शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

#करवा चौथ

आज सुबह ही तेजस ने पूछा था कि "दीदी, करवा चौथ पर कुछ क्यों नहीं लिखा?" और शायद मेरे व्रत सम्बन्धी जवाब को सुनकर उन्हें और भी ताज्जुब हुआ. किचन में काम करते-करते उनसे msg पर बात हो रही थी और मैनें लिख दिया था कि "हमारे यहाँ ये नहीं होता". लेकिन उसके बाद मैनें विचार किया कि ये तो कोई कारण ही नहीं! क्योंकि बहुत से ऐसे पर्व हैं जो हमारे घरों में नहीं मनाये जाते पर हम ख़ूब उल्लास से उचक-उचककर उन्हें मनाते आये हैं. कई ऐसे भी हैं जो कि सब पूरे उत्साह से मनाते हैं (होली टाइप) और मैं उस समय विलुप्त हो जाना पसंद करती हूँ. निष्कर्ष ये कि भैया, हमाये यहाँ तुमाये यहाँ जैसा कुछ नहीं होता.....पूरा खेल मन का है!

यूँ बहुत बार ऐसा होता है कि घर के, बगीचे के या कहीं और व्यस्तता भरे काम में सारा दिन निकल जाता है और पेट में अन्न का एक दाना पहुंचाने का भी समय नहीं मिलता. वो अलग बात है कि बाद में फिर थाल भर भोजन लेके असुरों की तरह हम उस पर टूट पड़ते हैं साथ में एक केतली चाय गटक जाते, सो अलग! लेकिन जहाँ व्रत की बात आई ...हम स्वयं को तुरंत शर्मिंदा कर लेना ही उचित समझते हैं. मतलब 5.30 पर उठने के बाद भी रोज 9 बजे के आसपास ही अपन अन्न-जल ग्रहण कर पाते हैं लेकिन जो व्रत की सोच ली..ओ हो हो! फिर तो केस हाथ से गया ही समझो. क़सम से, आँख खुलते से ही पूरे पाचन तंत्र में जैसे त्राहिमाम मचने लगता है. आहार नलिका किसी सूखे रेगिस्तान की तरह स्थान-स्थान पर चटकने लगती है आंतें सिकुड़कर भीतरी दीवारों से कुछ यूँ चिपक जाती हैं कि जैसे आज ही वे इस तंत्र को सदैव के लिए अलविदा कह देंगीं, आमाशय स्वयं को अकालग्रस्त क्षेत्र घोषित कर देता है, समस्त एंजाइम एक सुघड़ राजनीतिज्ञ की तरह आरोप-प्रत्यारोप का खेल  खेलने में मस्त हो जाते हैं और ये सभी मिलकर जो संगठित संदेसा मस्तिष्क के चौथे प्रकोष्ठ को भिजवाते हैं उसका सीधा तात्पर्य यही है कि "बेटा, तू तो रहन ही दे!" वरना आँख खुलते से ही हमारी आँखों के सामने अँधेरा यूँ न छाता!
क्या करें! भौत मुश्किल है. एक तो भगवान ने ही हमें थोड़ा कम interest लेकर बनाया है उस पर कुछ गुण हमने स्वयं विकसित कर लिए. फलस्वरूप न तो सजने संवरने में कभी दिलचस्पी रही और न ही बहुत ज्यादा शौक़ है कोई. जैसे हैं सो हैं. अब हमारा कुछ नहीं हो सकता जी! हम अपनी तरह के एक ही पौधे हैं जो अभी तक पूरा उगा ही नहीं!

