आज सुबह ही तेजस ने पूछा था कि "दीदी, करवा चौथ पर कुछ क्यों नहीं लिखा?" और शायद मेरे व्रत सम्बन्धी जवाब को सुनकर उन्हें और भी ताज्जुब हुआ. किचन में काम करते-करते उनसे msg पर बात हो रही थी और मैनें लिख दिया था कि "हमारे यहाँ ये नहीं होता". लेकिन उसके बाद मैनें विचार किया कि ये तो कोई कारण ही नहीं! क्योंकि बहुत से ऐसे पर्व हैं जो हमारे घरों में नहीं मनाये जाते पर हम ख़ूब उल्लास से उचक-उचककर उन्हें मनाते आये हैं. कई ऐसे भी हैं जो कि सब पूरे उत्साह से मनाते हैं (होली टाइप) और मैं उस समय विलुप्त हो जाना पसंद करती हूँ. निष्कर्ष ये कि भैया, हमाये यहाँ तुमाये यहाँ जैसा कुछ नहीं होता.....पूरा खेल मन का है!
यूँ बहुत बार ऐसा होता है कि घर के, बगीचे के या कहीं और व्यस्तता भरे काम में सारा दिन निकल जाता है और पेट में अन्न का एक दाना पहुंचाने का भी समय नहीं मिलता. वो अलग बात है कि बाद में फिर थाल भर भोजन लेके असुरों की तरह हम उस पर टूट पड़ते हैं साथ में एक केतली चाय गटक जाते, सो अलग! लेकिन जहाँ व्रत की बात आई ...हम स्वयं को तुरंत शर्मिंदा कर लेना ही उचित समझते हैं. मतलब 5.30 पर उठने के बाद भी रोज 9 बजे के आसपास ही अपन अन्न-जल ग्रहण कर पाते हैं लेकिन जो व्रत की सोच ली..ओ हो हो! फिर तो केस हाथ से गया ही समझो. क़सम से, आँख खुलते से ही पूरे पाचन तंत्र में जैसे त्राहिमाम मचने लगता है. आहार नलिका किसी सूखे रेगिस्तान की तरह स्थान-स्थान पर चटकने लगती है आंतें सिकुड़कर भीतरी दीवारों से कुछ यूँ चिपक जाती हैं कि जैसे आज ही वे इस तंत्र को सदैव के लिए अलविदा कह देंगीं, आमाशय स्वयं को अकालग्रस्त क्षेत्र घोषित कर देता है, समस्त एंजाइम एक सुघड़ राजनीतिज्ञ की तरह आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलने में मस्त हो जाते हैं और ये सभी मिलकर जो संगठित संदेसा मस्तिष्क के चौथे प्रकोष्ठ को भिजवाते हैं उसका सीधा तात्पर्य यही है कि "बेटा, तू तो रहन ही दे!" वरना आँख खुलते से ही हमारी आँखों के सामने अँधेरा यूँ न छाता!
क्या करें! भौत मुश्किल है. एक तो भगवान ने ही हमें थोड़ा कम interest लेकर बनाया है उस पर कुछ गुण हमने स्वयं विकसित कर लिए. फलस्वरूप न तो सजने संवरने में कभी दिलचस्पी रही और न ही बहुत ज्यादा शौक़ है कोई. जैसे हैं सो हैं. अब हमारा कुछ नहीं हो सकता जी! हम अपनी तरह के एक ही पौधे हैं जो अभी तक पूरा उगा ही नहीं!
जहाँ तक 'करवा चौथ' का किस्सा है तो मेरा मानना है कि इसे जन-जन तक पहुँचाने और लोकप्रिय बनाने में बॉलीवुड का अमूल्य योगदान रहा है. यहाँ "छनन छन चूड़ियाँ खनक गईं देख बालमा, चूड़ियाँ खनक गईं हाथ मां" जैसे सुमधुर गीत नारी शृंगार की बात करते हैं तो पूरी तरह से करवा चौथ को समर्पित 'चांद छिपा बादल में' (हम दिल दे चुके सनम) , 'लैजा लैजा' (कभी खुशी कभी गम) ने कुंवारी लड़कियों को भी भविष्य में इसके लिए प्रोत्साहित किया. वो जो इस त्यौहार के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे, उन्हें 'सरगी' की पूरी व्याख्या भी पता चल गई.
अब हम भले ही डिफेक्टिव पीस निकल गए पर एक बात है कि हमें व्रत, पूजा-पाठ करती और खूब सजी-धजी स्त्रियाँ बेहद प्यारी लगती हैं. त्योहारों में इनमें एक अलग ही नज़ाकत और शर्मीलापन-सा भर जाता है. पति के छेड़ने पर जब ये मुस्कुराते हुए "चलो, हटो" कहती हैं तो उस समय उनकी ये अदा देखते ही बनती है. आस्था-विश्वास से भरे इन प्यारे चेहरों और इनके मेहंदी भरे हाथ देखना बेहद अच्छा लगता है. इसलिए मैं तर्क-वितर्क में नहीं पड़ती. यदि कोई ख़ुश है तो इस ख़ुशी पर उसका पूरा अधिकार है. यही वे लोग हैं जो भारतीय संस्कृति की सबसे ख़ूबसूरत तस्वीर के रूप में उभरते हैं. मुझे ऐसे सभी लोग बहुत अच्छे लगते हैं और इनकी नज़र उतारने को जी चाहता है. ईश्वर आप सबको ख़ूब प्रसन्न रखे.
