मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

बीतता हुआ वर्ष

किसी वर्ष का गुज़र जाना उन अधूरे वादों का मुँह फेरते हुए चुपचाप आगे बढ़ जाना है जो प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में स्वयं से किये जाते हैं। ये उन ख्वाहिशों का भी बिछड़ जाना है जो किसी ख़ूबसूरत पल में अनायास ही चहकने लगती हैं। ये समय है उन खोये हुए लोगों को याद करने का, जिनसे आपने अपना जीवन जोड़ रखा था पर अब साथ देने को उनकी स्मृतियाँ और चंद तस्वीरें ही शेष हैं! कई बार बीता बरस कुछ ऐसा छीन लेता है जो आने वाले किसी बरस में फिर कभी नहीं मिल सकता! हम सभी, हर वर्ष अपने किसी-न-किसी प्रिय को हमेशा के लिए खो देते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर हुई इस क्षति की भरपाई कभी नहीं की जा सकती।

ये अक्सर होता है और सबके ही साथ होता आया है कि वर्ष के आख़िरी लम्हों को जीने का अहसास मिश्रित होता है। जैसे ही सुख की एक झलक आँखों में चमक बन उभरती है ठीक तभी ही समय, दुःख की लम्बी चादर ओढ़ा उदास पलों की एक गठरी बना मन को किसी एकाकी कोने में छोड़ आता है। लेकिन बीतते बरस और आने वाले बरस के बीच का ये लम्हा जितना बड़ा दिखता है, उतना होता नहीं! सारा खेल इसी क्षण का है। यही एक क्षण नई उम्मीदों, नई योजनाओं, नई महत्त्वाकांक्षाओं को जन्म देता है साथ ही पुरानी ग़लतियों को न दोहराने की कड़वी सीख भी देता है। कुल मिलाकर बारह माह बाद आत्मावलोकन की अनौपचारिक, अघोषित तिथि है यह....वरना नए साल में रखा क्या है! आम आदमी के जीवन में इससे कोई बदलाव नहीं आता पर यह नई उमंगों का संचार अवश्य करता है।  

हम उत्सवों के देश में रहते हैं। जहाँ हर कोई ख़ुश होने एवं तनावमुक्त रहने के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता है। हमें उल्लास की तलाश है, हम मौज-मस्ती में डूबना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हमें कोई न टोके। ऐसे में कोई त्योहार, छुट्टी या फिर ये नया साल अवसर बनकर आते हैं, जिसे दिल खोलकर मनाने में कोई चूकना नहीं चाहता। अन्यथा इन बातों के क्या मायने हैं? सब जानते हैं कि साल बदल जाने से किसी के दिन नहीं फिरते और न ही भाग्य की रेखा चमकने लगती है। कुछ नया नहीं होता! पुरानों को ही झाड़-पोंछकर चमका दिया जाता है। 
नववर्ष कैलेंडर में तिथि का बदल जाना भर है! शेष सब बाज़ार के बनाये उल्लास हैं, भीड़ है, लुभाने में जुटे व्यापार हैं। मनुष्य का इन सबकी ओर आकर्षित होना उसके सामाजिक होने का प्रथम लक्षण है। अपने सुख-दुःख के चोगे से बाहर निकल नववर्ष का स्वागत एक आवश्यक परम्परा है, जिसे सबको निभाना चाहिए क्योंकि यही प्रथाएँ हमें जीवित रखती हैं, मनुष्य की मनुष्यता से मुलाक़ात कराती हैं।
- प्रीति 'अज्ञात' #repost 

नया साल मुबारक़

नया साल जैसे-जैसे क़रीब आता जाता है, उसी गति के समानुपाती मस्तिष्क की सारी सोई हुई नसें आपातकालीन जागृत अवस्था को प्राप्त होती हैं। यही वो दुर्भाग्यपूर्ण समय भी है जो आपको स्वयं से किये गए उन वायदों की सूची का फंदा लटकाये मिलता है जिसे देख आप शर्मिंदगी को पुनः बेशर्मी से धारण कर बहानों का नया बुलेटिन जारी करते हैं। यहाँ पिछली जनवरी से अब तक किये गए कारनामों की झांकी साथ चलती है। जी, हाँ यही वो ज़ालिम माह है जिसमें सी.आई.डी. के आखिरी दो मिनटों की तरह बीते ग्यारह महीनों के सारे गुनाहों की लंबी फ़ेहरिस्त आँखों के आगे इच्छाधारी नागिन की तरह फुफकारती नज़र आती है।

