समय का खेला देखिए कि कहाँ हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिंतित थे लेकिन अब देसी स्तर पर दुखी होना पड़ रहा है। हमने तो रूस- यूक्रेनयुद्ध की चिंता में स्वयं को भयानक रूप से व्यस्त कर रखा था कि बुलडोज़र अंकल ने मस्तिष्क के चारों प्रकोष्ठों के द्वार जोरों से खटखटा दिए। अब यूक्रेन को तो समझदार एवं मतलबपरस्त दुनिया ने भी छोड़ ही रखा है, यह सोच मन को तनिक समझा लिया है। पर राष्ट्रहित के नाते, एक सच्चे देशवासी का 'लोकल पे वोकल' होना परमावश्यक है। ये हमारे देश की और इसकी जांबाज़ मीडिया की ही ताक़त है कि प्रत्येक ज्वलंत मुद्दे से खटाक से फोकस बदल दिया जाता है।
यहाँ आपको कुछ जन की और कुछ मन की बातें मिलेंगीं। सबकी मुस्कान बनी रहे और हम किसी भी प्रकार की वैमनस्यता से दूर रह, एक स्वस्थ, सकारात्मक समाज के निर्माण में सहायक हों। बस इतना सा ख्वाब है!
गुरुवार, 21 अप्रैल 2022
माननीय बुलडोज़र जी की अलौकिक महिमा
रविवार, 3 अप्रैल 2022
शराबबंदी: अब पाप के प्रायश्चित का समय आ चुका है!
बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार जी ने हाल ही में शराबबंदी को लेकर एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा, ‘जो लोग बापू की भावनाओं को नहीं मानते, शराब का सेवन करते हैं उनको मैं हिंदुस्तानी ही नहीं मानता! ऐसा करने वाले काबिल तो हैं ही नहीं, वे महा-अयोग्य और महापापी हैं।’ उनके इन शब्दों को कुछ लोग बेहद हल्के में ले रहे हैं। इसकी खूब खिल्ली भी उड़ाई जा रही है। नीतीश कुमार के बयान पर आ रही प्रतिक्रिया को मैं हमारे समाज से जोड़कर समझना चाहती हूँ। जानना चाहती हूँ कि जो लोग इस बयान पर हँस रहे हैं उनकी मानसिकता कैसी है! वे शराबबंदी जैसे विषय पर सतही तर्क क्यों दे रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘शराब पीना महापाप है’ सुनकर हँसने वाले स्वयं ही नशे में हैं।
शराब यदि इतनी ही भारतीयता से भरी होती तो इसे पीने वाले छुपते नहीं! ये धड़ल्ले से बिकती भले ही हो लेकिन हमारे समाज में इसका सेवन सदैव ही गलत माना जाता रहा है। इसे छुपाकर लाया जाता है, छुपाकर ही रखा जाता है और पीने वाले भी यह सुनिश्चित करते हैं कि पीते समय पकड़े न जाएं! छुपकर अपराध होता है, समाज-सेवा नहीं! भारतीय परिवारों में इसको स्वीकार्यता नहीं प्राप्त हुई है और हो भी क्यों? शराब पीकर किसी का भला हुआ है क्या?
पीने वाले इसे क्यों पीते हैं? क्या इसके औषधीय गुणों के लिए? वह पेय जिसे ग्रहण करने के बाद आपका मन-मस्तिष्क अपना संतुलन खो बैठे, आत्मबल शून्य हो जाए, वह स्वास्थ्य की दृष्टि से तो कतई लाभदायक नहीं है। न ही इसके बाद कोई सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। सब जानते हैं कि शराब के अत्यधिक सेवन से देह शिथिल हो जाती है और व्यक्ति अपने होश खो बैठता है। ऐसी स्थिति में वाहन चलाते हुए दुर्घटनाग्रस्त होने की या किसी को कुचल मार डालने की अनगिनत घटनाओं के हम साक्षी हैं। नशे की आड़ में तमाम अपराधों को अंजाम दिया जाता है। घरेलू हिंसा के अधिकांश किस्सों की जड़ में शराब की भी भूमिका रही है। शराबी का परिवार नकारात्मक माहौल में रहने को अभिशप्त रहता है तो इसे पीने वालों को महा-अयोग्य और महापापी क्यों न कहा जाए!
