उससे पहले की उनकी मनःस्थिति को भी सटीक तरीके से उभारती है। मनुष्यों के घर में जब दूसरा बच्चा आता है तो पहला जिस असमंजसता और असुरक्षा से गुजरता है उसकी एक झलक भी यहाँ देखने को मिलती है। लेकिन उसके जाने के बाद की व्याकुलता ..उफ़! जी करता है कि उठकर अमु के आँसू पोंछ दें और उसे रघु से मिला दें। रघु के दूसरे सहायक के पास जाने का दृश्य भी अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। जैसे कोई किसी बच्चे को जबरन बोर्डिंग भेज रहा हो। कहने को हाथी के लालन-पालन से जुड़ी कथा पर भाव जैसे हर पल हम पर बीत रही हो।

एक बच्चे को पालते हुए कैसे दो मन परस्पर बंध जाते हैं और वह बच्चा भी हाथी का हो तो ये बात कई लोगों को अचंभित कर सकती है! लेकिन यह ऐसे ही प्यारे परिवार की कहानी है। उन लोगों की कहानी जिन्हें प्रकृति प्रेम का सही अर्थ पता है, जो जानते हैं कि जंगलों से उतना ही लेना है जितनी जीवन की आवश्यकता है। जब हम प्रकृति से जुड़ी हर बात से प्रेम करते हैं तो बदले में प्रेम ही मिलता है। यह बात जंगल के जानवर भी हमसे बेहतर जानते हैं। वे निरर्थक ही किसी को हानि नहीं पहुँचाते। उन्हें प्रेमिल स्पर्श समझ आता है और वे इसका उत्तर भी कई गुना बढ़ाकर देते हैं।

सार यह कि ‘The Elephant Whisperers’ वर्तमान समय के उन सभी प्रासंगिक विषयों पर सशक्त रूप से बात करती है

जिसमें प्रकृति और मनुष्य के मध्य सामंजस्य स्थापित हो, उनका सह-अस्तित्व हो, जीव-जंतुओं के अधिकार के प्रति संवेदनाएं उत्पन्न हों, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़े और ज्यादा से ज्यादा पा लेने की मनुष्य की महत्वाकांक्षा पर विराम लगे। प्रकृति है तो जीवन है। इस कठिन लेकिन बेहद आवश्यक फ़िल्म को बनाने के लिए कार्तिकी गोंज़ाल्विस को बधाई के साथ-साथ ढेर सारा स्नेह। समाज को इसी चेतना भरी फिल्मों की दरकार है। वृत्तचित्र से जुड़ी ऊब भरी धारणाओं को ध्वस्त करने का भी शुक्रिया, कार्तिकी! 💖

- प्रीति अज्ञात इसे आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं - https://hastaksher.com/the-elephant-whisperers-oscar-winning-amazing-documentary-on-environmental-protection-and-animal-rights/ #TheElephantWhisperers #Oscars2023 #KartikiGonsalves #PreetiAgyaat #प्रीतिअज्ञात #हस्ताक्षर #हस्ताक्षरवेबपत्रिका





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