शनिवार, 7 अगस्त 2021

...और मैडल चाहिए? तो उन्हें 'घर संभालने' की अनिवार्य शर्त से मुक्ति दिलाइये

'लड़की घर भी संभाल लेगी, और मैडल भी जीत लेगी'. टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला एथलीटों के उत्कृष्ट प्रदर्शन से उत्साहित लोग सोशल मीडिया पर कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया दे  रहे हैं. मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से कही गई ये बात तथ्यात्मक रूप से बिल्कुल सही है. लड़कियों के लिए हमारे समाज में जिस तरह का वातावरण मौजूद है, उन्हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई सामंजस्य बैठाने पड़ते हैं. 'घर संभालने' की अदृश्य जिम्मेदारी का दबाव उनमें से एक है. फिलहाल इस बात को मैं महिला-पुरुष वाली डिबेट में नहीं ले जाना चाहती. और ओलंपिक में पदक जीतने के साथ देश का मान बढ़ा रही बेटियों के आनंद में अपनी खुशी को महसूस करना चाहती हूँ. क्योंकि, इन खिलाड़ियों के पूरे होते सपने लाखों-करोड़ों लड़कियों को सपने दे रहे हैं.

हम भारतीय इस बात को भलीभाँति जानते और समझते हैं कि इस देश की स्त्रियों में प्रतिभा और लगन की कोई कमी नहीं. उनकी क्षमता अपार है और अवसर प्राप्त होते ही वे यह सिद्ध भी कर देती हैं. उनके नाम छपते ये प्रशस्ति-पत्र इसी तथ्य को प्रमाणित करने का उपक्रम भर हैं. एक स्त्री की तो दिनचर्या ही यही है कि वह कई मोर्चों पर एक साथ खड़ी होती है और सफ़लता प्राप्त करती है. बहुकार्यण एवं समय प्रबंधन में उसका कोई सानी नहीं!.....

हाँ, कामकाजी हो या घरेलू महिला, घर-गृहस्थी उसकी प्राथमिकता में सदा ही रहे हैं. या ये समझिए कि समाज की सीख ही ऐसी है कि पुरुषों ने ऐसे उत्तरदायित्वों को स्त्रियों के भरोसे रख छोड़ा है. सदियों से हमारी परंपरा भी तो यही रही है कि पुरुष बाहर काम करते हैं और स्त्रियाँ घर संभालती आई हैं. जब समय परिवर्तित हुआ और स्त्रियों ने घोंसले के बाहर निकल अपने पंख पसारना प्रारंभ किये, तब भी शर्त यही थी कि उनकी अपनी उड़ान में घर पीछे नहीं छूटना है.

स्त्रियों को यह भी पता है कि इस उड़ान में सफ़ल होना उनके लिए कितना आवश्यक है वरना जगहँसाई से पहले, घर की स्त्रियों के कटाक्ष ही उनके पर कतरने को पर्याप्त हैं. इसलिए वह जब एक लक्ष्य साधने का दृढ़ निश्चय करती है तो उससे पहले अपने हौसले और सक्षमता को सौ बार तोलती-परखती भी है. सामाजिक परिदृश्य में उसका स्थान कहाँ निश्चित किया गया है, इस तथ्य से भी वह परिचित है ही.

सर्वविदित है कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का सिर उठाकर चलना, महत्वपूर्ण मुद्दों पर बोलना और अपनी स्वतंत्रता की बात करना तक कुछ लोगों को खल जाता है. हम उस देश के निवासी हैं जहाँ आज भी कुछ स्थानों पर मात्र अपनी पसंद के कपड़े पहनने से लड़कियाँ मार दी जाती हैं. दूसरी जाति में या मनचाहे लड़के से प्रेम-विवाह परिवारों को हज़म नहीँ होता! जहाँ बेटी का जन्म ही बोझ लगने लगता है या फिर भ्रूणावस्था में ही उसे 'गिरा' दिया जाता है. जहाँ दहेज के नाम पर उसकी हत्या होती है, रात में निकलने पर उसके साथ बलात्कार किया जाता है. उस पर लड़कों की गंदी निगाह का कारण उनकी विकृत सोच नहीं बल्कि लड़की का पहनावा सिद्ध कर दिया जाता है. वहाँ यदि लड़कियों का प्रदर्शन अच्छा होगा तो प्रशंसा तो होगी ही. क्योंकि हमको पता है कि इनका जीवन एक अंतहीन बाधा-दौड़ से कम नहीं!