बापू की याद दिलाकर कौन सा पाप कर दिया, नीतीश जी ने? उनके कथन का उपहास उड़ाकर हम महान नहीं बन रहे बल्कि एक ऐसी वस्तु का समर्थन कर रहे हैं जिसने असंख्य जीवन नष्ट कर दिए। समाज का सिस्टम ऐसा है कि हर वस्तु का नकली और सस्ता संस्करण साथ ही तैयार कर लिया जाता है फिर भले ही उसके लिए किसी की जान से खिलवाड़ ही क्यों न करना पड़े! अवैध शराब का बनना और भारी मात्रा में बिकना इसी का उदाहरण है। उसके बाद लोग मरते हैं तो मरें, किसको फ़र्क़ पड़ता है! मरने वालों में ज्यादातर तो मजदूर वर्ग के होते हैं जो चंद रुपयों के लिए दिन भर खटते हैं। उस यातना को भुलाने के लिए जैसे मर ही जाना चाहते हैं, तभी पी लेते होंगे!
कुछ लोग अपनी कमी से मुँह चुराने के लिए नशा करते हैं। असफ़लता के बाद नशा करते हैं। प्रेम में दिल टूटने के बाद नशा करते हैं। ग़म भुलाने के लिए पिए जाते हैं! लेकिन दुख पीछा छोड़ता नहीं क्योंकि अब शराब की लत और जुड़ जाती है।
मनुष्य की सोच, उसकी समझ ही उसकी शक्ति है लेकिन शराब उसे क्षीण कर देती है। ऐसे में शराब नहीं पीने की बात, यदि किसी सरकार की तरफ से आई तो क्या गलत? आगाह ही तो कर रही आपको। इस वैधानिक चेतावनी को समझिए और इससे होने वाले गुण-दोषों की सूची बनाइए तो संभवतः कथ्य के मर्म तक पहुँच सकें!
हमें तो रोज इस नशाखोरी को कोसना चाहिए। रोज यह प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रत्येक राज्य शराबमुक्त हो, नशामुक्त हो। क्योंकि अभी तो चाहे गुजरात हो या बिहार, शराबबंदी होने से वहाँ नशा बंद नहीं हुआ है! पड़ोसी राज्य हैं न मदद को! उस पर एक संगठित तंत्र है जो आपकी सेवा को सदा तत्पर रहता है।
कई सरकारें ये दलील देती हैं कि शराब से उन्हें राजस्व प्राप्त होता है, जिससे वे समाज कल्याण के काम करते हैं। यह बेतुका तर्क है। इतना ही नहीं, किसी का जीवन बर्बाद करने की सामग्री को उपलब्ध कराकर, फिर उससे मुक्ति के केंद्र भी खुलवाए जाते हैं। उस पर आत्मसंतुष्टि का आलम यह कि वैधानिक चेतावनी तो दे ही दी गई है!
एक स्वस्थ और संपन्न समाज, बापू का सपना था। अब बापू के इस देश को शराब के नशे से मुक्त रखने का प्रण होना चाहिए और यह क़दम केंद्र सरकार की तरफ़ से उठे, तब स्थिति बेहतर होगी। जब वस्तु, उपलब्ध ही नहीं होगी और न ही उसके विकल्प होंगे, तभी मुक्ति मिलेगी। नीतीश जी ने जो कहा, वह प्रशंसनीय है। लेकिन अब पाप के प्रायश्चित का समय आ चुका है। समय आ गया है कि पूरा देश इस पर एकमत हो। नागरिकों के अच्छे दिन लाने के लिए, नशाबंदी एक ठोस एवं आवश्यक क़दम होगा। देखना यह है कि ‘जहाँ पैसा ही भगवान है’, वहाँ वैधानिक चेतावनी देकर या ‘उड़ता पंजाब’ जैसी फ़िल्में बनाकर ही देश आगे बढ़ता रहेगा या कि देशवासियों के खुशहाल जीवन और उत्तम स्वास्थ्य हेतु सचमुच परिवर्तन की कोई आस रखी जा सकती है!