जहाँ तक 'करवा चौथ' का किस्सा है तो मेरा मानना है कि इसे जन-जन तक पहुँचाने और लोकप्रिय बनाने में बॉलीवुड का अमूल्य योगदान रहा है. यहाँ "छनन छन चूड़ियाँ खनक गईं देख बालमा, चूड़ियाँ खनक गईं हाथ मां" जैसे सुमधुर गीत नारी शृंगार की बात करते हैं तो पूरी तरह से करवा चौथ को समर्पित 'चांद छिपा बादल में' (हम दिल दे चुके सनम) , 'लैजा लैजा' (कभी खुशी कभी गम) ने कुंवारी लड़कियों को भी भविष्य में इसके लिए प्रोत्साहित किया. वो जो इस त्यौहार के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे, उन्हें 'सरगी' की पूरी व्याख्या भी पता चल गई.
अब हम भले ही डिफेक्टिव पीस निकल गए पर एक बात है कि हमें व्रत, पूजा-पाठ करती और खूब सजी-धजी स्त्रियाँ बेहद प्यारी लगती हैं. त्योहारों में इनमें एक अलग ही नज़ाकत और शर्मीलापन-सा भर जाता है. पति के छेड़ने पर जब ये मुस्कुराते हुए "चलो, हटो" कहती हैं तो उस समय उनकी ये अदा देखते ही बनती है. आस्था-विश्वास से भरे इन प्यारे चेहरों और इनके मेहंदी भरे हाथ देखना बेहद अच्छा लगता है. इसलिए मैं तर्क-वितर्क में नहीं पड़ती. यदि कोई ख़ुश है तो इस ख़ुशी पर उसका पूरा अधिकार है. यही वे लोग हैं जो भारतीय संस्कृति की सबसे ख़ूबसूरत तस्वीर के रूप में उभरते हैं. मुझे ऐसे सभी लोग बहुत अच्छे लगते हैं और इनकी नज़र उतारने को जी चाहता है. ईश्वर आप सबको ख़ूब प्रसन्न रखे.
- प्रीति 'अज्ञात'
#करवा चौथ #स्त्रियाँ #व्रत 

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

यूँ ही...

ये जीवन भी बड़ी अजीब सी स्थिति में बनाये रखता है जब मन अच्छा हो और दिल ख़ुश तो सब कुछ बेहद आसान, सरल, सुंदर दिखाई देता है लेकिन जब मूड के ठीक 12 बजे हों तो इससे अधिक जटिल, दुरूह और बदसूरत कुछ नहीं दिखाई देता! कुल मिलाकर हमारी यह धारणा उस आधार पर बनती है जो हम प्रतिदिन देख सुन रहे हैं या जो हम पर ही सीधा बीत रहा है. आज यदि हर तरफ नकारात्मक वातावरण , दुःख और परेशानी दिखाई दे रही है तो इसका यह मतलब क़तई नहीं कि दुनिया में कहीं कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा! ख़ूब हो रहा है, लोग अपनी दुनिया में छमाछम, मस्त नाच गा रहे हैं. उन्हें न ढोंगी टीवी में दिलचस्पी है, न अख़बार में. सोशल मीडिया से कोसों दूर रहने वाले इन लोगों की ज़िंदगी आम 'जागरूक' लोगों से बेहतर और कहीं अधिक चैन की कट रही है. 😌
फिर भैया! सच तो जस का तस होता है सो सकारात्मक घटनाओं में चटपटा वाला तड़का नहीं डल पाता इसलिए वे उतनी बिकती ही नहीं! तभी तो पिंक पेंट वाला लड़का, दुबई वाली लड़की, बिग बॉस में श्रीसंत की हरक़तें और आधी रात को भटकते भूत की ख़बरें सारी भीड़ बटोर लेती हैं 😈. बेचारी अच्छाई हमेशा प्रतीक्षा सूची में अंतिम पायदान पर नज़र आती है. अच्छे लोगों की भी कोई क़दर ना रही! 😥

अरे हाँ! ल्यो अच्छाई से याद आया कि चाहे कुछ भी हो पर 'रामायण' ने यह सिद्धांत तो प्रतिपादित कर ही दिया था कि बड़बोले और घमंडी इंसान का सर्वनाश सुनिश्चित है. रावण दहन उसी का ही प्रतीक है. फिर काहे कुछ लोग अपनी बेमतलब की ठसक में मरे जाते हैं जी? 😮
वे जो मर्यादा पुरुषोत्तम से मर्यादा में रहना ही नहीं सीख सके वे उनके भक्त नहीं कछु औरई हेंगे. 😤
रावण दहन से क्या होगा जी?
राम को भी तो जीवित रखना होगा!
इश्श! चुनाव में नहीं रे...ह्रदय में पगलू! 😍
सियावर रामचंद्र की जय! पवनसुत हनुमान की जय!
'चला जा रहा था मैं डरता हुआ....' उफ़्फ़! हाय राम! ये काहे याद आ गया! 😳😎😜
- प्रीति 'अज्ञात'
#विजयादशमी #दशहरा 

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

#MeToo श्श! किसी को बताना मत!

