बात इतनी पुरानी है कि यदि तिथि याद होती तो हम पक्का इस घटना की 'रजत जयंती' मना रहे होते। ख़ैर, अपन को तो किस्से से मतलब! हुआ यूँ कि तब 'कंप्यूटर' नया-नया आया था। सच्ची कहूँ तो मुझ गँवार ने तो ये नाम ही पहली बार सुना था। देश में 'कंप्यूटर क्रांति' आने वाली है, फलाना-ढिमका टाइप की बातें कानों में पड़ती रहतीं थीं। हम कुँए के मेंढक, समझ ही न आता था, ये मुआ है क्या? दिखता कैसा है? या ख़ुदा!इससे करते क्या हैं? एक बार दिखा तो दे कोई! दिमाग इतना पगला गया था कि एक दिन खुन्नस में आकर इसपे कविता भी लिख दिए थे। :D पूरी कविता बाद में कभी चेपेंगे, बस इत्ता जान लो कि वो हम श्री राजीव गाँधी जी को ही लिक्खे थे और वो प्रादेशिक समाचार-पत्र में प्रकाशित भी हुई थी।
फिर एक दिन वो सुरीली सुबह भी आई जब इस अज्ञात को ज्ञात हुआ कि शहर में एक कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र खुल रहा है। उफ़, फिर क्या था अपुन के ह्रदय के सारे तार झनझना उठे, मन मयूर नृत्य करने लगा, तमाम सपने आँखों में गुलाटियां लगाने लगे और एन उसी वक़्त इस टोटल फ़िल्मी सिचुएशन को सूट करता हुआ चित्रहार पर हर हफ़्ते नियमित परोसा जाने वाला कर्णप्रिय गीत बजने लगा "आज फिर उनसे मुलाक़ात होगी..."
हम भी अपना गर्दभ-राग तुरंत ही जोड़ सुर मिलाने लगे....."फिर होगा क्या, क्या ख़बर क्या पता" अब किसी को क्या बतायें कि राकेश रोशन की गोल-मटोल आँखों में हम एवीं थोड़े न डूबे थे और हमारी निष्ठता अब तक जारी है, उनके ग्रीक गॉड टाइप बेटे जी पर भी फ़िदा होकर परंपरा का पूर्ण निर्वहन धकाधक करे जा रहे हैं। :P
चलो, मुद्दे पे आते हैं.....एक पावन दिवस पर हमने धड़कते दिल से उस महान इंस्टिट्यूट(हलंत लग नहीं रहा) में एडमिशन लेकर स्वयं को पदोन्नत करने का सौभाग्य प्राप्त किया। शायद तीन माह का जावा, कोबोल, सी प्लस नाम का कोई कोर्स था। वो सब तो ठीक, पर अपन को तो कंप्यूटर जी के दिव्य-दर्शन की बेहिसाब तड़पन जीने नहीं दे रही थी। पहला दिन जैसे ही हम वहाँ पहुँचे तो मंदिर के बाहर जैसा दृश्य देख दिमाग झन्ना गया। वही तितर-बितर चप्पलें, बुनाई की सलाइयों सी एक उल्टी-एक सीधी, कोई सीढ़ी पे पड़ी तो कोई नाली में गिरने को तैयार! जैसे-तैसे ख़ुद की भावनाओं पे कंट्रोल कर अपनी जूतियाँ सलीके से रखीं और एक-दो और वहीं खिसकाकर पंक्ति बनाने का बेहूदा और निष्फल प्रयास किया। इधर मिलन की प्रसन्नता अब भी चेहरे पे टपकी पड़ी थी। :D
अंदर पहुँचे। अबकी बार इंस्टिट्यूट इसलिए नहीं बोले क्योंकि वो कुल जमा एक कमरा ही था। घुसते ही क्लासरूम वाला फ़ील आया। "हाय, अल्ला...पढ़ना पढ़ेगा का? पहले कंप्यूटर तो दिखाओ न! हम कबसे मरे जा रहे!" ये सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई, "बैठ जाओ।" हम उसी पल सटाक से विराजमान हो गए। यूँ हम कुर्सीलोलुप इत्तू से भी नहीं, पर तब एकदम भयंकर वाला यक़ीन था कि मंज़िल हियाँ से ही मिलेगी। लेकिन ये क्या, बैठते ही सर जी ने एक-एक फाइल सबको पकड़ा दी। कत्थई रंग की उस बैगनुमा फाइल पर श्वेतवर्ण से तथाकथित संस्था का नाम चमक रहा था। अंदर हमरा id और कुछ प्रिंटेड मैटर था। इधर हमारी बेचैनी अपनी चरम-सीमा पर थी। निगाहों को 180 डिग्री पर घुमाकर कक्ष का जायज़ा लिया तो एक पर्दा नज़र आया। "अच्छा, तो कंप्यूटर महाशय उहाँ लजाय रहे।"अपने अंदर के सुप्त करमचंद पर गर्व करके हम उन ताज़ा टीचर की बात ध्यान से सुनने का टॉप क्लास नाटक करने लगे। ;)
उन्होंने ह्यूमन एनाटॉमी की तरह संगणक (कंप्यूटर ही है रे) के विभिन्न अंगों का सचित्र वर्णन किया। यहाँ हम स्पष्ट करते चलें कि ये आपका लैपटॉपवा जैसा नहीं, बल्कि डेस्कटॉप हुआ करता था। जो टेबल के ऊपर और नीचे की जगह ठसाठस भर देता था। और उसपे इत्ता भारी कि हाय दैया! का बताएँ!