- प्रीति अज्ञात
'हस्ताक्षर' अप्रैल 2022 अंक में प्रकाशित संपादकीय
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युद्ध जीतना है? मानवता को हरा दो!
पाँच हजार कि.मी. दूर रूस-यूक्रेन में युद्ध चल रहा है और यहाँ भारत में एक परिवार की दुनिया उजड़ गई। खबर आई कि कर्नाटक के मूल निवासी नवीन शंकरप्पा, जो यूक्रेन के खारकीव शहर में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे थे, रूसी गोलाबारी की चपेट में आ गए। जब उन पर रूसी रॉकेट गिरा तब वे एक राशन की लाइन में खड़े थे। जी हाँ, वे अपने आटे-दाल का इंतजाम करने के लिए बंकर से बाहर निकले थे। एक मौलिक जरूरत पूरी करने की गरज से निकला वह युवा दुनिया की सबसे गैर-जरूरी चीज़ ‘युद्ध’ की वजह से दुनिया से चला जाता है।
खारकीव में दिवंगत हुआ नवीन भारतीय था, इसलिए हमारी संवेदनाएं इस सुदूर युद्ध के प्रति बढ़ गई हैं। जिसे कल तक हम तमाशबीन बने देख रहे थे, आज उस युद्ध के प्रति अचानक भावनाएं उमड़ने लगी हैं। लेकिन, क्या युद्ध की विभीषिका के प्रति हमारी प्रतिक्रिया उसके हम पर पड़ने वाले असर पर आधारित होनी चाहिए? यानी, हमारी सीमा पर युद्ध लड़ा जा रहा हो तो अलग बात रहेगी, और पाँच हजार किमी दूर है तो अलग? युद्ध पर हमारी सहज प्रतिक्रिया इतनी अशुद्ध क्यों है?
इस समय कीव में जो अफ़रातफ़री का आलम है, उसने जैसे अफगानिस्तान की सारी तस्वीरें सामने रख दी हैं। वही कहानी अब नए चेहरों के साथ दोहराई जा रही है। मनुष्यता की इससे बदतर तस्वीर और क्या होगी! लोग बदहवास हैं। रेलवे स्टेशन पर भगदड़ मची हुई है। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में हैं। स्थानीय नागरिकों की एक-दूसरे से लिपट रोने की कितनी ही खबरें वीडियो बन सामने आ रहीं हैं। उन रोती-बिलखती आँखों में आशंका में डूबे अनगिनत स्याह प्रश्न हैं, भय है कि न जाने अब अपनों से कब मिल सकेंगे! जानें कभी मिलेंगे भी या नहीं! प्रश्न तमाम हैं लेकिन उनके उत्तर धमाकों की आवाज और बारूद के गुबार में कहीं खो चुके हैं।
क्या युद्ध के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता?
युद्ध, पहला विकल्प है या आखिरी? क्या इसका होना, सही सिद्ध किया जा सकता है कभी? दरअसल सबसे बड़ा पाप तो युद्ध में सही/ गलत ढूँढना या इसका पक्ष/ विपक्ष तय करना ही है। हमे कैसे समझा दिया जाता है कि ये तो होना ही था! ये तो जरूरी ही था! समझ नहीं आता कि सारे रास्ते खुले होने के बाद भी महाशक्तियाँ लड़ने को इतनी उतावली क्यों रहती हैं?
मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसके पास न केवल सोचने-समझने की शक्ति है बल्कि अभिव्यक्ति के सारे माध्यम भी खुले हुए हैं। मनुष्य रूप में इस धरती पर आना ही ऐसा अकेला भाव और घटना है कि इस योनि में जन्म लेने का जश्न मनाया जाता है। उस वक़्त किसे पता होता है कि जन्म पर खुश होता ये मानव समाज एक दिन स्वयं ही मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा।
आखिर ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो किसी को युद्ध की दहलीज पर लाकर खड़ा कर देती हैं? बुद्धि से भरपूर होते हुए भी मानव प्रजाति के सारे संवाद इतने कमजोर क्यों पड़ जाते हैं कि तलवारें खिंच जाए, खून बहने लगे पर अकड़ बरकरार रहे। प्रभुत्व या सत्ता की लड़ाई की कीमत क्या है और इसने हमें कहाँ ला छोड़ा है! आक्रमण और अतिक्रमण का परिणाम क्या है? जबकि सब जानते हैं कि युद्ध को शुरू करना तो आसान है पर खत्म करना नहीं।
क्या सच में कोई विजयी होता है?
महाभारत के समय से हमने भी इसे महिमामण्डित कर रखा है। लेकिन क्या कभी इस तथ्य पर विचार किया कि सारे कौरवों के मरने के बाद पांडवों ने कहाँ राज किया होगा? क्या उन्हें सुख मिला होगा? राम सीता को ले आए पर उस लंका का क्या हुआ?
क्या एक की हैप्पी एंडिंग दूसरे का दुख नहीं? क्या बिना किसी को खलनायक बनाए जीता नहीं जा सकता? क्या यह संभव नहीं कि इस प्रक्रिया में एक कुशल संवाद स्थापित किया जाए!
दो देशों की लड़ाई में हम देश को रेखांकित कर सकते हैं। सैनिकों और आम नागरिकों की लाशे, तबाही के मंज़र का हिसाब लगाकर ‘कौन जीता कौन हारा’ भी तय किया जा सकता है। परंतु क्या सच में कोई जीतता है? जीतने वाले की ये कैसी जीत है जो किसी को मारकर मिली!
यूक्रेन और रूस की लड़ाई का जो परिणाम हो सो हो पर जो निर्दोष लड़का मारा गया, उसका परिवार तो उसी वक़्त अपने जीवन का हर युद्ध हार गया। हम हार गए।
क्या हम सबसे दुर्भाग्यशाली पीढ़ी के नागरिक हैं?
मनुष्य जन्म लेने का यदि यही परिणाम है तो जानवर हमसे कहीं बेहतर हैं। हमने अब तक महामारी और युद्ध किताबों में ही पढ़े थे। पर बीते दो वर्षों में कोरोना महामारी के आगे घुटने टेकते बेबस दुनिया को देखा है। लाशों के अंबार को देखा है। और एक पल को लगा कि शायद अब हम कुछ बेहतर इंसान बन सकेंगे, इससे कुछ तो सीख लेंगे। हमने अफगानिस्तान में मची तबाही भी देखी है। वहाँ हमको सर्वनाश होते हुए दिखाई दिया, पर हमने होने दिया। मतलबी दुनिया तब भी चुप रही। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम मानव, दूसरे की लड़ाई में मजे लेने वाली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हम पड़ोस की लड़ाई में खिड़कियाँ खोल झांक तो लेते हैं पर मदद की गुहार अनसुनी कर यही खिड़की झट से बंद करने से भी नहीं चूकते!
