रविवार, 31 दिसंबर 2017

दिलचस्प दिसंबर

दिसंबर बड़ा ही दिलचस्प महीना है। यही वो ज़ालिम माह है जिसमें सी.आई.डी. के आखिरी दो मिनटों की तरह बीते ग्यारह महीनों के सारे गुनाहों की लंबी फ़ेहरिस्त आँखों के आगे इच्छाधारी नागिन की तरह फुफकारती नज़र आती है और सभी झूठे/ धोखेबाज़ लोग अपने कानों को पकड़, उठक-बैठक करते हुए ये प्रण लेते हैं कि अब वे सज्जन बनकर ही रहेंगे।
* सभी सज्जन/ दयालु /संवेदनशील लोग इस बैरी दुनिया की चोटों से आहत हो दर्पण के सामने अपना उदास मुखड़ा लटकाते हुए गर्दन में अचानक ही भयंकर वाला ट्विस्ट मारकर खुद को लाचारगी से देखते हैं और बिन मौसम बारिश की तरह अकस्मात् ही अपनी दोनों मुट्ठियाँ भींचकर गुस्से टाइप नकली फड़फड़ाता मुंह लिए ये भीषण प्रतिज्ञा करते हैं कि अब तो प्रैक्टिकल बनके ही रहेंगे। खूब झेल लिए दुनिया के जुल्मो-सितम। ये इनका हर साल का fixed episode है। 
* सारे साल न पढ़ने वाले बच्चे आगामी बचे-खुचे महीनों में दिल लगाकर पढ़ने की विद्या क़सम खा लेते हैं। मार्च फीवर यहाँ से प्रारम्भ होने लगता है। 
* सभी मोटे-मोटियाँ (ऊप्स, अतिरिक्त स्वस्थ) मॉर्निंग वाक की शुरुआत की तिथि एक जनवरी तय करते हुए चुपचाप ही कैलेंडर पर पेंसिल से बिलकुल अपने ही जैसा एक प्यारा-सा गोला बना देते हैं, कुछ इस तरह कि बस उन्हें ही दिखे! :D
* हाफ़ सेंचुरी तक पहुंचे लोग अब नौकरी के बचे-खुचे दस वर्षों में नौकरी पर जाने से पहले नियमित रूप से ईश्वर को हेल्लो/हाय करने का महान धार्मिक फैसला लेते हैं कि फिर बाद में पेंशन की अर्ज़ियाँ खारिज़ होने की कोई आशंका शेष न रहे!
* लड़ाकू सास-बहू मन ही मन शांति वार्ता या चुप्पा-संधि का क्रांतिकारी उद्घोष करती हैं पर ये कश्मीर मुद्दे-सा उलझा मसला है कि चाहते तो हैं पर कर नहीं पाते। 
* शैतान बच्चे पड़ोसी की बगिया से फूल न तोड़ने और बेमतलब घंटी बजाकर उन्हें डिस्टर्ब न करने का और तुरंत ही इसके बदले कोई और नया तरीका ईज़ाद करने का खुसपुस प्लान करते हैं।
* भावुक लोग एक्स्ट्रा सेंटियाने लगते हैं। (जैसे हम अभी हो रहे) :P
* प्रेम में हारे बंटी और बबली अब भी हिम्मत नहीं हारते और वे अपने टूटे हुए दिल की बची-खुची इश्कियाहट को दोबारा भुनाने के लिए वेटिंग लिस्टेड मुरीदों के प्रोफाइल की दूरी बिना झिझक दिन में सैकड़ों क्लिक करके जस्ट चेक इन का आइसपाइस गेम खेलते हैं।
* फूडी बंदे, अब होम डिलीवरी में कम फ़ूड पैक मंगाने का लाचार, बेबस निर्णय लेते हैं.
* सिक्स पैक लिए इठलाता मेहनती मानव अब एट पैक बनाने की उम्मीद लिए फेफड़ों में जोरों से पसलियों के भीतर तक वर्ष के अंतिम दिन की अंतिम ऑक्सीजन खींच स्वयं को दर्पण में देख मुग्धावस्था प्राप्त करता है. 

मने जो भी हो, जनवरी में सबको नहा-धो के, चमचमाते चेहरों पे हंसी का पलस्तर चढ़ाके ही एकदम हीरो-हिरोइनी टाइप एंट्री मारनी है। थिंग्स टू डू एंड नॉट टू डू की सूची दिसम्बर की पहली तारीख़ से बनना शुरू हो जाती है और 31 दिसंबर तक तमाम मानवीय कम्पनों और हिचकिचाहटों से गुजरते हुए एक भयंकर भूकंप पीड़ित अट्टालिका की तरह भग्नावशेष अवस्था में नज़र आती है। मुआ, पता ही न चलता कि क्या फाइनल किया था और क्या लिखकर काट दिया था। आननफानन में एक नई तालिका बनाकर तकिये के कवर के अंदर ठूँस दी जाती है और फिर होठों को गोलाई देते हुए, उनके बीच के रिक्त स्थान से बंदा उफ्फ़ बोलते हुए भीतर की सारी कार्बन डाई ऑक्साइड यूँ बाहर फेंकता है कि ग़र ये श्रेष्ठतम कार्यों की सूची न बनती तो इस आभासी सुकून के बिना रात्रि के ठीक बारह बजे हृदयाघात से उसकी मृत्यु निश्चित थी। 
और इसी तरह भांति-भांति के मनुष्य अपने मस्तिष्क के पिछले हिस्से की कोशिकाओं का विविधता से उपयोग करते हुए अत्यंत ही नाजुक पर मुमकिन-नामुमकिन के बीच पेंडुलम-सा लटकता पिलान बना ही डालते हैं। तो भैया, जे तो थी Exam की तैयारी। अरे हाँ, exam अर्थात परीक्षा वह दुर्दांत घटना या कृत्य है जो जाता तो अच्छा है पर आता नहीं! ;)
-  प्रीति 'अज्ञात

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

बस, यही अंतिम इच्छा कि काश! प्रवेश द्वार पर ये द्वारपाल न हों!

अब चूंकि नववर्ष में प्रवेश तय है और हर बार की तरह सभी अपनी-अपनी योजनाओं में व्यस्त हैं (जिनका वैसे होना कुछ भी नहीं है), ऐसे में कुछ बिन्दुओं पर मेरी स्थिति अत्यंत ही चिंताजनक बनी हुई है. जब तक इनका निवारण नहीं हो जाता, मैं अन्नजल दो बार और ग्रहण करुँगी.
आह! दुख्खम-दुक्ख की अविरल धारा है ये! अब नया वर्ष क्या, किसी भी वर्ष में तनावमुक्त जीवन जी पाना संभव नहीं!
क्या आप जानते हैं कि इन दिनों अधिकांश लोग अचानक ही चिड़चिड़े, खूंखार और लड़ाकू गुणों से समृद्ध कैसे होते जा रहे हैं? क्यों वे हर बात में आपको काट खाने को दौड़ते हैं? दरअस्ल इस समस्या का मुख्य और एकमात्र कारण वह प्रजाति है जो स्वजनित, स्वचालित गतिविधियों को संचालित कर, दिन-प्रतिदिन अपने गुणसूत्रों का बहुविभाजन कर अमीबा की तरह फैलती ही जा रही है. यदि आप विज्ञान के विद्यार्थी न हों तो 'अमीबा' के स्थान पर इसका आपातकालीन पर्यायवाची 'सुरसा का मुँह' रखें, भावार्थ समान ही आएगा. ख़ैर, निम्नलिखित गुणधर्मों, वाक्यांशों और संदेशों के आधार पर आप इन्हें पहचान सकते हैं-

13 मेरा 7 रहे- ये यूरेका-सा अविष्कार और अलौकिक साथ की चर्चा तो अवश्य होगी पर पहले ये बताओ कि ऐसे जी मितलाने वाले सन्देश आखिर बनाता कौन है? वैसे मुझे आशंका है कि ये वही महापुरुष हैं जिन्होंने 12-12-12 को 12 के पहाड़े में लिखकर अपने आचार्य जी की चरण पादुकाओं का सर्वप्रथम रसास्वादन किया था. तत्पश्चात ये  9-2-11 होने का उच्चतम कीर्तिमान स्थापित कर पाने में सफल भी हुए थे और अब जब उस दौरे (टूर नहीं अचेतनावस्था) से उबरें हैं तो सीधे वाट्स एप्प की स्वछन्द, उन्मुक्त, ज्ञान-गंगा की पावन वादियों में आ गिरे हैं. यद्यपि यह एक दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था है, पर हमें अपनी मानसिक शांति के लिए इन्हें स्वयं ही क्षमा कर आगे बढ़ जाना होगा. पर हे ईश्वर! इन्हें क़तई माफ़ नहीं करना क्योंकि ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं!

नंबर टच करो, मैजिक होगा - आज जबकि जन्म लेने के साथ ही बच्चा तक रिमोट और मोबाइल का उपयोग सीख जाता है, उस जमाने में आप ऐसे वाक्यों का प्रयोग कर किसे मूर्ख बनाने की कुचेष्टा कर रहे हैं? हाँ, माना कि धूम्रपान की तरह इस सम्बन्ध में दी गई वैधानिक चेतावनी की अवज्ञा करते हुए कुछ लोग फिर भी दी गई संख्या को टाइप या टच करते ही हैं पर इससे उनका यह कृत्य क्षम्य नहीं हो जाता. अत: यदि संभव हो तो कृपया अपना दाहिना गाल आगे बढ़ाएं और स्मरण रहे कि अगली बार टच लिखते ही एक हजार किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से किसी की दुरंतो इन पर पंचामृत की दुर्लभ, दैदीप्यमान छवि छोड़ जायेगी.

इसे कम से कम नौ समूहों में पहुंचाना, कोई इच्छा अवश्य पूरी होगी - बस, आपकी ही प्रतीक्षा में तो ये नयन पथराए हैं. क़सम से, उस समय तो प्रथम और अंतिम इच्छा यही होती है कि इसे भेजने वाले का गर्दन से कनेक्टेड एकमात्र शीश नौ-सौ बार पृथ्वी पर पटक-पटक एक ही झटके में समस्त पापियों का समूल विनाश कर दें कि 'न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी'

यदि सच्चे...हो तो इसे इतना शेयर करना कि यह बात हर देशवासी तक पहुंचे - अहा! इन्हें तो 'विष शिरोमणि' रत्न से अलंकृत करने का मन करता है. अरे, अपने धर्म का झंडा चिपकाकर देश का सत्यानाश कर राक्षसी अट्टहास करने वालों, आप जैसे तथाकथित भारतीय जब तक जीवित रहेंगे हमें दुश्मनों की क्या जरुरत? आप हैं न, हमारी हरियाली को झूमते गजराज की तरह तहस-नहस करने के लिए, आम भारतीयों के जीवन में उच्चरक्तचाप की दवाई की तरह प्रतिदिन का डोज़ देकर विषाक्त करने के लिए! आपकी झूठी देशभक्ति की जड़ों में जितनी जल्दी संभव हो, कीटनाशक डाल लीजिए, स्वयं पर भी छिड़क सकते हैं. पर एक बात अपने स्मृतिपटल पर सदा के लिए अंकित कर लो कि जो सच्चा भारतीय होता है न, वो तोड़ने नहीं...जोड़ने की बात करता है. आग बुझाता है, उसमें घी नहीं डालता. 

बच्चन जी की कविता - हर हाथ लगी कविता को अमृता प्रीतम, बच्चन जी और गुलज़ार के नाम से वायरल करवाने की निकृष्ट कोशिश करने वालों को 'दवा नहीं दुआ की जरुरत है.'  क्योंकि इनकी बौद्धिकता पर पाला पड़ते देख ककहरा भी पीला पड़ चुका है और बारहखड़ी खड़ी अवस्था में ही मूर्छित पड़ी है.

ये बच्चा खो गया है - क्षमा कीजिए पर वो खोया हुआ बच्चा अब शादीशुदा है और उसके बच्चे के गुमशुदा होने की उम्र आ चुकी. बल्कि अब तो उसने ही साक्षात् उपस्थित हो इस पोस्ट को जड़ से मिटाने की भरसक कोशिशों में स्वयं को समर्पित कर दिया है पर आम जनता!! 'न, जी न! ऐसे ऐसे छोड़ दें! हम तो मिलवा के ही मानेंगे!' वैसे ये अपने जूते की दुर्गन्धयुक्त कंदराओं में दुबके मोजे तक नहीं ढूंढ पाते और हर बात में मम्मी-मम्मी करते हैं पर इस बच्चे के बजरंगी भाईजान बन जाना इनका ध्येय वाक्य बन चुका है. इन शुभचिंतकों से दंडवत प्रणाम के साथ यही विनम्र अनुरोध है कि ये कृपया भगवान् के लिए बस एक बार ही बता कर और उसके पश्चात जीवन त्याग इस धरा को पवित्र कर दें..  ...'नासपीटों! कहाँ से लाएं वो बच्चा? जो अब बच्चा नहीं रहा.'

आप पिछले जन्म में क्या थे? - इस जन्म का तो अब तक क्लियर हुआ नहीं और ये पिछले का बताने आ गए. वैसे भी इस तरह की लिंक यह भ्रांति उत्पन्न कर रहीं हैं कि पूर्वजन्म में सभी या तो राजघराने से थे या फिर महापुरुष, वो न हुए तो सुप्रसिद्ध बॉलीवुड कलाकार.  इससे यह तात्पर्य भी निकलता है कि महान बनने से कुछ विशेष लाभ नहीं होता, क्योंकि अगले जन्म में फेसबुक, व्हाट्स एप्प पर स्वयं को ढूंढते ही नज़र आना है. भावार्थ यह है कि आपने इस समय 'कचरे' के रूप में जन्म लिया है जबकि स्वच्छता अभियान अपनी प्रगति पर है. स्पष्ट शब्दों में कहूं तो 'दुर्गति वही, जगह नई.' अब आप नीले डिब्बें में गिरेंगे या हरे में, यह निर्णय स्वयं लेने का सौभाग्य प्राप्त करें. 

कौन आपसे सच्चा प्यार करता है? आपकी तस्वीर आपके बारे में क्या कहती है? - सुभानअल्लाह! बस यही दिन देखने शेष रह गए थे. अब इन बातों के उत्तर जानने के लिए हमें इन लिंक्स पर निर्भर रहना होगा? इनके बारे में हमसे बेहतर और कौन जान सकता है! लेकिन एक सुझाव है कि ये लोग कुछ धनराशि लेकर ही जवाब बताएं. दो ही दिन में करोड़पति बन जाएँगे क्योंकि जनता इस हद तक उत्सुक रहती है. इश्श, भोली जनता!

