प्रत्येक भारतीय के घर में उसका अपना पर्सनल हड़प्पा होता है. जहाँ पॉलिथीन(ऊप्स! थैला) से लेकर हीरे-जवाहरात तक हो सकते हैं. यहाँ आपको हर आकार-प्रकार की तमाम वस्तुएँ मिल जायेंगीं पर वो नहीं जो उस समय चाहिए होगी! वो तब मिलेगी जब आप पोंछे या डस्टिंग के लिए कोई पुराना कपड़ा ढूँढ रहे होंगे. यह भी तय है कि तब वो नामुराद कपड़ा नहीं मिलेगा क्योंकि एन उसी वक़्त पीछे से एक डिब्बा सरककर अपनी मुँह दिखाई स्वयं करवा रहा होगा, जिसे देख आपका मुँह खुला-का-खुला रह जाता है. आप ख़ुशी के मारे फूले नहीं समाते और जोर से आवाज़ लगाते हैं, "अरे, बेटा! दौड़कर आ! तेरा वो एडिडास वाले जूते का डिब्बा मिल गया है." बच्चा बेताबी में भागा-भागा आता है और झट से अपने पैर जूते में एंटर करता है, पर ये क्या?अरे, पैर जा ही नहीं रहे! बच्चा सारा दोष उस निर्जीव, भोले जूते पे मढ़ देता है. "मम्मी, ये जूता तो छोटा हो गया!" तभी माँ की स्मृतियों के तार झनझना उठते हैं कि हाय! ये तो अपन तीन साल पहले लाये थे! माँ लड़ियाते हुए कह उठती हैं, "धत, जूता तो वैसा ही है. तू ही बड़ा हो गया है. कोई बात नहीं, किसी को दे देंगे." इस तरह दान-पुण्य विभाग में एक आइटम और बढ़ जाता है. अब बच्चा भी सामान कुरेदने में अपना अमूल्य योगदान देने को तत्पर हो उठता है. यूँ भी छुट्टियों के समय बच्चों का ऐसे काम में बड़ा दिल लगता है. अब पढ़ाई से जी चुराने का इतना अच्छा मौक़ा भला कौन छोड़ेगा! बच्चों के साथ होने से माँ को भी अच्छा लगता ही है. ख़ैर! अभी इमोशनल होने जैसा कुछ नहीं है.
तो बात ये थी कि ये पर्सनल 'हड़प्पा' और 'मोहन जोदड़ो' हर घर में पाया ही जाता है जिसे हम आंग्ल भाषा में 'स्टोर' कहते हैं. ये कम्बख़्त स्टोर वह स्थान है जहाँ हम घर का वह सामान जमा करते हैं जो न फेंका जाता है और न रखा! जिसके बारे में घर के किसी न किसी सदस्य को मजबूती से लगता है कि "ये एक न एक दिन अवश्य काम आएगा!" अब ये बात अलग है कि जिस दिन उस विशेष वस्तु की जरुरत होती है वो नहीं मिलती! आप पूरा स्टोर खाली कर दें तब भी नहीं ही मिलेगी! दरअसल हड़प्पा का मूल भाव ही यही है कि उसकी ख़ुदाई में मिली सामग्री को आने वाली पीढ़ियाँ देखती और सराहती हैं.
अब प्रश्न यह उठता है कि ये ' प्राइवेट हड़प्पा' होता ही क्यों है? बहुत शोध के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अपन लोग मल्टीप्लेक्स में भले ही 200 रुपये की पॉपकॉर्न बाल्टी भकोस लें या 80 के एक समोसे से अपनी स्वादेन्द्रियों को तृप्ति के अद्भुत भाव से रूबरू करायें और फिर सोशल मीडिया पर प्याज के बढ़ते दामों को लेकर गंभीर स्टेटस चिपकायें पर एक्चुअली में भारतीय बहुत सोच विचार के घर चलाते हैं. तभी तो हम टूथपेस्ट के ख़त्म हो जाने पर भी उसे दबोच-दबोचकर तब तक उसके प्राण हरते रहते हैं जब तक कि वो काग़ज़ की तरह flat होकर स्वयं ही इस जालिम दुनिया को अलविदा न कह दे! मैंने तो उसे हथौड़ी से पीटते लोग भी देखे हैं. हाय मोरे रब्बा!
