गुरुवार, 24 मई 2018

पापी, व्रतों के हिसाब से कैलेंडर देखकर पाप नहीं करता!

सचमुच हद हो जाती है जब टीवी चैनल्स समाचार को यह कहकर उसमें सनसनाहट भरने की कोशिश करते हैं कि "रमज़ान के महीने में भी पाक़िस्तान ने की फ़ायरिंग!!" मतलब आपकी उम्मीदों की दाद देनी पड़ेगी कि आप दुश्मन देश से भी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करने की अपेक्षा रखते हैं!

पता नहीं, किस मिट्टी के बने हैं हम लोग! पर ये तो तय है कि हम महामूर्ख अवश्य हैं. तभी तो अपनी शांतिप्रियता दिखाते हुए सीना तान कह डालते हैं कि "पवित्र महीने में नहीं होगी फ़ायरिंग" और एन उसी वक़्त दुश्मन देश का गोला हमारे देश वासियों पर क़हर बन टूट पड़ता है. पुरानी कहावत है "Everything is fair in love & war". दुनिया भर के प्रेमियों को तो यह बात तुरंत ही समझ आ गई थी अब हम सब भी समझ जाएँ तो बेहतर! यूँ भी जब बात देश की आन से जुड़ी हो तो सीधे वार करना ही बनता है. समय आ गया है कि पाकिस्तान को उसकी हर हरक़त का मुँहतोड़ जवाब दिया जाए. आख़िर कितने दशक तक हम शांति का राग अलापते रहेंगे? हार या जीत के बीच की जो लाइन होती है न, अब उसे छू, आर या पार जाने का वक़्त आ गया है साहब. 

अब रही बात त्योहारों की...तो भई जरा हिसाब लगाकर बताइये कि ऐसी कौन सी दीपावली है जिसमें अपराधियों ने किसी के घर का चिराग़ न बुझाया हो! ऐसी कौन सी ईद है जहाँ मित्रता और मोहब्बत के नाम छुरा न घोंपा गया हो! ऐसी कौन सी राखी है जहाँ किसी भाई ने ही अपनी बहिन की हत्या न की हो! ऐसा कौन सा करवा-चौथ है जहाँ किसी सुहागन का सुहाग न उजाड़ा गया हो! और ऐसा कौन सा महिला/ मातृ दिवस है जहाँ स्त्री की अस्मिता तार-तार न हुई हो! जी हाँ, ये मैं अपने ही देश की बात कर रही हूँ. जब हम अपनों को ही नहीं सुधार पा रहे तो किसी और से ऐसी उम्मीद रखना कितना बचकाना है!

इसलिए अब हमें अपनी समस्त इन्द्रियों को सचेत कर, अपने मस्तिष्क में सदैव के लिए यह बात गुदवा लेनी चाहिए कि चाहे पाक़िस्तान हो या कोई भी दुश्मन देश.....अपराधियों के इरादे कभी पाक़ नहीं होते! उनका कोई धर्म/ मज़हब नहीं होता! उन्हें बस गोलियों की आवाज़ ही रास आती है, वही चलाते हैं और एक दिन वही ख़ुद भी खाते हैं. इन्हें सिर्फ़ ज़हर फैलाने का मोह है और कुछ भी नहीं! जिस इंसान ने अपने-आप से मोह छोड़ दिया, जिसे अपनों की कोई परवाह नहीं, जिसकी रग़ों में नफ़रत लहू बनकर दौड़ती है, वह कुछ भी कभी भी, कहीं भी कर सकता है! पापी इंसान, व्रतों के हिसाब से कैलेंडर देखकर पाप नहीं करता!
- प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk, #Terrorist
https://www.ichowk.in/society/expecting-pakistan-to-respect-ceasefire-during-ramadan-is-hopeless/story/1/11067.html

बुधवार, 23 मई 2018

आश्वासनों के ऊँचें टाल पर संवेदनाएँ पहुँच पाती हैं क्या?