कौन आपका प्रोफाइल चोरी-छुपे देखता है? पिछले जन्म में आपकी मृत्यु कैसे हुई थी? कौन आपको मारना चाहता है? - बहुत ख़ूब! यही जानने को ही तो हम इस धरती पर पुन: अवतरित हुए हैं. कर्णपटल की गुफाओं में धंसे रुई के फाहों को निकालकर ध्यानपूर्वक सुनो और समझो ... हमें बताने से एक ग्राम भी लाभ न होगा. इतने चिंतित हो तो कृपया इसकी रिपोर्ट सीबीआई को भेजो. वैसे उनको बताकर भी कुछ विशेष नहीं होने वाला! :P

इस लिंक पर क्लिक करो आपके एकाउंट में 299 आएंगे- अच्छा! अबकी बार आपने जले पर नमक ही नहीं छिड़का बल्कि नींबू भी कसकर निचोड़ डाला है. वैसे ही कड़की के दिन चल रहे, अब बचे खुचे सिक्के इन चोर-उचक्कों को और लुटवा दें! जिन बेचारों पर नोटबंदी ने क़हर ढाया था वे अब तक उसके भीषण सदमे से उबर नहीं सके हैं. सुनो, ये बताओ...तुम उन्हें सीधे ही गोलियों से भून क्यों नहीं देते??  

समस्याएँ और भी हैं अतएव जो इस 'टॉप टेन' में स्थान नहीं पा सके, वे प्रसन्न न हों एवं अपना जीवन विशुद्ध निरर्थक ही समझें. 
बस, यही अंतिम इच्छा है कि काश! जनवरी के प्रवेश द्वार पर ये द्वारपाल न हों! यक्ष प्रश्न...क्या, 2018 में इन संतापों से मुक्ति मिलेगी?
भारी ह्रदय से यही बताना चाहूंगी कि बेरोज़गारी का दुःख इतना विशाल नहीं, जितना यह बन गया है. अब कुल मिलाकर इन सबसे मुक्ति ही इस मासूम जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह गया है इसलिए आप इस पोस्ट को 9 समूहों में भेजकर, इतना शेयर करो, इतना शेयर करो कि मेरा आपका 7, 7 जन्मों तक रहे..... और, हाँ ... इस लिंक पर क्लिक करके शेयर बटन को हौले-से टच करना, ग़ज़ब मैजिक होगा..... हीहीही  :D :D
- प्रीति 'अज्ञात'

#इंडिया टुडे ग्रुप के ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म, ichowk पर प्रकाशित
https://www.ichowk.in/humour/how-social-media-is-making-our-life-complicated-and-how-we-can-tackle-the-various-problems/story/1/9342.html

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

संपादकीय - जनवरी 2017 ( हस्ताक्षर वेब पत्रिका) : क्या हम सचमुच समाधान ढूँढने में सक्षम नहीं?

ये कैसी होनी है, जिसे हम विधाता पर डाल निश्चिन्त हो जाते हैं! उन बच्चों ने तो अभी ठीक से दुनिया भी नहीं देखी थी। कितनों की अधूरी ड्रॉइंग उनकी कल्पनाओं के रंग भरे जाने की प्रतीक्षा कर रही होगी, किसी की माँ ने उसके स्कूल से लौटने के बाद उसकी पसंदीदा डिश बनाकर रखी होगी, किसी के पिता उसे सरप्राइज देने के लिए उसका वही खिलौना खरीदकर लाये होंगे, जिसके लिए उसने बीते सप्ताहांत पूरा घर सिर पर उठा रखा था, दादा-दादी ने आज उसे सुनाने के लिए परियों वाली कहानी सोच रखी होगी। कितना दर्दनाक होता है वो मंज़र, जहाँ बच्चे के इंतज़ार में बैठे माता-पिता को उसके कभी न आने की सूचना दी जाती है, जहाँ गूँजती किलकारियों की आवाज़ गहरे सन्नाटे में बदल जाती है, जहाँ पलंग पर पड़ा बेतरतीब सामान किसी की राहें तकता है, जहाँ प्रतीक्षा उम्रभर का दर्द बन घर की चौखट से लिपट जाती है। आह, कई बार शब्द ही नहीं होते, जो किसी का दर्द बयां कर सकें। वो शब्द भी कहाँ बने, जो किसी का दर्द बाँट सके हों कभी!

बस दुर्घटना, ट्रेन दुर्घटना, स्त्रियों के प्रति अपराध जब-जब होते हैं
हम दुःख जताते हैं, अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं। इसके अतिरिक्त अभिव्यक्ति का और कोई माध्यम भी नहीं! उधर अधिकारी मामले की पूरी जाँच का आश्वासन देते हैं। यदि घटना से कोई बड़ा नाम जुड़ा है, तो जाँच आयोग बैठा दिया जाएगा। हंगामा या आंदोलन हुआ, तो सरकार द्वारा मामले को जाँच के लिए सीबीआई को सौंप दिया जाएगा। पीड़ित को ढाँढस बंधाने के लिए कुछ रुपए दिए जाएँगे और इस तरह बात ख़त्म हो जाएगी। पर मेरा सवाल यह है कि समस्या कब ख़त्म होगी? क्या हम सचमुच समाधान ढूँढने में सक्षम नहीं? या कि हम सभ्यता के पाशविक काल में जीने के अभ्यस्त हो चुके हैं?

किसी इंसान की उसके ही घर में घुसकर हत्या कर दी जाती है लेकिन उसकी मृत्यु और उस परिवार के प्रति संवेदना के स्थान पर चर्चा इस बात की होती है कि फ्रिज़ में रखा माँस किसका था? 'मृत्यु' एक तमाशा भर बनकर रह जाती है!
लड़कियों को भरे बाज़ार परेशान किया जाता है तो कहीं उनका बलात्कार होता है, तलाश अपराधी की नहीं इस बात की होती है कि आख़िर वो घर से क्यों, किसके साथ और किन वस्त्रों को धारण करके निकली थी। यानी हम यह मानकर ही चलें कि पुरुषों की जन्मजात प्रवृत्ति तो ऐसी ही है और उनके सुधरने की तथा कुत्सित मानसिकता को त्यागने की कोई उम्मीद नहीं। इसलिए स्त्रियाँ ही स्वयं को क़ैद करके रखें? क्या इस सोच का कभी अंत होगा या कि हर मुद्दा, भुनाए जा सकने के लिए ही जीवित रखा जाता है?

जलीकटटू हुआ या कि चिंकारा या कोई भी अन्य जानवर। उनके प्रति हिंसा का विरोध होता है, होना भी चाहिए! उनके शिकार पर प्रतिबन्ध लगा है, लगना ही चाहिए। ऐसे मामलों में पूरा देश एक साथ खड़ा होता है, ये उससे भी अच्छी बात है कि हमारी संवेदनाएँ अब तक जीवित हैं। लेकिन जब किसी इंसान की लाश न्यूज़ बन सड़क पर पड़ी रहती है, किसी को दिन-दहाड़े गोली मार दी जाती है, किसी बच्चे को बुरी तरह पीटा जाता है तब मनुष्यता कहाँ चली जाती है? हर मौत के विरोध में आवाजें कहाँ ग़ुम हो जाती हैं? काश, मानवीय हिंसा पर प्रतिबन्ध हो!....हैवानियत पर प्रतिबन्ध हो! हर मृत्यु को गंभीरता से लिया जाए!

दरअसल दोषी के सुधरने की उम्मीद तो तब हो....जब किसी को भय हो। यदि बलात्कार की सज़ा, तुरंत फाँसी हो और वो भी एक सप्ताह के भीतर ही तय कर दी जाए तो क्या मजाल किसी की हिम्मत भी हो, लड़की को छूने की। पर ऐसा होता नहीं और न ही होने वाला है क्योंकि आधे तो नेता ही इसमें लटक जाएँगे और बाक़ी उनकी छत्रछाया में जीने वाले।
नोटबंदी से कुछ अच्छा जरूर हुआ होगा, सहमत हूँ। पर अब बढ़ते अपराध और गंदगी को मिटाना आवश्यक है, ये भ्रष्टाचार से भी ज्यादा जहरीले हैं। देश के विकास के लिए नोटमुक्त से कहीं अधिक, भयमुक्त समाज की आवश्यकता है। जब आधी आबादी घर में बंद है, तो विकास पूर्ण रूप से होने की आशा करना बेमानी लगता है।

कितना हास्यास्पद है कि लोग शौचालय बनाने के लिए भी सरकार की मनुहार की प्रतीक्षा करते हैं। कचरे को कचरेदान में डालना भी अब दूसरों को सिखाना पड़ रहा है, वो भी इस उम्र में आकर! कोई सेलिब्रिटी समझाएगा, तो ही समझ पाएँगे। थूकना, पिचकारी मार सार्वजनिक स्थानों को दूषित करना बदस्तूर जारी है। पहले हम इस सब से उबरें, फिर बात बने!

नए वर्ष में आप साईकल चलाएँ, हाथ मिलाएँ या फूल खिलाएँ....बस घर से निकले को, शाम उसके घर तक सकुशल पहुँचाएँ।
फुटपाथ पर सोये, ठिठुरते बचपन को उसका मौलिक अधिकार शिक्षा दिलाएँ।
अपराध को पैसे नहीं, सजा के बल पर ख़त्म कराएँ।
वाहन चालन का लाइसेंस उन्हें मिले, जिन्हें सचमुच वाहन चलाना आता हो क्योंकि ये सिर्फ उनके ही नहीं, कई लोगों के जीवन का मामला है।
कंक्रीट होते शहरों में कहीं-कहीं मिट्टी छुड़वाएँ कि आने वाली पीढ़ियों का जीवन और साँस चलती रहे।
आओ, भारत को हम-आप, सुरक्षित सुंदर बनाएँ!
इन्हीं चली आ रही कभी सूखी-कभी हरी उम्मीदों के साथ-
नववर्ष मुबारक़!
गणतंत्र मुबारक़!

चलते-चलते: जब कुंभ मेला लगता है तो तमाम चित्रों से सबकी टाईमलाईन भरी रहती है। व्यापार मेला लगता है, तब भी यही दृश्य देखने को मिलता है। विश्वकप में तो भावुकता अपने चरम पर होती है लेकिन पुस्तक मेले के लगते ही एक विशिष्ट वर्ग को साँप सूंघ जाता है। क्यों, भई? एक अभिनेता हर चैनल में जाकर अपनी फिल्म का प्रचार करता है। खिलाड़ी भी विज्ञापन के माध्यम से अपना चेहरा जनता को याद दिलाते रहते हैं। संगीतकार और गायक भी अब पार्श्व में नहीं रहे। कंपनियों के विज्ञापन के जिंगल सब एक सुर में गाते हैं। नेता अपनी पार्टी के प्रचार और दूसरी के दुष्प्रचार का कोई मौका कभी नहीं छोड़ते। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री जी भी रेडियो पर अपनी बात सुनाने लगे हैं। तो फिर इस 'पुस्तक मेले' से ही किस बात की चिढ़? जिसे जाना है, जाए। जिसे नहीं जाना, वो न जाए! आप इतने कुंठित क्यों हैं?
दुःख इस बात का है कि पुस्तक मेले का सबसे ज्यादा सम्मान जिस वर्ग को करना चाहिए (करते भी हैं), वही इसका अपमान करने में भी पीछे नहीं रहता। यही हाल कुछ लोगों ने हिंदी का भी किया है। जिसकी घर में ही इज़्ज़त न हो तो गैरों से कैसी उम्मीदें? दुःखद है, बाक़ी उन्हें सोचना है जिनके कारण सवाल उठते हैं।
- प्रीति अज्ञात

गुरुवार, 30 नवंबर 2017

जब तक जीवन शेष है, हर बात की गुंजाइश शेष है।

पता है तुम्हें? प्रत्येक स्त्री के जीवन में वह क्षण एक बार तो आता ही है जब उसे यह लगने लगता है कि किसी को उसकी ज़रुरत नहीं और उसके चले जाने से किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। वो अपने-आप को जी भरकर कोसती है कि कैसे इसके लिए, उसके लिए; उसने सब कुछ किया। अपने त्याग भी मन-ही-मन गिनती है और उदास रहने लगती है। इसे हॉर्मोन्स के मत्थे मढ़ तसल्ली भले ही कर ली जाए पर इस तनाव, चिड़चिड़ाहट के बाद का पड़ाव अवसाद ही है। जो उसके अंदर जीने की इच्छा को ख़त्म कर देता है या फिर उसकी उपस्थिति दूसरों का जीना भी दूभर कर सकती है। स्त्री की समस्याओं को समझने और उसके निवारण के लिए जितने समय, धैर्य और सहानुभूति की आवश्यकता होती है....ज़िम्मेदारियों से जूझते पुरुष से उसकी उम्मीद कर पाना बेमानी ही है। आख़िर वह भी तो एक इंसान ही है, उसे कोई अदृश्य शक्ति या सुपरपॉवर नहीं मिली हुई हैं। इसलिए स्त्री को स्वयं ही ख़ुश रहना सीखना होगा...किसी और को ख़ुश करने के लिए नहीं बल्कि अपने भीतर की 'पीड़िता' को दूर भगाने के लिए। उसे मज़बूरी के बस्ते में बंद अपनी पसंद को झाड़-पोंछकर बाहर निकालना होगा। घर-गृहस्थी की व्यस्त्तता को सुव्यवस्थित करना होगा। याद रहे जब चाहत हो तो हर काम के लिए समय निकल आता है। चाहे वो बाग़वानी हो, पेंटिंग हो, पॉटरी, पढ़ाई, लेखन, संगीत कुकिंग या कोई भी शौक़। उम्र के गणित में क्यों पड़ना? जब तक जीवन है, हर बात की गुंजाइश शेष है।

जब आप दिल से हँसतीं हैं न, तो सारी प्रकृति गुनगुनाने लगती है। जीवन पहले से सरल हो जाता है। फूल-पत्ती, चाँद-तारे सब बोलने लगते हैं। पक्षियों की भाषा समझ आती है। नदी, पहाड़, झरने सब बाहें फैलाये अपने-से लगते हैं। ह्रदय की दहलीज़ पर सुनहरे ख़्वाबों की बेरोकटोक आवाजाही शुरू हो जाती है। मन ख़ूब जोरों से खिलखिलाता है। मारकाट और ख़ुन्नस भरी दुनिया में इन मुस्कुराहटों की बड़ी आवश्यकता है।है, न!
- प्रीति 'अज्ञात' 
* अपनी मित्र के लिए स्नेह सहित 

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

उत्तर की तलाश सभी को है पर प्रश्न करने का जोख़िम कोई नहीं उठाना चाहता!

