सोमवार, 19 सितंबर 2022

सूरज और चाँद

 रात भर पूरी मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभाता चाँद, जब सुबह उबासियाँ लेते हुए चाय की एक प्याली तलाश करता है तो पहाड़ी के पीछे से अंगड़ाइयों को तोड़ते हुए सूरज बाबू आ धमकते हैं. उसे देख जैसे चाँद की सारी थकान ही मिट जाती है, चेहरा तसल्ली से खिल उठता है! क्यों न हो, आख़िर सूरज की चमक से ही तो चाँद की रोशनी है!

उधर शाम को निढाल सूरज नदी में उतरते हुए, हौले से चाँद को देखता है. दोनों मुस्कुराते हैं. उसे विश्राम कक्ष में जाता देख, चाँद आकाश की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और सारे सितारे भी दौड़कर उसकी गोदी में आ झूलने लगते हैं. सप्तऋषि साक्षी हैं इस बात के कि सूरज दूर होता ही नहीं कभी! वह तो उस समय भी नींद आँखों में भर, चाँद को ख़्वाब में देख अपनी पहली मुलाक़ात याद कर रहा होता है, जब यूँ ही एक दिन घर लौटते हुए वह चाँद से टकरा गया था. वह शैतान मन-ही-मन आज फिर सोचता है कि कल भी चाँद को इसी बात पर चिढ़ाएगा कि "देखो, पहले मैंने ही तुम्हें सुप्रभात बोला था".

मैं रोज़ ही शाम को छत पर टहलते हुए नीली विस्तृत चादर पर उनकी ये तमाम अठखेलियाँ देखती हूँ तो उन्हें एक ही रंग में डूबा पाती हूँ. उन दोनों के इस प्रेम को देखती हूँ, उनके सुर्ख़ गालों पर पड़े डिम्पल को देखती हूँ, एक-दूसरे की परवाह देखती हूँ. विदा न कहने की इच्छा होते हुए भी गले लग विदाई करता देखती हूँ. उस वक़्त एक पल को आसमान जैसे मोहब्बत के सारे रंग ओढ़ लेता है. लेकिन इसके साथ-साथ उदासी की स्याह बदली भी नज़र झुकाकर चलती है. चाँद अपने दुख बांटता नहीं और चाँदनी से बतियाने लगता है. वह उसे भी समझाता है कि हमें निराश नहीं होना है, सुबह सूरज बाबू फिर आएंगे. ❤️
- प्रीति अज्ञात
#सूरजऔरचाँद #प्रीतिअज्ञात #PreetiAgyaat

शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

जीना है बेकार जिसके घर में न लुगाई!

ईवेंट मैनेजमेंट और 'डी. जे. वाले बाबू मेरा गाना चला दो', के पदार्पण से पहले घर-परिवार की शादियों में सारी रौनक़ इसी सब से थी। कभी-कभार ऐसे कार्यक्रमों में लड़कों को आने की अनुमति ही नहीं मिलती थी, तो वे स्टूल वगैरह लगाकर रोशनदान से झाँकते या फिर दरवाजे की झिर्री में से जितना भी देख सकें, उतना ही देख धन्य हो जाते। भाभी की माँ-मनौवल भी करते कि दो मिनट को तो देखने दो न! 🥰

ये पारंपरिक गीत-नृत्य, ढोलक की थाप ही उत्सव का सही आनंद देते थे। मात्र शादी का ही नहीं बल्कि परिवार के एक होने का, एक साथ रहने का उत्सव। दस-दस दिन तक ब्याह की रस्में चलतीं। कोई पहले जा रहा हो, तो उसकी टिकट रद्द करवा दी जाती तो कभी स्टेशन से वे खुद ही भावुक हो लौट आते। 😭
ये परम्पराएं थीं तो साथ था। साथ था तो दिल भी जुड़े थे। खूब लड़ाई के बाद भी मन एक हो जाता था। परिवारों की सुंदरता इन्हीं सब से थी। अब रस्में छूटीं तो जैसे बहुत कुछ छूट गया लगता है। पंडित जी भी समयानुसार एडजस्ट करने लगे हैं।
पहले की शादियों में ये सब दृश्य बहुत आम हुआ करते थे। अब ऐसा कम होता है। इसीलिए आज इस वीडियो को देख दिल खुश हो गया कि चलो, कहीं तो यह सब जीवित है। यूँ आजकल भी लेडीज़ संगीत के नाम पर तामझाम तो पूरा है पर उसमें बनावटीपन अधिक है। भला ये भी कोई बात हुई कि कोरियोग्राफर सिखाए कि कब कौन सा स्टेप लेना है। अजी, जब मंच जैसी परफॉरमेंस होने लगेंगी तो घर की बात ही कैसे आएगी।! मजा तो तब है जब कोई एक नाचे और दूसरा बीच में घुसकर कोई मनचाहा स्टेप डाल दे। कोई गाए और भूल जाए, फिर अम्मां सुधार करें कि नहीं इसके बाद ये वाली लाइन आती है। 😍
आजकल तो पार्टी प्लॉट का पता आता है या होटल का भी हो सकता है। नियत समय पर पहुँचो, खाओ, मिलो, लिफ़ाफ़ा दो और अगली ही गाड़ी से निकल लो! 😎
- प्रीति अज्ञात 5 सितंबर 2022
बात इस वीडियो के संदर्भ में कही गई है -