कुछ भी कहने के पहले मैं उन सभी स्त्री-पुरुषों को सलाम करती हूँ जो इस विषय पर बेझिझक साथ खड़े हैं.
#MeToo Campaign के समर्थन में स्त्रियों का होना स्वाभाविक है क्योंकि यही वह वर्ग है जिसने यौन शोषण की गहन पीड़ा उम्र के हर दौर में झेली है और नियम यह था कि 'मौन' रहना होगा! ये जो चुप्पी है न, ये कभी सिखाई नहीं जाती! दरअसल बचपन से ही स्त्री के इर्दगिर्द एक ऐसा वातावरण बना दिया जाता है या यूँ कहिये कि हम उसमें ही जन्म लेते हैं जहाँ देह को इज़्ज़त/मान-सम्मान से जोड़ दिया गया है और फिर इसको तार-तार करने वाला चाहे कोई भी हो, पर इज्ज़त तो ज़नाब 'स्त्री' की ही जाती है. चाहे घर के भीतर किसी रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र ने भी उसके साथ गलत व्यवहार किया है; पर परिवार की नाक सलामत रहती है लेकिन यह उसी वक़्त कटी घोषित कर दी जाती है ग़र यह बात घर से बाहर चली जाए! चूँकि बेटी तो घर की लाज होती है तो यह किस्सा घर में ही दबा दिया जाता है. इसे बहुधा संस्कार, प्रतिष्ठा और अनुशासन के भारी लेबल के साथ सलीक़े से इस तरह स्थापित किया जाता है कि बदनामी, अपनों को खो देने का भय, उनकी चिंता, परिवार का सम्मान, कौन शादी करेगा? जैसे प्रश्नों की विभिन्न परतें उसके अस्तित्त्व पर लिपटती चली जाती हैं.  

"किसी को बताना मत!" की सलाह के साथ कर्त्तव्य निभा लिया जाता है पर कोई एक पल भी नहीं सोचता कि उम्र भर उस घिनौने इंसान को अपनी आँखों के सामने कुटिलता से मुस्कुराते देख वो रोज कितनी दफ़ा टूटती होगी! भयभीत हो सिहर जाती होगी! ख़ुद को कमरे में बंद कर घंटों अकेले रहती होगी! उस लिजलिजे, घृणित स्पर्श को याद कर चीत्कार मार रातों को उठ-उठ बिलखती होगी! शायद उस घटना से कई और बार भी गुज़रती होगी! पर स्त्री है, इसलिए चुप रहना होगा!

यदि उसने एक अच्छा और सुखी बचपन जिया है तब भी वह स्वयं को एक सभ्य समाज में रहने लायक़ बनाने के लिए इन सारी बातों को उम्र-भर गाँठ बाँधे रखती रही है.
तभी तो घर से बाहर जाते समय बीच राह कोई उसे टोकता, छूता, सीटी मारकर गंदे शब्द कहता...वह आँखें नीची कर चुपचाप निकल जाती. बोलने का मतलब, तमाशा और फिर घर की नाक का सवाल जो ठहरा. घर, ऑफिस, बस, ट्रेन, लम्बी लाइन, धार्मिक स्थल, शादी-ब्याह, पारिवारिक कार्यक्रम....हर परिचित/अपरिचित स्थान पर ऐसा होना और बर्दाश्त करना उसने अपनी नियति मान लिया. 

मैं यह पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ कि हर स्त्री ने कम/ज्यादा ही सही पर अपने जीवन में शारीरिक शोषण कभी-न-कभी न अवश्य ही झेला होगा! याद कीजिये बस/ट्रेन में वो अचानक से किसी कोहनी का स्पर्श, जाँघों पर हाथ या लाइन में किसी का सटकर खड़ा होना...पलटकर देखने पर वही गन्दी निग़ाह और भद्दे इशारे....और हमारा भीतर ही भीतर गड़ जाना!

हमारी पीढ़ियाँ एक-दूसरे को चुप रहना सिखाती रहीं. उनकी सिसकियाँ घर की खोखली चारदीवारी के भीतर ही सम्मानित होती रहीं. स्त्रियाँ हर बात पर झट से यूँ ही नहीं रो देती हैं, ये कुछ दफ़न किये हुए किस्सों से उपजी गहन पीड़ा का वो भरा समुन्दर है जो जरा सी दरार देख बह उठता है. 

लानत है उन लोगों पर जो हाल के घटनाक्रम से बौखलाए हुए ऊलजलूल कहे जा रहे हैं. जिन्हें स्त्री के अब बोलने से इसलिए आपत्ति है कि वो 'तब' क्यों नहीं बोली? जिन्हें सबूत की दरक़ार है, वे ये सवाल कभी अपने घर की स्त्रियों से करकर देखें! उनकी आँखों की नमी और आवाज़ की कंपकंपाहट आपके नीचे की ज़मीन खिसका देगी. 
वो जिन्हें लगता है कि स्त्री उनकी बदौलत आगे बढ़ी और अब उसकी जुबां निकल आई है तो वे भी जान लें कि किसी की मदद कर देने से वे उसके शरीर के अधिकारी नहीं हो जाते. इनका एक गलत स्पर्श उस इंसान का जीवन तबाह कर देता है.
देह के परे एक इंसान भी है उसमें कहीं, उसका सम्मान करना सीखिए. 