सारे राजनीतिक दल देशवासियों को एक साथ भ्रष्टाचार से लड़ने, देश को गरीबी से मुक्त करने, रोजगार उपलब्ध कराने के खोखले वायदे तो ख़ूब करते हैं पर क्या हमने इन्हें ख़ुद, किसी भी मुद्दे पर एक साथ खड़े देखा है? क्या इन्होंने देश की किसी भी समस्या का समाधान मिलजुलकर निकालने की कोशिश की है? नहीं, न क्योंकि इनका तो पूरा समय एक दूसरे पर कीचड़ उछालने, आरोप-प्रत्यारोप और बेतुकी बातों में जाया होता है। ये हमारे देश के दुश्मनों के नहीं बल्कि एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सबूत ढूँढने में ज्यादा रूचि लेते हैं। इन्हें देश की नहीं अपनी कुर्सी की चिंता है और इनका पूरा समय उसे टिकाने की कोशिशों में और स्वयं को दूसरी पार्टी से बेहतर बताने में ही बीत जाता है। पार्टियाँ आती रहीं, स्वयं को श्रेष्ठ बताती रहीं और अपने कार्यकाल में विरोधी पार्टी की कमियाँ गिनाती रहीं। उनके बंद केस खुलवाकर जनता के सामने रखती रहीं। क्या इससे देश का विकास हुआ ? सत्तारूढ़ पार्टी के जाने के बाद आने वाली हर पार्टी ने भी यही प्रोटोकाल दोहराया। इतिहास को हर बार उल्टा-पलटा गया। जनता हर बार confuse हुई, हर बार ही उसने अपने निर्णय के लिए ख़ुद को धिक्कारा। और फिर अगली बार दिमाग़ से वोट डालने की सोची, पर हर बार वही ढाक के तीन पात। हम बेवकूफ़ से कहीं ज्यादा मजबूर हैं। राजनीति में सारे नेता ही बुरे हों, ऐसा भी नहीं!
दुर्भाग्य यह है कि इस 'व्यवसाय' में मात्र अच्छी सोच रखने से ही कुछ नहीं होता, सर्वसम्मति की आवश्यकता होती है जो कि मिलती ही नहीं क्योंकि दूसरे दलों को देश से ज्यादा अपनी नाक की फ़िक्र हैइसलिए समस्याएँ अब तक इसलिए नहीं जीवित हैं कि इनमें सुलझाने का माद्दा नहीं , समस्याएँ इसलिए जीवित हैं क्योंकि इनमें सुलझाने की चाहत ही नहीं!

कभी बीजेपी है, कभी कांग्रेस है , कभी आप है , कभी समाजवादी पार्टी। लेकिन इन सबके बीच मेरा देश कहाँ है? इनके मुद्दों में देश कहीं है ही नहीं।
जो देशवासियों से एकता का आह्वान करते हैं वे  संसद में खुद जूतमपैज़ार करते हैं। 

मीडिया हाउस में भी स्वयं को नंबर 1 देखने की होड़ है। कितना अच्छा होता यदि सारे चैनल मिलकर देश को प्रथम रख इसकी उन्नति के लिए कार्य करते। पर कुछ सत्ता के चाटुकार बने बैठे हैं और कुछ ने विपक्ष का मोर्चा संभाल लिया है। कुछेक को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी दूध पीने वाले पत्थर, चोटी काटने वाला भूत, मक्कार स्वामी ओम  और लोगों को बेवकूफ़ बनाती राधे माँ में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। राम-रहीम, हनीप्रीत टाइप तथाकथित लव स्टोरी या किसी मंत्री की सेक्स सी डी मिलते ही इनकी बांछें खिल उठती हैं। क्या इन समाचारों की देश को वाक़ई जरुरत है? 
अंधविश्वास की ख़बरों को दिखाकर उन्हें बुरा बोलने वाले ये सभी चैनल सुबह से आपकी राशि और भविष्य की दुकान खोल लेते हैं। दोपहर में कोई प्रायोजित शक्तिवर्धक या लम्बाई बढ़ाने का टॉनिक बेचता एक घंटे का विज्ञापन चलता है तो कहीं निर्मल बाबा जैसे 'सुधारक' और 'कल्याणकारी बाबा' लोगों की समस्याओं का इलाज समोसे-चटनी के साथ करते नज़र आते हैं। क्या इन चैनलों ने आम आदमी की समस्या और सुधार पर विस्तार से बात की है कभी?? यदि की है तो कितने मिनट? हत्या हो या कोई भी अपराध, उसकी लम्बी चर्चा भी ये तभी करते हैं जब वो हाई प्रोफाइल केस हो। आरुषि हत्याकांड में भी हेमराज का नाम लेने वाला कोई न था।

हाँ इतना तो जरूर मानना पड़ेगा कि मीडिया संवेदनशीलता का परिचय भले ही न दे पाता हो पर हम तक ख़बरें पहुंचाने के लिए धन्यवाद का पात्र तो बनता ही है स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ कैम्पेन को हम सब तक पहुँचाने में और पर्यावरण को बचाने सम्बन्धी संदेशों के माध्यम से इन्होने देश के विकास में थोड़ा योगदान तो दिया है। ख़ुशी की बात है कि कुछ हैं जो सही स्टोरी दिखाते हैं, सच को सामने रखने का हौसला रखते हैं पर दुःख ये है कि ज्यादा सच बोलना देशद्रोह में गिना जाने लगा है। 
हम सहिष्णु भारत के सहिष्णु नागरिक हैं लेकिन जब अपनी पर आती है तो बर्दाश्त नहीं होता। कभी बैन लगा दिया जाता है तो कभी फ़तवे का ख़तरा लहराता है।

दुनिया के सामने हम एक हैं लेकिन चुनाव के समय कोई ठाकुर है, राजपूत है, शिया-सुन्नी है, यादव है, पंडित है, ईसाई है, पारसी है, सिख है, जैन है, पिछड़ा वर्ग है, अल्पसंख्यक है। 
एडमिशन के समय भी हम यूँ ही अलगअलग धर्मों में बँट जाते हैं।
दंगों में तो अलग-अलग होना नियम ही बन गया है। हम अपने ही देश की जमीं पर खड़े हो, उसी का सत्यानाश मिलजुलकर करते हैं।  तोड़फोड़ करते हैं, आग लगाते हैं। 
हम एक भारत श्रेष्ठ भारत की संकल्पना पर मिल-बाँटकर खाने की बात करते हैं लेकिन एक राज्य जब दूसरे का पानी रोक ले तो हम अपनी-अपनी पाली में जाकर उसका समर्थन करने लगते हैं।
सर्व धर्म समभाव हमारा स्वभाव है और हमें सबके गुणों का आंकलन उनके कर्मों के आधार पर करने की सीख दी गई है लेकिन आजकल हम गुजराती, बिहारी, मराठी, पंजाबी, सिख, उत्तर-दक्षिण भारतीय बन एक-दूसरे की भाषा, बोली और त्यौहारों की धज्जियाँ उड़ाने लगे हैं। सेवन सिस्टर्स को तो हम भारतीय मानते ही नहीं! मुंबई से फ़रमान जारी होता है कि बिहारी और यू पी वाले चले जाएँ तो दूसरे प्रदेश अन्य प्रदेश को कोसने लग जाते हैं। पर इन सबके बीच में मेरा हिन्दुस्तान कहीं खो जाता है।

आख़िर हम कब अपने-अपने धर्म के खोलों से बाहर आएँगे ? कब हम हर राज्य और उसके निवासी को अपना मानेंगे? कब हम राष्ट्रीय संपत्ति को अपना समझ उसकी रक्षा में सहायक बनेंगे? कब हम अपने देश को स्वार्थ से ऊपर रखकर सोचेंगे? कोई कट्टर हिन्दू है तो कोई कट्टर मुसलमान। 
मेरा सवाल है....हम कट्टर भारतीय क्यों नहीं हो सकते? हमारा धर्म भारत क्यों नहीं हो सकता? देश के विकास के लिए सारे दल, सारे मीडिया हाउस एकजुट क्यों नहीं हो सकते? सिर्फ़ किताबी निबंधों में ही नहीं.....हम सच में एक क्यों नहीं हो सकते?
- प्रीति 'अज्ञात'
 © Copyright Preeti Agyaat 2017

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

मिर्ज़ापुर

आदरणीय डॉ. राजनाथ सिंह जी 
सादर अभिवादन 

पत्र उसे ही लिखा जाता है, जिससे हम परिचित हों और इस लिहाज़ से मेरा आपको पत्र लिखना बनता ही नहीं! लेकिन आपको भी कहाँ मालूम होगा कि मेरे और आपके बीच एक कड़ी रही है....आज नहीं लगभग तीन दशक पूर्व। समय का अनुमान भर ही है ये क्योंकि बचपन की बातें हैं इसलिए वर्ष ठीक से याद नहीं। लेकिन स्मृतियाँ कहाँ उम्र भर साथ छोड़ती हैं!

मिर्ज़ापुर मेरी स्मृतियों के पन्नों में सबसे चटख़ रंग भरता है। इस शहर में भी यहाँ का 'के. बी. पोस्टग्रेजुएट कॉलेज' मेरे दिल के बेहद क़रीब सदैव ही रहा है और मैं अब भी वहाँ एक बार और जाने की उम्मीद संजोये बैठी हूँ। यहाँ के बड़े-बड़े मैदानों में मेरे बचपन ने छोटे-छोटे डग भरना प्रारंभ किया था, यहीं के ऊँचे सुर्ख़ गुलमोहर के वृक्षों के नीचे मेरी उमंगें थक जाने पर कुछ पल साँस ले पुन: परवान चढ़तीं थीं, यहाँ के हर लहलहाते पौधे ने मुझे प्रकृति प्रेमी बनाने की पहली नींव रखी और इसी कॉलेज के बीचों-बीच बने सुंदर तालाब में मेरे स्वप्नों के कमल खिलना शुरू हुए थे। कुल मिलाकर मेरे बचपन की हर स्मृति यहाँ की हवाओं में दर्ज़ रही है। 

पूरे यक़ीन के साथ तो नहीं कह सकती कि आप उन्हें जानते होंगे या नहीं, पर मेरे नानाजी डॉ. श्याम सिंह जैन यहाँ के प्रथम प्राचार्य थे (शायद 1957 से) नानाजी का घर कॉलेज कैंपस में ही था। छोटी उम्र थी, इसलिए मैं और मेरा भाई मनीष पूरे कैंपस को ही अपना घर समझ कूदते-फांदते थे। कॉलेज के मेन गेट वाली रोड पर हेल्पर्स (ठाकुर, दुर्गा) के जो एक कमरे के घर थे न, वहाँ भी हम चक्कर मार आते थे। घर में मामा, मौसियों, नानाजी, नानीजी के साथ ख़ूब मस्ती भी करते थे। मुझे ऐसा लग रहा है कि आप भी उन्हीं दिनों इस कॉलेज से जुड़े थे। नानाजी रिटायरमेंट तक यहाँ प्राचार्य के तौर पर पदस्थ थे। एक बार गर्मियों की छुट्टियों का थोड़ा-सा याद है मुझे, आप आदरणीय अटल जी के साथ आये थे। उस समय हम लोग घर के बाहर तीन-चार सीढ़ियों के दोनों ओर बनी फिसलपट्टियों पर फ़िसल रहे थे। समर मामा से भी आपका नाम सुना है। 

आज दोपहर NDTV में रवीश कुमार के कार्यक्रम में, मिर्ज़ापुर के इसी कॉलेज की दुर्दशा देखकर मन टूट-सा गया। नाना जी की भी बहुत याद आई। आज वो होते, तो कितना दुःखी होते। उनकी आत्मा भी कितना कष्ट पा रही होगी। इस कॉलेज को सर्वश्रेष्ठ बनाने में उन्होंने कोई क़सर नहीं छोड़ी थी। सबके आदर्श थे वो।
मेरा प्रश्न यही है कि समय के साथ जब हर जगह विकास की बात है तो ऐसे में शिक्षा के मंदिर का यह हाल क्यों?
यह सच है कि मैं इस ओर आपका ध्यान इसलिए आकृष्ट करना चाहती हूँ क्योंकि इस स्थान से मेरा विशेष लगाव है। आपने भी इस कॉलेज को अपनी उत्कृष्ट सेवाएँ दी हैं। लेकिन सर, सुधार तो हर जगह होना चाहिए। हर शहर, हर गाँव, हर गली के मोड़ पर किसी-न-किसी देशवासी की यादें बसती हैं। एक आम भारतीय की यही तो धरोहर हैं। हम विरासतों को संजोने की बात करते हैं, आगे जाने की बात करते हैं, लेकिन जो हमारे पास है....उसे कौन बचाएगा?? शिक्षा का बढ़ता स्तर ही तो अच्छे नागरिकों को जन्म देगा। 
गाँधीवादी हूँ और आशावान भी
इसलिए पूरी उम्मीद है कि कुछ सकारात्मक उत्तर अवश्य मिलेगा।
*रवीश कुमार जी और उनकी टीम को मेरा और मेरी मम्मी नलिनी जैन की तरफ से विशेष धन्यवाद!

सादर 
प्रीति 'अज्ञात' 

कार्यक्रम का वीडियो लिंक-
https://www.youtube.com/watch?v=77TWz-kqMLo

मेरे और उस शहर के रिश्ते की कहानी बयां करती कुछ लिंक्स -
  
http://preetiagyaat.blogspot.in/2016/03/blog-post_3.html
http://preetiagyaat.blogspot.in/2015/10/blog-post.html


http://agyaatpreeti.blogspot.in/2015/06/blog-post_81.html

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

#शहर से लौटते हुए

मैं अब भी उस छोटे से शहर की बड़ी राह जोहती हूँ. शहर जो हरियाते दरख़्तों से घिरी संकरी गलियों के इर्दगिर्द बसा था, इन दिनों कुछ चौड़ा नजर आता है. आदमियों से ज्यादा दुकानें हैं, लोग हैं, पर सब जल्दी में.  
अब कोई किसी से हंसकर बात नहीं करता. नाम जानती थी जिस दुकान वाले का; मैंने चहककर उसे आवाज़ दी "राजकुमार भैया, कैसे हो?"
वो हड़बड़ाकर हैरानी में इधर-उधर देखने लगा जैसे कि यह प्रश्न बेहद अप्रत्याशित था उसके लिए. मैंने भी अचकचाकर मुँह फेर लिया. 