जब हम कहते हैं कि 'लड़कियों ने फिर बाजी मारी' तब यह दोनों लिंगों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा मानकर नहीं कहा जाता. बल्कि यह तो उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कहा जाता है, जहाँ हमें पता होता है कि आज भी कई लड़कियाँ, घरेलू काम में हाथ बँटाते हुए और तमाम कठिनाइयों से जूझते हुए इतना सब कर रही हैं.
महिला खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाते हुए भी जो पंक्ति लिखी गई है, उसमें भी प्राथमिकता घर संभालने को ही मिली है. क्या लड़कों का उत्साहवर्धन करते हुए भी यही कहा जाता है? नहीं, क्योंकि वे मुक्त हैं हर भार से. ऐसे समाज से जब कोई स्त्री ओलंपिक में पदक जीतकर लाती है तो उसकी पीठ थपथपा इस प्रजाति पर गर्व करना स्वाभाविकहै और आवश्यक भी. जिससे उन सबको प्रोत्साहन मिले, जिनके हृदय में अभी कहीं कोई अचकचाहट है. उन्हें भी एहसास हो कि राह उतनी भी कठिन नहीं, जितना वे माने बैठी हैं. बस पहला क़दम रखने भर की देर है. अभी लड़कियों का मनोबल ऊँचा करने का समय इसलिए भी है क्योंकि आत्मविश्वास पाने का संघर्ष वे ही कर रही हैं. जब ये सब आम हो जाएगा. देश के हर राज्य से ऐसी खबरें प्रायः आया करेंगी और हमें इसकी आदत हो जाएगी, तब ही इस तरह के मुख्य शीर्षक बनने पर विराम लगेगा. लेकिन इस प्रक्रिया से पुरुष रूपी राजा को विचलित नहीं होना है. उसकी जगह सुनिश्चित है. बस, रानी के लिए अपने साथ एक सिंहासन और बनवा लेना है.

आपने भी तो कितनी बार ऐसी शीर्ष पंक्तियों को हमेशा ही आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ देखा- पढ़ा होगा, जहाँ लिखा हो- 'अब लड़कियाँ भी चलाएंगी विमान', 'भारत की पहली महिला ट्रक ड्राइवर'. पेट्रोल पंप में काम करती लड़कियों को देखकर भी यकायक चौंक जाते हैं न! क्योंकि ये सब काम तो हम पुरुषोचित मानकर बैठे हैं! लड़कियों ने भारोत्तोलन और मुक्केबाजी जैसे खेलों में पदक जीते हैं. जो शारीरिक क्षमता भी प्रदर्शित करते हैं. अब कल्पना करो कि प्रायः अपने घरों में जब वजन उठाने का कोई काम होता है तो पिता, पति, भाई या बेटे को बुलाया जाता है. क्या कोई परिवार अपनी लड़की के बचपन में ये सोच सकता है कि ये बड़ी होकर पहलवानी या मुक्केबाजी करेगी! उसे तो हम सौम्यता की मूरत बनाते हैं. लेकिन अब ये सूरत बदल रही है.

इस बदलती सूरत का शानदार नज़ारा यह है कि टोक्यो ओलंपिक में भारोत्तोलन में मीराबाई चानू ने शानदार प्रदर्शन कर देश को पहला पदक दिला दिया. बैडमिंटन स्पर्धा में पीवी सिंधु दो बार ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनी. एक तरफ भारतीय पुरुष हॉकी टीम सेमीफाइनल में पहुँची, उधर भारतीय महिला हॉकी टीम ने भी ओलंपिक में पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाकर इतिहास रच दिया है. पूल चरण में संघर्षरत यह टीम बाद में पूरी शक्ति के साथ ऐसा खेली कि सब देखते रह गए. इसकी कप्तान रानी रामपाल से लेकर गोलकीपर सविता तक लगभग सभी की ओलंपिक तक पहुँचने की कहानी काफ़ी संघर्ष भरी रही है.