रूस-यूक्रेन का युद्ध नहीं रुक रहा है, इसलिए हिम्मत नहीं हो रही है इस संपादकीय में पूर्ण विराम लगाने की। मन डर रहा है, उस पूर्ण विराम के बाद की आशंकाओं को लेकर। युद्ध में रत लोगों की खून की प्यास बुझी नहीं है। ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे। विनाशलीला का यह तांडव अब थम जाए। किसी का लहू न बहे क्योंकि सब बेगुनाह जन्मे हैं।
हमें तय करना होगा कि या तो सत्य, अहिंसा, प्यार, विश्व बंधुत्व की बातें धोखा हैं या फिर युद्ध करना कर्म नहीं, कुकर्म है। हम एक हाथ में बम लेकर दूसरे से कबूतर नहीं उड़ा सकते। यह विशुद्ध अशुद्ध है, पाप है। युद्ध का तमाशा देखना, मानवता की सबसे क्रूर विकृति है। यदि मनुष्य होने का हासिल यही है तो फिर पाया ही क्या है हमने?
- प्रीति अज्ञात
'हस्ताक्षर' मार्च 2022 अंक में प्रकाशित संपादकीय -
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चुनाव ही ज़िंदगी है, है न?
सुबह अलार्म बज गया है, आँखें खोलें या थोड़ी देर और सो लें? चाय-बिस्कुट सामने है, पहले एक चुस्की ले लें या बिस्कुट कुतर लें? अखबार का पहला पन्ना खोल, पहले हेडलाइन देख लें या फोटो निहार लें?… असंख्य चुनावों को रोज जीते हैं हम। इन्हीं पर खुश होते, इन्हीं पर पछताते हैं हम। कभी चुनाव को लपकते, और कभी चुनाव से कतराते हम। अपने चुनावों पर आँखें फाड़े विचार करते, और उन्हीं को नज़रअंदाज़ करते हम। चुनाव ज़िंदगी है, उसको जीने का सलीक़ा सीखते हम।
होता है, न! जब रात की नीम बेहोशी के बाद सुबह आँख खुलती है और एक नया सवेरा दस्तक़ देता है। उसी दौरान हम सहज भाव से बिस्तर पर पड़े हुए ही अपने लिए यह चुनाव कर लेते हैं कि आज क्या-क्या करना है। यदि हमारी योजना सही है तो उस दिन को एक सुंदर दिन बनने से कोई नहीं रोक सकता! तात्पर्य यह कि चयन हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। सब्जी-भाजी से लेकर, कपड़े-लत्ते तक, हम अपनी सुविधानुसार प्रतिदिन कुछ न कुछ चुनते आए ही हैं। रेस्टोरेंट में क्या खाना है, उस पर भी गंभीरता से सोच विचार करते हैं लेकिन कुछ चुनाव ऐसे हैं जो हमारा जीवन बदल सकते हैं। उन्हें हम कपड़ों के रंग की तरह नहीं चुन सकते हैं।
‘चयन’ की यही महत्ता है। सही चयन ही हमारे जीवन की दशा और दिशा तय करता है।
उत्तम शिक्षा का चुनाव इन्हीं में से एक है। सही शिक्षा, हमें भाषायी सभ्यता की ओर ले जाती है। हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाती है। प्रतिकूल परिस्थिति में भी यह हमें अभद्रता, अशिष्टता से मीलों दूर रखती है। हमारे भविष्य के निर्माण की महत्वपूर्ण सीढ़ी, यह शिक्षा ही है। हमें हमारे बच्चों के लिए महंगे विद्यालयों से अधिक फोकस इस तथ्य पर करना चाहिए कि उन विद्यालयों, महाविद्यालयों का वातावरण कैसा है। यह तो जानी हुई बात है कि परिवार के साथ-साथ एक अच्छा शिक्षक ही हमारे व्यक्तित्व निर्माण को प्रभावित करता है। हम आज जो कहते, करते या सोचते हैं, हमारे ये संस्कार कोई आज अचानक हुई बात नहीं है। इसके बीज तो हमारे विद्यालय के प्रथम दिन से ही पड़ने प्रारंभ हो गए थे।