#जीना_है_बेकार_जिसके_घर_में_न_लुगाई #लोकगीत #लेडीज़संगीत #संस्कृति
कुँवारों, इस गीत को दिल पर न ले लेना 😁

हमारे अस्तित्व और संस्कृति की सुगंध हिन्दी में ही है

 हिन्दी दिवस आ रहा है। अब एक बार फिर ‘हिन्दी मेरी माँ है’, ‘हिन्दी बचाओ’ जैसे नारों से आभासी मंचों की दीवारें रंगी जाएंगीं। परिणाम? वही ढ़ाक के तीन पात! हिन्दी के विकास के लिए नारों अथवा बड़े-बड़े सम्मेलनों में भाषणबाज़ी का कोई औचित्य ही नहीं, यदि इस दिशा में जमीनी स्तर पर कुछ नहीं किया जा रहा हो! यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि हमारी भाषा की यह दुर्गति हिन्दी भाषियों के द्वारा ही अधिक की गई है। भले ही ऐसा करने की उनकी मंशा नहीं थी और इसके पीछे उनकी व्यक्तिगत कुंठा या सोच ही रही हो।

हम उस शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े हैं जहाँ यह मान्यता है कि विकास के लक्ष्य अंग्रेजी मार्ग से होकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि कई छात्रों के लिए हिन्दी भाषा की प्रावीण्यता और इस माध्यम में पढ़ना ही बाधा माना गया। स्पष्ट है कि इन मेधावियों में बुद्धि की कोई कमी नहीं थी लेकिन अंग्रेजी की अल्पज्ञता ने इनके पाँव पीछे खींच दिए।

जरा सोचिए! जिस भाषा के बीच रहकर हम जन्मे हैं, जिसमें रहकर उठते-बैठते हैं, जिसकी हवाओं में साँस लेते हैं हमारे लिए वही तो सहज होगी न! हम उसी में बेहतर सोचेंगे, समझेंगे और उत्तर दे सकेंगे। लेकिन हुआ यह कि हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले छात्रों को कॉन्वेंट के छात्रों से कमतर आँका जाने लगा। उनकी भाषा के सामने हिन्दी वाले बगलें झाँकने लगे। यद्यपि ऐसा होना नहीं चाहिए था पर हुआ। जिससे हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के भीतर कुंठा के भाव अंकुरित होने लगे। इधर समाज ने भी इस पर मरहम रखने के स्थान पर इसे बार-बार खुरचा ही।

पढ़ाई के माध्यम का बुद्धिमत्ता से कोई संबंध ही नहीं, शर्त तो ज्ञान को सही प्रकार से अर्जित करने की है। लेकिन हिन्दी भाषी इस तथ्य को समझे बिना सकुचाते चले गए और स्थिति गंभीर होती गई। उसके बाद किसी का उपहास उड़ाने के लिए ‘उसकी तो हिन्दी हो गई’ जैसे वाक्यांश प्रयोग में आने लगे। हँसते हुए ही सही पर हम सभी ने कभी-न-कभी इसे बोला ही है। घर आए अतिथि को जैसे ही पता चलता कि ये बच्चा हिन्दी माध्यम में पढ़ रहा है, तो प्रतिक्रिया सकारात्मक नहीं होती थी। व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए उसके मुख से ‘ओह’ कुछ यूँ निकलता मानो कह रहे हों कि ‘तुमसे न हो पाएगा!’

‘उसको शुद्ध हिन्दी में समझा देना’ भी इसी सिलसिले की कड़ी है।  भाषा के स्तर पर इसका अर्थ गहराई से समझें तो वैसे तो विशुद्ध देसीपन से भरा है पर इसमें भी हिन्दी को लेकर प्रशंसा के कोई भाव निहित नहीं हैं। बल्कि यह इसलिए कहा जाता है कि हिन्दी तो कोई निरक्षर भी समझ लेगा। अंग्रेजी सबके बस की बात कहाँ!

वर्तमान समय में कई समाचार-पत्रों और चैनलों की भाषा इतनी दयनीय हो चुकी है कि पढ़कर हँसी आती है और दुख भी होता है। पढ़ने बैठो तो समाचार-पत्रों की सामग्री हो या मुख्य शीर्षक, सभी में अंग्रेजी शब्दों की भरमार है। प्रायः सामान्य स्तर पर देखती हूँ कि समाचार वाचक बाढ़ की उम्मीद, आशा या संभावना जताता मिलता है और फसल अच्छी होने की आशंका! उसे पता ही नहीं कि कहाँ संभावना व्यक्त करनी है और कहाँ आशंका! जबकि एक का अर्थ सकारात्मक है और दूसरा नकारात्मक भाव के लिए प्रयुक्त किया जाता है।   हिन्दी सिनेमा ने भी भाषा की लंका लगाई है। आपने देखा ही है पर शायद इस तरह से ध्यान न दिया हो। याद कीजिए ‘पड़ोसन’ का ‘इक चतुर नार’ गीत या कि ‘चुपके-चुपके’ फ़िल्म। निस्संदेह कला के तौर पर ये अद्भुत हैं और सर्वप्रिय भी। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इन्होंने कहीं न कहीं जनमानस के हृदय में यह भाव भी रोपित कर दिया कि जो आंचलिक या शुद्ध हिन्दी बोलता  है, वह हास्य का पात्र है और सामान्य हिन्दी बोलने वाला शिक्षित! यू-ट्यूब के कुछ हास्य कलाकार और भी आगे निकले। उन्होंने इसमें गालियाँ जोड़कर हास्य की नई शैली रच दी। शेष कार्य हिंगलिश की व्युत्पत्ति ने कर डाला। मंचों की फूहड़ता की तो अभी चर्चा ही नहीं की है।

दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में भी शुद्ध हिन्दी को हास्य के रूप में परोसते देखा। इनमें मंच सुसज्जित करते कुछ लोग क्लिष्ट हिन्दी बोलकर यूँ प्रदर्शित करते हैं मानो क्या ही ग़ज़ब कर डाला हो! क्या हमें हमारी भाषा को सहजता से  नहीं स्वीकारना  चाहिए?

अब इस तरह के वातावरण और परिस्थितियों के बीच हिन्दी का कितना विकास संभव है, यह विचारणीय है! यद्यपि यह तय है कि इस देश से हिन्दी कहीं नहीं जा रही लेकिन इसके मूल स्वरूप का जिस तरह क्षरण हो रहा, वह अवश्य चिंतित करता है। हिन्दी, उपहास की भाषा नहीं है। यह हमारी अपनी भाषा है और इसके संरक्षण और उचित प्रयोग का दायित्व प्रत्येक भारतवासी का है।

जहाँ तक अंग्रेजी जानने का प्रश्न है तो सीखिए। इसके लिए अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा आग्रह हिन्दी को लेकर है, किसी अन्य भाषा से कोई दुराव नहीं है। गुलदस्ते में कई फूल हो सकते हैं।

भाषा, कोई भी बुरी नहीं होती।  लेकिन हम जिस देश के वासी हैं, पहले वहाँ की भाषा तो सीखें! हमें इस भ्रम से भी बाहर निकलना होगा कि बुद्धिमान कहलाने के लिए अंग्रेजी माध्यम से पढ़ना और अंग्रेजी जानना आवश्यक है। यदि ऐसा होता तो जापान, चीन ने इतनी प्रगति नहीं की होती। कैसी विडंबना है कि हमारे देश में मातृभाषा में बोलने वाले अनपढ़ और अंग्रेजी में बोलने वाले संभ्रांत की श्रेणी में रख दिए जाते हैं। किसी भी अन्य देश में ऐसा नहीं होता। विश्व की जितनी महाशक्तियाँ हैं, वे अपनी ही भाषा को प्रयोग में लाती हैं। उसे अड़चन की तरह नहीं देखतीं।

यदि हम सचमुच हिन्दी प्रेमी हैं तो अब भाषाई संकोच से उबरने का समय आ गया है। हमें अपने आसपास के वातावरण के प्रति सजग रहकर हर संभव जानकारी एकत्रित करनी है। दुनिया और उससे पहले स्वयं को यह बताना है कि हिन्दी, हमारी कमजोरी नहीं ताकत है। योग्यता, कौशल और नए आत्मविश्वास के साथ इसमें अपार संभावनाएं खोजी जा सकती हैं। इसके लिए पूरी रचनात्मकता एवं सकारात्मक भाव के साथ प्रयत्न हमें ही करने होंगे। हमारी कल्पना की उड़ान, हमारी उन्नति, हमारी अपनी भाषा से ही संभव है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने-अपने घरों में, बाहर और प्रत्येक मंच पर बेझिझक हिन्दी बोलिए, पढ़ाइए, सिखाइए।

बीते माह एक सुखद समाचार सुनने में आया है कि मध्यप्रदेश में अब चिकित्सा शिक्षा, हिन्दी माध्यम से भी हो सकेगी। पुस्तकें भी इसी भाषा में अनूदित की जाएंगीं। हर क्षेत्र में यही होना चाहिए। जिसे अंग्रेजी में पढ़ना है, पढ़े लेकिन हमारी अपनी भाषा में पढ़ने का विकल्प सदैव होना चाहिए।

हिन्दी का सौन्दर्य अप्रतिम है। हम सदा से इसे अपनी माँ, मातृभाषा कहते अवश्य आए हैं लेकिन फिर दिल में भाव भी वही रखना होगा। यदि हम सचमुच हिन्दी को अपनी माँ समझें तो इसका अनादर कभी हो ही नहीं सकता! इसके सम्मान में हम स्वतः ही अपशब्दों से दूर रहेंगे एवं हमारी भाषा में हल्कापन कभी नहीं आएगा!

दरअसल हमारी हिन्दी तो हमसे दूर कभी हुई ही नहीं, हमने ही इसे दूर कर रखा है।

- प्रीति अज्ञात 1 सितंबर 2022 

'हस्ताक्षर' सितंबर २०२२ अंक संपादकीय 
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -

https://hastaksher.com/we-can-learn-as-many-languages-as-we-wish-but-the-fragrance-of-our-roots-our-existence-and-culture-is-in-hindi-only-editorial-by-preeti-agyaat/




केबीसी की सफ़लता में उसके शानदार विज्ञापनों और टैगलाइन का योगदान भी कम नहीं!