आप उन पलों को याद कर भावुक हो उठते हैं कि कैसे बीती जनवरी के पहले ही दिन आप सुबह- सुबह उठकर नहाने और सूर्योदय देखने का पुण्य कमा लिए थे। चूँकि मम्मी ने बचपन में बताया था कि साल के पहले दिन सब काम अच्छे से करो तो पूरा साल अच्छा बीतता है। यही सोच उस दिन पुरुष पोहे में जली हुई मूंगफली को काजू समझ चुपचाप गटक लेते हैं। माँ बच्चे को बिल्कुल भी नहीं डाँटती और अपना गुस्सा सप्ताहांत के लिए होल्ड कर देती है। बच्चे थोड़े अलग स्मार्ट टाइप होते हैं तो मनचाहा काम बेख़ौफ़ होकर करते हैं।
पर एक बात तो तय है कि हर उम्र जाति के लोगों के मन में 1 जनवरी को सारे उत्तम विचार उसी तरह छटपटाते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में मेंढक उचक उचककर बाहर निकलते हैं।

सबसे क्यूट (हमारी टाइप के), वे लोग होते हैं जो मॉर्निंग वाक की शुरुआत की तिथि एक जनवरी तय करते हुए चुपचाप ही कैलेंडर पर पेंसिल से बिलकुल अपने ही जैसा एक प्यारा-सा गोला बना देते हैं, कुछ इस तरह कि बस उन्हें ही दिखे!   और संक्रांति पर इरेज़र से मिटा डालते हैं। 
मने जो भी हो, जनवरी में सबको नहा-धो के, चमचमाते चेहरों पे हंसी का पलस्तर चढ़ाके ही एकदम हीरो-हिरोइनी टाइप एंट्री मारनी है। थिंग्स टू डू एंड नॉट टू डू की सूची दिसम्बर की पहली तारीख़ से बनना शुरू हो जाती है और 31 दिसंबर तक तमाम मानवीय कम्पनों और हिचकिचाहटों से गुजरते हुए एक भयंकर भूकंप पीड़ित अट्टालिका की तरह भग्नावशेष अवस्था में नज़र आती है। मुआ, पता ही न चलता कि क्या फाइनल किया था और क्या लिखकर काट दिया था। आननफानन में एक नई तालिका बनाकर तकिये के कवर के अंदर ठूँस दी जाती है और फिर होठों को गोलाई देते हुए, उनके बीच के रिक्त स्थान से बंदा उफ्फ़ बोलते हुए भीतर की सारी कार्बन डाई ऑक्साइड यूँ बाहर फेंकता है कि ग़र ये श्रेष्ठतम कार्यों की सूची न बनती तो इस आभासी सुकून के बिना रात्रि के ठीक बारह बजे हृदयाघात से उसकी मृत्यु निश्चित थी। 
  
और इसी तरह भांति-भांति के मनुष्य अपने मस्तिष्क के पिछले हिस्से की कोशिकाओं का विविधता से उपयोग करते हुए अत्यंत ही नाजुक पर मुमकिन-नामुमकिन के बीच पेंडुलम-सा लटकता पिलान बना ही डालते हैं। लेकिन भैया, ये एकदम Exam की तैयारी जैसा ही है।   Exam अर्थात परीक्षा वह दुर्दांत घटना या कृत्य है जो जाता तो अच्छा है पर आता नहीं! तभी तो सब लोग परीक्षक को कोसते नज़र आते हैं कि हमने तो ख़ूब मेहनत की थी फिर भी नम्बर नहीं आये. जालिमों, बस एक बार अपने दिल पर हाथ रखकर पूछो कि तुम्हारी कोशिशों में कितनी ईमानदारी थी!!अच्छा! अब इत्ता सेंटी होने की जरूरत भी नहीं! वरना फ्रिज में प्रतीक्षा की बाँहें फैलाए बैठा स्ट्रॉबेरी केक और माइक्रोवेव में double cheese  की वादियों में खदकता farm house pizza बुरा मान जाएगा!एक जरुरी बात और बताती चलूँ कि ये हर बात में Veggie burger, Veg. chilly paneer और subway में Multigrain bread के साथ ढाई मन fat भर-भरकर खाने वाले लोग स्वास्थ्य के प्रति सजग होने की जो नौटंकी करते हैं न, उसमें भी क्यूटनेस ओवरलोडेड होती है। बिल्कुल.... टाइप के।   
कोई न! ये सब तो चलता ही रहेगा जी। 
आने वाला वर्ष 2020 आप सबको ख़ूब मुबारक़ हो! 
बस एक बात गाँठ बाँध लो कि अगर कहीं कट्टर बनना बहुत जरुरी लगे तो बस 'कट्टर भारतीय' बन जाना। 
 - प्रीति 'अज्ञात'
#happynewyear #welcome2020 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे!

