'लड़की घर भी संभाल लेगी, और मैडल भी जीत लेगी'. टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला एथलीटों के उत्कृष्ट प्रदर्शन से उत्साहित लोग सोशल मीडिया पर कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं. मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से कही गई ये बात तथ्यात्मक रूप से बिल्कुल सही है. लड़कियों के लिए हमारे समाज में जिस तरह का वातावरण मौजूद है, उन्हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई सामंजस्य बैठाने पड़ते हैं. 'घर संभालने' की अदृश्य जिम्मेदारी का दबाव उनमें से एक है. फिलहाल इस बात को मैं महिला-पुरुष वाली डिबेट में नहीं ले जाना चाहती. और ओलंपिक में पदक जीतने के साथ देश का मान बढ़ा रही बेटियों के आनंद में अपनी खुशी को महसूस करना चाहती हूँ. क्योंकि, इन खिलाड़ियों के पूरे होते सपने लाखों-करोड़ों लड़कियों को सपने दे रहे हैं.
हम भारतीय इस बात को भलीभाँति जानते और समझते हैं कि इस देश की स्त्रियों में प्रतिभा और लगन की कोई कमी नहीं. उनकी क्षमता अपार है और अवसर प्राप्त होते ही वे यह सिद्ध भी कर देती हैं. उनके नाम छपते ये प्रशस्ति-पत्र इसी तथ्य को प्रमाणित करने का उपक्रम भर हैं. एक स्त्री की तो दिनचर्या ही यही है कि वह कई मोर्चों पर एक साथ खड़ी होती है और सफ़लता प्राप्त करती है. बहुकार्यण एवं समय प्रबंधन में उसका कोई सानी नहीं!.....
हाँ, कामकाजी हो या घरेलू महिला, घर-गृहस्थी उसकी प्राथमिकता में सदा ही रहे हैं. या ये समझिए कि समाज की सीख ही ऐसी है कि पुरुषों ने ऐसे उत्तरदायित्वों को स्त्रियों के भरोसे रख छोड़ा है. सदियों से हमारी परंपरा भी तो यही रही है कि पुरुष बाहर काम करते हैं और स्त्रियाँ घर संभालती आई हैं. जब समय परिवर्तित हुआ और स्त्रियों ने घोंसले के बाहर निकल अपने पंख पसारना प्रारंभ किये, तब भी शर्त यही थी कि उनकी अपनी उड़ान में घर पीछे नहीं छूटना है.
स्त्रियों को यह भी पता है कि इस उड़ान में सफ़ल होना उनके लिए कितना आवश्यक है वरना जगहँसाई से पहले, घर की स्त्रियों के कटाक्ष ही उनके पर कतरने को पर्याप्त हैं. इसलिए वह जब एक लक्ष्य साधने का दृढ़ निश्चय करती है तो उससे पहले अपने हौसले और सक्षमता को सौ बार तोलती-परखती भी है. सामाजिक परिदृश्य में उसका स्थान कहाँ निश्चित किया गया है, इस तथ्य से भी वह परिचित है ही.
सर्वविदित है कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का सिर उठाकर चलना, महत्वपूर्ण मुद्दों पर बोलना और अपनी स्वतंत्रता की बात करना तक कुछ लोगों को खल जाता है. हम उस देश के निवासी हैं जहाँ आज भी कुछ स्थानों पर मात्र अपनी पसंद के कपड़े पहनने से लड़कियाँ मार दी जाती हैं. दूसरी जाति में या मनचाहे लड़के से प्रेम-विवाह परिवारों को हज़म नहीँ होता! जहाँ बेटी का जन्म ही बोझ लगने लगता है या फिर भ्रूणावस्था में ही उसे 'गिरा' दिया जाता है. जहाँ दहेज के नाम पर उसकी हत्या होती है, रात में निकलने पर उसके साथ बलात्कार किया जाता है. उस पर लड़कों की गंदी निगाह का कारण उनकी विकृत सोच नहीं बल्कि लड़की का पहनावा सिद्ध कर दिया जाता है. वहाँ यदि लड़कियों का प्रदर्शन अच्छा होगा तो प्रशंसा तो होगी ही. क्योंकि हमको पता है कि इनका जीवन एक अंतहीन बाधा-दौड़ से कम नहीं!
जब हम कहते हैं कि 'लड़कियों ने फिर बाजी मारी' तब यह दोनों लिंगों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा मानकर नहीं कहा जाता. बल्कि यह तो उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कहा जाता है, जहाँ हमें पता होता है कि आज भी कई लड़कियाँ, घरेलू काम में हाथ बँटाते हुए और तमाम कठिनाइयों से जूझते हुए इतना सब कर रही हैं.
महिला खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाते हुए भी जो पंक्ति लिखी गई है, उसमें भी प्राथमिकता घर संभालने को ही मिली है. क्या लड़कों का उत्साहवर्धन करते हुए भी यही कहा जाता है? नहीं, क्योंकि वे मुक्त हैं हर भार से. ऐसे समाज से जब कोई स्त्री ओलंपिक में पदक जीतकर लाती है तो उसकी पीठ थपथपा इस प्रजाति पर गर्व करना स्वाभाविकहै और आवश्यक भी. जिससे उन सबको प्रोत्साहन मिले, जिनके हृदय में अभी कहीं कोई अचकचाहट है. उन्हें भी एहसास हो कि राह उतनी भी कठिन नहीं, जितना वे माने बैठी हैं. बस पहला क़दम रखने भर की देर है. अभी लड़कियों का मनोबल ऊँचा करने का समय इसलिए भी है क्योंकि आत्मविश्वास पाने का संघर्ष वे ही कर रही हैं. जब ये सब आम हो जाएगा. देश के हर राज्य से ऐसी खबरें प्रायः आया करेंगी और हमें इसकी आदत हो जाएगी, तब ही इस तरह के मुख्य शीर्षक बनने पर विराम लगेगा. लेकिन इस प्रक्रिया से पुरुष रूपी राजा को विचलित नहीं होना है. उसकी जगह सुनिश्चित है. बस, रानी के लिए अपने साथ एक सिंहासन और बनवा लेना है.