स्कूल से जुडी कितनी ही यादें थीं. सारे टीचर्स, प्रिंसिपल, वो छुट्टी का घंटा बजाने वाली अम्माँ और बाहर पॉपिन्स, पिपरमेंट की गोली वाली दुकान. अरे हाँ, एक ठेला भी तो था चाट का. पच्चीस पैसे में आलू की दो गरमागरम टिक्कियाँ, वो भी चटपटी चटनी और चने के साथ. कैसे प्यार से फटाफट बनाता था.
स्कूल के प्रांगण में लगा वो नीम का पेड़, जिसके चबूतरे पर बैठ अजीब-सा सुकून मिलता था. यह सब सोचते हुए चलती जा रही थी कि जैसे धक्-से बैठ गया ह्रदय...स्कूल का वो बड़ा सा गेट और स्कूल का नामोनिशां तक न था. उसकी जगह एक बहुमंजिला काम्प्लेक्स ने ले ली थी. छूकर देखने को स्मृतियों के अवशेष तक न थे. गली ठसाठस भरी थी वाहनों से. उन्हीं के बीच बचती-बचाती निकलती कि अचानक ही एक दुपहिया वाहन से टक्कर हुई. वो चिल्लाया 
"दिखता नहीं है क्या?"
कहना चाहा मैंने भी चीखकर "हाँ, कुछ भी नहीं दिखता है अब 
न स्कूल है, न इमारत है, न वो ठेले और न ही हँसता दुकानदार,बताओ कहाँ गए सब!" 
पर मैं पनियाई आँखें लिए मौन, खिसियाकर रह गई
यूँ भी वो रुका ही नहीं था. 
भागते वक़्त में चीखने का समय सबके पास है, ठहरकर कौन सुनना चाहता है भला!
शहर भूल चूका है मुझे, इक मैं ही इसे क्यों न भूल सकी!
#शहर से लौटते हुए 
-प्रीति 'अज्ञात'

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

हम चाँद को छूने में खजूर पे हैं लटके

यदि आप सच्चे भारतीय रहे हैं और दूरदर्शन युग में जन्मे हैं तो उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साब का वह विज्ञापन अभी तक न भूले होंगें जिसमें वे एक बच्चे के साथ तबला बजाते हुए उसे "वाह! उस्ताद" कहते हैं और बच्चा हँसते हुए ज़वाब देता है "अजी, हुज़ूर वाह ताज़ बोलिए"
ज़ाकिर साब के हाथ में ताज़ चाय का कप और बैकड्रॉप में ताज़महल, किसी रोमांटिक फ़िल्म के ख़ूबसूरत दृश्य सा उभरता था। कितने जवाँ दिल तो ज़ाकिर साब के घुँघराले, लहराते बाल और तबले की थाप पर फ़िदा होकर चाय पीने लगे थे...इश्क़ में पड़े सो अलग!

ये ताज़ है साहब! दुनिया जितना भारत को जानती है उतना ही 'ताज' को भी! ताजमहल किसी पहचान या कृपा का मोहताज़ नहीं है। कितने ही प्रेमी और वैवाहिक जोड़े इसी ताज़ के आगे साथ जीने-मरने की क़समें खाते हैं। कितनी ही आँखों में इसकी चमक मुहब्बत की रोशनियाँ बिखेरती हैं। कितनी धड़कनें इसकी दूधिया रौशनी में जवाँ होती हैं। कितनी यादें इसके परिसर की हरियाली में महक भरतीं हैं। प्रेम की निशानी बनी, चाँदनी बिखेरती ये इमारत हम भारतवासियों की आँखों ही नहीं, दिल में भी बसती है। 

देश से बाहर जाते हैं तो विदेशियों से परिचय के बीच में 'ताज़' ख़ुद-ब-ख़ुद चला आता है, जब वो कहते हैं "ओह इंडिया, नमस्ते। वी नो योर ताजमहल, इट्स ब्यूटीफुल!" तो न सिर्फ़ हमारा सीना गर्व से चौड़ा जाता है बल्कि चेहरे की चमक भी किसी ताज़ से कम नहीं होती।
जो टूरिस्ट, भारत आते हैं उनकी सूची में पहला स्थान ताज़ ही लेता है।ताज़ ने कितनों को रोज़गार दिया। कितने फोटोग्राफरों ने जीवन इसी के प्रांगण में गुज़ारा। उनकी रोजी रोटी और करोड़ों देशवासियों की सबसे सुन्दर स्मृतियाँ यहीं से होकर गुजरती हैं।

आख़िर इतिहास से छेड़छाड़ करने से वर्तमान को क्या लाभ मिलता है?
यूँ भी इतिहास कुरेदने पर आएँगे तो कुछ भी शेष न रहेगा। ये सारी मीनारें, किले, इमारतें सब युद्धरत राजाओं की ही देन हैं। एक ने बनाया, दूसरे ने कब्ज़ा किया, तीसरे ने छीना.... इस बीच कितनी लाशें गिरीं और किस-किसकी....उन्होंने भी इस angle से हिसाब न लगाया होगा जैसे आजकल बहीखाते खोले जा रहे। 
कहने का तात्पर्य यही है कि जब भी कोई इमारत मुद्दा बनी...... बिखरा देश ही है....नुक़सान हमारा ही हुआ और इस सबका हासिल कुछ नहीं! 
इनसे भी जरुरी कई विषय हैं जिन पर चर्चा की आवश्यकता देशहित होगी।

बाबरी से निकले अब ताज़ में हैं अटके
हम चाँद को छूने में खजूर पे हैं लटके 

ग़ज़ब की हैं दलीलें, सोच क्या कमाल है 
कहा था न मियाँ, ये साल बेमिसाल है 
आओ झुकाएँ मस्तक नव दीप अब जलाएं 
जरूरत थी जिनको, सारे वो मुद्दे भटके

खड्डे में कोई गिरता, नाले में बहता जाता 
पेपर में दबा ढक्कन, हर ज़ुल्म सहता जाता 
ये ज़ख्म है मुलायम, चलो मिलके भूल जाएँ 
लगे हैं धीरे-धीरे, पर जोर के हैं झटके 

अशिक्षा से हो लड़ाई, भूखों को मिले रोटी
इंसानियत की हत्या करके न नुचे बोटी 
राहत की चाशनी में कोई ज़हर न मिलाएँ
है इल्तज़ा यही बस, चाहे ये तुमको खटके

हम चाँद को छूने में खजूर पे हैं लटके

वैसे एक मज़ेदार आईडिया भी है - इससे तो अच्छा था कि इसका नाम श्रीमती चमेली देवी स्मृति स्मारक / श्री बनवारीलाल निर्मित स्मारक ही रख दिया होता! क्योंकि ये निवाले निगलने में तो जनता एक्सपर्ट हो चुकी है। :D :D
कोई न...लगे रहो!
- प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 16 सितंबर 2017

जीवन की पाठशाला से

"जब हम किसी से अपने लिए अपेक्षाएँ रखने लगते हैं तो एक बार पलटकर यह अवश्य देखना चाहिए कि हमने उसके लिए अब तक क्या किया या करना चाहा है! यहाँ बात मात्र सहायता की ही नहीं, समुचित व्यवहार भी मायने रखता है. इस मनन के बाद जो उत्तर सामने आए वही आपके अब तक के जीवन का सार है, अनुभव है, व्यक्तित्व को इंगित करता है.
भाग्यशाली हैं कि समय है और ये जीवन फ़िलहाल बीता नहीं....अभी भी अपार सम्भावनाएँ शेष हैं क्योंकि कितना कुछ है जो कहा ही नहीं, कितने कार्य हैं जिन्हें किया ही नहीं, कितने पल हैं जिन्हें जिया ही नहीं!" - प्रीति 'अज्ञात'
* जीवन की पाठशाला से 

सफ़रनामा

ट्रेन से जब- जब भी यात्रा करती हूँ तो सफ़र का अधिकांश हिस्सा साथ दौड़ते वृक्षों, खेतों, उसमें काम करते लोगों और बादलों की विविध आकृतियों को निहारते हुए ही निकल जाता है। काँच की खिड़की से बाहर झांकते समय, कूदते नन्हे बच्चों का चिल्ला-चिल्लाकर टाटा बोलना भी बड़ा मनोहारी लगता है। यूँ इन खिड़कियों से अक़्सर ही बाहर की आवाजें टकराकर वहीं ढेर हो जाती हैं पर उनके मासूम चेहरे का उल्लास मेरी इस धारणा को बेहद संतुष्टि देता है कि अभिव्यक्ति को सदैव शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, वो तो चेहरे और आंखों से भी ख़ूब बयां होती है।
बहुत बार यूँ भी हुआ कि ठुड्डी को हाथों पे धरे हुए ही रास्ता कटता गया और बीते जीवन के पृष्ठ फड़फड़ाते रहे। यात्रा आपको केवल गंतव्य तक ही नहीं पहुंचाती, बीच राह बहुधा खुद को खुद से मिलाते हुए एकालाप भी करती है।
ख़ैर... एक सेमिनार में बीकानेर जाना हुआ। आधा सफ़र, उन 8..9 प्यारी दोस्तों के साथ गुज़रा, जिनसे यह पहली ही मुलाक़ात थी। हम सभी उसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। दिल से कहती हूँ यह अब तक की ट्रेन यात्राओं में, सबसे अलग और बेहद शानदार अनुभव था। हाँ, रात भर चटर-पटर के ईनाम में सहयात्रियों की बददुआएँ जरूर मिली होंगी। पर एक खिलखिलाते सफ़र के लिहाज से यह सौदा कुछ बुरा नहीं!
हर यात्रा एक नया अनुभव देती है। कितने किस्से होते हैं पर सब कहाँ लिखे जा पाते हैं।
#सफ़रनामा

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कुछ देर पहले ही माउंट आबू से एक सुंदर जोड़ा ट्रेन में चढ़ा। बैठते ही मेम साब ने साब को हुकुम दिया, " जल्दी से लस्सी ले आओ।"
साब, जो अभी बैठने की पोज़िशन लेने का मूड बना ही रहे थे, तुरंत अटेंशन मुद्रा में आ गए। लाड़ से अपने प्यारे से बेटे को निहारते बोले, "लाओ, इसे भी ले जाता हूँ।"
बीवी जी ने तुरंत ही मुंडी घुमाते हुए कहा, "नहीं, फिर दोनों ही छूट जाओगे।" :D
मेरी तो हँसी ही न रुकी तब :P
बहरहाल अंतिम सेकंड पर साब जी सफल हुए। विजेता की मुस्कान उनके चेहरे पे। :)
इधर मेमसाब ने फरमाइशों की अगली सूची जारी कर दी है।
पिलीज़, इस धमकाते अंदाज़ को 'स्त्री सशक्तिकरण' मत कहियो। 😢 :D
#सफ़रनामा

- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

सब कड़ा-कड़ी का खेला

हम इसकी कड़ी निंदा करते हैं। 
अपराधियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्यवाही की जाए।
उन्हें कड़े-से- कड़ा दंड दिया जाएगा। 
और इस तरह भारत देश में कड़ा-कड़ी-कड़े का रायता यूँ ही फैलता जा रहा है। इसके प्रचार-प्रसार में हम सभी अपने-आप को हार्दिक धन्यवाद देकर इस पर कड़ा दुःख प्रगट करते हैं। कृपया 'कड़ा रस' से ओतप्रोत इस 'भक्तिगीत' को अपनी caller tune बनाएँ-

कड़ा पहन के बोले साहब, कड़ी है इसकी निंदा
सोच रहा अब अपराधी को, रहने न दूँगा ज़िंदा 
रहने न दूँगा ज़िंदा, कार्यवाही भी कड़ी होगी
दुर्घटना की जाँच को भैया, समिति खड़ी होगी
समिति खड़ी होगी अउर कड़ा दंड दिलाना होगा 
कड़ी सुरक्षा संग ले अब हेलीकॉप्टर से जाना होगा

उफ़्फ़ कड़कड़ ये बिजली चमकी मनवा बैठत जाय 
साहब कड़क के गरजे रामू, चाय ल्यो बनाय
मौसम का है खेल सब, हाय मन अपना भारी है 
कैसे संभले विकट बड़ी, हमपे जिम्मे'दारी है 
तभी कूद के लल्लन बोले, काहे हिम्मत हारी है 
मुए अगस्त को आग लगे, पर साहब.....गश्त जारी है!
- प्रीति 'अज्ञात' 
#shame
pic credit: Google

शनिवार, 12 अगस्त 2017

साँसों का किराया जो लगता है!

ख़बरों में पूरा क़ब्रिस्तान है....घर के एक कोने में निढाल, बेसुध पिता और आँसुओं की नदी में डूबती माँ....जिनके लिए अब भी इस सत्य को स्वीकारना संभव नहीं लगता। एक पल को भी साँस अटकती है तो कितनी घबराहट होती है, बुरी तरह छटपटाने लगता है इंसान। उन मासूमों पर न जाने क्या बीती होगी, सोचकर भी रूह काँप जाती है।
तमाम चीखों- चिल्लाहटों, माथा पटकते, छाती पीटते आक्रोश के बदले, इस बार भी वही कोरे आश्वासन और उच्च स्तरीय जांच के वायदे की बंधी-बंधाई पोटली उछाल दी गई है।
वो सपने जो आँखों में कबसे झूल रहे थे.....कभी न सच होंगे। हवाओं का किराया जो लगता है!
मायूस है उम्मीदों का बेबस आसमां.....आज भी सिर झुकाए, मौन, नि:शब्द!
कुछ भी तो नहीं बदला... राजनीति भी हर बार की तरह जारी है....
दोषारोपण का ठीकरा एक-दूसरे पर फेंकने का खेल भी वही पुराना .... जो अपने आँगन की किलकारी ही खो बैठा, उसे इन सबसे अब क्या मिलेगा?- प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 6 अगस्त 2017

कलपने की भी एक मर्यादा होती है!

स्त्री-अस्मिता पर चोट करने वाले और उनके समर्थक वही लोग हैं जो अपनी नई, प्रगतिशील छद्म विचारधारा को परोसते फूले नहीं समाते। इस प्रश्न का उत्तर भी स्पष्ट ही है कि आख़िर उनकी छत्रछाया में पलती सैकड़ों जुबानें मौन और भयाक्रांत क्यों हैं! ये भी माना कि चलो अभिधा और व्यंजना के जाल में फाँसकर उन्होंने कुछ मछलियाँ अपनी तरफ खींच लीं हैं। लेकिन सर्वाधिक आश्चर्य इस बात का है कि सभ्य समाज की नैतिकता और सत्य का परचम लहराने वालों को एन उसी वक़्त पर काठ क्यों मार जाता है जबकि उन स्वरों की सर्वाधिक आवश्यकता होती है! धिक्कार है, उन तमाम महिला-पुरुष रचनाकारों को! जो किसी अन्य का कमेंट लाइक कर फिर इनबॉक्स में आकर कहते हैं कि आपने इस घटना का विरोध कर बहुत अच्छा किया पर हमारी तो मजबूरी है। क्या मजबूरी भाई? क्या चार लाइन लिख अपनी फोटो चेप देना ही लेखक का गुणधर्म रह गया है? समाज के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं बनता?