मोहम्मद रफ़ी का नाम जब-जब सामने आता है तब-तब स्मृतियों में उनका वह सादगी भरा मुस्कुराता चेहरा स्वत: ही घूमने लगता है. एकदम सहज, सरल, हँसमुख. शायद ही कोई भारतीय होगा जो उनके गीतों का दीवाना न रहा हो. आज जब गूगल ने अपना डूडल उन्हें समर्पित किया तो उनके सदाबहार गीत और सुमधुर आवाज की सुरमई रागिनी फ़िज़ाओं में झूमने लगी.
उनका गाया कौन-सा गीत सबसे प्रिय है, यह तय करना उतना ही मुश्क़िल है जैसे कोई किसी माँ से पूछे कि तुम्हें कौन-सा बच्चा अधिक प्यारा है.

रफ़ी साब ने हर रंग, हर विधा, हर मूड के गीतों को अपने स्वरों की जो अनमोल सरगम दी है वह संगीत प्रेमियों के लिए नायाब तोहफ़े की तरह है. अहा, क्या ख़ूब आवाज़ और कितनी सुन्दर अदायगी. उनके गायन का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि श्रोता तुरंत समझ जाते थे कि यह गुरुदत्त पर फिल्माया गया है या देव आनंद पर. राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर दिलीप कुमार, ऋषि कपूर, अमिताभ, शशि कपूर और न जाने कितने ही नायकों को शिखर पर पहुंचाने में इनकी आवाज का अतुलनीय योगदान रहा है. नौशाद, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, रवि, ओ पी नैयर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी और रफ़ी जी ने श्रोताओं के अगाध स्नेह के साथ-साथ कई राष्ट्रीय एवं फिल्मफेयर पुरस्कार भी प्राप्त किये.

मोहम्मद रफ़ी गाते नहीं, शब्दों को जीते थे. उनके गीत युवाओं की धड़कन, उनके अहसास की अभिव्यक्ति का माध्यम थे. ये उनका जादू ही है जो अब तक हम सबके सिर चढ़कर बोलता है.
उनकी आवाज़ के बिना आज भी न तो कोई बारात दरवाजे पहुँचती है और न ही दूल्हा घोड़ी से उतरता है, जब तक बैंड वाले 'बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है.' नहीं बजा लेते. विदाई के भावुक पलों में उनका ही गाया 'बाबुल की दुआएँ लेती जा' या 'चलो रे डोली उठाओ कहार' वातावरण को भाव-विह्वल कर देता है. समाज की भावनाओं का साक्षात प्रतिबिम्ब बन गई है उनकी आवाज़.

किसी भी प्रेमी की आशिक़ी उनके बिना अधूरी है और अपनी महबूबा के रूठने-मनाने से लेकर उसके हुस्न की तारीफ़ करने में वह इन्हीं का सहारा लेकर आगे बढ़ता है. याद कीजिये- तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, ए-गुलबदन, चौदहवीं का चाँद हो, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं, तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है, तारीफ़ करूँ क्या उसकी, यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो और ऐसे कितने ही सदाबहार गीतों के माध्यम से जवाँ दिलों की क़ामयाब मोहब्बत की नींव पड़ी है.
इनके आंदोलित करते गीतों ने भी प्रेमी-युगलों को समर्थन की ताजा साँसें उपहार में दी हैं. मुग़ल-ए-आज़म में जब ये अपनी बुलंद आवाज़ में 'ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद' गाते हैं तो उस दशक से लेकर अब तक के लाखों प्रेमी उनके साथ एक रूहानी सुकून महसूस कर कह उठते हैं, 'है अगर दुश्मन, दुश्मन..जमाना ग़म नहीं, ग़म नहीं'
हर जवां दिल ने 'एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने' और 'अभी न जाओ छोड़कर...' से अपनी प्रेमिका की मनुहार की है. जहाँ 'एहसान तेरा होगा मुझ पर' से कठोर दिलों में नरमी भरी है वहीं 'झिलमिल सितारों का आँगन होगा' से आशाओं के सैकड़ों दीप भी प्रज्ज्वलित हुए हैं.