सर से सारे नाम सुनकर याद भी कर लिए, मॉनिटर (उससे पहले हम सोचते थे कि ये कक्षा में हमहि हो सकते थे), की-बोर्ड (ही-ही, इसको भी हम तब तक बस चाबियाँ टांगने का कुंडा ही समझते आये थे) और माउस (इसपे तो हम ही नहीं पूरी क्लास चील-बिलइयों सी हँस-हँस लोटने लगी थी)। अचानक ही अनपढ़ से एजुकेटेड वाला फ़ील पाकर हम सब धन्य हो चुके थे। आज के लिए बहुतै ज्ञान लूट चुके थे। पर 'दिव्य-दर्शन' अभी शेष थे।
सर जी ने बोला कि पहले समझ लो, फिर दिखाएँगे। वैसे तो हम आज्ञाकारी ही हैं पर उस दिन नियम-भंग कर चिलमन में अपनी मुंडी घुसेड़ झाँक लिए थे। अहा, क्या ठंडा-ठंडा एसी चल रहा था और एक चौकोर टेबल पर कंप्यूटर जी किसी नई दुल्हनिया की तरह तमाम आवरणों में लिपटे हुए थे।अचानक पहली बार हमें अपने इंसान होने का दुःख हुआ और लगा काश, हम कंप्यूटर होते तो यूँ पसीने-पसीने तो न हो रहे होते। :(
उस दिन दर्शन-लाभ के बिना घर तो आ गए पर तुरंत ही अवैतनिक तौर पर इसका प्रचार प्रारंभ करने में हमने जरा भी कोताही नहीं बरती। "पता है, उसको एसी में रखना पड़ता है। बाहर का है न! गर्मी में ख़राब हो जाता है। बिना जाने छूना भी नहीं चाहिए। बहुत महंगा आता है।" हम कहते और सुनने वालों की पुतलियाँ जिज्ञासा में चौड़ा जातीं। "अच्छा!" :D
रोज पर्दा हटाकर दर्शन करा दिए जाते और इस तरह बिना समझे-बूझे और बिना टच किये कोर्स भी हो गया। वही एक आने का ज्ञान अंत तक टिका रहा.....मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस! कंप्यूटर किसी मॉडल की तरह अपनी जगह रखा रहता और हम उसके तमाम अंगों के नाम घोंटते। अब हमारा दम भी घुटने लगा था। छोटे शहर के भोले-भाले बच्चों को उल्लू कैसे बनाया जाता है, इस बात से भी मन उदास रहने लगा था। एक दिन हमने अपने चकनाचूर ह्रदय से कंप्यूटर के इस्तेमाल का स्वप्न सदा के लिए उखाड़ फेंका। कागज़ों पर हम उत्तीर्ण थे पर असलियत भी खूब पता थी। लेकिन तीन दुष्ट नाम अब भी मस्तिष्क की तंत्रिकाओं में अबाध गति से बहते हैं, मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस! :D
- प्रीति 'अज्ञात'
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उसी दौरान भैया का MCA में चयन हुआ। बाद में कैंपस इंटरव्यू में भी सीधे ही जॉब मिला। यह विश्वविद्यालय का पहला बैच था और हम सभी खूब गौरवान्वित हुए। अब तक हैं। अब मुझे ये सब सीखने के लिए कहीं बाहर जाने की जरुरत नहीं थी। ये अलग बात है कि फिर मेरा ही मोह भंग हो चुका था और मैंनें अभी कुछ वर्ष पहले ही सीखा है। पर इतना नहीं आता कि किसी पे रौब झाड़ सकें। जरुरत भी क्या है? सीखते रहने की गुंजाईश भी तो बनी रहनी चाहिए! :)
फिर एक दिन वो सुरीली सुबह भी आई जब इस अज्ञात को ज्ञात हुआ कि शहर में एक कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र खुल रहा है। उफ़, फिर क्या था अपुन के ह्रदय के सारे तार झनझना उठे, मन मयूर नृत्य करने लगा, तमाम सपने आँखों में गुलाटियां लगाने लगे और एन उसी वक़्त इस टोटल फ़िल्मी सिचुएशन को सूट करता हुआ चित्रहार पर हर हफ़्ते नियमित परोसा जाने वाला कर्णप्रिय गीत बजने लगा "आज फिर उनसे मुलाक़ात होगी..."
