गुरुवार, 26 मई 2016

एक अजीब- सी पोस्ट

एक अजीब- सी पोस्ट/ लिंक इन दिनों खूब वायरल हो रही है। जिसमें मृतप्राय: पिता का उसकी बेटी के द्वारा जीवन बचाए जाने का पूरा किस्सा है। भावुक हूँ, संवेदनशील भी लेकिन इस पोस्ट में जो कहा गया, वो समझ से परे है। मैं अत्याधुनिक(bold पढ़ें) विषयों पर न तो कभी लिखती हूँ और न ही सहज हो पाती हूँ। आप चाहें तो मुझे छोटे शहर की, दकियानूसी या अप्रगतिशील कहकर लानत भेज सकते हैं। लेकिन जब सोशल मीडिया में सैकड़ों बार इस पोस्ट को शेयर होते देखा, तो रहा नहीं गया।

*शुरुआत में इस संभावना कि, "यह एक बाप और बेटी को दर्शाता चित्र है, तो हो सकता है आपका मन घृणा और अवसाद से भर जाये। लेकिन मुझे पूरा यकीन है जब आप इस प्रसिद्ध पेटिंग के पीछे छिपी कहानी को सुनेंगे तो आपके विचार जरूर बदलेंगे" को पढ़ने के बाद मैंने इस पोस्ट को पूरी गंभीरता से पढ़ा और सच कहूँ तो सहानुभूति के बजाय मन और भी वितृष्णा से भर गया। क्योंकि इस बेटी की तथाकथित महानता के आगे किसी ने मनन करने का जिम्मा ही नहीं उठाया।

जिन्हें नहीं मालूम, उनको बताना चाहूँगी कि Lactation की प्रक्रिया किसी भूखे या मृत इंसान को देखते ही प्रारम्भ नहीं हो जाती चाहे वह आपका पिता भी क्यों न हो। यह प्रक्रिया pregnancy के आखिरी महीनों में शरीर में hormones interaction के बाद ही प्रारम्भ होती है। यदि किसी ने बच्चा गोद लिया है तो induced lactation संभव है, लेकिन इसके लिए भी महीनों पहले hormone therapy से गुजरना होता है। ऐसे में इस चित्र के पीछे की कहानी और उसकी सत्यता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगता क्या? अब लगभग अस्सी वर्ष से भी ऊपर के दिखने वाले शख़्स की बेटी का कोई new born baby होगा, इस कल्पना को मैं यहीं खारिज़ करती हूँ।  

यह तस्वीर और इसकी कहानी पेंटर के व्यावसायिक दिमाग की उपज हो सकती है या फिर खरीदने वालों की तरफ से इसे ड्राइंग रूम में सजाने से पहले दिया गया बेहूदा कुतर्क़। पर मेरी समझ से यह विकृत मानसिकता से घिरे और स्त्री को मात्र उपभोग, आनंद  की वस्तु समझने वाले किसी सिरफिरे की घृणित सोच से ज्यादा कुछ भी नहीं! 'प्रसिद्धि' की सबसे बड़ी ख़ूबी यह भी है कि नाम हो जाने के बाद कुछ भी बेचना/कहना आसान हो जाता है। चित्रकारी हो, लेखन या फिर कोई भी क्षेत्र, सबमें यही भेड़चाल जोरों पर है।
हाँ जी, वाह जी, क्या बात जी, तुसी तो बड़े महान जी!
DISGUSTING!!!
- प्रीति 'अज्ञात'
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* पेंटर की कहानी और चित्र के लिए कृपया गूगल सर्च कीजिये। और हाँ, हमें उनकी महान कृतियों से कोई ईर्ष्या/ कुंठा टाइप नहीं रही कभी, हम तो नाम ही पहली बार सुने हैं।  


शुक्रवार, 20 मई 2016

अजब-ग़ज़ब दुनिया

अभी ट्रेन में चढ़ी ही थी। दो अलग अलग बोगियों में हम माँ-बेटी की टिकट। पुराने अनुभवों के अनुसार TC से बात का कोई फायदा नहीं था। सो, हर बार की तरह वही दो ऑप्शन थे कि या तो वो सीट किसी से एक्सचेंज हो सके या एक ही सीट पर दोनों एडजस्ट होते आएं। इस मामले में अब तक का रिज़ल्ट 50..50 रहा है। खैर, किस्सा ये नहीं है।