उदासी और विरह में रफ़ी जी के नग़मों के साथ बैचेनी भरे पल कटते हैं और प्रेमी-प्रेमिकाओं के आँसुओं की अविरल धार और प्रेम से उपजी पीड़ा की निश्छलता में भी इन्हीं के सुरों की प्रतिध्वनि गुंजायमान होती है. कौन भूल सकता है इन गीतों को, जिन्होंने विरह-काल में उसी महबूब की यादों की दुहाई दी है.... दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, क्या हुआ तेरा वादा, मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम, तेरी गलियों में न रखेंगे क़दम आज के बाद.

मस्ती और शैतानी भरे गीतों से रफ़ी साब ने जो बिंदास और खिलंदड़पन भरे पल  दिए हैं, उनका तो कहना ही क्या! तैयब अली प्यार का दुश्मन हाय हाय, नैन लड़ जईहैं तो मनवा मा कसक होइबे करी,बदन पे सितारे लपेटे हुए, हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो, इशारों-इशारों में दिल लेने वाले....सूची ख़त्म नहीं होगी. इन जैसे समस्त गीतों की प्रशंसा के लिए एक ही शब्द है..याहू!!!!
 
'कर चले हम फ़िदा जान-ओ- तन साथियों' जैसे अनगिनत देशभक्ति के गीतों को भी रफ़ी साब ने इतनी ही शिद्दत से गाया है कि आज भी उन्हें सुनकर शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है और मन भीतर तक भीग जाता है.

कहते हैं दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता या तो ईश्वर से होता है या फिर मित्र से. यह हम श्रोताओं का सौभाग्य है कि इन दोनों ही रिश्तों को अपने शब्दों की प्राणवायु से पल्लवित करने में इनका कोई जवाब नहीं! तभी तो 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज', 'ओ दुनिया के रखवाले' ह्रदय को भीतर तक झकझोर कर रख देते हैं.
'दोस्ती' फ़िल्म का प्रत्येक गीत इस सुन्दर रिश्ते की तरह हर राह साथ चलता है. कहते हैं यह फ़िल्म जिसने भी देखी, वह फूट-फूटकर रोया था. मैंने यह दस वर्ष की उम्र में देखी थी और तब से आज तक इस रिश्ते की शक्ति पर विश्वास क़ायम है. 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे', 'मेरा तो जो भी क़दम है', राही मनवा दुःख की चिंता क्यूँ सताती है' जैसे गीतों की अमिट छाप आज तक ह्रदय पर अंकित है और उदासी के समय मन 'मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया' गुनगुनाने लगता है.

'आदमी मुसाफिर है' जैसे कितने ही दार्शनिक और हृदयस्पर्शी गीतों में इनकी ही स्वर-लहरियों का भावनात्मक संचार हुआ है. निराशा के भीषण पलों में 'ये दुनिया ये महफ़िल', गीत कितना सच्चा और अपना-सा लगता है. प्यासा और कागज़ के फूल फिल्मों का प्रत्येक गीत नए गायकों के लिए एक पाठ्यक्रम की तरह है. जिसने ये गायकी सीख ली वो तर गया.
दशकों बाद भी वर्तमान परिवेश में इस गीत की सार्थकता कम नहीं हुई है ....ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया /ये इन्सान के दुश्मन समाजों की दुनिया /ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया /ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है
वाह्ह, वाह्ह और फिर वाह्ह्ह!

चुरा लिया है तुमने जो दिल को, इतना तो याद है मुझे, चलो दिलदार चलो, तेरी बिंदिया रे, तुम जो मिल गए हो, आज मौसम बड़ा बेईमान है, दीवाना हुआ बादल....जैसे हजारों गीतों की लम्बी श्रृंखला है जहाँ अपना सबसे प्रिय गीत चुन पाने से दुरूह कार्य और कुछ नहीं! छोड़ ही दीजिए.