केबीसी का चौदहवाँ सीजन शुरू हो गया है। यही एक ऐसा शो है, जिसकी सफ़लता उसके आने के पहले ही सुनिश्चित हो जाती है और दर्शकों को इसका बेसब्री से इंतज़ार रहता है। इसलिए नहीं कि यह धन कमाने का सरल माध्यम है बल्कि इसलिए क्योंकि इस मंच पर माँ सरस्वती और माँ लक्ष्मी एक साथ विराजमान होती हैं। यहाँ पैसे तो मिलेंगे पर ज्ञान के बल पर ही! लेकिन बात बस इतनी ही नहीं है।  केबीसी कई मायनों में अन्य क्विज़ शो से अलग है। यह आम भारतीयों की बात करता है। उन्हें सपने देखने को खुला आसमां भर ही नहीं दिखाता नहीं बल्कि उस आसमां पर छा जाने की प्रेरणा भी देता है। उनमें हौसला भरता है। यह हमारे जीवन-संघर्ष, सुख-दुख को साथ लेकर चलता है। यहाँ न कोई अमीर है, न गरीब! न हिन्दू है, न मुसलमान! बल्कि इसमें देशभक्ति से लबालब एक सच्चे भारतीय की भावना है, जिसे अपनी सभ्यता, संस्कृति और भाषा से अथाह प्रेम है। तभी तो यह आमजन की भाषा में बात करता है। उनकी बात करता है। उनके साथ रोता-हँसता है। उन्हें छोटी-छोटी खुशियों को सहेजने का हुनर सिखाता है। साथ ही यह भी बताता चलता है कि चाहे जितनी मुश्किलें आएँ, हमें हारकर बैठ नहीं जाना है! अड़े रहना है, डटे रहना है! कुल मिलाकर इसका खालिस देसीपन ही इसे सफ़लता के शीर्ष तक पहुँचाने का मंत्र है।

ये देसीपन यूँ ही नहीं आता! इसके लिए आवश्यक है कि आप स्वयं उसमें डूबे हों! तभी तो जब भी ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की बात आती है तो सर्वप्रथम जो छवि आँखों के सामने उभरती है वह अमिताभ बच्चन की होती है। शो समाप्त हो जाने पर कुछ पलों के लिए भले ही प्रतियोगी का नाम और जीती हुई राशि याद रहे लेकिन सदा के लिए जो बातें हृदय पर अंकित होती हैं वह है अमिताभ की सहज, सरल और अपनेपन से भरी भाषा, उनका व्यवहार, उनकी शिष्टता, उनका अनुशासन और संस्कार। भले ही प्रतियोगी यहाँ से हारकर जाए, तब भी वह भीतर से समृद्ध अनुभव करता है।

जब हम इन सारे तथ्यों पर मनन कर रहे होते हैं तो कुछ और भी है, जो साथ-साथ चलता है। हमें आकर्षित करता है, आमंत्रित करता है और स्नेह से कहता है कि ‘देखो, संकोच की कोई बात नहीं! इसमें तुम्हारे जैसे लोग ही हैं।’ मैं बात कर रही हूँ केबीसी के अद्भुत और संवेदनशीलता से परिपूर्ण प्रोमोज़ की। जिन्हें देखते ही इस शो से सीधा जुड़ाव हो जाता है। देखा जाए तो एक ‘जीवन दर्शन’ है इनमें। वे लोग, जो इसके नियमित दर्शक रहे हैं, वे अब पहले से कुछ और बेहतर मनुष्य अवश्य हो गए होंगे।

केबीसी की जब शुरुआत हुई, उस समय अच्छे ‘क्विज़ शो’ अवश्य आया करते थे लेकिन ऐसा कोई भी नहीं था, जो हर वर्ग और उम्र को लुभा सके। उनमें विजेता को क्या और कितना मिलता था, यह भी याद नहीं! कहते हैं ‘पैसा आकर्षित करता है।’ उस पर सदी के महानायक साथ हों तो और क्या चाहिए! तब आम मध्यमवर्ग के लखपति बनने के ही टोटे पड़े हुए थे।  ऐसे में ‘करोड़पति’ शब्द जैसे हृदय को झंकृत कर गया। कोई भी प्रतिभागी बन सकता है, यह बात और भी असर कर गई। यह उस प्रबुद्ध वर्ग के लिए स्वयं को साबित करने के मौके के रूप में भी सामने आया, जिनकी कद्र थोड़ी कम की गई।

कार्यक्रम की रचनात्मक टीम इस तथ्य से भली भांति परिचित रही होगी कि हम हिन्दुस्तानी कितने भावुक हैं। बस हमारी भावनाओं को कोई समझ भर ले! आप स्वयं ही देखिए कि हम कुछ भी भूल गए होंगे पर पहले सीज़न के विजेता हर्षवर्धन नवाटे का नाम, उनका चेहरा और खुशी के वो पल अब भी हमारी स्मृतियों में ताजा हैं।

उनकी इस जीत के बाद दूसरे सीजन में टैगलाइन आई, ‘उम्मीद से दुगुना। अब और क्या चाहिए! सबकी आँखें फैल गईं! अरे, वाह! बस कुछ प्रश्नों के उत्तर देने भर से ही झोली भर जाने वाली है! कुछ न भी मिला तो अमिताभ से मिलना भी कोई कम थोड़े ही न था। टैगलाइन चल निकली। इसकी सफ़लता ने सपनों के द्वार ही खोल दिए। अब प्रत्येक आम नागरिक अपनी बुद्धि के बल पर इस तिजोरी तक पहुँच सकता था।