आशंका है कि अब कोई नया भीषण मुद्दा योजनाओं की कड़ाही में खलबलाया जा रहा होगा जिसे जल्द ही सबके सामने परोस इस मुद्दे का मुँह शीघ्र ही बंद कर दिया जाएगा क्योंकि यदि इसके दोषियों को सज़ा मिलने लगी तो देश की जेलें कम पड़ जायेंगी.
सज़ा!! मैं भी क्या सोच रही हूँ!

ध्यान से अपने आसपास देखिये कि हर बात पर गालीगलौज पर उतर आने वाले नेताओं/प्रवक्ताओं की बोलती इस विषय पर कैसे बंद है? वे पत्रकार/ साहित्यकार जो जरा-जरा सी बात में क्रांति का उद्घोष कर रणक्षेत्र में कूद पड़ते हैं, इस समय मैदान छोड़ क्यों भाग खड़े हुए हैं?
बड़े-बड़े नामों के गले में ये कौन-सी हड्डी फंसी हुई है जिससे उनसे न बोलते बन रहा है न उगलते?
- प्रीति 'अज्ञात'
#MeToo  #iChowk
आप इसे यहाँ भी पढ़ सकते हैं -
https://www.ichowk.in/society/metoo-has-given-strength-to-women-to-speak-against-harassment-they-faced/story/1/12739.html

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

इस 'एंग्री यंग मेन' ने हँसाया भी ख़ूब है!


सदी के महानायक, बॉलीवुड के शहंशाह और सभी सिनेप्रेमियों के आदर्श एंग्री यंग मेन, अमिताभ बच्चन के व्यक्तित्त्व में इतने चमकदार पहलू हैं कि एक साथ उनकी चर्चा कर पाना संभव ही नहीं! यह तो हम सभी जानते हैं कि चाहे जंजीर, शोले, दीवार, कालिया, मर्द, डॉन, शहंशाह जैसी फिल्मों का एक्शन हीरो हो; या कि सिलसिला, कभी-कभी, मुक़द्दर का सिकंदर के गंभीर प्रेमी की भूमिका; आनंद का संज़ीदा बाबू मोशाय, माँ और परिवार के लिए मर मिटने वाला खुद्दार इंसान हो या फिर लीक से हटकर अक्स, मैं आज़ाद हूँ, अग्निपथ, पीकू, सरकार, 102 नॉट आउट, पिंक, चीनी कम जैसी फ़िल्मों को अपनी शानदार अभिव्यक्ति से यादगार बना देने वाला कलाकार; अमिताभ हर रंग में खरे उतरे हैं. बात इनकी कॉमिक टाइमिंग की हो या भावुक संवेदनशील दृश्यों की; ये अपने हर चरित्र में भीतर तक जान फूँक देते हैं. अमिताभ संभवतः वह अकेले कलाकार होंगे जिसकी प्रशंसक एक ही घर की तीनों पीढ़ियाँ हैं. मात्र फ़िल्में ही नहीं बल्कि टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में भी वे नंबर वन हैं.
हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं पर अमित जी की ऐसी पकड़ है कि अच्छे-अच्छे भी उनके सामने पानी भरते नज़र आते हैं. मेहनत, लगन और अनुशासन से अपने जीवन को कैसे सफ़ल और सार्थक बनाया जा सकता है, यह बात कोई अमिताभ से सीखे!

बॉलीवुड के इस चहेते 'एंग्री यंग मेन' ने अपनी कॉमेडी फिल्मों के माध्यम से भी न केवल बॉक्स-ऑफिस पर ही धूम मचाई बल्कि अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन कर ख़ूब वाहवाही भी लूटी है. कुछ दृश्य तो इतने गहरे उतर चुके हैं कि 30-40 वर्षों बाद भी किसी चलचित्र की भांति चलते हैं. इनका एक-एक डायलॉग आज भी लोगों को जुबानी याद है.