सच तो यह है कि रफ़ी साब के युग को कुछ शब्दों में समेट लेना न तो आसान है और न ही संभव. यह तो बस स्नेहसिक्त प्रयास भर है उनकी आवाज़ को दिल से सुनने, सलाम करने का!
ठीक ही कहा था आपने, 'तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे /हाँ तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे /जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे/ संग संग तुम भी गुनगुनाओगे'
गुनगुना रहे हैं, सर! :) हम सबका स्नेह और धन्यवाद क़बूल करें.
-प्रीति 'अज्ञात'

2017 में लिखे इस आलेख को ichowk की इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -

रविवार, 15 दिसंबर 2019

चाय पे अराजनीतिक चर्चा


चाय का पहला घूँट, किसने कब लिया था, यह तो याद नहीं होगा. पर इतना तो आप सबको जरूर याद रह गया होगा कि बचपन में गर्मियों या दीवाली की छुट्टियों में जब-जब ददिहाल या ननिहाल जाना हुआ है, तब-तब भगोना भर खदकती चाय से सामना होता रहा है. चूल्हे पर चढ़ी चाय, घूँघट काढ़े परिवार की स्त्रियाँ अपनी-अपनी मांओं का आँचल पकड़े घर के भुक्खड़ बच्चे और आसपास चहलक़दमी करते पुरुष; संयुक्त परिवार की यह सबसे ख़ूबसूरत और नियमित तस्वीर हुआ करती थी.
सर्दियों में अदरक वाली चाय की महकती ख़ुशबु का जादू ही कुछ ऐसा था कि हड्डियों को ठिठुरा देने वाली सर्दी भी बड़ी भली लगती थी. चाय के सामने आते ही स्वेटर की बाहों में कुंडली मारे छुपे दोनों हाथ रेंगते हुए बाहर आते और लपककर कुल्हड़ को थाम लेते. कुल्हड़ में आ जाने के बाद चाय की महक़ और स्वाद दोगुना बढ़ जाता. परिवार इकठ्ठा बैठता, ठहाके लगते और चाय का चूल्हे पर चढ़ना-उतरना, लगभग दो घंटे की शॉर्ट फिल्म की तरह चलता.
कुछ नवाबी सदस्य देर से उठते और अंगड़ाई लेते हुए सीधा रसोईघर या आंगन की तरफ खिंचे चले आते. उनकी अलसाई पलकों से एक ही प्रश्न झांकता, "चाय बन गई क्या? हाँ, मेरी छान दो." चाय के साथ थाली भर-भर घर के बने चिप्स, सूखा नाश्ता या गरमागरम पोहा परोसा जाता, तो कभी कचौड़ी-समोसे का लम्बा दौर चलता जो जलेबी के आने तक जारी रहता. अजीब लगते हैं न वो दिन, कैसे सब कुछ हज़म कर जाते थे! फिर उसके बाद भोली आँखों से यह पूछना भी कभी न भूलते कि 'आज खाने में क्या है?"
चाय के साथ सिर्फ़ बातें ही नहीं होती थीं, दिल भी जुड़ते थे. इस चाय ने घर को कैसे बांध रखा था! इसका हर सिप एक नई ताजगी देता था. चाय पर चर्चा, हंसी-ठट्ठा और कभी-कभी गंभीर वार्तालाप घर-घर की कहानी थी. बेहद सुहानी थी.
समय के साथ-साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया तो चाय पर इसका असर होना स्वाभाविक ही था. यह भी ठिठककर ग्रामीण कुल्हड़ से कंफ्यूज गिलास और फिर शहरी कप में आन बसी. बीते चार दशकों में इसकी जितनी वैराइटी आई हैं उतनी वैराइटी तो हमारे नेताओं में भी देखने को नहीं मिलती (यह सुखद है).
पहले चाय का मतलब सिर्फ़ चाय ही होता था. बढ़ती महंगाई ने इसकी ऊंचाई घटाकर इसे 'कटिंग' बना दिया और अब इस 'कटिंग' को भी रेलवे वाले 'चम्मच' बनाने पर तुले हुए हैं. दस रुपये में घूंट भर चाय पीकर ऐसा लगता है कि उन्होंने हमें सर्दी से बचाने के लिए दो चम्मच पत्ती वाला सिरप दे दिया हो. पहले हर स्टेशन पर चाय पीने की जो लत थी, वो टीवी चैनलों की कृपा से छूटती जा रही है. उन्होंने ही सबसे पहले यह ज्ञान दिया था कि हम चाय नहीं 'ज़हर' पी रहे हैं.