हमारे मित्र कैसे हों? इस बारे में सोचना भी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि हमारे जीवन का रंगहीन या रंगीन बनना उनके चयन पर निर्भर करता है। बच्चे के बुरे व्यवहार को ढकते हुए कितनी सरलता से आक्षेप मढ़ दिया जाता है कि सब इसके दोस्तों की ‘संगत का असर’ है। ऐसा कहकर माता-पिता ने स्वयं को तो दोषमुक्त कर लिया, पर उस बच्चे का क्या! क्या हमने उसे अच्छे मित्र की पहचान का पाठ कभी पढ़ाया? हमने कभी कहा कि बेटा, जो गरीबी और दुख में भी तुम्हारे साथ अडिग खड़ा है, वही तुम्हारा सच्चा मित्र है। जो तुम्हारी गलतियों पर दुनिया के सामने प्रश्नचिह्न नहीं लगाता बल्कि तुम्हें प्यार से समझाता है और सुधारने के लिए प्रेरित भी करता है, वही सही मायनों में तुम्हारा अपना है। बात बच्चों तक ही सीमित नहीं है। उम्र के किसी भी मोड़ पर हम खड़े हों, स्वार्थी एवं नकारात्मक दोस्तों से एक निश्चित दूरी बनानी ही होगी।
कहते हैं ‘प्रेम अंधा होता है’, यह कहकर नहीं होता। मैं भी मानती हूँ कि कब कोई अचानक ही अच्छा लगने लगता है और हम दिल के हाथों विवश हो जाते हैं। प्रेम पर सचमुच किसी का बस नहीं! लेकिन प्रेम में भी संभलकर चलना बहुत जरूरी है। प्रेम डगर आसान कतई नहीं होती। इसलिए जीवनसाथी के चुनाव में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। धड़कते दिल के साथ, दिमाग की सारी बत्तियाँ भी जलती रहें। प्रेम के पलों से हसीन कुछ नहीं होता लेकिन जीवन अलग ही शर्तों पर चला करता है। यहाँ निराशा, हताशा और अवसाद के पल भी हैं। क्या उन पलों में आप अपने साथी के सिर पर कांधा रख रो सकते हैं या उन्हें झटक दिया जाएगा? आपकी सफ़लता में आपका साथी उतना ही प्रसन्न होता है, जितने आप हो या कि उसकी मुस्कान खोखली है? उसे आप पर विश्वास है या कि छोटी-छोटी बातों पर भी उसके मन में संदेह घर कर लेता है? इन प्रश्नों के उत्तर ही हमारे जीवन को संवार या बिगाड़ सकते हैं। इसलिए सही साथी का चयन, हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। वैसे तो मैं प्रेम विवाह के पक्ष में हूँ पर यदि माता-पिता तय करते हैं तो उनको भी लड़के/लड़की के परिवार, नौकरी, मासिक आय के साथ-साथ संबंधित पक्ष का सामाजिक व्यवहार भी समझ लेना चाहिए। उनके सही चुनाव पर उनके बच्चों का भविष्य टिका है।
कई बार रिश्ते इतने कड़वे हो जाते हैं कि जीना दूभर लगने लगता है। कभी यूँ भी महसूस होता है कि ‘इस दुनिया में हमारा कोई नहीं!’ या कि ‘हमारे जाने से किसी को कोई भी फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला!’ इसका कारण कुछ भी हो सकता है, व्यक्ति की बेरोज़गारी, नौकरी का छूटना, परिवार या मित्रों से तनाव, कर्ज़, अपने साथ हूए यौन अपराध की पीड़ा, घुटन, विवशता! दुखों की एक ऐसी लंबी सूची हम सबके पास है जो हमें जब चाहे कुंठा, अवसाद और घोर निराशा के भंवर में फेंक सकती है। उस दुख से उबरने का सबसे पहला तरीक़ा यही नज़र आता है कि ‘मर जाएँ!’ लेकिन ठहरकर सोचिए कि जब हमने इस जीवन में पहला क़दम रखा था तब कितने निर्दोष मन के और प्रसन्न रहे होंगे हम। लेकिन जबसे हमने अपेक्षाओं का चयन किया, दुख घेरता चला गया। यह जीवन किसी भी पीड़ा या दुख से ऊपर की चीज़ है और इसकी सार्थकता इसी में है कि इसे पूरे हर्षोल्लास के साथ जिया जाए। दुख को मात देकर जिया जाए। हमारी खुशी का चयन, हमारे हाथ में है। जीवन और मृत्यु में से हमें सदैव जीवन को ही चुनना होगा। हमारे ‘जन्म’ को हमने नहीं चुना तो मृत्यु को चुनने का कोई अधिकार हमें नहीं है। हम खुलकर जिएं, जमकर जिएं।
हम अपने ही नहीं, दूसरे के वजूद को भी उतनी ही अहमियत दें। अभी कुछ दिनों पहले ही एक महिला की आत्महत्या की खबर सामने आई। कारण ‘पोस्ट प्रेगनेंसी डिप्रेशन’ बताया गया, जिससे हर महिला जूझती है। उसने बच्चे को जन्म दिया, फिर उसको सार्थक बनाने का चुनाव बाकी लोगों के लिए क्या इतना कठिन था कि उसने अकेला, असहाय महसूस किया? क्या ये निर्विवाद रूप से नहीं होना चाहिए कि उसने अपना सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य निभाया तो आसपास का समाज उसे सही साबित करने या औचित्य देने का चुनाव क्यों नहीं कर पाता! क्या वाकई विकल्प नहीं होते? ये ‘तेरा काम तू जाने’ की मानसिकता ने हमें किस मोड़ पर ला छोड़ा है!
क्या ऐसा नहीं लगता कि हमें हमारे जीवन मूल्यों के चुनाव पर डटे रहना चाहिए? हमारे नैतिक और सामाजिक मूल्यों के चयन का उत्तरदायित्व हमारा है? हमारी खुशी, हमारे परिवार, समाज और इस देश की खुशी की नींव ही हमारे उत्तम चयन पर निर्धारित है।
हम कई बार निर्णयों को लेकर असमंजस में रहते हैं। प्रायः बाद में समझ आता है कि “तब ये कहना चाहिए था, वो कहना चाहिए था।” लेकिन वे कौन लोग हैं जिन्होंने सही समय पर सही चुनाव किया और सफ़लता की नई परिभाषा गढ़ी। हमें उन लोगों के बारे में जानना, पढ़ना होगा, उनसे सीख लेनी होगी।
अब तक मैंने राजनीतिक चुनाव की बात नहीं की है। थोड़ा बचती हूँ क्योंकि एक यही चुनाव तो है, जिसके बारे में हर तरफ से 24 घंटे ज्ञान दिया जाता है। लेकिन, इस महीने चूँकि 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं तो मैं भी अपने ज्ञान की एक आहुति चुनावी चकल्लस वाले हवन में डालना चाहती हूँ। ये बिल्कुल नहीं कहूँगी कि आप किसे वोट दें, और किसे नहीं। प्रभावित भी नहीं करूँगी, क्योंकि इसका ठेका भी बहुतों ने ले रखा है। हाँ, अपने स्वभाव के मुताबिक इतना जरूर कहूँगी कि बाकी चुनावों की तरह ये चुनाव भी पूर्वाग्रह और नकारात्मकताओं से दूर रहकर हों। अकसर पूर्वाग्रह और नकारात्मक विचार हमें कल्याण और सकारात्मकता से परे कर देते हैं। ‘हमारे सपनों का भारत’ बनाने के सफर में महत्वपूर्ण कदम है मतदान, लेकिन यह नितांत आवश्यक है कि यह कदम उठाने से पहले उत्तम चयन के समस्त अध्याय हमें कंठस्थ हों।
- प्रीति अज्ञात
'हस्ताक्षर' फरवरी 2022 अंक में प्रकाशित संपादकीय
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