कृष्णा कल्पित जी ने जो लिखा, स्त्री के लिए ऐसी निकृष्ट भाषा का प्रयोग लगातार हो रहा है जिसमें प्रयुक्त शब्दों का व्याकरण में भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता पर इसको भी पसंद किया जा रहा है। इस दरबार में मत्था टेकने वालों का अपने घर की स्त्रियों के प्रति व्यवहार कैसा होगा एवं ये उन्हें किस दृष्टि से देखते होंगे, इसका भी अनुमान स्वत: ही लग सकता है। 


ये न सिर्फ़ यौन कुंठित और घृणित सोच से ग्रस्त लोग हैं बल्कि अपनी पितृ-सत्तात्मक सोच पर चौतरफा हमले से भी बौखलाए हुए हैं। यदि समवेत स्वर में इनका विरोध नहीं किया गया तो कल ये अनामिका जी के लिए बोले थे, फिर गीताश्री के लिए.....अगला नंबर किसी का भी हो सकता है। इन दिनों हम सोशल मीडिया के उस दौर के गवाह हैं जहाँ विवादों की आड़ में व्यक्तिगत खुन्नस भरपूर निकाली जाती है। स्त्री को चुप करने का सबसे सुलभ तरीका है कि आप उसके चरित्र पर हमला कर दें, सौभाग्य है कि ऐसे पुरुष, कुत्सित मानसिकता के इतने गहरे कुँए में जा गिरे हैं कि इनका तो चरित्र भी ढूंढे नहीं मिलता। इनके समर्थकों का कहना है कि कृष्णा कल्पित जी ने तो विरोध देखते ही अनामिका जी के लिए लिखी गई अपनी पोस्ट हटा ली थी पर इन अंधभक्तों को ये नहीं दिखा कि फिर उन्होंने गीताश्री के लिए भी वही विष वमन किया। यानी इन्हें अपने कृत्य को लेकर न तो कोई शर्मिंदगी है और न ही दुःख! और ये सिलसिला इन शब्दों के लिखने तक जारी है।

कविता का विरोध होना गलत कभी नहीं रहा पर व्यक्तिगत आक्षेप आपकी सड़ी सोच का उदाहरण देते हैं। ऐसे लोगों के स्तर तक तो नहीं उतरा जा सकता पर उन्हें निकास का द्वार तो दिखाया ही जा सकता है। गुटबाजी और स्वार्थ से बाहर निकल सत्य का साथ दें तो ही आपका लेखन सार्थक है। पुरस्कार न मिल पाने की या चयन समिति में जगह न बना पाने की कुंठा और उससे उपजा लावा कई 'बुद्धिजीवियों' की पोस्ट पर पढ़ती आई हूँ। दुःखी होना या निराशा भी चलो, स्वाभाविक है! पर जनाब, असहमति का भी एक सलीक़ा होता है।
विरोध अपनी जगह है पर मर्यादित भाषा की उम्मीद यदि एक साहित्यकार से भी न की जा सके तो जरा सोचिए वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को आप क्या देकर जा रहे हैं?
वरिष्ठता मान पाती है और उसके मार्गदर्शन का आशीष पा युवा निहाल हो उठता है। पर समय के साथ मानवीय मूल्यों में भारी गिरावट आती जा रही है। दुःख होता है यह देखकर कि घृणा और कुंठा से भरा ह्रदय, भाषा को किस तरह विकृत कर देता है।
वो समय बीत चुका जब हम साहित्यकार को उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही जान पाते थे अब सोशल मीडिया में उनकी भाषा और व्यवहार भी दिखाई देता है। सभ्यता और असभ्यता का अंतर करना इतना कठिन भी नहीं, शेष जो कविता-शविता हैं, सब बाद की बातें हैं।
-प्रीति 'अज्ञात' 

शनिवार, 27 मई 2017

दिखाई दिया यूँ....कि बेसुध किया :D

'चश्मा' अब चश्मा लगता ही नहीं! शरीर का एक अतिरिक्त अंग हो जैसे. किसी के पांच की बजाय छः उंगली और हमारी आँखों के ऊपर आँखें...मनपसंद (इसे 'मजबूरी' के पर्यायवाची के रूप में लें) फ्रेम में गढ़ी. कहते हैं स्त्रियों को गहनों से प्यार होता है, हमारा तो यही गहना है जो हमने बाल्यावस्था से पहना है. हमारे पास ऐसे विविध गहने हैं और हम उन सभी को ख़ूब हिफाज़त से रखते हैं. सुनकर हंसी आये भी तो हम शर्मिंदा नहीं होंगे, पर हमने उन्हें लॉकर में रखा हुआ है. आपके लिए चश्मा हो सकता है पर हमारी आँखें है ये. इसे 'चश्मा' बोलना भी अपनी आवश्यकता को जलील करने जैसा लगता है, इसीलिए पिछले कई वर्षों से हम इसे पूरे सम्मान के साथ 'हमरी आँखें' कहकर पुकारते हैं. जब कभी खो जाती हैं तो बच्चों को ढूँढने में लगा देते हैं, वो माँ की टर्मिनोलॉजी अच्छे से समझते हैं. हमारी नाक और कान को भी हम उतने ही सम्मानजनक तरीके से देखते हैं और आँखों की बैसाखी मानते हैं, आख़िर इन्हीं पर तो ये टिकीं हैं. ये न हों तो आँखें पीसा की झूलती मीनारें बन जायेंगीं और फ़िलहाल इतिहास में नाम दर्ज़ कराने में हमें कतई इंटरेस्ट नहीं!

हाँ, तो हम कह रहे थे कि हमारे पास नाना (इस शब्द का उद्गम कहाँ से और क्यूँ हुआ होगा क्या पता! पर मस्त लगता है) प्रकार के चश्मे हैं. एक सामान्य दिनचर्या के लिए आधे फ्रेम वाला, वही आना-जाना, फलाना-ढिमका वाला घटिया रूटीन, दूसरा पढने के लिए फुल फ्रेम वाला (ये अपुन की पसंदीदा जिंदगी है), तीसरा किसी कार्यक्रम के लिए, बिना फ्रेम वाला (ये सबसे high standard वाला होता है, इसमें फोटू पे बिजली न्यूनतम अनुपात में गिरती हुई दिखती है) चौथा आँखों पे आँखें पे आँखें टाइप माने आड़ी-टेड़ी टूटी खिडकियों पे चश्मा और उस चश्मे पे गॉगल्स. (अति उच्च वर्ग वाले इसे 'शेड्स' पढ़कर तसल्ली पा लें). ये बाउंड्री वाल के साथ आता है.इसे लेते समय विशेष ध्यान रखना होता है कि ऊपरी माले का आकार, कारपेट एरिया से ज्यादा हो. मल्लब. नीचे वाला चश्मा न दिखे, इसकी पूरी कोशिश करनी पड़ती है. क्या करें, हमरी पॉवर वाले शेड्स अभी ईज़ाद ही ना हुए! ये शेड्स बोलकर हमें अभी-अभी 'पॉवर पफ गर्ल' वाली फीलिंग हुई! खी-खी-खी!!

तो ये तो हुए चारों प्रकार और हमें इन सबकी डुप्लीकेट copy भी रखनी पड़ती है यानी कहीं जाएँ तो आठ हमसफ़र तो साथ होते ही हैं. ग़नीमत है टिकट एक की ही लगती है. वैसे हम एक पांचवी प्रकार की आँख भी बनवाये थे गुस्से में, कि बार-बार बदलना न पड़े. पढ़े-लिखे इसे bi-focal कहते हैं पर इसे पहनते ही हमारी दुनिया तो out of focus हो गई थी. हम कहीं के न रहे थे. बस यही लगता था कि किसी पहाड़ी इलाके में ट्रेन घूम-घूमकर चल रही और हम दिल हूँ-हूँ करे वाला गाना अपनी भद्दी आवाज में रेंक रहे. बस तबसे हमें उस टूरिस्ट स्पॉट से नफ़रत-सी हो गई. पर पहले प्रेम की तरह उसे भी संभाल के रखे हैं. हे-हे-हे 

अब कुछ ज्ञानी-ध्यानी अवश्य सोच रहे होंगे कि इत्ती ही आफ़त आ रई तो कांटेक्ट काहे नहीं लगवाये लेतीं. तो लो अब जे बालो किस्सो सुनो..जब हमारी शादी तय हुई तो कुछ शुभचिंतकों को चिंता हुई कि विंडस्क्रीन के साथ मेकअप जंचेगा नहीं, तो बड़ी मुश्किल से डाक्टर साब हमें उल्लू बना पाने में सफल हो पाए. हम भी थोड़े तो खुश हो ही गए थे. एकदम लल्लनटॉप टाइप फीलिया रहे थे. कि अब हमहू मेंगो पीपल की तरह दुनिया देख सकेंगे. पार्लर में टनाटन तैयार होके सीधा स्टेज पे आये. सिर झुकाके शर्माते हुए आने की और प्यारी बहिनों के हाथ थाम वहां तक पहुंचाने की परंपरा के चलते ज्यादा कुछ पता ही न चला. शुरू में तो सब ठीकठाक रहा, पर एक घंटे बाद ही हमारी लालटेन तो झिलमिलाने लगी. हालत बेहद ख़राब और मुस्कुराना उससे ज्यादा जरुरी. सो, 'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो' से प्रेरणा लेते हुए ये समय कट गया. उसके बाद फेरों में वक़्त था. जब हम ब्रेक में गए तो सबसे पहले इन चायनीज़ मोमोस को बाहर निकाल फेंका और फिर गर्व से अपने स्क्रीनसेवर (चश्मा) को चढ़ा आये. फिर जो रामायण हुई, उसका इस विषय से कोई लेना-देना नहीं. पर इतना जरुर जान लें, कि कांटेक्ट लेंस हरेक के लिए नहीं होते. जिस बन्दे को बिना चश्मे के दिखता ही नहीं वो स्वयं कांटेक्ट लेंस लगा ही नहीं सकता...एक घंटा तो हथेली पे टटोलने में ही निकल जाता है कि मुआ रक्खा कित्थे है!

बचपन में हम बहुत frustrate हो जाते थे. वैसे तो स्कूल और दोस्तों में सबके फेवरिट थे लेकिन दुष्ट आत्माएं तो हर जगह पाई ही जाती हैं. ऐसी ही प्रेतात्माओं ने हम जैसों के लिए एक गीत बना रखा था "चश्मुद्दीन बजाये बीन, जूता मारो साढ़े तीन" कुछ सभ्य, बदतमीज इसे "घड़ी में बज गए साढ़े तीन" गाकर हमारी आँखों में थमे गंगासागर को भीतर ही फिंकवा दिया करते थे. ये सम्पूर्ण चश्मिश प्रजाति को समर्पित गीत था, जिसके रचयिता के बारे में कोई जानकारी आज तक उपलब्ध न हो सकी. वहां तो हम कुछ न बोल पाते थे, पर घर में घुसते ही ताला खोल सबसे पहले अपना चश्मा दीवार पे दे मारते और फिर शाम तक अफ़सोस करते. ये एक्स्ट्रा आँखें रखने की प्रेरणा हमें, हमारे बचपन के इन्हीं उच्च कर्मों ने दी है.

पहले ये सोच ख़ूब दुखी होते थे कि यार एक दिन तो नार्मल आँखों से दुनिया दिखा दे पर अब हम इसी बात पे हँसते हैं कि दिखानी होती, तो फोड़ता ही क्यों? उसे कोसते नहीं, वरना बची-खुची भी कहीं न निकल ले! रात को रोड क्रॉस करने में दिक्कत आती है, एक्स्ट्रा प्रोब्लम के कारण ड्राइविंग लाइसेंस नहीं मिल सकता, मोबाइल का बहुत कम उपयोग कर सकते हैं, गाडी से बाहर निकलते ही दो-तीन बार इसका ग्लास साफ़ न किया जाए तो बेमौसम कोहरा छा जाता है; इन बातों से कहीं ज्यादा कभी इस बात का अफ़सोस जरुर होता है कि बारिश में चलने का मजा नहीं लूट पाते, सो बगीचे में और पार्किंग में पानी भर, इसकी भी भरपाई कर लिया करते हैं.
एक मजेदार बात और ...दो दशक पहले जो चश्मे आते थे न, आधा किलो के तो होते ही होंगे. उसे पहन यूँ लगता था कि नाक वेट लिफ्टिंग का परमानेंट कोर्स कर रही. एकदम dumbell की तरह हो जाती थी. बीच में पिचकी और दोनों तरफ फूली. अब तो विज्ञान ने तरक्की कर इसका भी डाइट प्लान करवा इसे स्लिम बना दिया है. अब चश्मिश होना फैशन स्टेटमेंट है और कूल भी लगता है. हम बैकवर्ड जमाने के लोग ऐवीं फूल ( गुलाब नहीं, मूर्ख वाला) बनके दिन काटते रहे.

खैर...जो भी है. अपुन खुश हैं कि प्रकृति की सुन्दरता रोज अपनी आँखों में भर सकते हैं. किसी का हाथ थाम उसे सहारा दे सकते हैं. फिलहाल जितनी भी रोशनी है, लेखन और जीने के लिए काफ़ी है. दुनिया जैसी भी है, दिख तो रही है....उससे ज्यादा देखने की अब कोई ख्वाहिश बची भी कहाँ!

