बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

'रिश्ते' या 'प्रशस्ति-पत्र?'

'रिश्ते' कुछ नहीं, एक प्रशस्ति-पत्र के सिवा! जब तक पढ़ते रहो, रहेंगे और पीड़ा बाँटते ही छिटककर दूर खड़े हो जाते हैं! या कि मानव-मस्तिष्क की बनावट ही कुछ ऐसी है जहाँ स्नेह के सैकड़ों पत्र एक सरसरी निगाह डाल डिलीट कर दिए जाते हैं और शिकायतें हमेशा के लिए दर्ज हो जाती हैं! 
ये कैसी आभासी दुनिया है जहाँ अपनों का अपमान करते आप, जरा भी नहीं हिचकते 
ये कैसे लोग हैं जो अपना बनकर बात करते हैं और पलटते ही छुरा घोंप देते हैं 
ये कैसे रिश्ते हैं, जो रिश्तों की मर्यादा ही नहीं समझते 
तो क्या हुआ.…जो आपने उनके दुःख को समझा 
तो क्या हुआ....जो आप हर घडी, हर पहर  किसी को अपना समझ उसके लिए बाहें फैलाये तत्पर खड़े रहे 
तो क्या हुआ...जो आपने अपना जीवन उनके नाम कर दिया 
मकान दिखते हैं.....लेकिन पैसे कमाने में घर कहीं खो गया है 
सदस्य दिखते हैं..... पर gadgets की भीड़ में परिवार व्यस्त हो गया है 
ये  कैसे रिश्ते हैं, जहां आंसू पोंछने को कोई नहीं होता और पीड़ा पहुंचाने में किसी को जरा भी दर्द नहीं होता 
जहाँ आप सबके मंन के दुःख को समझें,  दूर करने की भरसक कोशिश भी करें पर 
आप की बात सुनने वाला....…कोई नहीं!
जब आप गिरें तो संभालने वाला....कोई नहीं!

दर्द अकेले ही सहना होता है! गैरों  की क्या कहिए, जब अपने ही रिश्तों में सिर्फ़ प्रशंसा सुनने को आतुर रहते है, उनकी एक ग़लती की तरफ इशारा तो कीजिये और सब कुछ ख़त्म.
आपकी तकलीफ का मोल....कुछ नहीं!
आँसुओं का मोल...कुछ नहीं!
खोई मुस्कानों का मोल...कुछ नहीं!  
जो अपना होने का भरम देता रहा, उसके ही द्वारा अकेला छोड़ जाने का मोल.....कुछ नहीं! 

गर दस्तक देनी है तो दिलों पर दो! 
जो रहना चाहते हो यादों में तो किसी के ह्रदय पर अपना नाम अंकित कर दो! 
दर्द देने का वक़्त  है तो बांटने के लिए भी निकालो!
क्या हमेशा ही हम सही और सामने वाला ग़लत होता है? आपके अलावा किसी में कोई भी अच्छाई नहीं? आप परफ़ेक्ट हैं और दूसरा इंसान एक डिफेक्टिव पीस? ग़लती न होने पर भी कोई 'रिश्ते' को बचाने की ख़ातिर हाथ जोड़कर आपसे माफ़ी माँगता रहे और आप उसे कोसते रहें, झिड़कते रहें....इसका मतलब कि आपको न तो उस इंसान में दिलचस्पी है और न ही रिश्ते को बचाने में. ये भी संभव है कि आप सब कुछ ख़त्म करने के लिए सिर्फ़ एक बहाने की तलाश में हैं.

इसका यह तात्पर्य हुआ कि दरअसल कोई किसी का है ही नहीं..और न होगा कभी! संबंधों को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय 'मौन' ही है, जहाँ रोज ही घुट-घुटकर एक मौत होती है पर शरीर ज़िंदा रहता है; दिखाई देता है  आभासी मुस्कानों को लपेटकर अपने जीवित होने का भरम बनाए रखना भी तो आवश्यक होता है न! 
पर ये सवाल अब भी अनुत्तरित ही रहा ----
"क्या रिश्ते मात्र 'प्रशस्ति-पत्र' बनकर रह गये हैं?"
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

कवि को जूझना आता है.....

रचनाकार केवल उतना ही नहीं होता, जितना दिखाई देता है! उसकी रचनाएँ एक जीवन की पूरी कहानी कहती हैं, उसकी सोच उसके आसपास के वातावरण, सामाजिक व्यवस्था और संस्कारों का प्रतिबिम्ब होती है। यूँ ही कोई कवि / कवयित्री नहीं बन जाता, जब तक उसने संघर्षों को करीब से देखा न हो, महसूस न किया हो! कुछ लोग संघर्ष को आर्थिक परिस्थितियों से जोड़ लिया करते हैं पर बहुधा यह मानसिक और व्यवस्था के विरुद्ध चल रहा अंतर्द्वंद्व भी होता है।जहाँ कुछ न कर पाने की विवशता, मुट्ठी भींचने पर मजबूर कर देती है। इन हालातों से अकेले ही जूझते रहना, आसपास के लोगों द्वारा किये गए हर ताने को बर्दाश्त करना, अपनों का भयाक्रांत हो साथ छोड़ जाना और इन सबसे घायल ह्रदय और उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए अपने 'होने' को और इस 'जीवन' को सार्थक करने का जूनून ही सही मायनों में एक संवेदनशील और भावुक इंसान को रचनाकार में तब्दील कर देता है।