मिलावटी सामग्री और केमिकल के इस्तेमाल की ख़बर ने घर से बाहर उपलब्ध चाय के सम्मान में गिरावट लाई ही थी कि घरों में भी चायवादी गुट बन गए. सबकी अपनी मांगें हैं. किसी को ब्लैक टी चाहिए तो किसी को ग्रीन. किसी को कम दूध वाली तो किसी को ज्यादा दूध वाली. कभी स्ट्रॉन्ग (इसका तात्पर्य आज तक समझ नहीं आया पर इसका श्रेय लिप्टन 'टाइगर' चाय को ही जाना चाहिए) तो कभी मीठी. मधुमेह के रोगियों के लिए बिना चीनी वाली. 'आइस्ड टी' के प्रशंसकों की भी कमी नहीं. एक समय 'डिप' वाली चाय का गंभीर दौर भी चला था. हम जैसे चाय प्रेमियों ने इसे 'जैक एन्ड जिल' वाली राइम की तरह तुरंत ही याद भी कर लिया था. जो इतने वर्षों बाद भी आज तक याद है - "dip,dip... add the sugar & milk... and is ready to sip... do u want stronger, dip it little longer... dip, dip, dip."
वैसे चाय को मध्यम वर्ग का पसंदीदा पेय बनाने का श्रेय ज़ाकिर हुसैन को जाता है. चाय पीते-पीते मुंह से जो 'वाह' निकलती है, इस लफ्ज़ की अदायगी हम सबने ज़ाक़िर साब से ही सीखी है. बाद में उर्मिला मातोंडकर भी आईं, पर विज्ञापन में उनकी चाय का कप खाली होने का संदेह होता था. बल्कि दिखता ही था कि उन्होंने खाली कप ही उठाया है. लेकिन 'ताज' का असर और यादें आज भी ताजा हैं. कंपनियों ने चाय की बढ़ती ख़पत देख, शुगर-फ्री लांच कर दिया... यानी सबका साझा प्रयास यही रहा कि चाय का साथ कभी न छूटे... 'प्राण जाए, पर चाय न जाए' की तर्ज़ पर''.
कहते हैं जो पति, अपनी पत्नी को मॉर्निंग टी बनाकर देते हैं, उनका जीवन बड़ा ही सुखमय गुज़रता है.
बॉलीवुड ने भी चाय को हाथोंहाथ भुनाया है. "शायद मेरी शादी का ख्याल, दिल में आया है... इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पे बुलाया है" गीत में टीना मुनीम, राजेश खन्ना को चाय पर बुलाने का सामाजिक अर्थ समझा रहीं हैं. तो "इक गरम चाय की प्याली हो, कोई उसको पिलाने वाली हो' में अनु मलिक, सलमान के माध्यम से सिने प्रेमियों को चाय की आड़ में गृहस्थ जीवन में प्रवेश का सुविचार बताते दृष्टिगोचर होते हैं.
निष्कर्ष यह है कि चाय के घटते-बढ़ते स्वरुप, पात्र के प्रकार और आकार, विविध विज्ञापनों का युग, स्वाद का ड्रास्टिक मेकओवर, ट्रेन में बार-बार उबालकर परोसे जाने के बावज़ूद भी, किटली कल्चर का आगमन इस तथ्य की ओर सीधा संकेत देता है कि इस गर्म पेय का भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल और सुनहरा है.
अतिथि के आने पर घर में कुछ न हो, कहीं जाने की जल्दी हो; तब भी हम इतना अनुरोध तो अवश्य ही करते हैं, "अरे, चाय तो पीकर जाइए." जब दो मित्र साथ बैठते हैं तो सबसे पहली बात यही, "चल, चाय पीते हैं."
अपने जीवन को रिवाइंड कीजिए, एक कप चाय ने कितने स्नेहिल दिलों से मिलवाया होगा.
चाय हमारी संस्कृति है, सत्कार का संस्कार है, एक तरल बंधन है जो मिल-बैठकर बात करने को उत्साहित करता है, स्नेह बढ़ाता है. रिश्तों को नई उड़ान देता है. चाय से सुबह की ऊष्मा है, दोपहर की ऊर्जा है और शाम की थकान को दूर भगाती तरावट है. चाय सच्चे साथी की तरह हमें अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करती है. चाय है, तो दिन है.. चाय नहीं, तो रात है! ये हमारे मन की बात है!
- प्रीति 'अज्ञात' (Dec.2017)
#Repost *Photo Credit- Google
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