बोलो, तारा रारा, बोलो तारा रारा
हायो रब्बा, हायो रब्बा, हायो रब्बा
- प्रीति 'अज्ञात'

मंगलवार, 23 मई 2017

यात्रा और यादें

"बेटा, ऐसे pose बनाओ।"
"मुँह थोड़ा कम खोलकर हंसो।"
"हाँ, बस थोड़ा-सा इधर की ओर देखो।"
हद है भई! तस्वीर ले रहे कि स्क्रीन टेस्ट? :/
और सबसे ज्यादा बुरी तस्वीर तो मुझे नहाए हुए, राजा बेटा, रानी बिटिया जैसे up-to-date बच्चों की लगती है।
बच्चे अपने स्वाभाविक रूप में सबसे प्यारे लगते हैं। मुँह बनाते हुए, गला फाड़ चिल्लाते हुए, मिट्टी में खेलते, हँसते और बिखरे बाल के साथ। दोनों हाथ खाने से सने हुए, पर चेहरे की चमक इस बात का पक्का सबूत..कि उन्हें भोजन बड़ा स्वादिष्ट लग रहा है।
कुल मिलाकर, बच्चों को हर समय सलीके से रहने की कोई जरूरत नहीं। उम्र के साथ समझदारी स्वत: ही आती जाती है। सिखाना जरूर चाहिए, पर कुछ पल उन्हें बिंदास भी जीने देना चाहिए।ये दिखावा, बोले तो शो बाज़ी करने के लिए बड़े ही काफ़ी हैं। :P

* अभी-अभी एक बच्चा, फ़ोटो खिंचवा-खिंचवाकर irritate हुआ बैठा है। वैसे मुँह गोलगप्पे-सा बनाकर बड़ा प्यारा भी लग रहा। उसके मम्मी-पापा, फ़ोटो शॉप करके उसे और सुंदर बना रहे हैं। ;)  :D
छुट्टियाँ, बचपन और गुलाटियां...ज़िंदगी की सारी खूबसूरत अदाएं, इन्हीं लम्हों से होकर गुजरती हैं। :)
एल्बम पलटो, तो बड़ा गुस्सा आता है...बच्चे, इतनी जल्दी बड़े क्यूँ हो जाते हैं! :(
फिर याद आता है, उफ़्फ़ हम भी तो हो गए! :D
-प्रीति 'अज्ञात'
** यात्रा और यादें 

गुरुवार, 18 मई 2017

कृपया प्रकाश डालें

कृपया प्रकाश डालें-

प्रकाशकों के बारे में आपके अनुभव कैसे रहे? इसमें दोनों तरह के प्रकाशक शामिल हैं। एक वो, जो आपके लेखन में दम होने के बाद भी तगड़ी रक़म लेकर ही आपकी पुस्तक प्रकाशित करके आपको धन्य करते हैं और दूसरे वो, जो बिना कोई धनराशि लिए आपके शब्दों को पाठकों तक पहुँचाते हैं। वैसे एक तीसरा प्रकार भी है जो पैसे लेकर कुछ भी छाप देता है। कृपया इनके लिए एक अलग मुकुट की व्यवस्था की जाए। :D

इन तीनों प्रकारों से सम्बंधित प्रश्न एक ही प्रकार के हैं-
1. आपकी पुस्तक की कितनी प्रतियाँ छपीं?
2 . कितनी बिकीं ?
3. ऑनलाइन स्टोर्स में उनकी उपलब्धता/ अनुपलब्धता के संदर्भ में  जानकारी। 
4.  रॉयल्टी
5. या ऐसा कोई भी प्रश्न जहाँ उन्हें लेखक के प्रति उनके उत्तरदायित्व का स्मरण होने लगे।

अब ये बताइये -
1. क्या उपरोक्त पाँचों तरह के प्रश्नों के उत्तर देने से आपका प्रकाशन-समूह बचता है?
2. बिना पूछे ही जानकारी दे देते हैं। 
3. कभी नहीं देते हैं।
4.  मैसेज पढ़कर unread में परिवर्तित कर देते हैं। 
5.  व्हाट्स एप्प के टिक मार्क को नीला होने से पहले ही निगल लेते हैं।  
6. आपके पच्चीस मैसेज पढ़ने के बाद एक मरा हुआ-सा जवाब भेजते हैं कि 'बताता हूँ' उसके बाद ऐसे गायब होते हैं जैसे, 'गधे के सिर से सींग गायब हुए थे' 
नहीं, नहीं! सींग गायब होने में तो थोड़ा समय लग गया था न! :O 

मैं जानती हूँ कि इन प्रश्नों के उत्तर देने की हिम्मत हरेक लेखक में नहीं होगी। आख़िर उनकी अगली पुस्तक का भी सवाल है! मुझे उनसे नाराज़ होने या शिकायत करने का कोई हक़ ही नहीं! ईश्वर उन्हें सदैव सुरक्षित रखे! :)
पर कृपया उन प्रकाशकों के नाम जरूर लिखिए, जो आज के पूर्ण व्यावसायिक दौर में भी अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन पूर्ण रूप से कर रहे हैं। मैं 'प्रकाशक' को प्रकाश की राह पर ले जाने वाले के रूप में देखती आई थी। लेकिन बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, दिखने-सुनने में भी आ रहा है कि :( हर बार की तरह यहाँ भी मेरी राय गलत ही निकली। मैं सही होना चाहती हूँ, इसलिए आपके उत्तर अपेक्षित हैं।
ध्यान रहे, ये कुंठा नहीं जिज्ञासा है। आपके उत्तर आने वाले लेखक/ लेखिकाओं को सही प्रकाशन समूह चुनने में सहायता देंगे। यह भी संभव है कि निराश होकर वे पुन: डायरी लेखन तक ही सीमित रह जाएँ! 
यदि आप एक गंभीर साहित्यकार/प्रकाशक/ या किसी भी माध्यम से इस क्षेत्र से जुड़े हैं तो मैं उम्मीद रखती हूँ कि जवाब ईमानदारी से ही मिलेंगे। बाक़ी तो जो है सो हइये ही। एक पक्का वादा है, फ़तवा तो नहीं ही निकालेंगे जी! ;) :P 
- प्रीति 'अज्ञात'
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अनावश्यक सूचना-
यदि आप किसी ऐसे प्रकाशक की पोस्ट पढ़कर बलिहारी हुए जा रहे हैं जो अपने पसंदीदा लेखक के वीडियो /ऑडियो बड़े गर्व के साथ दनादन शेयर कर रहा है तो रुकिए जरा.....उस वीडियो /ऑडियो के बनने में जनाबेआली का कोई योगदान नहीं है। ध्यान रहे, ये बंदा अपनी जेब से इकन्नी भी नहीं खर्चता। उसे खर्च करवाना आता है, लेखक को भुनाना आता है और बात न जमे (माने लेखक पुस्तक के प्रकाशन की राशि के अतिरिक्त और खर्च देने में असमर्थता जताये तो) तो उसे देख न पहचानने का ढोंग करना भी उफ्फ!! क्या ग़ज़ब आता है। आप हॉलीवुड जाओ न पिलीज़। :D

निवेदन- कृपया अच्छे प्रकाशकों को टैग जरूर कीजिए। हमने किसी को भी नहीं किया, वरना ये होता कि सिर्फ़ अपनी पुस्तक की बात कर रही हूँ। यह एक सामान्य चर्चा है जिसका हरेक जीवित, मृत और मूर्छित इंसान से सीधा संबंध है। 

शुक्रवार, 5 मई 2017

बदलती राहें

"किसी शांत, ठहरे हुए पानी में फेंका गया एक छोटा-सा पत्थर ही कैसी हलचल पैदा कर देता है। ढप्प की आवाज़ सबको सुनाई देती है और फिर एक बिंदु के चारों तरफ गोलों का लगातार बनता जाना, जिसके गोले ज्यादा बने, वही जीता! खेल हुआ करता था। कई बार पत्थर कुछ इस तरह से फेंका जाता था कि वह पानी को दो जगह छूता हुआ अंदर जाता था।

पानी को चोट नहीं लगती, उसका काम तो बहते जाना है। कभी-कभी बस दिशा ही बदलनी होती है। वो पत्थर जिसने उसकी जमीं को भेद दिया है, काफी गहरा जाता है। धीरे-धीरे तलहटी में एक पहाड़ खड़ा होने लगता है, उसमें से दर्द जब भी रिसता है....जल-स्तर बढ़ता जाता है।
याद रहे, फिर एक दिन तूफ़ान भी आता है!"
- प्रीति 'अज्ञात' 
* 'बदलती राहें' कहानी से  

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

बात निकलेगी, तो फिर दूर तलक़ जायेगी....!


'वंदना करते हैं हम'..... बचपन में रेडियो ceylon पर बजते इस भक्ति-गीत और हमारी आँख खुलने का बड़ा गहरा रिश्ता रहा है। 
सच कहूँ तो मैंने इसे कभी भी बैठकर तन्मयता से नहीं सुना होगा और न ही इसके lyrics याद हैं लेकिन फिर भी हमारी सुबह में यह गीत इस तरह घुल-मिल गया था कि जैसे दिनचर्या का एक हिस्सा हो बिल्कुल बिनाका( बाद में सिबाका) गीतमाला की तरह! इन दोनों में अंतर इतना ही था कि अमीन सयानी और गानों के चढ़ते-उतरते पायदानों की ख़ूब चर्चा होती। पहले पायदान के गीत के लिए बेफ़िज़ूल शर्तें लगतीं और प्रथम पायदान तक पहुँचते-पहुँचते साँसें यूँ अटक जातीं जैसे कि बोर्ड परीक्षा का रिजल्ट निकलने वाला हो! उधर 'वंदना करते...!' पर चर्चा कभी नहीं हुई लेकिन इसकी ख़ुश्बू हम सबकी रूह में तब से अब तक बसी हुई है। बिनाका से जो प्रगाढ़ रिश्ता था, वही रिश्ता इस ख़ूबसूरत और पवित्र सुबह से भी जुड़ गया था। कुछ बातें साथ चलती हैं, हवाओं की तरह! होती तो हैं, बस बयां नहीं की जातीं!

समय के साथ जैसे-जैसे देश का विकास  होता गया, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और उसी दर से व्यस्तता और जिम्मेदारियाँ भी। इस सब में रेडियो बहुत पीछे छूट गया। इतना कि मुझे याद भी नहीं कि आख़िरी बार ये दोनों कब सुने थे! परन्तु इतना जरूर याद है कि न तो मेरी किसी सुबह को इससे अड़चन हुई थी और न ही परीक्षा वाली कोई रात को। सब सुचारु रूप से चलता था। कहीं कुछ भी forced नहीं लगता था। हालाँकि रेडियो में तो यूँ भी ऑन/ऑफ़ अपने हाथ में होता है। हमारे घर में मरफी का ट्रांज़िस्टर था, जो एक चपत खाते ही सिग्नल कैच कर लेता था! कई बार अलग-अलग एंगल में भी रखकर शगुन करते थे कि अब सही बजेगा!

ख़ैर, फिर टीवी आया और उसके बाद सा-रे-गा-मा! इसी पर पहली बार सोनू निगम को सुना-देखा। लाखों देशवासियों की तरह उनके ज़बर्दस्त प्रशंसकों में एक नाम हमारा भी जुड़ गया। छोटा-मोटा क्रश भी कह सकते हैं। आज तक इतना तो तय है कि सोनू निगम, अमिताभ बच्चन, जगजीत सिंह, सचिन की बुराई का मतलब कि आप हमारी नज़रों में उसी वक़्त गिरकर हमारी डायरेक्ट घृणा के पात्र बन चुके हैं।
फ़िलहाल सोनू की बात करते हैं..... तो 'कल हो न हो', 'पंछी नदिया, पवन के झोंके' के बाद तो फिर किसी और को सुनने का मन ही नहीं करता था। 'दीवाना', 'जान' एल्बम दो-तीन हज़ार बार तो सुने ही होंगे मैंनें। 'अब मुझे रात-दिन तुम्हारा ही ख़्याल है' सुनकर भला कौन न दीवाना हो जाता!

आज सोनू निगम के एक tweet को पढ़कर गुस्से से कहीं अधिक दुःख हुआ। अभी भी लग रहा कि शायद किसी ने उनका अकाउंट हैक किया होगा! अगर नहीं किया है तो बताओ सोनू......
* चिड़ियों की चहचहाहट और मुर्गे की बाँग से सुबह संगीतमय नहीं लगती क्या? कि उन्हें भी चुप रहने को कहें?
* मस्ज़िद की अजान हो या मंदिर, गुरूद्वारे, किसी भी धार्मिक स्थल के घंटे की आवाज....ये ध्वनियाँ सुबह में पवित्रता नहीं घोलतीं?

अरे, दूधवाले की साइकिल की घंटी, बरामदे में गिरा अख़बार, सड़क पर मॉर्निग-वॉक को जाते लोगों की चहलक़दमी, दुकानों के खुलते शटर ये सब और न जाने ऐसे कितने ही पल हमारी-आपकी सुबह को ख़ुशनसीबी से भर देते हैं। इनसे मन उल्लसित होता है और रोज एक नई
रौशनी का आगाज़ भी।
इनसे शिकायतें तो हरगिज़ नहीं हो सकतीं, बल्कि हमें इन पलों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि सुबह की पहली चाय की, पहली चुस्की में जो मिठास है वो इन्हीं की उपस्थिति घोलती है।
वरना बंद खिड़कियों और चलते ए.सी. के बाद तो हवाओं की भी ज़ुर्रत कहाँ जो किसी की नींद में खलल डाल सके!

*हाँ, इस बात में कोई दो राय नहीं कि ईश्वर तक अपनी बात/ प्रार्थना पहुँचाने के लिए लाउडस्पीकर की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वो अगर है तो हर जगह मौजूद है। सर्वदृष्टा है। हमारे, आपके भीतर ही है। लेकिन फिर तो ये बात बहुत बड़ी बहस में बदल जाने वाली है क्योंकि हम बैंड-बाजों के देश में रहते हैं। लाउडस्पीकर को लेकर ही कई और विषय उठेंगे। यहाँ बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक, हर कार्यक्रम में बिना शोरोगुल के बात हमें हजम ही कहाँ हो पाती है। जब तक सड़क पर नागिन-डांस न हुआ, कोई बियाह ही नहीं पूरा होता! सारे उत्सव धड़ाम-धुड़ूम करके ही मनाये जाते हैं। मैच जीते तो जुलूस, मिस यूनिवर्स बने तो आतिशबाजी, चुनाव जीते तो उम्मीदवार को 21 तोपों की सलामी, कोई विदेश से लौटकर आया तो ढोल नगाड़े ढमाढम बजते हैं। रतजगा होता है, गरबा चलता है, dj वाले बाबू गाने चलाते हैं।
अब हर मौके पर चुपचाप बैठकर तो सेलिब्रेशन होने से रहा! कहने का मतलब ये है कि जब कुतर्क की लाइन लगेगी तो ध्वनि के साथ, वायु प्रदूषण को भी लपेटे में लेकर माहौल को और प्रदूषित ही करेगी। 
- प्रीति 'अज्ञात'
17 April'2017      11.33pm

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

पूर्णा.... A COMPLETE FILM!