और शैम्पू वाला काम तो आप भी करते हो न? याद करो वो दिन जब आपने जमकर बालों में तेल चपोड़ा था और शैम्पू की बोतल को हाथ में लेते ही फुसफुस हवा की मधुर ध्वनि निकली थी. फिर आपने कैसे उसमें पानी भर, जमकर मिक्सर की तरह हिलाया था! इतना शैम्पू बन गया था कि अगली तीन बार आपने उससे अपना काम चला लिया होगा. तभी तो आपने इस कला में निपुणता की डिग्री प्राप्त की थी.
बचे हुए नींबू के चौदह सौ प्रयोग और माचिस की तीली को बचाने का सुख कोई हम गृहिणियों से पूछे. पूरे दो पैसे बचाते हैं हम लोग.
तो भैया, 'अपना नंबर आएगा' की इसी बहुमूल्य सोच के आधार पर तमाम वस्तुयें स्टोर में सुरक्षित रख दी जाती हैं. तीन टाँग वाली टेबल को स्टूल बनाने के विचार से, टूटे स्टूल को पट्टा बनाने के विचार से और टूटे पट्टे को टूटे कचरेदान का ढक्कन बनाने के विचार से. पुराने कपड़ों को बदलकर बर्तन मिलते हैं और पुराने बर्तनों को बदलकर नया कुकर आ सकता है. पुरानी साड़ियों का दुबर बनेगा और वो पिचका वाला तकिया और थोड़ी उधड़ी जयपुरी रजाई दिल्ली वाली आंटी जी के ड्राईवर के लिए सुरक्षित रख दी जाती है. बेचारा कैसे सोयेगा वरना!
हम भारतीयों की महानता के एकाध किस्से थोड़े ही न हैं! पुराने फ्लॉवर पॉट, डिज़ाइनर मटका यह सोचकर नहीं फेंका जाता कि एक दिन इसमें ग़ुलाब का पौधा होगा या फिर मनीप्लांट की लहलहाती बेल. पुरानी चादरें ब्याह-शादी में काम आयेंगी, सो उन्हें भी सँभाल लिया जाता है. केबल का तार, प्लग, आयरन, स्पीकर और भी न जाने क्या-क्या इस स्टोर में भरा जाता है. अजी! स्टोर कहाँ! अलादीन अंकल का चिराग़, भानुमती आंटी जी का पिटारा है ये तो. हर असंभव प्रश्न और विलुप्त वस्तु का एक ही इकलौता जवाब है, "स्टोर में मिलेगी!"
बच्चे भी पुरानी पुस्तकें इसमें टिका देते हैं कि रेफ़रेंस में लगेंगीं कभी. जबकि सच्चाई यह है कि भयानक पाठ्यक्रम के चलते वे करेंट बुक्स को ही जैसे-तैसे निबटा पाते हैं! उस पर जरुरत हुई भी तो स्टोर के अरब महासागर में गोते लगा पुरानी क़िताब रुपी मोती को ढूँढने से बेहतर और सरल वे अपने गूगल भैया को मानते हैं.
इस स्टोर में जाना मौत के कुँए में मोटर साइकिल चलाने से भी ज्यादा रिस्की है. इसकी सफ़ाई भी कोई एक दिन में ख़त्म नहीं होती! इसमें मिले सामान को पाकर गृहयुद्ध हो जाते हैं कि ये तब क्यों नहीं मिला था जब इसके बिना दुनिया उजाड़ थी. पर क्या करें, दीवाली का दस्तूर है कि सफ़ाई तो होगी! अब आपको इस दौरान सफ़ाइयाँ देनी पड़ें तो आप अपनी प्रॉब्लम ख़ुद समझ लो! हमने थोड़े ही न कहा था कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में सेंध लगाकर अपने 'पर्सनल हड़प्पा' की रियासतों का यूँ विस्तार करो! 😀
- प्रीति 'अज्ञात'