गुरुवार, 24 अगस्त 2023

देश की उम्मीदों का चाँद

 


यूँ तो 'चंद्रयान मिशन' की सफलता और इस मिशन की कल्पना से भी बहुत पहले हमने चाँद को अपना माना हुआ है और यह कोई छोटा-मोटा रिश्ता नहीं बल्कि नेह का वह असाधारण बंधन है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी गहराता ही रहा। ये चाँद कभी बच्चों का चंदा मामा बना तो कभी इसमें सूत कातती हुई कोई दादी-नानी माँ सरीखी वृद्धा नजर आईं। करवा-चौथ में यह सुहागिनों की प्रतीक्षा का सबब बना तो वहीं ईद पर भी इसके दीदार को दुनिया तरसी। कोई न दिखे और फिर एक अंतराल के बाद मिल जाए तो यकायक मुँह से निकलता, "अरे मियाँ! तुम तो ईद के चाँद हो गए हो!" प्रेमियों ने अपनी महबूबा की सुंदरता के बखान के सारे बहाने इसी की आड़ में पेश किए और हमारी हिन्दी फिल्में इसी चाँद को मोहब्बत का हमराज बना सारे गिले-शिकवे दूर करतीं रहीं। 

वो चाँद जो सपनों का बादशाह बना बैठा था, जो हमारी प्रतीक्षाओं के मजे लिया करता था, वो जिसकी मखमली चाँदनी में बैठ हमने ख्वाबों के अनगिनत महल बनाए और उनमें उसी की दूधिया रोशनी भर कुछ मुस्कानें अपने नाम कर लीं, वो चाँद हमारे विक्रम बाबू और छुटके प्रज्ञान को देख चौंका तो जरूर होगा! उसे कहाँ पता कि जिनकी उम्मीदों की झोली वो सदियों से भरता रहा, आज उसी देश से कोई अपने इस बचपन के साथी के गले लग उसकी तमाम तस्वीरें खींचना चाहता है। वो जानना चाहता है कि "तुम्हारे पास पानी-वानी तो है न! कहो तो हम आ जाएं, तुम्हारा घर संभालने?"

चाँद को नहीं पता कि इस पल के लिए एक देश ने कितना लंबा सफ़र तय किया है। न जाने उस चाँद को, हमारी खुशियों का अंदाज़ होगा भी या नहीं! न जाने उसने हमारी धड़कनों को कितना समझा होगा! लेकिन आज का चाँद कुछ अलग है, आज उसका नूर देखने लायक है, आज का ये खूबसूरत चाँद हमारे इतिहास के पन्नों पर मानव सभ्यता के आखिरी चरण तक उभरता रहेगा। ये चाँद हर भारतीय को दुनिया में थोड़ी और ठसक के साथ चलने का हक़ दे रहा है। इस चाँद को उसके हिस्से का सारा प्यार मिले और उसके बाद थोड़ा और भी कि उसने अपनी जमीं पर भी हमें मोहब्बत ही दी। इस चाँद के आँगन में सितारों की झमाझम बारिश होती रहे। 

सबको उनके हिस्से का चाँद मुबारक़ और बाकियों को उम्मीद की दूधिया रोशनी!

बधाई मेरे देश को और ISRO का तो ये देश ऋणी हो गया है। 

Once again..... Thank You ISRO - Indian Space Research Organisation 

- प्रीति अज्ञात 

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कहीं हम अपनी स्वतंत्रता को हल्के में तो नहीं ले रहे?


आज हम अपनी आधुनिक साज-सामानों से सुसज्जित जिस दुनिया में आनंद लेते हुए अपनी स्वतंत्रता का उत्सव मनाते हैं, वहाँ यह भी आवश्यक है कि कुछ पल ठहर उस कठिन यात्रा पर विचार किया जाए जो हमारे पूर्वजों ने हमारी स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए प्रारंभ की थी। जिस स्वतंत्रता का मार्ग अमर शहीदों के बलिदान, साहस, समर्पण और अटूट संकल्प के साथ प्रशस्त हुआ था, वह एक ऐसी भावुक गाथा है जिसे हमें न केवल अपने इतिहास की किताबों में, बल्कि अपने दिलों और कार्यों में भी संजोना चाहिए।