आपने भी तो कितनी बार ऐसी शीर्ष पंक्तियों को हमेशा ही आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ देखा- पढ़ा होगा, जहाँ लिखा हो- 'अब लड़कियाँ भी चलाएंगी विमान', 'भारत की पहली महिला ट्रक ड्राइवर'. पेट्रोल पंप में काम करती लड़कियों को देखकर भी यकायक चौंक जाते हैं न! क्योंकि ये सब काम तो हम पुरुषोचित मानकर बैठे हैं! लड़कियों ने भारोत्तोलन और मुक्केबाजी जैसे खेलों में पदक जीते हैं. जो शारीरिक क्षमता भी प्रदर्शित करते हैं. अब कल्पना करो कि प्रायः अपने घरों में जब वजन उठाने का कोई काम होता है तो पिता, पति, भाई या बेटे को बुलाया जाता है. क्या कोई परिवार अपनी लड़की के बचपन में ये सोच सकता है कि ये बड़ी होकर पहलवानी या मुक्केबाजी करेगी! उसे तो हम सौम्यता की मूरत बनाते हैं. लेकिन अब ये सूरत बदल रही है.
इस बदलती सूरत का शानदार नज़ारा यह है कि टोक्यो ओलंपिक में भारोत्तोलन में मीराबाई चानू ने शानदार प्रदर्शन कर देश को पहला पदक दिला दिया. बैडमिंटन स्पर्धा में पीवी सिंधु दो बार ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनी. एक तरफ भारतीय पुरुष हॉकी टीम सेमीफाइनल में पहुँची, उधर भारतीय महिला हॉकी टीम ने भी ओलंपिक में पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाकर इतिहास रच दिया है. पूल चरण में संघर्षरत यह टीम बाद में पूरी शक्ति के साथ ऐसा खेली कि सब देखते रह गए. इसकी कप्तान रानी रामपाल से लेकर गोलकीपर सविता तक लगभग सभी की ओलंपिक तक पहुँचने की कहानी काफ़ी संघर्ष भरी रही है.
मैरीकॉम ने बॉक्सिंग चुना और देश को इसमें पहले मैडल भी दिला चुकी हैं. इस बार भी उनका प्रदर्शन अद्भुत रहा. मैडल भले ही फिसल गया परंतु काँटे की टक्कर दी है उन्होंने. मैरीकॉम ने 2012 के लंदन ओलंपिक में मुक्केबाजी में कांस्य पदक जीता था.और इस बार लवलीना बोरगोहेन का भी पदक जीतना तय है. इन दोनों मुक्केबाजों की कहानी भी प्रेरणा का विषय है क्योंकि उनके परिवारों ने अपनी बेटियों के खेल को प्राथमिकता दी. मैरीकॉम ने बॉक्सिंग में ऊँचा मुकाम पाने के बाद जीवन साथी चुना. उसने खेल और मैडल को लक्ष्य बनाया यदि उसके दिमाग में घर संभालने का ख्याल होता तो शायद आज वो वहाँ नहीं जा पाती, जहाँ गई हैं.
इस बात से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि अन्य राज्यों की अपेक्षा उत्तर-पूर्वी राज्यों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर है. लेकिन दक्षिण और हरियाणा की लड़कियाँ भी कमाल कर रही हैं. कह सकते हैं कि खेलों का जहाँ-जहाँ मान है, वे संस्कृति में ढल गए हैं और लड़कियों अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं वहाँ से उम्मीद की किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं. लड़कियों के मन से घर संभालने का दबाव निकालने का यही समय है. अभिभावकों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए कि उनके बच्चों को यदि खेल में रुचि है, तो वे उन्हें प्रोत्साहित करें. टोक्यो ओलंपिक की उपलब्धियों इसी काम में आनी चाहिए.
एक बात और, कभी-कभी गरीब पृष्ठभूमि वाले लड़के-लड़कियों के लिए स्पोर्ट्स नौकरी पाने का जरिया होता है. लेकिन, इक्कीसवीं सदी की लड़कियों के सपने बड़े हैं. वे नौकरी से आगे ओलंपिक मैडल को लक्ष्य बना रही हैं.
'हमें बेटी बचाओ' को एक कोरा आह्वान नहीं समझना है. बेटियों के सपनों को बचाना है, उन्हें उनका अपना आसमान चुनने का अधिकार देना है. 'बेटी पढ़ाओ' की जब बात करें तो चुपके से उनका मन भी पढ़ लेना है. उनकी आँखों में सुख की इक मीठी झील भी छोड़ देनी है. यक़ीन मानिए जिस दिन इस देश की सारी बेटियाँ अपनी मर्ज़ी से जी सकेंगीं, अच्छे दिन भी आ जाएंगे. हमारी परियों को थोड़ा-सा आसमान तो दीजिये, वो उस पर मैडल टांक देंगी. ओलंपिक तो क्या हम दुनिया की किसी भी पदक तालिका में इतना पीछे नहीं रहेंगे कि इकाई में प्राप्त पदकों पर ही अपने भाग्य को सराहने लगें. लेकिन हमारे जिन खिलाड़ियों ने हमें ये गौरवशाली पल दिए और वहाँ तक पहुँचे, उनको इस देश का सौ-सौ बार सलाम.
- प्रीति अज्ञात
हस्ताक्षर पत्रिका में मेरा संपादकीय -
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