- प्रीति 'अज्ञात'
#करवा चौथ #स्त्रियाँ #व्रत
यूँ बहुत बार ऐसा होता है कि घर के, बगीचे के या कहीं और व्यस्तता भरे काम में सारा दिन निकल जाता है और पेट में अन्न का एक दाना पहुंचाने का भी समय नहीं मिलता. वो अलग बात है कि बाद में फिर थाल भर भोजन लेके असुरों की तरह हम उस पर टूट पड़ते हैं साथ में एक केतली चाय गटक जाते, सो अलग! लेकिन जहाँ व्रत की बात आई ...हम स्वयं को तुरंत शर्मिंदा कर लेना ही उचित समझते हैं. मतलब 5.30 पर उठने के बाद भी रोज 9 बजे के आसपास ही अपन अन्न-जल ग्रहण कर पाते हैं लेकिन जो व्रत की सोच ली..ओ हो हो! फिर तो केस हाथ से गया ही समझो. क़सम से, आँख खुलते से ही पूरे पाचन तंत्र में जैसे त्राहिमाम मचने लगता है. आहार नलिका किसी सूखे रेगिस्तान की तरह स्थान-स्थान पर चटकने लगती है आंतें सिकुड़कर भीतरी दीवारों से कुछ यूँ चिपक जाती हैं कि जैसे आज ही वे इस तंत्र को सदैव के लिए अलविदा कह देंगीं, आमाशय स्वयं को अकालग्रस्त क्षेत्र घोषित कर देता है, समस्त एंजाइम एक सुघड़ राजनीतिज्ञ की तरह आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलने में मस्त हो जाते हैं और ये सभी मिलकर जो संगठित संदेसा मस्तिष्क के चौथे प्रकोष्ठ को भिजवाते हैं उसका सीधा तात्पर्य यही है कि "बेटा, तू तो रहन ही दे!" वरना आँख खुलते से ही हमारी आँखों के सामने अँधेरा यूँ न छाता!
क्या करें! भौत मुश्किल है. एक तो भगवान ने ही हमें थोड़ा कम interest लेकर बनाया है उस पर कुछ गुण हमने स्वयं विकसित कर लिए. फलस्वरूप न तो सजने संवरने में कभी दिलचस्पी रही और न ही बहुत ज्यादा शौक़ है कोई. जैसे हैं सो हैं. अब हमारा कुछ नहीं हो सकता जी! हम अपनी तरह के एक ही पौधे हैं जो अभी तक पूरा उगा ही नहीं!
जहाँ तक 'करवा चौथ' का किस्सा है तो मेरा मानना है कि इसे जन-जन तक पहुँचाने और लोकप्रिय बनाने में बॉलीवुड का अमूल्य योगदान रहा है. यहाँ "छनन छन चूड़ियाँ खनक गईं देख बालमा, चूड़ियाँ खनक गईं हाथ मां" जैसे सुमधुर गीत नारी शृंगार की बात करते हैं तो पूरी तरह से करवा चौथ को समर्पित 'चांद छिपा बादल में' (हम दिल दे चुके सनम) , 'लैजा लैजा' (कभी खुशी कभी गम) ने कुंवारी लड़कियों को भी भविष्य में इसके लिए प्रोत्साहित किया. वो जो इस त्यौहार के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे, उन्हें 'सरगी' की पूरी व्याख्या भी पता चल गई.
अब हम भले ही डिफेक्टिव पीस निकल गए पर एक बात है कि हमें व्रत, पूजा-पाठ करती और खूब सजी-धजी स्त्रियाँ बेहद प्यारी लगती हैं. त्योहारों में इनमें एक अलग ही नज़ाकत और शर्मीलापन-सा भर जाता है. पति के छेड़ने पर जब ये मुस्कुराते हुए "चलो, हटो" कहती हैं तो उस समय उनकी ये अदा देखते ही बनती है. आस्था-विश्वास से भरे इन प्यारे चेहरों और इनके मेहंदी भरे हाथ देखना बेहद अच्छा लगता है. इसलिए मैं तर्क-वितर्क में नहीं पड़ती. यदि कोई ख़ुश है तो इस ख़ुशी पर उसका पूरा अधिकार है. यही वे लोग हैं जो भारतीय संस्कृति की सबसे ख़ूबसूरत तस्वीर के रूप में उभरते हैं. मुझे ऐसे सभी लोग बहुत अच्छे लगते हैं और इनकी नज़र उतारने को जी चाहता है. ईश्वर आप सबको ख़ूब प्रसन्न रखे.
- प्रीति 'अज्ञात'
#करवा चौथ #स्त्रियाँ #व्रत