मैरीकॉम ने बॉक्सिंग चुना और देश को इसमें पहले मैडल भी दिला चुकी हैं. इस बार भी उनका प्रदर्शन अद्भुत रहा. मैडल भले ही फिसल गया परंतु काँटे की टक्कर दी है उन्होंने. मैरीकॉम ने 2012 के लंदन ओलंपिक में मुक्केबाजी में कांस्य पदक जीता था.और इस बार लवलीना बोरगोहेन का भी पदक जीतना तय है. इन दोनों मुक्केबाजों की कहानी भी प्रेरणा का विषय है क्योंकि उनके परिवारों ने अपनी बेटियों के खेल को प्राथमिकता दी. मैरीकॉम ने बॉक्सिंग में ऊँचा मुकाम पाने के बाद जीवन साथी चुना. उसने खेल और मैडल को लक्ष्य बनाया यदि उसके दिमाग में घर संभालने का ख्याल होता तो शायद आज वो वहाँ नहीं जा पाती, जहाँ गई हैं.

 इस बात से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि अन्य राज्यों की अपेक्षा उत्तर-पूर्वी राज्यों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर है. लेकिन दक्षिण और हरियाणा की लड़कियाँ भी कमाल कर रही हैं. कह सकते हैं कि खेलों का जहाँ-जहाँ मान है, वे संस्कृति में ढल गए हैं और लड़कियों अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं वहाँ से उम्मीद की किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं. लड़कियों के मन से घर संभालने का दबाव निकालने का यही समय है. अभिभावकों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए कि उनके बच्चों को यदि खेल में रुचि है, तो वे उन्हें प्रोत्साहित करें. टोक्यो ओलंपिक की उपलब्धियों इसी काम में आनी चाहिए.

एक बात और, कभी-कभी गरीब पृष्ठभूमि वाले लड़के-लड़कियों के लिए स्पोर्ट्स नौकरी पाने का जरिया होता है. लेकिन, इक्कीसवीं सदी की लड़कियों के सपने बड़े हैं. वे नौकरी से आगे ओलंपिक मैडल को लक्ष्य बना रही हैं.
'हमें बेटी बचाओ' को एक कोरा आह्वान नहीं समझना है. बेटियों के सपनों को बचाना है, उन्हें उनका अपना आसमान चुनने का अधिकार देना है. 'बेटी पढ़ाओ' की जब बात करें तो चुपके से उनका मन भी पढ़ लेना है. उनकी आँखों में सुख की इक मीठी झील भी छोड़ देनी है. यक़ीन मानिए जिस दिन इस देश की सारी बेटियाँ अपनी मर्ज़ी से जी सकेंगीं, अच्छे दिन भी आ जाएंगे. हमारी परियों को थोड़ा-सा आसमान तो दीजिये, वो उस पर मैडल टांक देंगी. ओलंपिक तो क्या हम दुनिया की किसी भी पदक तालिका में इतना पीछे नहीं रहेंगे कि इकाई में प्राप्त पदकों पर ही अपने भाग्य को सराहने लगें. लेकिन हमारे जिन खिलाड़ियों ने हमें ये गौरवशाली पल दिए और वहाँ तक पहुँचे, उनको इस देश का सौ-सौ बार सलाम.

- प्रीति अज्ञात 

हस्ताक्षर पत्रिका में मेरा संपादकीय -

https://hastaksher.com/tokyo-olympic-2020-give-them-freedom-our-girls-will-bring-more-medals-editorial-by-preeti-agyaat/

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रविवार, 1 अगस्त 2021

#FriendshipDay: दोस्ती के अटूट बंधन की पाठशाला है फ़िल्म 'दोस्ती'

दोस्ती की जब-जब बात आती है तो मेरे मन में दो बेहद प्यारे लड़कों की तस्वीर तैर जाती है. मृदुल मुस्कान, सौम्य व्यक्तित्व, रेशम-सा हृदय लिए ये दोनों, दोस्ती के सबसे उत्कृष्ट मानदंडों की सूची मेरे हाथों में थमा गए थे जैसे. बचपन के इस सपने को मैंने हृदय में सँजो लिया था कि जब मित्रता करुँगी तो यूँ ही निभाऊँगी जैसे रामू और मोहन ने निभाई थी. मन ही मन कल्पनाओं के सारे रंग चुनने लगती थी.  'मित्रता दिवस' हो और 'दोस्ती' फ़िल्म को याद न करूँ, हो ही नहीं सकता!

स्मृति-पटल पर उस समय की मेरी आयु तो दर्ज़ नहीं हो रही पर हाँ, मैं किशोरी ही रही होऊँगी. बात अलीगढ़ (उ. प्र.) की है. गर्मी की छुट्टियों में वहाँ ताईजी-ताऊजी के पास हम सब प्रतिवर्ष जाते थे. वहाँ खूब धमाचौकड़ी होती और फिर अचानक से बच्चे फ़िल्म देखने का कार्यक्रम तय कर लेते. ऐसी ही एक ग्रीष्म दोपहरी में 'दोस्ती' फ़िल्म देखने का योग बना. 