इसी बात को सिद्ध करते हुए अगली टैगलाइन ने और स्पष्ट रूप से समझाया कि भई! बात केवल धन की ही नहीं, ज्ञान की भी है और कुछ सवाल ज़िंदगी बदल सकते हैं।‘ (सीज़न 3)

उसके बाद इन सवालों और बुद्धि की महत्ता बताते हुए यह भी कहा गया कि ‘कोई भी सवाल छोटा नहीं होता!’ (4) मतलब जीवन डगर में किसी भी प्रश्न को हल्के में मत लीजिए, यह आपका भाग्य भी बदल सकता है। यह इस दर्शन को भी इंगित करता था कि एक बड़े बदलाव का प्रारंभ, छोटी शुरुआत से ही होता है।

अगले सीजन की टैगलाइन ने तो जैसे तहलका ही मचा दिया। ‘कोई भी इंसान छोटा नहीं होता!’ (5) जी, बात बस परिस्थितियों की ही है कि कोई अमीर है, कोई गरीब। लेकिन गरीब का मतलब यह नहीं कि उसके पास ज्ञान नहीं। इसके शानदार प्रोमो ने लाखों लोगों को हौसला दिया और बेझिझक आगे बढ़ने की प्रेरणा भी! अब जनता को पता चल गया कि प्रत्येक इंसान में कोई न कोई योग्यता अवश्य होती है। बात, बस मौके की है। इसी विचार को और विस्तार देते हुए अगला सीजन आया और इसने भरोसा दिलाया कि सिर्फ़ ज्ञान ही आपकोआपका हक़ दिला सकता है!’ (6)

ज्ञान प्राप्त करने का तात्पर्य मात्र डिग्रियों से नहीं है कि डिग्री ले ली और हो गया! बल्कि सीखना तो अनवरत प्रक्रिया है। यदि आपके भीतर प्रतिदिन कुछ नया सीखने का उत्साह शेष नहीं तो सफ़लता संदेहास्पद है। इसलिए ‘सीखना बंद तो जीतना बंद!’ (7) सीखिए और आगे बढ़ते रहिए। यही जीवन का सत्य है और उसे रुचिकर बनाने की रेसिपी भी।  इस बार के प्रोमो ने जनमानस में यह भाव भी गहरा बिठा दिया कि सीखने का उम्र से कोई संबंध नहीं होता!

अब ये न समझना कि इस कार्यक्रम में बात केवल पैसे कमाने की ही है! कोई भी जुड़ाव हो, दिल से ही तो उपजता है। इस भाव का संज्ञान लेते हुए धन और ज्ञान के साथ अब मन भी जोड़ दिया गया और कहा गया कि यहाँ सिर्फ़ पैसे नहींदिल भी जीते जाते हैं!’ (8)

अगले सीज़न का वीडियो उस आम वर्ग को केंद्रित कर बनाया गया था, जो उपहास उड़ाते प्रश्नों से त्रस्त है।  इस विज्ञापन में ह्यूमर के साथ, संवेदनशीलता भी थी और यह संदेश भी कि अब  दुनिया को ‘जवाब देने का वक़्त आ गया है!’ (9) दर्शक अब अपने बुद्धि कौशल के बल पर सबको मुँहतोड़ जवाब देने के लिए कमर कस चुके थे।

इसके बाद बारी आई लड़कियों के सपने और उनके पंख कतर जाने की। उसे पायलट बनना है और सब उसका मज़ाक बना रहे हैं। उससे अमिताभ कहते हैं कि “यदि आप अधिक धनराशि नहीं जीत सकीं तो लोगों को एक और मौका मिल जाएगा।” लड़की मुस्कुराते हुए बोलती है कि “लोगों का तो काम ही है कहना और मेरा कोशिश करते रहना” अमिताभ पलटकर दर्शकों से कहते हैं कि “आप क्या करोगे? दुनिया की सोचोगे या दुनिया से पूछोगे कि कब तक रोकोगे?(10) इसे देखने के बाद भले ही हर लड़की केबीसी में न भी गई हो पर उसके सपनों की ऊँची उड़ान की तैयारी शुरू हो गई थी।

यह दुनिया संघर्षरत इंसान का साथ देने के स्थान पर,  टांग अड़ाने के नियम से ज्यादा चलती है। लेकिन जो प्रतिभावान हैं, स्वयं पर विश्वास रखते हैं, मेहनत करते हैं, उन्हें पता है कि एक-न-एक दिन अपना टाइम आएगा। तब तक डटे रहो। केबीसी के ग्यारहवें सीज़न ने भी इसी ज़िद का समर्थन करते हुए कहा कि ‘अड़े रहो!’ (11) अमिताभ ने भी अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं और उसके बाद मिली बेशुमार सफ़लता का स्वाद भी चखा है। उनसे बेहतर और कौन यह समझा सकता था!