'सत्ते पे सत्ता' में तरबूज के जमीन पर गिरकर फटने के साथ ही अमिताभ के दिल के बिखरने वाला दृश्य हो, हेमा मालिनी को कैलेंडर के हिसाब से फ़ेमिली का  परिचय कराने वाला या फिर बुक्का फाड़कर यह गाना 'प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया'...इस फ़िल्म का हर एक दृश्य और गीत यादगार बन गया था. 
उन दिनों हर बच्चा 'चैन खुली की मैन खुली की चैन' कहकर अपनी 
लड़ाई का उद्घोष करता था. 
इसी फ़िल्म में जब अमिताभ (रवि); अमज़द खान के सामने 'दारु पीता नहीं अपुन, मालूम है क्यूँ? शराब पीने से लीवर ख़राब हो जाता है. इधर (ज्ञान बांटते हुए लीवर की पोजीशन दिखाते हैं). उस दिन क्या अपुन एक दोस्त की शादी में गया था'....इस संवाद को दसियों बार कुछ इस अंदाज़ में दोहराते हैं कि हर बार दर्शक और जोरों से ताली पीटने पर मज़बूर हो गया था.

'नमक हलाल' भी ऐसी कई मजेदार दृश्यों की साक्षी रही है. एक तो वो जब वे अर्जुन सिंह के चरित्र में अपने मालिक शशिकपूर की चाय में मक्खी गिरने से बचाते हैं (यहाँ वे दरअसल उनके होटल को धोखेबाजों के हाथों बिकने से बचाना चाहते हैं). और दूसरा ये जिसने सबको अंग्रेज़ी में बात करने का कॉन्फिडेंस (ओवर ही सही) दिया. याद कीजिये, "अरे, बाबूजी ऐसी इंग्लिस आवे है देट आई कैन लीव अंग्रेज़ बिहाइंड. यू शी सर, आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लाफ इंग्लिश बिकॉज इंग्लिश इज ए वेरी फनी लैंग्वेज. भैरों बिकम्स बैरो बिकॉज देयर माइंड्स आर वेरी नैरो. इन द ईयर 1929 सर व्हेन इण्डिया वाज़ प्लेयिंग अगेंस्ट ऑस्ट्रेलिया इन मेलबोर्न सिटी....." उसके बाद उन्होंने जो कमेन्ट्री सुनाई है उसने लोगों को हँसा- हँसाकर पागल कर दिया था. बात यहीं नहीं रुकी, उसके बाद वे पूरी मासूमियत से रंजीत से पूछते भी हैं कि "मेरे इस सामान्य ज्ञान पर आप कुछ विशेष टिप्पणी करेंगे?"

शोले में यद्यपि उनकी भूमिका गंभीरता ओढ़े हुए थी लेकिन जब वे बसन्ती की नॉन-स्टॉप बकबक के साथ उसके ये कहने पर कि "यूँ कि आपने हमारा नाम तो पूछा ही नहीं!"...बड़ी सादगी और शांत भाव की मुद्रा अपनाते हुए जब उससे पूछते हैं " तुम्हारा नाम क्या है, बसन्ती?" या फिर बसन्ती के लिए वीरू का रिश्ता जब मौसी के पास लेकर जाते हैं और पूरा सत्यानाश करने के बाद भोलेपन से कहते हैं "क्‍या करूं, मेरा तो दिल ही कुछ ऐसा है, मौसी!" तो दर्शक यकायक खिलखिला उठते हैं. उस पर वीरू का टंकी पर चढ़ चक्की पीसिंग एंड पीसिंग का ड्रामा चलता है तो वे आराम से टाँगें फैलाकर बैठे रहते हैं और बड़ी अदा से कहते हैं, "घड़ी-घड़ी ड्रामा करता है, नौटंकी साला!" दर्शक उसी पल इनके दीवाने हो गए थे.

'खुद्दार' में अपने भाई का ड्रामा देखने जाते हैं वहाँ उनका अपनी टाँगों को एडजस्ट करना और फिर अंग्रेजी न समझने के कारण दूसरों के  हिसाब से हँसना, इतना ही नहीं भाई को पिटते देख स्टेज पर चढ़ सब मटियामेट कर डालना भी क्लासिक बन पड़ा है. इसमें उन्होंने अपनी 
टैक्सी के साथ भी बहुत गुदगुदाते दृश्य दिए हैं.