हम भी अपना गर्दभ-राग तुरंत ही जोड़ सुर मिलाने लगे....."फिर होगा क्या, क्या ख़बर क्या पता" अब किसी को क्या बतायें कि राकेश रोशन की गोल-मटोल आँखों में हम एवीं थोड़े न डूबे थे और हमारी निष्ठता अब तक जारी है, उनके ग्रीक गॉड टाइप बेटे जी पर भी फ़िदा होकर परंपरा का पूर्ण निर्वहन धकाधक करे जा रहे हैं। :P
चलो, मुद्दे पे आते हैं.....एक पावन दिवस पर हमने धड़कते दिल से उस महान इंस्टिट्यूट(हलंत लग नहीं रहा) में एडमिशन लेकर स्वयं को पदोन्नत करने का सौभाग्य प्राप्त किया। शायद तीन माह का जावा, कोबोल, सी प्लस नाम का कोई कोर्स था। वो सब तो ठीक, पर अपन को तो कंप्यूटर जी के दिव्य-दर्शन की बेहिसाब तड़पन जीने नहीं दे रही थी। पहला दिन जैसे ही हम वहाँ पहुँचे तो मंदिर के बाहर जैसा दृश्य देख दिमाग झन्ना गया। वही तितर-बितर चप्पलें, बुनाई की सलाइयों सी एक उल्टी-एक सीधी, कोई सीढ़ी पे पड़ी तो कोई नाली में गिरने को तैयार! जैसे-तैसे ख़ुद की भावनाओं पे कंट्रोल कर अपनी जूतियाँ सलीके से रखीं और एक-दो और वहीं खिसकाकर पंक्ति बनाने का बेहूदा और निष्फल प्रयास किया। इधर मिलन की प्रसन्नता अब भी चेहरे पे टपकी पड़ी थी। :D
अंदर पहुँचे। अबकी बार इंस्टिट्यूट इसलिए नहीं बोले क्योंकि वो कुल जमा एक कमरा ही था। घुसते ही क्लासरूम वाला फ़ील आया। "हाय, अल्ला...पढ़ना पढ़ेगा का? पहले कंप्यूटर तो दिखाओ न! हम कबसे मरे जा रहे!" ये सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई, "बैठ जाओ।" हम उसी पल सटाक से विराजमान हो गए। यूँ हम कुर्सीलोलुप इत्तू से भी नहीं, पर तब एकदम भयंकर वाला यक़ीन था कि मंज़िल हियाँ से ही मिलेगी। लेकिन ये क्या, बैठते ही सर जी ने एक-एक फाइल सबको पकड़ा दी। कत्थई रंग की उस बैगनुमा फाइल पर श्वेतवर्ण से तथाकथित संस्था का नाम चमक रहा था। अंदर हमरा id और कुछ प्रिंटेड मैटर था। इधर हमारी बेचैनी अपनी चरम-सीमा पर थी। निगाहों को 180 डिग्री पर घुमाकर कक्ष का जायज़ा लिया तो एक पर्दा नज़र आया। "अच्छा, तो कंप्यूटर महाशय उहाँ लजाय रहे।"अपने अंदर के सुप्त करमचंद पर गर्व करके हम उन ताज़ा टीचर की बात ध्यान से सुनने का टॉप क्लास नाटक करने लगे। ;)
उन्होंने ह्यूमन एनाटॉमी की तरह संगणक (कंप्यूटर ही है रे) के विभिन्न अंगों का सचित्र वर्णन किया। यहाँ हम स्पष्ट करते चलें कि ये आपका लैपटॉपवा जैसा नहीं, बल्कि डेस्कटॉप हुआ करता था। जो टेबल के ऊपर और नीचे की जगह ठसाठस भर देता था। और उसपे इत्ता भारी कि हाय दैया! का बताएँ!