बस...अब और नहीं

रेप का विरोध करने वालों और अपराधियों को दंड देने के लिए धरना देकर बैठने वालों को घसीटकर हटाया जाता है लेकिन बलात्कारियों के हाथ थाम, उन्हें पूरी सुरक्षा मुहैया कराते हुए बाइज़्ज़त उनकी ससुराल पहुँचाया जाता है। यहाँ वे मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ते हुए सकुशल समय बिताते हैं और बाहर आते ही पीड़िता को ज़िंदा जला देते हैं। वे जानते हैं कि इस बार भी उन्हें वर्षों से चले आ रहे लचर न्याय-तंत्र का उत्तम संरक्षण प्राप्त होगा। 
 
पीड़िता का गुनाह यह कि उसने रेप की शिकायत पुलिस से कर दी। 
पीड़िता का गुनाह यह कि उसने न्याय-व्यवस्था पर विश्वास किया। 
पीड़िता का गुनाह यह कि उसने अपने जीवन को जीने की हिम्मत रखी और बलात्कारियों के विरोध में खड़े होकर सच कहने से नहीं हिचकिचाई!
पीड़िता का दुर्भाग्य यह कि जिस समाज के बीच उसने ये सच कहा, उन्हीं के सामने वह चीखती-जलती हुई चलती रही और सबने तमाशा देखा। 
पीड़िता का दुर्भाग्य यह कि उसी असहनीय पीड़ा के साथ उसने स्वयं सहायता के लिए फ़ोन लगाया। 
पीड़िता का दुर्भाग्य यह कि उसने उस शहर में आवाज उठाई जहाँ का विधायक स्वयं दुष्कर्म में लिप्त हो ठसके से घूमता रहा है।

झूठों और मक्कारों  की दुनिया में सच का कोई मोल नहीं!
आम इंसान के जीवन का भी कोई मोल नहीं!  
वे लोग जिनसे हम न्याय के लिए गिड़गिड़ाते हैं, उन्होंने ख़ुद को सबका ख़ुदा समझ लिया है।  
ये कैसा समय है कि सीमाओं पर सैनिक देश के लिए जान दे रहे हैं और सीमाओं के भीतर स्त्रियों की जान ली जा रही है। 

सौ बार सोचती हूँ कि अब कभी नहीं लिखूँगी। अच्छे से जान गई हूँ कि ये आक्रोश न तो ख़त्म होगा और न ही इससे कोई समाधान ही निकलेगा। पर इन दिनों स्त्रियों की जो मनःस्थिति हो रही है वो एक स्त्री से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता! उससे होता क्या है पर!! नहीं लिखना है अब कुछ और... 
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

दुर्योधन और दुःशासन का बोलबाला मगर कृष्ण नदारद!

हर 15 मि. में एक रेप
प्रति घंटे 4 रेप
प्रत्येक दिन लगभग 90 मुक़दमे दर्ज़
और प्रत्येक माह 2700 महिलाओं से रेप
क्या कीजियेगा, देश की बेटियों को बचाकर?
रेप????
और ये तो वे आंकड़े हैं जो लिखित हैं. वे जिन्हें कभी दर्ज़ ही नहीं किया गया, उनकी सोचें तो रूह काँप उठेगी.

नोटबंदी में पूरे देश को रातोंरात लाइन में खड़ा कर दिया!
चालान के भय से पूरे देश के लोग एक घंटे में नियम समझ दूसरों को समझाने लगे. 
GST सबके दिमाग में जबरन घुसा दिया गया.
सारे कानून को ताक़ पर रख सुबह तक नये मुख्यमंत्री का जन्म हो गया.
लेकिन वैसे कानून के आगे सबके हाथ बंधे हैं? 
क्या सरकारें, उनकी अकर्मण्यता के किस्से सुनने को चुनी जाती हैं? या हर समय उनकी तारीफ़ के झूठे पुलिंदे बाँध उनकी नज़रों में चमककर केवल अपना भला सोचने वाले चाटुकार बनना ही हम सबका कर्त्तव्य है?