सिनेमा-हॉल में प्रवेश करते समय मुझे एक क्षण को भी यह भान न था कि मैं आज अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ दस फ़िल्मों में से एक देखने जा रही हूँ. लेकिन इस अद्भुत और कालजयी फ़िल्म ने जैसे चौंका दिया मुझे. इसे देखने के बाद जाने कितने महीनों तक इसकी पटकथा मेरे साथ चलती रही. इसने मेरी भावनाओं को इस हद तक उद्वेलित किया कि मैं आज भी इस फ़िल्म को याद करती हूँ. इसे देखने के बाद मैंने अपने व्यक्तित्व को आकार देना प्रारंभ किया. और हाँ, पहला माउथ ऑर्गन भी खरीदा.

यह फ़िल्म सच्ची मित्रता के सभी आयामों को अनूठे ढंग से चित्रित करती है. मूल रूप से यह दो गरीब लड़कों, मोहन और रामू की अटूट दोस्ती की कहानी है. उनमें से एक दृष्टिहीन और एक अपंग है. सड़कों पर भटकते हुए रामू की मुलाकात मोहन से होती है. रामू माउथ ऑर्गन बहुत अच्छा बजाता है, पढ़ने की भी बहुत इच्छा रखता है. मोहन अच्छा गाता है. साथ में वे एक-दूसरे की कठिनाइयाँ समझते हैं, एक-दूसरे को सांत्वना देते हैं और भरसक साथ निभाते हैं. ये दोनों एक ऐसे जीवन को स्वाभिमान के साथ जीने को प्रयासरत हैं जिसे दूसरे दयनीय समझते हैं. मोहन को अपनी खोई बहन की तलाश है, और रामू को शिक्षा की. ये दोनों दोस्त किन-किन कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए जीवन जीते हैं, इनकी मित्रता कैसे धर्मसंकट से होकर गुजरती है. कैसे नए रिश्तों के कारण ये बिछुड़ने के कगार पर आ जाते हैं. यही फिल्म में दिखाया गया है. लेकिन इसके अन्य पात्र भी पटकथा में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. फिर चाहे वो बहन-बहनोई हों, शिक्षक-छात्र हों या एक गुड़िया जैसी बच्ची.

इस फ़िल्म में मनुष्य की प्रत्येक भावना को इतनी सरलता से, लेकिन वृहद रूप से चित्रित और रेखांकित किया गया है जो लगभग 6 दशक बीत जाने के बाद भी कहीं देखने को नहीं मिलता. मित्रता पर ऐसी कोई फ़िल्म आज तक बनी ही नहीं जिसने मुझे इस हद तक भावुक कर दिया. इससे पहले मैं किसी फ़िल्म में एक पल भी नहीं रोई थी लेकिन इसमें तो जैसे बाँध बह निकला था.  मानवीय संबंधों के सबसे शुद्ध और प्रबल भाव का चित्रण है इसमें. दोस्ती और मानवता की इस उल्लेखनीय कहानी में दोनों अभिनेताओं सुधीर कुमार और सुशील कुमार ने ऐसा अभिनय किया है जैसे कि वे इस भूमिका के लिए ही जन्मे हों. दृष्टिहीन लड़के की भूमिका निभाने वाले सुधीर कुमार की आँखें तो इतनी सुंदर हैं कि बयान नहीँ किया जा सकता. पूरी फ़िल्म में यह बेचैनी साथ चलती है कि ये लड़का देख क्यों नहीं सकता!

दोस्ती का गीत-संगीत रिश्तों के धागे में मोती की तरह पिरोया गया है. मजरुह सुल्तानपुरी द्वारा रचित गीतों में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपने संगीत से जान फूँक दी है. इन शानदार गीतों के सरल और अर्थपूर्ण बोल अत्यधिक दक्षता के साथ कहानी को अपने साथ लेकर चलते हैं. राजश्री बैनर के ताराचंद बड़जात्या इसके निर्माता हैं. निर्देशन सत्येन बोस का है.