सर से सारे नाम सुनकर याद भी कर लिए, मॉनिटर (उससे पहले हम सोचते थे कि ये कक्षा में हमहि हो सकते थे), की-बोर्ड (ही-ही, इसको भी हम तब तक बस चाबियाँ टांगने का कुंडा ही समझते आये थे) और माउस (इसपे तो हम ही नहीं पूरी क्लास चील-बिलइयों सी हँस-हँस लोटने लगी थी)। अचानक ही अनपढ़ से एजुकेटेड वाला फ़ील पाकर हम सब धन्य हो चुके थे। आज के लिए बहुतै ज्ञान लूट चुके थे। पर 'दिव्य-दर्शन' अभी शेष थे।
सर जी ने बोला कि पहले समझ लो, फिर दिखाएँगे। वैसे तो हम आज्ञाकारी ही हैं पर उस दिन नियम-भंग कर चिलमन में अपनी मुंडी घुसेड़ झाँक लिए थे। अहा, क्या ठंडा-ठंडा एसी चल रहा था और एक चौकोर टेबल पर कंप्यूटर जी किसी नई दुल्हनिया की तरह तमाम आवरणों में लिपटे हुए थे।अचानक पहली बार हमें अपने इंसान होने का दुःख हुआ और लगा काश, हम कंप्यूटर होते तो यूँ पसीने-पसीने तो न हो रहे होते। :(
उस दिन दर्शन-लाभ के बिना घर तो आ गए पर तुरंत ही अवैतनिक तौर पर इसका प्रचार प्रारंभ करने में हमने जरा भी कोताही नहीं बरती। "पता है, उसको एसी में रखना पड़ता है। बाहर का है न! गर्मी में ख़राब हो जाता है। बिना जाने छूना भी नहीं चाहिए। बहुत महंगा आता है।" हम कहते और सुनने वालों की पुतलियाँ जिज्ञासा में चौड़ा जातीं। "अच्छा!" :D
रोज पर्दा हटाकर दर्शन करा दिए जाते और इस तरह बिना समझे-बूझे और बिना टच किये कोर्स भी हो गया। वही एक आने का ज्ञान अंत तक टिका रहा.....मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस! कंप्यूटर किसी मॉडल की तरह अपनी जगह रखा रहता और हम उसके तमाम अंगों के नाम घोंटते। अब हमारा दम भी घुटने लगा था। छोटे शहर के भोले-भाले बच्चों को उल्लू कैसे बनाया जाता है, इस बात से भी मन उदास रहने लगा था। एक दिन हमने अपने चकनाचूर ह्रदय से कंप्यूटर के इस्तेमाल का स्वप्न सदा के लिए उखाड़ फेंका। कागज़ों पर हम उत्तीर्ण थे पर असलियत भी खूब पता थी। लेकिन तीन दुष्ट नाम अब भी मस्तिष्क की तंत्रिकाओं में अबाध गति से बहते हैं, मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस! :D
- प्रीति 'अज्ञात'
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उसी दौरान भैया का MCA में चयन हुआ। बाद में कैंपस इंटरव्यू में भी सीधे ही जॉब मिला। यह विश्वविद्यालय का पहला बैच था और हम सभी खूब गौरवान्वित हुए। अब तक हैं। अब मुझे ये सब सीखने के लिए कहीं बाहर जाने की जरुरत नहीं थी। ये अलग बात है कि फिर मेरा ही मोह भंग हो चुका था और मैंनें अभी कुछ वर्ष पहले ही सीखा है। पर इतना नहीं आता कि किसी पे रौब झाड़ सकें। जरुरत भी क्या है? सीखते रहने की गुंजाईश भी तो बनी रहनी चाहिए! :)