'जलवा' में अतिथि भूमिका में होते हुए भी अपना जलवा दिखा गए थे. याद है न जब सतीश कौशिक जी गप्प हाँकते हैं कि वो अमिताभ बच्चन को जानते हैं, उसी समय उनका पीछे से आकर वो ज़बरदस्त अभिनय करना!
बड़े मियां छोटे मियां में गोविंदा के साथ तो ऐसी शानदार ट्युनिंग  बैठी कि दोनों ने डबल रोल में ऐसा डबल धमाल किया कि दर्शक भी हँस-हँस दोहरे हो गए. "डाकू मोहरसिंह को किसने पकड़ा?" और माधुरी दीक्षित से ब्याह रचाने का ख्व़ाब जोरदार बन गया था.

चुपके-चुपके में जया जी को बॉटनी पढ़ाते हुए जब वे उदाहरण सहित व्याख्या करते हैं कि "गोभी का फूल, फूल होकर भी फूल नहीं, सब्‍जी है। इसी तरह गेंदे का फूल, फूल होकर भी फूल नहीं है." कोरोला और करेला को मिलाकर उन्होंने जो स्वाद बनाया था, उसके चटखारे आज तक लिए जाते हैं.

कहीं मूँछों का ज़िक्र हो और शराबी में मुकरी साब के साथ अमिताभ के इस संवाद की बात न हो, यह तो हो ही नहीं सकता! "भाई मूँछे हों तो नत्थूलाल जी जैसी हों वरना न हों. बड़प्पन उसका, जिसकी मूँछें बड़ी हों! हमारा तो कोई पन नहीं, देखिये सफाचट"
इसी फिल्म में जब अपने चमचों के साथ विकी (अमिताभ) घटिया शायरी "जिगर का दर्द ऊपर से कहीं मालूम होता है, जिगर का दर्द ऊपर से नहीं मालूम होता है" सुना रहा होता है तो उसी समय उसे मुंशी जी (ओमप्रकाश) से जो लताड़ पड़ती है उसका असर आज भी कई आशिक़ों की अधूरी ग़ज़लों में नज़र आता है. बेबस और जबरन बने शायर आज भी अमित की इस बात से जूझते हैं कि "बस यही तो बात है मुंशी जी, ये कमबख्त वज़न कहाँ से लायें? रदीफ़ पकड़ते हैं तो काफ़िया तंग पड़ जाता है, काफ़िये को ढील देते हैं, वज़न गिर पड़ता है, ये वज़न मिलता कहाँ है?"

कुली में मूर्ति बनकर रति अग्निहोत्री के सामने खड़े होना और फिर "लो हम जिंदा हो गए" कहते हुए छाता उछाल कूद पड़ना तथा योग और आमलेट की मिक्सिंग का दृश्य भी कम लुभावना नहीं था. 
 'याराना' का "कच्चा पापड़, पक्का पापड़" आज भी tongue twister के उदाहरण में पेश किया जाता है.

अब आपकी आँखों में भी न जाने कितने नाम तैर रहे होंगे जो इस सूची में आने से रह गए. बॉम्बे टू गोवा, मि. नटवरलाल, नसीब, दोस्ताना, कभी ख़ुशी कभी ग़म, मोहब्बतें, कभी अलविदा न कहना, खून पसीना, परवरिश, हेराफ़ेरी....ये लिस्ट थमेगी नहीं!

"एइसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो" (अमर अकबर एंथोनी)
आपकी कर्मठता यूँ ही बनी रहे और प्रेरणा देती रहे.
जन्मदिवस की अनंत शुभकामनाएँ अमित जी!
- प्रीति 'अज्ञात'
#KBC #अमिताभ बच्चन #ज्ञान का दसवाँ अध्याय #कौन_बनेगा_करोड़पति # जन्मदिवस_11_अक्टूबर #BIG_B #ichowk

इसे आप इंडिया टुडे ग्रुप के ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म, ichowk पर भी पढ़ सकते हैं -
https://www.ichowk.in/cinema/celebrating-amitabh-bachchan-birthday-remembering-his-iconic-comedy-roles/story/1/12716.html