'पूर्णा' छोटे गाँव के बड़े हौसलों को सलाम करती, ईमानदारी से बनाई गई एक अत्यंत ही ख़ूबसूरत फिल्म है जो सच्चाई को बिना किसी तड़के के परदे पर सलीक़े से उतारने में पूरी तरह सफ़ल रही है। दो चचेरी बहनों की दिल को छू लेने वाली दोस्ती, परस्पर स्नेह और उनकी संवेदनशीलता  भीतर तक झकझोर के रख देती है। यहाँ दर्शकों की आँखें यह देख हैराँ भी होती हैं कि एक टूटता हुआ इंसान कैसे किसी को ज़बरदस्त हौसला दे सकता है! पर जब दिल साफ़ हो तो क्या नहीं हो सकता! आज जबकि इंसान एक-दूसरे को काटने और जलने-भुनने में व्यस्त है, ऐसे में स्वयं के हारते हुए किसी की आँखों में जीत का स्वप्न थमा जाना; उम्मीद की जानदार मरहम का काम करता है। दोनों युवा कलाकारों के अभिनय की निश्छलता देखते ही बनती है।

यह फिल्म एक छोटी लड़की द्वारा माउंट एवरेस्ट को फ़तह कर लेने की ही कहानी नहीं बल्कि इसके साथ-साथ यह कम उम्र में विवाह और उसके दुष्परिणामों को गंभीरता से सामने भी रखती है। यह स्कूलों और संस्थाओं में चल रही धाँधली, कागज़ी रिपोर्टों और मिड-डे मील की असलियत पर तीख़ा प्रहार करने से भी नहीं चूकती। निर्देशन इतना बेहतरीन है कि रोचकता एक पल को भी कम नहीं होती और अंत तक आप अपनी सीट से बँधे रहते हैं। 'पूर्णा' में जहाँ एक पिता के, समाज के नियमों के बीच रहने और बँधे होने की बेबसी भावुक कर देती है। वहीँ उसका अपनी बेटी के प्रति अगाध स्नेह और दृढ़ विश्वास दर्शकों को तालियाँ पीटने पर मजबूर कर देता है।

यह फिल्म इस सोच को भी पुख़्ता करती चलती है कि एक उत्कृष्ट फिल्म बनाने के लिए बड़े सितारों और नामों की नहीं बल्कि अच्छी स्क्रिप्ट, उम्दा अभिनय और समर्पित निर्देशन की आवश्यकता होती है। राहुल बोस की उपस्थिति और सहज अभिनय कौशल के तो हम सभी कायल हैं पर कभी-कभी अफ़सोस भी होता है कि खानों और घरानों की भीड़ में राहुल बोस, मनोज बाजपेई, इरफ़ान ख़ान और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी जैसे बेहतरीन कलाकारों को उनके हिस्से की उतनी ज़मीं नहीं मिलती जिसके ये सदैव हक़दार रहे हैं। ख़ैर, हीरा कहीं भी रहे...इससे उसकी श्रेष्ठता पर असर नहीं पड़ता।
बहरहाल, राहुल बोस और पूर्णा की टीम को इस फिल्म के लिए हार्दिक बधाई और इसी ज़ज़्बे के साथ जुटे रहने के लिए अशेष शुभकामनाएँ! 
फिल्म की tagline से सहमत हूँ.....YES, COURAGE HAS NO LIMIT! :) 
- प्रीति 'अज्ञात'


बुधवार, 5 अप्रैल 2017

ऐसी लागी लगन....


मैं बहुत ज्यादा धार्मिक नहीं हूँ पर नास्तिक भी नहीं। मुझे लगता है कि कोई तो ऐसा हो जिसके सामने अपने दुखड़े रोये जाएँ, कुछ अच्छा होने पर उसे 'थैंक्स' कहा जाए, अपने सुख की बातें बतलाई जाएँ, जमाने भर की शिकायतों का पुलिंदा उसके सिर पर रख उससे सवाल किए जाएँ और फिर लोगों को सुधारने का अल्टीमेटम एक डेडलाइन के साथ दिया जाए! बदले में न तो डाँट मिलने का डर हो और न पकाऊ बोरिंग प्रवचन सुनने का ख़तरा (पर आपको ये ख़तरा अब तक इस पोस्ट के माध्यम से बना हुआ है,:D खी-खी-खी)। इसके लिए 'ईश्वर' से बेहतर दोस्त और कोई नहीं! सो, उनसे सुबह पांच मिनट(अधिकतम) अगरबत्ती, दिया-बाती की हेल्लो, हाय हो जाती है। सभी धर्मों के ईश्वर की उपस्थिति और धार्मिक ग्रन्थ भी हैं। कुछ पढ़े, कुछ शेष हैं। बाक़ी तो मैं आपकी ही तरह अच्छे कर्म पर ही विश्वास करती हूँ। :)

एक बात है लेकिन, यदि आपके मन का मैल नहीं गया और आपके ह्रदय में किसी के प्रति दुर्भावना, ईर्ष्या या बदला लेने का भाव है या फिर आप स्वयं को लेकर ही किसी हीन भावना से ग्रस्त हैं तो सारे दिन धार्मिक स्थलों पर अपनी धार्मिकता का प्रचंड प्रचार करने के बाद भी आप ईश्वर के सबसे बड़े विरोधी/दुश्मन ही कहलायेंगे क्योंकि आपने उसके दिए हुए संदेशों को अब तक समझा ही नहीं! आस्तिक बनना है तो दिल से बनना चाहिए, है न ? So, Get up & Dance! 珞

मेरे नानाजी बहुत पूजा-पाठ किया करते थे और मैं उनकी सबसे बड़ी fan भी थी। स्वाभाविक था, उनकी संगत का असर भी मुझ पर ख़ूब पड़ा था। उन दिनों घर के मंदिर को भगवान की तस्वीरों (कैलेंडर से काटकर) से सजाया करती। मूर्तियाँ तो वहाँ पहले से ही थीं। सभी भगवानों की आरती, स्त्रोत भी ढूँढकर रख लिया करती थी। इसका धार्मिकता से कहीं ज्यादा, सीखने से लेना-देना था कि 樂हरेक भगवान की इश्टोरी पता तो चले। स्कूल के दिनों में ही क़िताबें पढ़-पढ़कर palmistry भी सीख ली थी, जो कि समय की लक़ीरों के गहराते-गहराते धुंधली पड़ती गई। अब सिर्फ़ जीवन रेखा, ह्रदय रेखा और मस्तिष्क रेखा की पहचान भर शेष है। 'व्रत' से मुझे कोई परेशानी तब तक नहीं, जब तक दूसरे उसे कर रहे हों। अब भगवान ने उनको यह शक्ति दी है तो हम का  करें? हमसे तो नहीं रहा जाता जी! वैसे पूरा दिन घर या बगीचे का काम करते हुए कब दो कप चाय के साथ ही पूरा दिन गुज़र जाए,पता नहीं चलता पर जो 'व्रत' की बात आई तो बस, केस बिगड़ा ही समझो! पाचन तंत्र के सारे अंग जन्मों के भुक्खड़ टाइप बनकर 'सामग्री भेजो बेन' की गुहार करने लगते हैं और हमसे उनकी ये बेचैनी देखी ही नहीं जाती सो तुरंत फ़ूड सप्लाई प्रारम्भ कर देते हैं।

वैसे जब ये पोस्ट लिखने बैठी थी तो अनूप जलोटा जी का नाम ज़ेहन में था। उनके गाये दो भजन 'जग में सुन्दर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम' और 'ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन' मेरे all time favourite हैं और अनूप जी को भजन के अलावा और कुछ गाते देखना ठीक वैसा ही लगता है जैसा कि  सोनू निगम का एक्टर बनना लगा था। कुछ लोग दिल में जिस तरह बैठे हुए हैं, उम्र-भर वैसे ही सुहाते हैं। और हाँ, इन दोनों ही गायकों का जवाब नहीं! देने की कोशिश भी न कीजियेगा! 
-प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 30 मार्च 2017

मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस

बात इतनी पुरानी है कि यदि तिथि याद होती तो हम पक्का इस घटना की 'रजत जयंती' मना रहे होते। ख़ैर, अपन को तो किस्से से मतलब! हुआ यूँ कि तब 'कंप्यूटर' नया-नया आया था। सच्ची कहूँ तो मुझ गँवार ने तो ये नाम ही पहली बार सुना था। देश में 'कंप्यूटर क्रांति' आने वाली है, फलाना-ढिमका टाइप की बातें कानों में पड़ती रहतीं थीं। हम कुँए के मेंढक, समझ ही न आता था, ये मुआ है क्या? दिखता कैसा है? या ख़ुदा!इससे करते क्या हैं? एक बार दिखा तो दे कोई! दिमाग इतना पगला गया था कि एक दिन खुन्नस में आकर इसपे कविता भी लिख दिए थे। :D पूरी कविता बाद में कभी चेपेंगे, बस इत्ता जान लो कि वो हम श्री राजीव गाँधी जी को ही लिक्खे थे और वो प्रादेशिक समाचार-पत्र में प्रकाशित भी हुई थी।
फिर एक दिन वो सुरीली सुबह भी आई जब इस अज्ञात को ज्ञात हुआ कि शहर में एक कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र खुल रहा है। उफ़, फिर क्या था अपुन के ह्रदय के सारे तार झनझना उठे, मन मयूर नृत्य करने लगा, तमाम सपने आँखों में गुलाटियां लगाने लगे और एन उसी वक़्त इस टोटल फ़िल्मी सिचुएशन को सूट करता हुआ चित्रहार पर हर हफ़्ते नियमित परोसा जाने वाला कर्णप्रिय गीत बजने लगा "आज फिर उनसे मुलाक़ात होगी..."
हम भी अपना गर्दभ-राग तुरंत ही जोड़ सुर मिलाने लगे....."फिर होगा क्या, क्या ख़बर क्या पता" अब किसी को क्या बतायें कि राकेश रोशन की गोल-मटोल आँखों में हम एवीं थोड़े न डूबे थे और हमारी निष्ठता अब तक जारी है, उनके ग्रीक गॉड टाइप बेटे जी पर भी फ़िदा होकर परंपरा का पूर्ण निर्वहन धकाधक करे जा रहे हैं। :P

चलो, मुद्दे पे आते हैं.....एक पावन दिवस पर हमने धड़कते दिल से उस महान इंस्टिट्यूट(हलंत लग नहीं रहा) में एडमिशन लेकर स्वयं को पदोन्नत करने का सौभाग्य प्राप्त किया। शायद तीन माह का जावा, कोबोल, सी प्लस नाम का कोई कोर्स था। वो सब तो ठीक, पर अपन को तो कंप्यूटर जी के दिव्य-दर्शन की बेहिसाब तड़पन जीने नहीं दे रही थी। पहला दिन जैसे ही हम वहाँ पहुँचे तो मंदिर के बाहर जैसा दृश्य देख दिमाग झन्ना गया। वही तितर-बितर चप्पलें, बुनाई की सलाइयों सी एक उल्टी-एक सीधी, कोई सीढ़ी पे पड़ी तो कोई नाली में गिरने को तैयार! जैसे-तैसे ख़ुद की भावनाओं पे कंट्रोल कर अपनी जूतियाँ सलीके से रखीं और एक-दो और वहीं खिसकाकर पंक्ति  बनाने का बेहूदा और निष्फल प्रयास किया। इधर मिलन की प्रसन्नता अब भी चेहरे पे टपकी पड़ी थी। :D

अंदर पहुँचे। अबकी बार इंस्टिट्यूट इसलिए नहीं बोले क्योंकि वो कुल जमा एक कमरा ही था। घुसते ही क्लासरूम वाला फ़ील आया। "हाय, अल्ला...पढ़ना पढ़ेगा का? पहले कंप्यूटर तो दिखाओ न! हम कबसे मरे जा रहे!" ये सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई, "बैठ जाओ।" हम उसी पल सटाक से विराजमान हो गए। यूँ हम कुर्सीलोलुप इत्तू से भी नहीं, पर तब एकदम भयंकर वाला यक़ीन था कि मंज़िल हियाँ से ही मिलेगी। लेकिन ये क्या, बैठते ही सर जी ने एक-एक फाइल सबको पकड़ा दी। कत्थई रंग की उस बैगनुमा फाइल पर श्वेतवर्ण से तथाकथित संस्था का नाम चमक रहा था। अंदर हमरा id और कुछ प्रिंटेड मैटर था। इधर हमारी बेचैनी अपनी चरम-सीमा पर थी। निगाहों को 180 डिग्री पर घुमाकर कक्ष का जायज़ा लिया तो एक पर्दा नज़र आया। "अच्छा, तो कंप्यूटर महाशय उहाँ लजाय रहे।"अपने अंदर के सुप्त करमचंद पर गर्व करके हम उन ताज़ा टीचर की बात ध्यान से सुनने का टॉप क्लास नाटक करने लगे। ;)
उन्होंने ह्यूमन एनाटॉमी की तरह संगणक (कंप्यूटर ही है रे) के विभिन्न अंगों का सचित्र वर्णन किया। यहाँ हम स्पष्ट करते चलें कि ये आपका लैपटॉपवा जैसा नहीं, बल्कि डेस्कटॉप हुआ करता था। जो टेबल के ऊपर और नीचे की जगह ठसाठस भर देता था। और उसपे इत्ता भारी कि हाय दैया! का बताएँ!

सर से सारे नाम सुनकर याद भी कर लिए, मॉनिटर (उससे पहले हम सोचते थे कि ये कक्षा में हमहि हो सकते थे), की-बोर्ड (ही-ही, इसको भी हम तब तक बस चाबियाँ टांगने का कुंडा ही समझते आये थे) और माउस (इसपे तो हम ही नहीं पूरी क्लास चील-बिलइयों सी हँस-हँस लोटने लगी थी)। अचानक ही अनपढ़ से एजुकेटेड वाला फ़ील पाकर हम सब धन्य हो चुके थे। आज के लिए बहुतै ज्ञान लूट चुके थे। पर 'दिव्य-दर्शन' अभी शेष थे।

सर जी ने बोला कि पहले समझ लो, फिर दिखाएँगे। वैसे तो हम आज्ञाकारी ही हैं पर उस दिन नियम-भंग कर चिलमन में अपनी मुंडी घुसेड़ झाँक लिए थे। अहा, क्या ठंडा-ठंडा एसी चल रहा था और एक चौकोर टेबल पर कंप्यूटर जी किसी नई दुल्हनिया की तरह तमाम आवरणों में लिपटे हुए थे।अचानक पहली बार हमें अपने इंसान होने का दुःख हुआ और लगा काश, हम कंप्यूटर होते तो यूँ पसीने-पसीने तो न हो रहे होते। :(

उस दिन दर्शन-लाभ के बिना घर तो आ गए पर तुरंत ही अवैतनिक तौर पर इसका प्रचार प्रारंभ करने में हमने जरा भी कोताही नहीं बरती। "पता है, उसको एसी में रखना पड़ता है। बाहर का है न! गर्मी में ख़राब हो जाता है। बिना जाने छूना भी नहीं चाहिए। बहुत महंगा आता है।" हम कहते और सुनने वालों की पुतलियाँ जिज्ञासा में चौड़ा जातीं। "अच्छा!" :D

रोज पर्दा हटाकर दर्शन करा दिए जाते और इस तरह बिना समझे-बूझे और बिना टच किये कोर्स भी हो गया। वही एक आने का ज्ञान अंत तक टिका रहा.....मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस! कंप्यूटर किसी मॉडल की तरह अपनी जगह रखा रहता और हम उसके तमाम अंगों के नाम घोंटते। अब हमारा दम भी घुटने लगा था। छोटे शहर के भोले-भाले बच्चों को उल्लू कैसे बनाया जाता है, इस बात से भी मन उदास रहने लगा था। एक दिन हमने अपने चकनाचूर ह्रदय से कंप्यूटर के इस्तेमाल का स्वप्न सदा के लिए उखाड़ फेंका। कागज़ों पर हम उत्तीर्ण थे पर असलियत भी खूब पता थी। लेकिन तीन दुष्ट नाम अब भी मस्तिष्क की तंत्रिकाओं में अबाध गति से बहते हैं, मॉनिटर, की-बोर्ड, माउस! :D 
- प्रीति 'अज्ञात'
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उसी दौरान भैया का MCA में चयन हुआ। बाद में कैंपस इंटरव्यू में भी सीधे ही जॉब मिला। यह विश्वविद्यालय का पहला बैच था और हम सभी खूब गौरवान्वित हुए। अब तक हैं। अब मुझे ये सब सीखने के लिए कहीं बाहर जाने की जरुरत नहीं थी। ये अलग बात है कि फिर मेरा ही मोह भंग हो चुका था और मैंनें अभी कुछ वर्ष पहले ही सीखा है। पर इतना नहीं आता कि किसी पे रौब झाड़ सकें। जरुरत भी क्या है? सीखते रहने की गुंजाईश भी तो बनी रहनी चाहिए! :)

सोमवार, 13 मार्च 2017

बुरा न मानो, होली है!