आज़ादी की लड़ाई कोई सामान्य बात नहीं थी. यह वर्षों के उत्पीड़न, दमन और भीषण अत्याचार का संघर्षपूर्ण प्रतिरोध था। जिसके लिए औपनिवेशिक शासन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले देशवासियों ने अपने जीवन, परिवार और भविष्य को दांव पर लगाकर अकल्पनीय कठिनाइयों का सामना किया। उन्होंने एक ऐसी भूमि का स्वप्न देखने का साहस किया, जहां नागरिक अपने बोलने की, धर्म की स्वतंत्रता और अपनी नियति निर्धारित करने के अधिकार का आनंद ले सकें। इस स्वतंत्रता को पाने और हमारा भविष्य सुरक्षित करने के उद्देश्य की खातिर  युद्ध के मैदानों में, क्रांतियों में, जेलों में, प्रताड़ना और अमानवीय अत्याचारों से अनगिनत महत्वपूर्ण जीवन नष्ट हो गए। यह स्वतंत्रता, अमर शहीदों का एक ऐसा ऋण है जो हम कभी भी चुका नहीं सकते। लेकिन इसका मान कभी कम न हो और इस आजादी को हल्के में न ले लिया जाए; इस उत्तरदायित्व को निभाना प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य है।

स्वतंत्रता, अपने मूल में, मुक्ति के लिए संघर्ष का दूसरा नाम है। यह मानव इतिहास के ताने-बाने में गहराई से रची-बसी वह अवधारणा है, जो बाहरी नियंत्रण या प्रभुत्व से मुक्त होने की एक मौलिक स्थिति का प्रतीक है। इतिहास में, समुदाय और राष्ट्र अपनी स्वायत्तता सुरक्षित करने के लिए दमनकारी ताकतों के विरुद्ध सदैव ही उठ खड़े हुए हैं। समय-समय पर इस संघर्ष को क्रांतियों, स्वतंत्रता संग्राम और विभिन्न आंदोलनों द्वारा चिह्नित किया जाता रहा है।

यद्यपि स्वतंत्रता, किसी भी राष्ट्र के लिए एक शक्तिशाली उपलब्धि है परंतु यह संघर्षों का समापन बिंदु नहीं बल्कि एक सतत यात्रा है। इसे सुरक्षित रखने की प्रक्रिया भी उतनी सरल नहीं! स्वतंत्रता की इस सुरक्षा में समावेशी समाजों का पोषण, नागरिकों का सम्मान एवं रक्षा, लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण एवं वैश्विक शांति को बढ़ावा देने के विविध प्रयास निहित हैं। आने वाली पीढ़ियाँ एक स्वस्थ, स्वच्छ वातावरण में निवास करें इसके लिए पर्यावरणीय स्थिरता का पुष्ट रूप से समर्थन भी यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

स्वतंत्रता, व्यक्तियों को अपने अंतर्निहित अधिकारों और स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए भी सशक्त बनाती है। यह नागरिकों को दमन के डर के बिना अपनी राय व्यक्त करने, अपनी पहचान व्यक्त करने और अपने जीवन को आकार देने का अधिकार देती है। यह अधिकार ही ऐसे लोकतांत्रिक समाज का आधार बनता है, जहां नागरिक सक्रिय रूप से शासन में भाग लेते हैं और सामूहिक रूप से अपने राष्ट्र की दिशा और दशा निर्धारित करते हैं।

कह सकते हैं कि स्वतंत्रता के मूल्यों को मात्र इतिहास से ही नहीं मापा जाता है और न ही अतीत की उपलब्धियों का उत्सव मनाने से, बल्कि इस बात से भी मापा जाता है कि कैसे समाज और व्यक्ति स्वतंत्रता को रेखांकित करने वाले मूल्यों को बनाए रखने में अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं।