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

#सत्य घटनाओं पर आधारित #KBC

सत्य घटनाओं पर आधारित 

टाटा स्काई ने सोनी पिक्चर्स और टीवी टुडे नेटवर्क के सभी चैनलों को अचानक बंद कर देश भर को जिस सदमे की हालत में पहुँचा दिया था, अब लोग धीरे-धीरे उससे उबर रहे हैं. कुछ हम जैसे दुखियारे भी हैं जो अब तक केबीसी का बिनीता जी के एक करोड़ रुपये जीतने वाला एपिसोड नहीं देख पाए हैं. चूँकि हम सदैव ही स्वयं के लिए पनौती सिद्ध होते रहे हैं तो पहले-पहल तो जब रात्रि के 8.59 बजे टीवी स्क्रीन पर टाटा स्काई का संदेश देखा तो हमारे चेहरे पर 12 तो बजे पर रत्ती भर भी आश्चर्य नहीं हुआ. क्योंकि यह हमारा इतिहास रहा है कि "हमने जब-जब किसी चीज़ को शिद्दत से पाने की कोशिश की है, सारी क़ायनात ने उसे हमसे दूर हटाने की कोशिश की है." इसलिए दुःख तो अपार हुआ पर यह लीला भी सह गए! वो तो कुछ समय बाद जब पता चला कि सबके साथ ही यही हो रहा तो सच्चे भारतीय की तरह थोड़ी शांति अवश्य मिली कि चलो, टाटा स्काई ने हमें ही टाटा नहीं किया है; पीड़ितों का एक लंबा कारवाँ साथ खड़ा है. कुल मिलाकर टाटा स्काई ने सबको 'लाइफ झिंगालाला' का सही अर्थ समझा दिया. अब तक सब इस शब्द को बड़ा funny समझते थे.   

अब तमाम बुद्धिजीवियों की भौंहें प्रश्नवाचक मुद्रा में 'टाटा थैया' कर रही होंगी कि इतना हाहाकार किसलिए? एक ठो फ़ोन ही तो करना था न! तो भैया, जब मुसीबत आती है न तो चहुँ दिशा से प्रक्षेपास्त्र की तरह दनादन बरसती है.
सोचिये यदि वो रजिस्टर्ड नंबर आपके पतिदेव के साथ विदेश यात्रा पर गया हो और अभी-अभी लगेज बेल्ट पर अपना बैग उठाते मिस्टर की जेब में घनघना उठे तो आप किस मुँह से कहेंगे, "सुनो, जरा इस नंबर पे मिस्ड कॉल कर देना." शास्त्रों में लिखा है कि थके-हारे बंदे को सबसे पहले चाय पिलाई जाती है, उसके बाद तमाम घर की चुगलियाँ, अपने दुखड़े, तत्पश्चात राष्ट्र की समस्या पर बात करते हुए चुपके से एक काम सरका दिया जाता है. यदि तब भी बात न बने तो बीवी-बच्चों द्वारा कलेश करना बेशक़ जायज़ है.
मज़े की बात ये है कि उस दिन मिस्ड कॉल देने वाला नंबर केबीसी की तरह इतना हसीन हो गया था कि 'ये वो आतिश था ज़ालिम, जो लगाए न लगे' मुआ, बुझ तो जाता था! और जब लगा तो....THE GAME WAS OVER! 
*अगले दिन की कहानी और भी दुःख भरी है, तनिक ठहरिये; Moral के बाद बताते हैं.

मोरल: इस देश में पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दाम ही एकमात्र समस्या नहीं है और न ही प्रेम अकेला है जो सुख कम और पीड़ा अधिक देता है. कुछ मासूम दिल अपने प्रिय कार्यक्रम को न देख पाने पर भी एवीं तबाह टाइप फ़ीलिंग ले लेते हैं. 

* हुआ यूँ कि जब हम टाटा स्काई को घड़ा भर-भर कोस रहे थे, उसी समय श्रीमान जी ने सूचित किया कि "टाटा स्काई की तरफ़ से संदेश आया है कि हम चाहें तो अपना सर्विस प्रोवाइडर बदल सकते हैं." उसके बाद हम ग्लानि और पश्चाताप की जिस गहरी खाई में गिरे हैं कि उससे अब जैसे-तैसे करके खुद ही निकलना होगा. लग रहा कोई परेशानी होगी न उनको, तभी तो इतनी ज़िल्लत झेलने को मजबूर हुए होंगे. इस तरह स्वयं की महानता की पुष्टि कर हमने उन्हें माफ़ कर दिया. हम तो अब भी 'टाटा स्काई' ही रखेंगे, इतने सालों से उनकी बेहतरीन सर्विस के प्रशंसक रहे हैं और payment method तो, अहा! Too good! जियो रे!
आप टाटा, सोनी टाइप बड़े-बड़े लोग काहे पैसे के द्वंद्व में फंसे रहते हो जी? सब मोह माया है, जब तक ये काया है! उसके बाद जो नीरज जी ने कहा वही अंतिम सत्य है -
"खाली-खाली कुर्सियां हैं / खाली-खाली तंबू हैं /खाली-खाली घेरा है 
बिन चिड़िया का बसेरा है
न तेरा है, न मेरा है..........!"
- प्रीति 'अज्ञात'

#मेरे प्यारे देशवासियों, तुम तो बड़े चूज़ी निकले!