लेखक कभी आत्महत्या नहीं करते, हाँ उनकी हत्या अवश्य हो जाती है। कवि को जूझना आता है, टूटना आता है, हर पीड़ा को सहना आता है, वो जीते भले ही न पर मैदान छोड़ भागता नहीं, उसे डटकर खड़े रहना आता है और इन सबसे भी ऊपर एक और बात..उसे हर हाल में मुस्कुराना आता है! 
आह..यही उसके जीवन भर की कमाई और आय-व्यय का लेखा-जोखा है ! :D
भ्रम में बने रहने से बेहतर है डूबना या पार कर जाना! लेकिन उस पार पहुँचने के बाद आवाजों को अनसुना करना भी सीखना होगा. ये हुनर सबमें कहाँ, हमें डूब जाने का डर है और उन्हें उम्मीद! :)
-प्रीति 'अज्ञात'

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

बनारस

बनारस से मेरा रिश्ता बहुत पुराना है, इतना कि मुझे खुद भी याद नहीं! पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. वहीँ रहे थे हम लोग, अब तो मालूम नहीं लेकिन उन दिनों बी.एच.यू. का कैंपस खूब हरा-भरा हुआ करता था. वो एक उदास समय था, इसलिए तब उसमें खेलने-कूदने में कोई आनंद नहीं आता था.

उसके कई वर्षों बाद फिर जाना हुआ, तब नाना मिर्ज़ापुर कॉलेज से रिटायर होने के बाद यहाँ पीएचडी गाइड थे. मैं और मम्मी-पापा 'विश्वनाथ मंदिर' देखने गए थे. बहुत ही संकरी गलियों और अत्यधिक भीड़भाड़ के बीच चलते हुए हम वहां तक पहुंचे थे. दर्शन के बाद लौट ही रहे थे कि अचानक किसी ने मुझे खींच लिया. मैं जोर से चिल्लाई और तुरंत ही माँ-पापा ने भी देख लिया. वो भाग चुका था लेकिन हम सब घबरा गए और सीधे घर वापिस आ गये थे.

तीसरी बार की यात्रा अत्यधिक सुखद रही. वो भी स्कूल के दिनों की ही बात है. हम सब वहां दशाश्वमेध घाट पर गए, बहुत देर तक बैठे रहे थे. अच्छा लगा था वहाँ सीढ़ियों पर बैठे हुए पानी को उछालते रहना! कोई अस्सी घाट नाम से भी कुछ था. पर मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित वहां के तुलसी मानस मंदिर ने किया था. अगर मुझे ठीक से याद है तो ये वही स्थान है जहाँ मैनें पहली बार मंत्रोच्चारण और बोलती मूर्तियों को देखा था. तब कई दिनों तक उनकी स्मृतियाँ मुझे अचरज में डालती रहीं थीं और मैं सबका खूब दिमाग खाती. हर बार यही सवाल करके कि...वो मूर्तियां बोल कैसे रहीं थीं!

मैं मिठाई की शौक़ीन कभी नहीं रही लेकिन वहाँ जाकर लगा था कि मिठाई के बिना ये लोग जी ही नहीं सकते (ये अतिश्योक्ति हो सकती है, पर तब मैनें ऐसा ही पाया था). ये 30 वर्ष पुरानी बात है, आजकल तो नहीं खाते होंगे. मुझे ये मेले टाइप फीलिंग वाली जगहें बहुत पसंद हैं, छोटी-छोटी दुकानों, ठेले वालों के पास बहुत सुन्दर वस्तुएं होती हैं. लकड़ी के रंगीन खिलौने, कारीगरी के सामान और भी न जाने क्या-क्या! बनारस में ये सब कुछ हुआ करता था. हमने खूब खरीददारी भी की थी. वहाँ की बोली बड़ी ही मीठी, प्यारी-सी है. अगर मुझे कोई बात नापसंद थी तो वो वहां के लोगों का पान खाकर यहाँ-वहाँ पिचकारी बना देना. 
पता नहीं...तब और अब के बनारस में कितना अंतर आया होगा! आज न्यूज़ में वहाँ शांति की ख़बरें देखकर जहाँ मन को एक तसल्ली मिली वहीँ कुछ कच्ची-पक्की यादें भी ताजा हो आईं।
  
इसके साथ ही मिर्ज़ापुर भी याद आ गया...जाना है वहाँ एक दिन, कई दिनों के लिए! कब, कैसे और क्यों ये भी पता नहीं! बस, जाना है एक दिन! कुछ नहीं तो नाना-नानी के घर को और उस बगीचे को छूकर लौट आऊँगी, जहाँ की आवाज़ें इन दिनों बहुत पुकार रही हैं! 
मुझे कलकत्ता और बोध गया जाना है, लखनऊ, मुंबई भी जाना है....और इसी जीवन में जाना है, ऊपर जाने के बहुत पहले!
- प्रीति 'अज्ञात'