देखा जाए तो अगला सीज़न भी यही समझाता है  कि हार मत मानना कभी! और सेट बैक का जवाब कम बैक से दो‘ (12) संघर्षों से जूझो, आगे बढ़ो और दुनिया को दिखा दो, अपने होने का मतलब। क्योंकि ‘सवाल जो भी होजवाब आप ही हो‘(13)  ज्यादा पुरानी बात नहीं है इसलिए इसका विज्ञापन तो आपको याद ही होगा। इसमें गाँव के एक व्यक्ति को सब ‘डब्बा’ कहकर बुलाते हैं। वह केबीसी में बारह लाख पचास हजार पर पहुँचकर फोन अ फ्रेंड में मुखिया जी को फोन लगाता है। पर उन्हें उत्तर नहीं मालूम है। तो वह कहता है कि  “हम कुछ पूछने के लिए नहीं, बताने के लिए फोन किए हैं मुखिया जी। हमारा नाम डब्बा नहीं अभय कुमार है।” और फिर सही जवाब बताकर पच्चीस लाख जीत लेता है। उसके बेटे की आँखों में खुशी के आँसू हैं। गाँव में सब एक-दूसरे को बधाई दे रहे और फिर अभय के नाम से स्कूल बनता है। बेहद भावुक कर देने वाला यह प्रोमो सबके हृदय को छू गया था।

केबीसी की सफ़लता का राज़ ही यही है कि यह जनता की नब्ज़ पर हाथ रखकर चलता है। साथ ही समाज में चल रहे परिवर्तनों के प्रति सजग भी है। सोशल मीडिया पर कैसे अफ़वाहों का बाज़ार गर्म है! पल भर में गलत सूचनाएं, वायरल हो लोगों को किस तरह भ्रमित कर रहीं हैं। इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए इस बार की टैगलाइन है, ज्ञान कहीं से मिलेबटोर लीजिएमगर पहले जरा टटोल लीजिए!(14) तो टटोलिए अपने आप को कि कहीं आप भी हर व्हाट्स एप मैसेज को सच्चा मान, समाज में भ्रम फैला उसे दूषित तो नहीं कर रहे? ज्ञान के लिए अच्छी पुस्तकें हैं, उनका अध्ययन कीजिए और बन जाइए करोड़पति। पता है न कि इस बार करोड़ से नीचे गिरे भी, तो तीन-बीस के गड्ढे में नहीं गिरना है बल्कि ‘धन अमृत पड़ाव’ में 75 लाख आपकी झोली में आना तय है।

इस बार का शो देश के प्रति गर्व को भी समर्पित है।  प्रारंभ ही शानदार गीत से हुआ। ‘धूल नहीं है धरा हमारी, सदियों का अभिमान है!‘ आज़ादी का अमृत महोत्सव’ चल रहा तो केबीसी भी उसमें क्यों न नये रंग, नया उल्लास भरे!

- प्रीति अज्ञात  अगस्त 2022 

इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -

https://hastaksher.com/tagline-of-kbc-all-seasons-scintillating-meaningful-commercials-have-contributed-a-lot-to-the-success-of-kbc/

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गुरुवार, 8 सितंबर 2022

राखी की विकास यात्रा

राखी की भी अपनी विकास यात्रा है। आज की रेशमी धागे संग रुद्राक्ष वाली स्लिम-ट्रिम राखी, कभी बड़ी हट्टी-कट्टी हुआ करती थी। पूरे 3-Tier वाली समझिए। यूँ तो यह विविध रंगों और प्रकारों में तब भी मिलती थी। सुनहरी और चाँदी के रंग वाली भी दुकानों पर सजी होती, जो भले ही उतनी मुलायम न थी पर भाई शान से पहनते। लेकिन एक बड़ी ही प्यारी सी राखी हुआ करती थी। जिसे लेकर छोटे बच्चों में ग़ज़ब का उत्साह रहता। उसमें नीचे की परत दो सेंटीमीटर ऊँचाई लिए चटक गुलाबी चौकोर स्पंज लगी होती, उसके ऊपर हरे या पीले रंग की गोल वाली इससे कुछ और ऊँची होती। उसके बाद 'मेरे भैया' को तरह-तरह की डिजाइन में लिखकर लगाया जाता। प्लास्टिक, धातु या कुछ और भी होता पर यह प्रायः यह स्वर्णिम अक्षरों में ही लिखा होता था। गोटा, सितारे भी लगे होते। 

रेशमी डोर से जुड़ी, चमचमाती मोहब्बत से भरी ये राखी और मिठाई से सजा थाल लिए, नन्हे भाई को टीका लगाया जाता। जब ये पसंदीदा राखी उनकी कलाई पर सजती तो उनका चेहरा ही चमक उठता। वज्रदंती मुस्कान लिए वे सारी दुनिया में फ़न्ने खाँ बने घूमते। घुमा-घुमाकर सबको डिजाइन दिखाते। उस पर एक राखी का रिवाज़ भी न था। शाम तक सारे मोहल्ले की बहिनों से मिल आते। जब तक हाथ, कोहनी तक न भर जाए, चुन्नू जी का जी नहीं भरता था। त्योहार की छनाछन पूड़ी, कचौड़ी, बूंदी रायता, सेंवई की खीर और तमाम व्यंजन उदरस्थ करके अगले दिन स्कूल जाते तो जनाब रात को तकिये के बगल में सहेजी राखी पहनना न भूलते। माता-पिता थोड़ा समझाते, फिर छोड़ देते। स्कूल में भी ज्यादा नियम-कानून नहीं चलते थे। सो, पहुँचते ही सब बच्चे पूरी लगन से एक-दूसरे की राखियों की गिनती करते। जिसकी सबसे अधिक, उसके चेहरे का नूर और चाल की ठसक देखते ही बनती। गर्व से जो पिद्दी सा सीना चौड़ाते, उसका तो कहना ही क्या!