बापू का ये मतलब था कि "बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो" 

"बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो"
निस्संदेह गाँधी जी ने यह बात देशवासियों को शांति और अहिंसा का संदेश देते हुए एक सकारात्मक और आशावादी जीवन जीने की प्रेरणा देते हुए कही थी. लेकिन मनुष्य तो आख़िर नालायक मनुष्य ठहरा और जो बात सीधे-सीधे समझ ले तो फिर बेचारा अपने इस पचास ग्राम दिमाग का क्या करेगा! इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए कुछ मानवों (कृपया मा को दा पढ़ें) ने यह तय किया कि "चलो, हम बुरा नहीं सुनेंगे." और जो भी हमारी बुराई करने का इत्तू-सा भी प्रयास करेगा, हम उसे देशद्रोही कहकर इत्ती लानतें भिजवायेंगे, इत्ती लानतें भिजवायेंगे कि अगली बार 'चाय' बोलने से पहले भी वो सौ बार सोचेगा कि कोई इसे personally तो न ले लेगा! यही मानकर आम जनता का EGO भी GO नहीं हो पा रहा. उनकी किसी बात पर आप टोकिये, फिर देखिये कैसे टसुए भर-भर रोना-पीटना मचता है! उन्हें भी बस अपनी तारीफ़ ही चैये, भले ही वो झूठी हो तो क्या!

"बुरा मत कहो" को सबसे सही ढंग से अगर किसी ने समझा और पालन किया है तो वो हैं टीवी शो के जज मंडल! ये अंतरिक्ष में बैठकर चुस्की या मटका कुल्फ़ी खाने की उम्मीद लिए वे प्राणीसमूह हैं जिन्हें कुछ जँचता ही नहीं! परफेक्ट में भी डिफेक्ट निकाल देना इनका प्रिय शग़ल है. न न न न... अब आप ये न समझें कि इन्हें बुरा कहने में मज़ा आता है! कदापि नहीं! बल्कि ये तो अपनी बात इस तरह से लपेटकर पेश करते हैं कि प्रतियोगी भी कन्फ्यूज़िया जाता है कि अभी मैं उदासी वाला पोज़ दूँ या कि ख़ुशी की बत्तीसी चमकाऊँ! कान को घुमाकर पकड़ने का आदरणीय जज साब/मेमसाब का इश्टाइल देखें -
"मुझे लगता है आज आपने आपका 100% नहीं दिया!" काहे लगता है रे? क्या वो 30% लॉकर में रखकर यहाँ गुल्ली-डंडा खेलने आया है?
"आप इससे बेहतर कर सकते हैं...हमें आपसे बहुत उम्मीदें हैं!" अरे, पर अभी तो बताओ न! हमने ऐसा का कर दिया! अब का हम देश से ग़रीबी हटायें! तुम तो भैया,हर साल ऐसी पचास उम्मीदों को पलटकर पूछते भी नहीं!
"अच्छी कोशिश थी!" मितरों...इसके बाद और इंसल्ट करने को कुछ शेष ही नहीं रहता. प्रतियोगी जान जाता है कि "ये गलियाँ ये चौबारा, यहाँ आना न दोबारा."

"बुरा मत देखो" इसका दर्शक रत्न पुरस्कार उस भीड़ को जाता है जो अपराध को होते देख तुरंत वहाँ से ख़िसक लेना ही उत्तम कर्म समझती है. कभी-कभी वो इतनी मासूम भी बन जाती है कि अपनी आँख उठाकर देखने की बजाय मोबाइल के लेंस की दिशा उस तरफ़ कर देती है पर मजाल है कि नंगी आँखों से उसने कभी कुछ बुरा देखा हो! इस विधा का प्रयोग अपने बात से पलटते ग़वाह भी वर्षों से करते आ रहे हैं और हमने भी ऐसे कई निर्णय देखे हैं कि लाश सामने है पर हत्यारा तो कोई है ही नहीं..किसी ने देखा ही नहीं!

मेरे प्यारे बापू, मैं अहिंसा और शांति की कट्टर वाली समर्थक हूँ पर आजकल 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते'. आपको लाठी घुमाते हुए इन चूज़ी नासमझों को आपके सन्देश का सार डायरेक्टली ही समझा देना था कि "नासपीटों अपने ही देश और देशवासियों का ....बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो! हुँह, कभी नहीं!"
- प्रीति 'अज्ञात'

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