आप अपराधियों के अंदर भय पैदा कीजिये, बलात्कारियों को सरेआम मृत्यु दंड दीजिये फिर स्वयं देखिये कि कमी आती है या नहीं!
मात्र कड़ी निंदा करने से समस्या नहीं सुलझ जाती! गहरा दुःख व्यक्त करना भी काफ़ी नहीं! मन की बात बहुत हुई, अब जन की बात भी सुनिए, जनता की पीड़ा समझिए, उनके भय के अंदर झाँकिये.
बहुत हुआ मन्दिर-मस्ज़िद! यथार्थ के धरातल पर जनता को अब अपराधियों के ख़िलाफ़ एक्शन की दरकार है.
एक बार सारे अपराधियों को सामूहिक फाँसी देने की हिम्मत कीजिये.  पूरा देश और आने वाली पीढ़ियाँ आपको युगों तक याद रखेंगीं.

जिनके हाथों हम देश सौंपते हैं, बदले में वे हमें क्या देते हैं? असुरक्षा, भय और बेटियों की जली हुई लाशें!
सहिष्णुता की और कितनी परीक्षा दे आम आदमी??
यदि सरकार देश नहीं संभाल सकती, पुलिस सुरक्षा नहीं दे सकती और न्याय तंत्र अपने आँखों की पट्टी खोल वीभत्स अन्याय को भी नहीं देख पाता! अपराधी सामने खड़े होने पर भी वर्षों तक कानूनी पाठ पढ़े जाते हैं तो माफ़ कीजिये, ये आपके बस की बात ही नहीं रही! आप एक-दूसरे की दुहाई देकर राजनीतिक रोटियाँ सेकिए,अब जनता अपना हिसाब खुद ही कर लेगी!
दुर्भाग्य है कि इतिहास में यह समय 'बलात्कार युग' के नाम से जाना जाएगा. जहाँ दुर्योधन और दुःशासन का बोलबाला था और कृष्ण नदारद!
गाँधी के देश की ये कैसी तस्वीर है कि 'गाँधीगिरी' के कट्टर समर्थकों ने भी अब हाथ खड़े कर दिए हैं. सच यही है कि जनता की सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है जो अब समाप्त हो चुकी है. राजघाट पर आमरण अनशन पर बैठी महिलाओं को देख बापू का हृदय भी रोता होगा. आज यदि वे जीवित होते तो स्वयं आगे होकर भारत की बेटियों के हाथ में लाठी थमा उनसे अत्याचार का विरोध करने और अत्याचारी का सिर क़लम करने को कहते. 

कितना अच्छा होता यदि देश की शीर्षस्थ महिलाएँ, नेता, पत्रकार सब एकजुट हो आमरण अनशन पर बैठ, बलात्कारियों के लिए तुरंत दंड की माँग करते लेकिन क्यों बैठें, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जो आड़े आती है! सत्ता के विरुद्ध एक शब्द भी बोल दिया जाए तो राष्ट्रहित की बातें चीख-चीखकर सुनाई जाती हैं लेकिन बलात्कार के ख़िलाफ़ बोलने में इसी ज़ुबाँ को लकवा मार जाता है! ये राज्य के आधार पर बोलना तय करते हैं.
हिन्दू-मुस्लिम करते समय इनकी छवि चमकने लगती है क्या?

जनता भी ख़ूब समझती है कि ढोंगी नेताओं का एक ही मन्त्र है, 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता'. 
वरना अगर ये सब वहाँ अड़ जायें तो क्या मजाल कि अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हों कि उन्हें किसी का डर ही नहीं! पर अपराधों के उन्मूलन से जुड़कर कौन अपने राजनीतिक कैरियर की अंत्येष्टि करेगा! यही इस देश का सच और जनता का दुर्भाग्य है!
देशवासियों की हिम्मत, दिल और विश्वास तीनों टूट चुके हैं. कौन जोड़ेगा इसे?
- प्रीति 'अज्ञात'