मुझे होली में इंटेरेस्ट सिर्फ़ गुजिया खाने के लिए ही है। 
ये अकेला त्यौहार है जिससे मैं भागती फिरती हूँ। दरवाजे की घंटी बजते ही जी घबराने लगता है। तरह-तरह के बुरे ख़्याल गुजिया के अंदर से कुदक सरपट बाहर दौड़ने लगते हैं। दिल हैंडपंप सा धचाक-धचाक ऊपर-नीचे शंटिंग करने लगता है। मस्तिष्क की तमाम तंत्रिकाएँ, शिराओं और धमनियों में एक भूचाल-सा आ जाता है। और रगों में सहमता लहू, समस्त ज्ञानेन्द्रियों को दस्तक देता हुआ पूछता चलता है, "हाय अल्लाह, कौन आया होगा? कहीं उसके पास कीचड़ या कोलतार से भरी बाल्टी तो न होगी? हमें सिल्वर पेंट लगाकर रोबोट तो न बना देगा। फिर हम खुद को कैसे पहचानेंगे? हमारी पहले से ही ड्राई पड़ी स्किन अब घड़ियाल-सी तो न हो जायेगी? फिर चश्मे का क्या होगा?" उसके बाद तो जैसे चक्कर ही आने लगते हैं...आँखों के आगे मुआ अँधेरा ही दिखाई देता है। इतने बुरे ख़्यालों से और ज्यादा सोचा ही नहीं जाता।

बड़ा गुस्सा आता है बचपन में देखी गई होली पर। ओ मोहल्ले के हुल्लड़ी लड़कों, तुम इत्ता भयानक कैसे खेल लेते थे कि खुद को शीशे में देखने के बाद तुम्हारी ही चीख निकल जाती थी। आंटी जी भी तो तुम्हें किसी और का बच्चा समझ बाहर से ही रफ़ा-दफ़ा कर देती थीं। फिर तुम्हारी खिसियाती आवाज़ से उनको पता चलता था कि हाय, ये तो हमरा बिटवा ही निकला। हम जैसे फटटू तो बिन खेले ही सबकी शक्लें देख यक़ायक़ बेहोश हो जाते थे। आँख खोलते ही तुरंत बीमार वाली एक्टिंग करने लगते थे। क़सम से, ऐसा भयानक डर बैठा हुआ है कि मार्च को टच करते ही हम सीधा अप्रैल में पहुँच जाना चाहते हैं।

हाँ,  सच्ची! हमें उस दिन  दरवाजे की घंटी बजते ही ऐसा लगता है कि बिलकुल अभी-का-अभी धरती फटे और हम उसमें समा जाएँ। हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे जैसे और भी लोग जरूर होंगे, उन पर हमें एडवांस में ही बड़ा भयंकर वाला गर्व हो रहा है। तुमसे ही हमारा जीवन रोशन है।

और हाँ, जिनको होली खेलनी है, खूब खेलें। जमकर खेलें जी। संस्कृति का संरक्षण करना भी उत्ता ही जरुरी है। वैसे भी हमारा कोई बैर थोड़े ही न किसी से। सूखे रंगों से हमें भी कोई एतराज़ ना! बाक़ी सबसे डर लगता है तो अब हम का करें?

पर फिर भी हमारी इत्ती-सी एकदम ही टुच्ची टाइप सोच है कि रंग कैनवास पर ही अच्छे लगते हैं। बगिया के फूलों पर जंचते हैं और आसमान पर इंद्रधनुष फैले तो हाईला.....जैसे बौरा जाता है मनवा! पर ये क्या कि ख़ुद पर ही पोत लो। 
जाओ, अब मुँह न फुलाओ। हम सरकार थोड़े ही न, जो ban लगा देंगे। और सुनो, अगली पोस्ट पे मुँह धोकर आना। डेटॉल भी इस्तेमाल करना, हम माइंड नहीं करेंगे। हालाँकि हमें ब्रांड एंडोर्समेंट का एकहु रुपैया नहीं मिला है। ख़ैर....ज़िंदगी दुःक्खों का बड़का वाला पहाड़ बन गई है। 
चलो, कोई न! बर्दाश्त कर ही लेंगे जी। हमारी क्या? आधा किलो गुजिया के लिए सब कुछ मंज़ूर है हमका!
हैप्पी वाली होली, सबको। खूब खेलो...!
रंग दो सारा आसमान!
बुरा न मानो, होली है! बुरा मान भी जाओ, तो हम जिम्मेदारी काहे लें?
- प्रीति 'अज्ञात'


बुधवार, 1 मार्च 2017

'मेरे सपनों का भारत'..... ऐसा तो कभी न था!

जो जितना ढोंग करे वो उतना ही मैला है यहाँ!

यह कैसा दुर्भाग्य है कि बात को समझे बिना 'पाकिस्तान' नाम सुनते ही, उसे बोलने वाले पर आप तत्काल 'देशद्रोही' का टैग लगा देते हैं?
क्या है देशभक्ति? 
* किसी शहीद के निधन पर दो फूल चढ़ा एक सेल्फी खिंचा लेना?
उसके बाद उसके घर जाकर कभी न पूछना कि उसके परिवार का क्या हुआ?
* उसके माता-पिता किस हाल में हैं? उसकी विधवा पत्नी घर कैसे चला रही है? कितने चक्कर काट रही है?
* हाँ, आप गर्व महसूस करते हैं कि उसने अपने देश के लिए जान दी लेकिन उस फौज़ी की आत्मा यह सोच कितना तड़पती और बिलखती होगी कि उसने 'किन जैसों के लिए' अपना जीवन बलिदान कर दिया! उन जैसों के लिये जो उसकी बेटी के बहते आँसुओं और शब्दों में उसके अनाथ होने का दर्द नहीं देख पाते! जो उसके ज़ख्म पर मरहम रखने की बजाय उसका 'रेप' करने की धमकी दे डालते हैं। क्योंकि वह युद्ध का समर्थन नहीं करती। क्योंकि इस युद्ध ने ही उसे उसके पिता से ज़ुदा कर दिया। वाह, क्या ईनाम मिला है एक शहीद को अपनी जान गँवाने का!

क्या मिला है युद्ध से?
आपको 'पाकिस्तान' नाम सुनाई दिया पर वह भाव नहीं जो युद्ध को गलत ठहराता है? आख़िर क्या मिला है युद्ध से कभी? और क्या मिल सकता है आगे? मुद्दे तो अब तक जस-के-तस हैं। तो फिर क्यों सही है युद्ध? क्या आप इसे इसलिए सही ठहराते हैं-
* क्योंकि आपकी पिछली सात पीढ़ियों में से कोई भी आर्मी में जाने की हिम्मत न जुटा पाया?
* क्योंकि आप अपने आलीशान घरों में पलंग पर बैठ, टीवी देख 'ओह्ह' बोलकर अपनी देशभक्ति का नमूना दे पुनः बर्गर खाने में व्यस्त हो सकते हैं।
वाह री ढोंगी संवेदनाएँ!! जो किसी अपने को खो देने का दर्द तक महसूस नहीं कर सकतीं। पर हैं आप देशभक्त!!

देशभक्ति दिखानी है?
* देशभक्ति दिखानी है तो 'रेपिस्ट' को तत्काल फाँसी देने का कानून कागजों के बाहर लागू करवा के दिखाओ।
* तुम्हारी रगों में उस वक़्त देशभक्ति का लहू क्यों नहीं थरथराता जब स्त्रियों और छोटी बच्चियों को तुम जैसों की गन्दी निगाहें रोज नोच खाती हैं? जिन्हें अकेला देखते ही तुम्हारे 'हॉर्मोन्स' में उबाल आने लगता है। तुम ये कैसे भूल जाते हो कि तुम्हारे अपने घर में भी उसी समय तुम्हारी पत्नी या बेटी अकेली है?

'रेप' की धमकी देना या 'रेप' कर देना किसी को चुप कराने का सबसे कारगर उपाय बन चुका है क्योंकि न तो बलात्कारी को कोई सज़ा होती है और न ही धमकी देने वालों को। क्या ये 'देशभक्त' की श्रेणी में आते हैं???
नहीं न! तो फिर इनके खिलाफ़ कोई भी राजनीतिक दल आवाज़ बुलंद क्यों नहीं करता? इस विषय पर कभी गंभीरता से क्यों नहीं सोचता? क्यों अब तक कोई कुछ न कर सका है? सत्ताधारी दल के हाथ इतने दशकों से क्यों बंधे हुए हैं? क्या सचमुच इतना मुश्किल है, किसी रेपिस्ट को फाँसी देना? कहीं हर पार्टी को स्वयं के वीरान होने का डर तो नहीं सताता? इनके कारनामे तो जगज़ाहिर हो ही चुके हैं। 

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के भी गिने-चुने लोग ही इस मुद्दे पर बात करते हैं। बाक़ी के मुँह क्यों सिल जाते हैं? इस विषय पर इनका जोश ठंडा कैसे पड़ जाता है?
ज़ाहिर है चाहे नेता हो या खुद को नामी बताने वाले तथाकथित उच्चकोटि के पत्रकार, या किसी भी क्षेत्र से जुड़े नामी लोग। इनमें से 'कई' ऐसे हैं जो किसी-न-किसी तरह से स्त्रियों का शारीरिक शोषण करते आये हैं। हाँ, सरेआम उन्हें 'देवी' कहने से ये कभी नहीं चूकते होंगे। जो जितना ढोंग करे वो उतना ही मैला है यहाँ!

बधाई हो!
* बधाई हो! किसी ने अपने शब्द वापिस ले लिए!
* बधाई हो! कोई लड़की 'रेप' से डर गई। 
* बधाई हो! तुम्हें सच्चे देशभक्तों का समर्थन मिला है। अब जाओ, और अपने विचारों पर अमल की शुरुआत अपने ही घर से करना। आख़िर घरवालों को भी तो तुम्हारी देशभक्ति पर गर्व हो!
* बधाई हो! तुम्हारे घर से कोई सेना में नहीं!
* बधाई हो! तुम्हें उन नेताओं का समर्थन है जिन्हें जनता ने अपना हमदर्द समझकर चुना है।
* बधाई हो! तुम्हें उस क्रिकेटर का भी समर्थन मिला है जिसके लिए हमने लाखों तालियाँ पीटी हैं 
* बधाई हो! तुम्हारी जीत हुई!
* बधाई हो! तुमने सच को आज भी बर्दाश्त नहीं किया।
* बधाई हो तुम्हारी घृणित और गिद्ध निगाहें धर्म और देह के अतिरिक्त और कुछ देख ही नहीं पातीं। 
* बधाई हो! तुमने वही सुना जो सुनना चाहते थे। देखना, अब जब भी किसी शहीद की मृत्यु पर टीवी कैमरा ऑन होंगे और आँसू छलकाते उसके  माता-पिता ये कहते मिलेंगे कि वो अपने दूसरे बेटे को भी आर्मी में ही भेजेंगे। तो फिर से तुम्हारा एक सेंटीमीटर का सीना सवा सेंटीमीटर का तो जरूर हो जाएगा। लेकिन तुम उन बूढ़ी आँखों में अब ये नया पैदा हुआ 'भय' नहीं देख पाओगे कि कहीं तुम लाश पे बिलखती उस सैनिक की विधवा और उसकी अनाथ बेटी के साथ......!

चीरहरण करने वाले इन दुशासनों के बीच रहते हुए ऐसे न जाने कितने परिवार, कब ख़त्म हो जाते हैं, कब उस घर की महिलाओं की अस्मत के साथ खिलवाड़ होता है , कब उन्हें चाकू से गोदकर उनकी लाश वहीँ सड़ते रहने को छोड़ दी जाती है, इसकी फ़िक्र करने वाला कोई नहीं। इस तरह के 'हादसों' की कहीं कवर स्टोरी नहीं बनती!
सभ्यता, संस्कृति और विकास की बातों के बीच इस तरह की घटनाएँ मन विचलित कर देती हैं। अवसरवादी संगठनों का देशभक्ति की बीन पर, हर बार की तरह इस मुद्दे पर भी ज़हर उगलने का प्रयास जारी है।

निरंकुश समाज में 'न्याय' अब एक बहुमूल्य शब्द है, बिलकुल कोहिनूर हीरे की तरह! इसे पाने की उम्मीद लिए न जाने कितने जीवन नष्ट हो चुके या मौन कर दिए गए! कोई नहीं जानता। जानने से होगा भी क्या? 
संख्या बढ़ती ही रहेगी और हम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों को पलट, कुछ पल शून्य की तरफ निहारते हुए, मौन हो, भारी मन से उस पुस्तक को पुन: जगमगाते काँच की अल्मारी में रख उदासी-उदासी का पुराना खेल खेलेंगे।

आह! 'देशभक्ति' और 'देशद्रोह' की नई परिभाषाएँ गढ़ता और उन्हें नित दिन फुटबॉल की तरह उछालता मेरा भारत!
'मेरे सपनों का भारत'..... ऐसा तो कभी न था!
- प्रीति 'अज्ञात'