जैसे ही हम अपनी सीट पर जाकर बैठे, तो सामने एक परिवार था, अच्छे शालीन लोग। एक बेहतर सफ़र की उम्मीद जगी। यही उम्मीद की लौ तब झपाक से तुरंत ही बुझ गई जब ऊपर वाली बर्थ से एक खड़ूस से साहब जी ने अटेंडेंट को जोर से आवाज लगाई।

"अबे, सुन..इधर आ"
"जी, साब जी" वो दोनों हाथ बांधे विनम्रता से बोला।
"कौन सा स्टेशन निकला?"
"साब, ग्वालियर"
"अबे, तो जगाया क्यों नहीं" उन्होंने इस अंदाज़ में तुनकते हुए कहा, मानो बीवी पर ऑफिस में लेट होने का दोष मढ़ रहे हों।
"साब,जी। झांसी पे जगाया। आप उठे नहीं। आपको उतरना कहाँ है?" उसकी भाषा में दयनीयता और उसे सफाई देता देख अब मुझे अटेंडेंट पे चिढ़ आ रही थी।
"अरे, जहाँ मन होगा उतर जाएंगे। तुमको बताना तो चाहिए। क्या पता सीट बदलनी पड़े। अब तुम हमारी खिल्ली उड़वाओगे क्या?' तथाकथित साब जी ने बेशर्मी से आँख मारते हुए कहा।
"अरे, नहीं साब। नाश्ता कर लीजिये (तब तक ब्रेड कटलेट, ऑमलेट, इडली सांभर का नारा लगाते हुए एक वेंडर ट्रेन में चढ़ चुका था), इसमें पैंट्री कार नहीं है।" वो पगला, अब भी पूरी गुलामपंती के मूड में था।

हमारा माथा बुरी तरह ठनका। दिमाग में खलबली हुई। या ख़ुदा! तो ये साब जी एक तो बिना टिकट भिनभिना रहे और उसपे सीट पर हक़ ऐसे जमा रहे, जैसे घर से फोल्डिंग कुर्सी की तरह उठा के लाये हों।
अब तक आगरा आ चुका था और वो संभ्रांत परिवार उतर गया था। सौभाग्य से TC ने ख़ुद ही आकर हमें वो सीट लेने को कह दिया। मैं इस इंसान को प्रवचन दिए बिना इसकी क्लास लेना चाहती थी। अच्छा मौका था। सो, तपाक से सामने वाली बर्थ पर गई और चादर तान फुल्टू लाश की तरह लेट गई। बेटी दूसरी बर्थ पर सो चुकी थी।

साब जी, जो मुफ़्त की दूसरी सीट का सपना खिलाते, मचलते हुए अवतरित हुए थे। उन्हें किसी डेड बॉडी टाइप को देख अचानक अपनी समृद्धि योजनाओं पर तुषारापात होता नजर आया। उनकी खिसियाहट चादर के छिद्रों (धन्यवाद इसका भी ले ही लो अबकी तो) से, खिले आसमान की तरह साफ़ नजर आ रही थी। चेहरा केंचुए-सा सकुचाया और अचानक खुद को फोन पर व्यस्त दिखा, अपनी अव्यक्त बेइज़्ज़ती को छुपाने की मुहिम में जुट गए। दस मिनट हुए, क़सम से मेरी कमर की नस चढ़ गई, पर मैं न हिली।
अब इन्होंने दूसरी ट्रिक आजमाई। अपने बैग को बर्थ के नीचे से निकाल सीट पर रखने लगे। हमका पता था कि बंदा नौटंकी कर रहा और बैग हटाके उधर ही बैठेगा। पर हमारी दयालुता, इन दुष्ट आत्माओं के लिए स्थायी हड़ताल पर रहती है, सो हम फिर टस से मस न हुए।