कहते हैं कि अपने असाधारण अभिनय और कमाल की कहानी के कारण यह एक बड़ी ब्लॉकबस्टर रही थी. और क्यों न हो, जब स्वर सम्राट मोहम्मद रफी ने इसमें वो 5 गीत गाए हों जिन्हें हम अब तक गुनगुनाते हैं. लता मंगेशकर का गाया  गीत 'गुड़िया, हमसे रूठी रहोगी, कब तक न हँसोगी' हर माता-पिता ने अपनी बेटी को मनाते हुए गाया होगा. गीतों के शब्द- शब्द दिल में उतरते हैं. 'मेरी दोस्ती मेरा प्यार' सुनकर कैसे अपने दोस्तों पर गर्व होने लगता है.और 'चाहूँगा मैं तुझे साँझ-सवेरे', से तो न केवल दोस्त बल्कि प्रेमी भी निश्छल मन से किसी को प्रेम करते हुए बिछोह का दर्द महसूस करते हैं,  'मेरा तो जो भी क़दम है' में जो परवाह है उसे रफ़ी साब ने कैसे जीवन दे दिया है! 'जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे' को सुन दिल से एक आह आज भी निकलती है. हम इन सारे थोड़े उदास भावों से गुजर ही रहे होते हैं कि 'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है' गीत आपको हौले से सहला जाता है और आपका निराश हृदय अनायास ही उम्मीद की जगमगाती किरणों से प्रकाशमान हो उठता है.

इस फिल्म की श्रेष्ठता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म को उस वर्ष  के प्रतिष्ठित फिल्मफेयर अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ फिल्म, कहानी, संवाद, संगीतकार, गायक, गीतकार के पूरे 6 पुरस्कार  इसके नाम हुए.  

 दोस्ती पर सैकड़ों फ़िल्में बनी हैं. उनमें से कुछ अच्छी भी हैं. लेकिन इससे श्रेष्ठ, भावनात्मक रूप से प्रबल, अविस्मरणीय गीत-संगीत और अभिनय से सजी प्रेरणास्पद फ़िल्म मैंने आज तक नहीं देखी! हृदयस्पर्शी सिनेमा का अनमोल एवं उत्कृष्ट उदाहरण है यह फ़िल्म.

राजश्री बैनर ने अपनी फ़िल्मों में सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, परिवार, संवेदनाओं को शीर्ष पर रखकर सदैव ही भावनात्मक पक्ष को प्रबल रखा है. आश्चर्य इस बात का है कि जहाँ आज फ़िल्मकारों  द्वारा कहानी की मांग को कारण बताकर अनर्गल सामग्री को सिनेमा में सम्मिलित कर लिया जाता है. वहाँ यह फ़िल्म निर्माण कंपनी अब तक अपनी उसी आन, बान और शान के साथ साफ़ सुथरी खड़ी हुई है. प्रशंसनीय है कि राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्में आज भी न केवल इस परंपरा को निभा रही हैं और सफ़ल भी हो रही हैं.

हो सकता है कि 1964 में बनी इस फ़िल्म 'दोस्ती' को देखने पर संवाद अदायगी थोड़ी बचकानी लगे. यह बहुत पुरानी फ़िल्म है और तब से अब तक संवादों के लहजे में बहुत परिवर्तन आ चुका है. लेकिन भावनात्मक रूप से यह अब भी उतना ही गहरा प्रभाव डालने में सक्षम है. यदि आप अच्छी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं तो इसे अपनी सूची में अवश्य सम्मिलित करें. यह निश्चित रूप से आपके बेहतरीन गुजारे ढाई-तीन घंटों की यादों में से एक होगी. ये आपको दर्शनशास्त्र नहीं समझाती,  सुनहरे स्वप्न नहीं दिखाती, कुछ अविश्वसनीय बात भी नहीं कहती बस दो इंसानों का संघर्ष भरा जीवन सामने रख देती है. दोस्ती के अटूट बंधन की पाठशाला है यह फ़िल्म.  रिश्तों के सबसे मधुर और उच्च भाव दोस्ती को यह  इस तरह रखती है कि कहानी के दोनों पात्रों से आपका भीतर तक जुड़ाव हो जाता है. उनके दुख आपकी आँखों से झर झर बहने लगते हैं. पर आप ईश्वर से यह प्रार्थना भी अवश्य कर रहे होते हैं कि आप भी किसी से इसी तरह दोस्ती निभाएं. आपके जीवन में भी कोई ऐसा दोस्त आए जिस पर आप यूँ  भरोसा कर सकें. आखिर दोस्तों में ही तो जीवन बसता है न!

HAPPY FRIENDSHIP DAY! 💕

- प्रीति अज्ञात 

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*पोस्टर विकिपीडिया से साभार