अच्छा! इस रौब में बालकों को इस बात का तनिक भी दुख न रहता था कि रक्षाबंधन वाली सुबह ही बहिन की चोटी पकड़ उसे घसीट रहे थे और बदले में माँ ने पीठ पर पाँचों उंगलियों का लड्डू पिरसाद एक साथ धरा था। पापा ने भी बस चप्पल निकाल ही ली थी, वो तो निशाना लगने से एन पहले ही बहना रानी ने रोक लिया वरना त्योहार के कई अतिरिक्त प्रमाण पत्रों के साथ स्कूल पहुँचना तय ही था। दादी माँ ने भी याद दिलाया था कि त्योहारों पर लड़ाई-झगड़ा ठीक नहीं! इतने लच्छन तो सीख ही लो बच्चों!

अब बच्चे बड़े हो गए हैं और उनकी राखियाँ छोटी। त्योहार आता है, चला जाता है। जब सब साथ थे, तो उनके साथ रेडियो भी निरंतर बजता। जिसे सुनकर लगता कि संभवतः हमारी फ़िल्मों में बहिनों ने भाई पर अधिक लाड़ बरसाया है सो उनके गीत ज्यादा हैं। लेकिन 'मेरे भैया, मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन', 'भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना', 'बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है', गीत के बाद जैसे ही अपने खंडवा वाले किशोर का एक गीत आता 'फूलों का तारों का सबका कहना है', इसे सुन सारा मलाल दूर हो जाता। मन आत्ममुग्धता से लबालब हो उठता और लगता कि ये तो बस हमारे लिए ही लिखा गया है। हमारी इठलाहट भी कोई कम न थी तब। 

आजकल समय और राखियों की डिजाइन दोनों बदल गए हैं। वो पुरानी राखियाँ अब नहीं लुभाती, शायद आती भी न हों। यूँ पारंपरिक राखियों में चंदन, मोती और रेशमी धागे वाली राखी सदाबहार है। सोने, चाँदी वाली भी आती हैं। एक देखने जाओ, हजार प्रकार मिल जाएंगे। लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य आज एक समाचार पढ़कर हुआ कि अब बुलडोज़र बाबा वाली राखियाँ भी बाज़ार में हैं। भई, कृपया हमारी राखियों को इस सबसे दूर रखिए। रिश्तों की सौम्यता में ये ऊबड़खाबड़ वस्तुएं ठीक नहीं लगतीं। आज बुलडोज़र आया, कल कोई बंदूक लगा देगा! त्योहार का कौन सा भाव इसमें निहित है भला? खैर! जो जी में आया सो कह दिया। बाकी तो इतनी विशाल दुनिया में हम क्या और हमारी बात की क़ीमत भी क्या!

आपके पास भी बहुत सी यादें होंगी न? उन्हीं यादों की पोटली संग आपको रक्षाबंधन की शुभकामनाएं और स्नेह। भाई-बहिन का प्यार सदा बना रहे। 

- प्रीति अज्ञात   11 अगस्त 2022 

#राखी #रक्षाबंधन #Preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात

स्वतंत्र भारत और श्रव्य-दृश्य माध्यमों के बदलते परिदृश्य

स्वतंत्रता की हीरक जयंती माह में जब पीछे पलटकर देखती हूँ तो तमाम सुनहरी स्मृतियाँ आँखों में तैरने लगती हैं। पढ़ाई, लिखाई, खेलकूद, घर-परिवार से जुड़ी बातों के साथ अचानक कोने में रखा रेडियो बज उठता है। जहाँ सुबह का स्वागत प्रार्थना से होता है। फिर जैसे सूरज का उजाला झिर्री से आती एक किरण के साथ  धीरे-धीरे खिड़कियों से उतर सारे घर में पसर जाता, वैसे ही इसके कार्यक्रम आगे बढ़ते। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी समाचारों के बाद सुगम संगीत और फिर फ़िल्मी गाने। इसमें सुबह कभी शोरगुल से प्रारंभ नहीं होती थी, नेपथ्य में संगीत भी बजता तो सितार या शहनाई की मधुर धुन मुंडेर पर बैठी चिड़िया की चहचहाहट में घुल जाती। कुल मिलाकर आकाशवाणी की आवाज़ें हमारी दिनचर्या की गति के साथ ही चला करतीं थीं।