वर्तमान समय में हम तेजी से आगे तो बढ़ रहे हैं पर  यह देखना निराशाजनक है कि बलिदानों के प्रति हमारा सम्मान कितना कम हो गया है। जिन सिद्धांतों पर हमारे देश का निर्माण हुआ था, वे अधिकार, शालीनता और विभाजनकारी व्यवहार की संस्कृति के बीच लुप्त होते जा रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने जिन मूल्यों के लिए संघर्ष किया, उनके प्रति अनादर की घटनाएं अब बहुत प्रचलित हैं, जो कि उनके बलिदानों की विरासत को धूमिल कर रही हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिसके लिए बहुत बहादुरी से संघर्ष किया गया था, अब कभी-कभी घृणास्पद भाषण और गलत सूचना के लिए ढाल के रूप में उसका दुरुपयोग किया जाता है। जिस अधिकार का उद्देश्य लोकतांत्रिक चर्चा को बढ़ावा देना था, उसे रचनात्मक बातचीत और सामूहिक विकास के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग करने के स्थान पर व्यक्तिगत एजेंडे के लिए भुनाया जा रहा है।

हमारे पूर्वज समस्त मतभेदों को पार कर, एक समान उद्देश्य के लिए एकजुट हो खड़े थे। लेकिन वर्तमान में हम प्रायः विभाजनकारी आख्यानों को एकजुटता की भावना पर हावी होते हुए देखते हैं। नागरिकों के बीच बढ़ता वैमनस्य, द्वेषभाव उस एकता से कोसों दूर है जिसने स्वतंत्रता के संघर्ष को वर्षों पहले परिभाषित किया था।

हम एक न्यायसंगत समाज के स्वप्न तो देखते हैं पर इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ बनी हुई हैं। अतीत के संघर्ष समानता और सम्मान की खोज से प्रेरित थे, फिर भी हमारा समकालीन समाज उन मुद्दों से जूझ रहा है जिन्हें इतिहास के पाठों के माध्यम से अब तक हल हो जाना चाहिए था।

अब समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें। हम उन आदर्शों को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएं, जिनके लिए देश के अनगिनत वीरों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उस असीम पीड़ा, बलिदान और साहस का स्मरण करें जिसने हमें आजादी दिलाई। हम अपनी सोच, विचारधारा और मानसिकता को दलगत राजनीति से परे रख, केवल अपने देश की सोचें। हमारे तिरंगे के तीनों रंगों को बराबर मान दें और इनमें विभाजन करने वालों को सरेआम चिह्नित करें। जैसे हम अपने विशेषाधिकारों का आनंद लेते हैं, वैसे ही उस स्वतंत्रता का भी संरक्षण करें जिसमें परस्पर सम्मान,  सहानुभूति और समझ की संस्कृति साथ बहती है।

हमें एक पल को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता को रेखांकित करने वाले महापुरुषों, उनके मूल्यों और सिद्धांतों का अनादर करना  उन लोगों के संघर्षों और बलिदानों के साथ विश्वासघात है जिनके कारण हम आज खुली हवा में साँस ले पा रहे हैं। हमारी यह स्वतंत्रता हमें सोने की थाली में सजाकर नहीं दी गई थी; यह देश के प्रति समर्पण में डूबे अनगिनत सेनानियों, क्रांतिकारियों, वीर-पुरुषों के साहस, संघर्ष, अश्रु, रक्त और बलिदान से अर्जित की गई विरासत है। उनके संघर्ष को नमन करते हुए और उनके द्वारा संजोए गए आदर्शों को अपनाकर, हम इस तथ्य को तो सुनिश्चित कर ही सकते हैं कि उनकी इस पावन धरा पर हम किसी भी भेदभाव, अराजकता और नागरिकों के बीच खाई खोदते व्यवहार को सहन नहीं करेंगे और  स्वतंत्रता को पाने के लिए उन्होंने जो पीड़ा सही, वह अंततः निरर्थक नहीं जाएगी।

जय हिन्द!

'हस्ताक्षर' अगस्त अंक, संपादकीय -

https://hastaksher.com/are-we-taking-our-freedom-for-granted-editorial-by-preeti-agyaat/

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सोमवार, 7 अगस्त 2023

कुकर में उबलती लड़कियाँ (स्त्री की विनाश यात्रा)


हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ सती प्रथा का एक लंबा इतिहास रहा है। सर्वविदित है कि यह कोई धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि एक कुरीति थी जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को भी उसी चिता पर बैठा दिया जाता था। कहते हैं कि प्रेम/ परंपरा के चलते वह आत्मदाह को बैठ जाती थीं। प्रश्न उठता है कि कोई माँ अपने बच्चों को अनाथ करना स्वयं कैसे चुन सकती थी? परिवार ने कैसे इसका समर्थन किया होगा?