कुछ ही देर में इन्होने फिर सरकारी फ़ोन घुमाया और स्वयं के कलेक्टर के ख़ास होने की उद्घोषणा कुछ इस अंदाज़ में की, कि एक भी यात्री इस ज्ञानवर्धक जानकारी से चूक न जाए। हमारी तुच्छ-सी सोच में इस श्रेणी के उच्च कोटि वाले चमचों की कोई जगह नहीं। हालांकि इनकी चूं-चूं ही इन्हें नफ़रत तालिका में श्रेष्ठ पायदान पर बैठने का सटीक उम्मीदवार घोषित करती है। ख़ैर.... कुछ समय के लिए ये घमंडी, मुफ्तखोर और बद्तमीज़ किस्म के साब जी ग्लानि की तपती भूमि में अंतर्ध्यान हो गए।

हम ख़ुद को जीवित करते हुए बड़े खुश हो छपाक से अभी बैठे ही थे कि जनाब फिर आ धमके।
उफ़्फ़, अब क्या! पर हमारे बायोलॉजी वाले दिमाग ने, इंजीनियरिंग कैटेगरी में घुसकर आननफानन में लेफ्ट में तकिया, चादर, blanket और उसके ऊपर एक बैग की टॉपिंग करते हुए कामचलाऊ दीवार का निर्माण कर डाला। उसके साथ ही हम अपने मासूम चेहरे से बाहर यूँ तकने लगे, जैसे कि हमें पता ही नहीं...कि हमने ये क्या जुलम कर डाला!

जनाब, ठिठके और कुछ बोलने की सोच ही रहे थे कि उनकी बदकिस्मती का ज्वालामुखी फिर फूटा और कहीं से लावा की तरह पिघलती स्वर लहरी आई "अरे,पांडे जी! अब कित्ती देर तक्क मुफत की बथ्थ के काजें फित्त रओगे। दो ऊपर वालीं और जे नीचे वालन पे तो तुम घूमि आये भैय्या। अबके कलेट्टर साब से कै दियो। जे ना चलेगो। बताओ तो, तुमाई कछु इज्जत फिज्जत है की नहीं। जाने कैसो जमानो आये गओ है, अब रहान दो, इतैं आ जाओ। खाली परी तबसे।"
अबकी बार पांडे जी ने अपने दोस्तों को अनसुना कर इज़्ज़त के जनाजे को रोकने की आख़िरी नाक़ाम कोशिश की। अटेंडेंट को बुलाया और अकड़ते हुए कहा.. "चलो, सामान ले चलो। हमारा स्टेशन आने वाला है।"

एक यात्री ने पीछे से मसखरी करते हुए कहा.."अरे, पूरा नाम तो बताइयेगा न!"
उधर अटेंडेंट कमाई की आशा में उनकी ओर देख रहा था, कि रात से टिकट बचवाई है तो शायद..
"साब, चाय पानी!'
"अच्छा! मेहनत करके कमाओ, पगार मिलती है न! तुम जैसों की वजह से ही भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।"
उनकी इस ज्ञान-गंगा से भौंचक हो, वो उनका मुँह देखने लगा।
उनके जाने के बाद, मेरे पास आकर बोला, "इनके कारण हम रात भर सोये नहीं।" 
मैं मुस्कुरा दी पर कुछ नहीं बोली।
एक तो कुछ सबक, तज़ुर्बे से सीखने की उम्र थी इसकी और आगे की सीटों पर बैठे चमचों के बच्चों से पंगे लेने का कोई इरादा भी नहीं था, अपन का! प्रवचन देने की भी अपनी जगह होती है भई!

जहाँ तक साब जी की बात है, तो इस तरह के लोग समाज में असाध्य रोग के विषाणुओं की तरह रेंगते मिलते ही रहेंगे। इन्हें दीवारों में चुनकर सजा देना ही इनकी सज़ा है। वैसे हमें अपनी ही कही इस बात पर भयंकर वाला शक़ है।
'जब तक मुफ़्त में बंटेगा, लोग लूटेंगे ही!'
- प्रीति 'अज्ञात'