हमारे अपने देशवासी किन परेशानियों से जूझ रहे हैं, सीमाओं से सटे गांवों से पलायन को मजबूर ये शरणार्थी, शिविर में अपनी कहानी कहते हैं. यहाँ लोग किसी सरकारी अस्पताल के बरामदे की तरह एक साथ पड़े हैं. संवाददाता पूछता है, "सरकार खाना दे रही है?" उस समय एक स्त्री की यह बात आत्मा को भीतर तक झकझोर देती है जब वह रोती हुई कहती है कि "खाना तो घर में भी था, हमें अपना घर चाहिए. हमारे मवेशी भी भूखे हैं वहाँ!" समझना इतना जटिल नहीं कि जहाँ इंसान के रहने का स्थायी ठिकाना नहीं, वहाँ ये मवेशी तो भगवान भरोसे ही छूट जाते होंगे. ये मवेशी न केवल जान से प्यारे होते हैं बल्कि जीविका का साधन भी. कुछ जीवित कृशकाय अवस्था में मिलते होंगे और कुछ सदैव के लिए बिछुड़ जाते होंगें. आश्वासनों के ऊँचें टाल पर संवेदनाएँ कहाँ पहुँच पाती हैं! कभी अन्दर ही जूझती तो कभी, पलकों की कोरों से गिरती, हारकर फ़िसल जाती हैं.

अपने ही देश में विस्थापितों-सा जीवन जीने से अधिक दुखदायी और क्या हो सकता है भला! यहाँ बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे. उनकी आँखें भयाक्रांत हैं और वे 'भविष्य में क्या बनेंगे' से ज्यादा कहीं इस बात से चिंतित हैं कि "क्या वे बचेंगे?" उनके घरों की पक्की दीवारों में गोलीबारी से बने छिद्र ने इनका घर ही नहीं, बचपन भी बिखरा दिया है. यहाँ खिलौने नहीं, ईंटें,सीमेंट, रेती बिखरी पड़ी है. ये नए सपने नहीं देखते, बस टूटे हुए सपनों को रोज जोड़ने की मासूम कोशिश करते हैं. सपना भी इतना बड़ा और कल्पनातीत नहीं कि पूर्ण न हो सके. उस सपने में एक घर है, जहाँ मम्मी खाना बनाती है, बच्चों का टिफ़िन तैयार कर उन्हें प्यार से स्कूल भेजती है. बस-स्टॉप पर लेने आती है. शाम को पापा घर आते हैं और सब साथ में खाना खाते हैं. एक बच्चे की यह उम्मीद कहीं ज़्यादा तो नहीं? खाने-पीने, शिक्षा और सुरक्षा की भोली सी आशा!

क्या यह संभव नहीं कि बस्तियों को सीमाओं से पचास-साठ किलोमीटर की दूरी पर ही बसाया जाए? जिससे सब कुछ होने के बावजूद भी, इन्हें इस मजबूर खानाबदोश जीवन से मुक्ति मिले!

मैं कभी कश्मीर गई नहीं पर जाना चाहती थी. उन दिनों इतना घूमना-फिरना नहीं होता था और छुट्टियों का मतलब नानी या दादी का घर. पर फ़िल्मों ने इसकी ख़ूबसूरती को जिस तरीक़े से दिखाया है, उस तस्वीर को मैंनें अब तक दिल में बसा रखा है. जाऊँगी तो जरुर, पर तब ही; जब निश्चिन्त होकर ये गीत गुनगुना सकूँ. क्या ये निश्चिंतता हमें कभी नसीब होगी? दशक बीतते जा रहे, डर है कहीं हम और आने वाली पीढ़ियाँ भी न बीत जाएँ, तब तक........

इस ज़मीं से, आसमां से
फूलों के इस गुलसितां से
जाना मुश्किल है यहाँ से
तौबा ये हवा है या ज़ंजीर है
कितनी खूबसूरत....ये तस्वीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है

https://www.youtube.com/watch?v=h3yQJZagDTw
- प्रीति 'अज्ञात'