सती प्रथा के ‘पक्ष’ में सर्वमान्य कारण यह माना गया कि किसी अन्य पुरुष की कुदृष्टि से रक्षा हेतु यही एकमात्र उपाय था। यह राजा-महाराजाओं के काल में आक्रमणकारियों से स्वयं को बचाने हेतु 'जौहर' से प्रेरित उपक्रम ही था। इसी दबे-छुपे रूप में यह मान्यता भी रही कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री से जमीन जायदाद हथियाने के लिए भी इसका सहारा लिया जाता था। कह सकते हैं कि सैकड़ों वर्ष पहले भी अकेली स्त्री का कोई पालनहार न था और उसे नोच खाने वाले गिद्ध बहुतेरे थे। ऐसे में उसके सती हो जाने पर किसी को क्या ही दुख रहता होगा, यह अनुमान लगा पाना कठिन नहीं।

तात्पर्य यह कि स्त्री सदा से एक वस्तु तुल्य ही रही जिसे समाज की उपस्थिति के मध्य, बेझिझक आग में झोंका जा सकता था। यद्यपि सैकड़ों वर्ष पूर्व इस कुरीति पर प्रतिबंध लग चुका है परंतु फिर एक नई कुरीति नियम सूची के साथ आई, जिसमें स्त्री को जीवित रखे जाने पर सहमति बनी। अब इस विधवा स्त्री के लिए जीवन की कुछ शर्तें तय हो गईं कि वह बिना किसी शृंगार के, श्वेत वस्त्र धारण किये घर के किसी कोने में चुपचाप रह लेगी। शुभ कार्यों से उसे दूर रखा जाने लगा। सुबह-सुबह किसी के सामने पड़ गई तो तरेरी आँखों का प्रकोप भी उसकी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया। 'जीते जी मार डालना' वाली लोकोक्ति संभवतः यहीं से उपजी होगी! यह ‘अद्भुत’ व्यवस्था, भरे समाज के बीचों बीच किसी स्त्री के सती होने से उपजी शर्मिंदगी से बचने का उपाय तो था ही, साथ ही उस स्त्री की जीवन रक्षा का महान काम भी लगे हाथों संपन्न हो रहा था। अतः सारे नियम पूरे हर्षोल्लास के साथ स्वीकार कर लिए गए। दुखद है कि सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी यह परम्परा अब तक हमारे समाज में विद्यमान है। परिवर्तन आया है लेकिन वह भी बाहरी तौर पर ही है। क्योंकि यही लोग, समाज के बीच अपनी शान बघारने से नहीं चूकते कि "हम तो उसे रंगीन कपड़े पहनने देते हैं!", "वह जमीन पर नहीं बल्कि अपने कमरे में ही सोती है।", "हमने उसे कभी अलग नहीं समझा!" ये सभी वक्तव्य ही यह सिद्ध कर देते हैं कि आपकी सोच कितनी सतही, उथली और मात्र प्रदर्शन हेतु है।

स्त्रियों के साथ मारपीट और हिंसा का विरोध भले ही हर काल में हुआ हो, पर दिनोंदिन इसका रूप वीभत्स ही होता जा रहा है। लोगों की सोच में सुधार के स्थान पर और विकृत रूप नजर आने लगा है। सती प्रथा पर रोक लगी तो विकल्प स्वरूप उन्हें जलाने को स्टोव आ गया। कारण यह कि उसके पिता ने इच्छानुसार दहेज नहीं दिया था। बाद में ये सिलिंडर फटने या बालकनी से 'अचानक' गिरकर मरने लगीं। कुल मिलाकर हर हाल में उनका मरना तय रहा। इन्हें जब जी चाहे, छोड़ा जाना भी सरल था।  इनकी लाशें कभी गहरे कुंए में मिलीं तो कभी किसी पेड़ से निर्वस्त्र लटकती पाई गईं। कभी किसी को नीचा दिखाने या बदला लेने के नाम पर इनकी इज्जत लूट ली गई और फिर अपने परिवार की इज्जत को सुरक्षित बनाए रखने के लिए स्त्रियाँ या तो चुप रहीं या आत्महत्या को विवश कर दी गईं। कभी कुछ जीवित स्त्रियों ने अपना दुख समाज के सामने रखना भी चाहा तो उल्टा उनका ही चरित्र हनन हुआ और उन पर अनर्गल आरोप मढ़ दिए गए। साथ ही उपहास उड़ाते हुए यह भी कहा गया कि “तब क्यों नहीं बोली?” ऐसे कई किस्से हम सबके सामने से रोज गुजरते हैं और हम उन पर मौन साध अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। जबकि समाज और इज़्ज़त के इस फॉर्मूले ने स्त्रियों के भीतर दर्द की एक गहरी घाटी बना दी है, जिसमें उन्हें अकेले रोज ही डूबना और पार आना होता है। ‘देवी’ कहकर उनके आँसू, उनके दुख, उनकी भावनाएं, उनके कष्ट दबा दिए गए।

किसी आवारा लड़के का प्रेम निवेदन नहीं स्वीकार किया तो तेजाब से झुलसा दी गईं, कोई रईसज़ादा हुआ तो खुलेआम बीच बाज़ार में गोली मार चला गया। कभी उनके साथ सामूहिक बलात्कार कर उन्हें नाले में फेंक दिया गया तो किसी ने अपनी क्रोधाग्नि में उन्हें तंदूर में भून दिया। उसके बाद उनके बत्तीस टुकड़े मिलने का 'रसप्रद' किस्सा मीडिया में खूब सुर्खियाँ बटोरता रहा, जिससे प्रेरित होकर स्त्री देह के इतने टुकड़े किए जाने लगे जैसे कोई रिकॉर्ड बनाने की होड लगी हो। वह फ्रिज़ जो खाने-पीने के सामान रखने के काम आता है अब उसमें स्त्री अंगों को रखा जाने लगा। हाल की घटना में स्त्री को कुकर में उबाल, मिक्सी में पीस लिया गया लेकिन यह घटना भी मीडिया ने आसानी से पचा ली और नेताओं को तो चुप्पी साधनी ही थी, सो साध ली। उनके लिए तो जहाँ हिन्दू-मुस्लिम कोण निकले, वही घटना छाती पीटने लायक़ और वोट बटोरने में सहायक होती है। इनकी कुत्सित मानसिकता के अनुसार, स्त्रियाँ तो बनी ही मरने को हैं। निर्जीव वस्तु की तरह उनका उपयोग कीजिए और फेंक दीजिए।

पत्नी की मृत्यु होते ही फटाफट दूसरी शादी करने के किस्से तो बहुत सुने होंगे पर क्या कभी सुना कि कोई पति चिता पर बैठ गया!

विधुर का सामने आना अशुभ हुआ कभी? कोई नियम बने उसके लिए?

स्टोव फटने से बहूएं ही क्यों मरती रहीं?

कभी प्रेम में हारी लड़की ने प्रेमी पर तेजाब फेंका है क्या?

घर की नाक, पुरुष क्यों नहीं बन सके? उनकी पवित्रता का परीक्षण किसी युग में किया गया है?

कुकर, तंदूर, फ्रिज़, मिक्सी खाना पकाने के उपकरण हैं, स्त्रियों को उबालने, पीसने के नहीं,  लेकिन जब इतनी क्रूरतम घटनाओं पर भी समाज सहज है तो अब स्त्रियों को ही स्वयं अपनी सुरक्षा और आत्मसम्मान का ख्याल रखना होगा। इस विनाश यात्रा में उन्हें बचाने कोई, कभी नहीं आएगा! हाँ, मँझधार में छोड़कर जाने वाले हर मोड़ पर मिलते रहेंगे। रोने के लिए कंधा तलाशने से बेहतर है कि अपनी जिम्मेदारी लें, समय रहते हर अपराध के विरुद्ध खड़े होने का साहस रखें और इस यात्रा में गर स्वयं को नितांत अकेला पाएं, तब भी अकेले जीने का हौसला कभी टूटने न दें।

-प्रीति ‘अज्ञात’

'प्रखर गूँज साहित्यनामा' /मासिक स्तंभ: 'प्रीत के बोल' / अंक: जुलाई 2023  

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