फिर ‘इडियट बॉक्स’ आया जो यूँ इतना ‘इडियट’ कभी लगा तो नहीं! श्वेत-श्याम, हिलता-डुलता, एंटीना के भरोसे जीता मनोरंजन का यह डिब्बा बड़ा भला लगता। क्योंकि यह, वह समय था जब दूरदर्शन चीख-पुकार और मसालों से भरी दुनिया से इतर ‘जोड़ने’ का कार्य किया करता था। समाचार वाचक शांत मन, सधी हुई भाव भंगिमा और अनुशासन के साथ समाचार पढ़ा करते। चर्चा का कोई कार्यक्रम होता तो आने वाले अतिथि वक्ता किसी भी पक्ष के होते, लेकिन संचालकों का व्यवहार तटस्थ ही रहता था। वे बिना किसी पूर्वाग्रह के सबको समान आदर देते और वातावरण की सहजता बनाए रखते। संभवतः उन पर किसी पर दोष मढ़ने, परिणाम तक पहुँचने या ‘सबसे पहले’ दर्शकों तक सूचना पहुँचाने का कोई अतिरिक्त दबाव भी नहीं था। इसलिए तकनीक में आज की तरह संपन्न न होते हुए भी गुणवत्ता पर ध्यान अधिक था। भाषा भी,  शुद्ध, स्पष्ट और सुसंस्कृत थी। तथ्यों पर बात होती थी। कार्यक्रमों से भाषा सीखी भी जा सकती थी। तब एक ही अकेला, अलबेला था लेकिन आज के दौर में सैकड़ों चैनल होने के बाद भी भाषा की श्रेष्ठता या गुणवत्ता की दौड़ में लगभग सभी बहुत पीछे छूट चुके हैं। उन्हें ‘नंबर 1’ पर आने से मतलब है। भले ही इसके लिए उन्हें झूठी, सनसनीखेज खबर ही क्यों न दिखानी पड़ जाए!

अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही जज बन गया है। समाचार प्रस्तुति के अंदाज़ इस हद तक बदल गए हैं कि सहसा विश्वास ही नहीं होता कि हम समाचार देख रहे हैं। कभी यह नाटकीयता या मनोरंजन से भरा, तो कभी आक्रामक हो जाता है! समाचार, अब केवल सूचनाएं भर नहीं देते बल्कि एक सोच को आपके भीतर बिठाने के प्रयास करते लगते हैं। जहाँ वाचक अपनी विशिष्ट शैली और दक्षता के बाद भी किसी  राजनीतिक दल के प्रति स्वयं के झुकाव को छुपा नहीं पाता और उस दल के प्रवक्ता की तरह बोलना प्रारंभ कर देता है। चर्चाएं प्रायः एकतरफ़ा रहती हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रतिभागी को बाहर निकालने की धमकी बीच-बीच में दी जा रही होती है। वस्तुस्थिति यह है कि मान-सम्मान, आदर का दौर अब ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ की तर्ज़ पर भाषा और व्यवहार के सामयिक मापदंडों को अपनाने लगा है। विभिन्न चैनल और उनके दर्शक अब सुनिश्चित हो चुके हैं। कुल मिलाकर सबको सबका सच पता है और अपनी-अपनी विचारधारा के आधार पर रिमोट संचालित करते हैं।

पहले विज्ञापनों की भी अपनी बहुत ही सुंदर दुनिया थी। यहाँ पारिवारिक मूल्यों को प्रधानता दी जाती थी, संस्कारों की बात होती थी। ‘हमारा बजाज’ था, मेरा नहीं! पितृसत्तात्मकता की सौ कहानियों के बीच भी एक ‘रजनी’ नाम की लड़की आकर सबकी समस्या सुलझा जाया करती थी। संयुक्त परिवार के जीवन की उपयोगिता दर्शाता ‘हम लोग’ था, जिसमें परिजन एक दूसरे के लिए जाल नहीं बिछाते थे बल्कि जान छिड़कते थे, साथ खड़े होते थे। विभाजन की त्रासदी पर निर्मित बुनियाद की लाजो जी और मास्टर हवेलीराम का प्रेम बारिश में भीगने का मोहताज़ नहीं था। वो तो लाजो जी की आँखों और मास्टर जी की मुस्कान ही समझा दिया करती थी। ‘तमस’, ‘भारत एक खोज’, ‘मालगुड़ी डेज़’ के साथ सरगम सजाए ‘सारेगामा’ और ‘अंताक्षरी’ था। उसमें आज सा छिछोरापन नहीं था कि हर एपिसोड में स्क्रिप्ट के हिसाब से होस्ट पर दिल आ जाए या कि प्रतिभागी के माता/ पिता को जज से इश्क़ हो गया। वो जमाना पुराना था पर उसमें बेसिर पैर के आधुनिक ‘नागिन’ जैसे धारावाहिक नहीं थे। ‘सुरभि’, ‘बॉर्नविटा क्विज़ कॉन्टेस्ट’ फूहड़पन से कोसों दूर विशुद्ध ज्ञानवर्धक कार्यक्रम थे, जिनमें स्वस्थ मनोरंजन भी हुआ करता था। अभी केबीसी ही ऐसा कार्यक्रम है जिसने इस गरिमा को संजोए रखा है। कुछेक अपवाद और भी संभाव्य हैं।

राष्ट्रीय एकता का भाव संचारित करने का कोई एक दिन तय नहीं था। कभी सरगम हर तरफ से बजती हुई देशराग बन गूँजती थी तो कभी ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ सुन पैर और हृदय दोनों ठिठक जाते थे। यकीन मानिए,  तब प्रादेशिक भाषा के बोल भले पूरे समझ भी नहीं आते थे, पर वो भाव भीतर तक कुछ यूँ उतरे हुए हैं कि अब भी उनका जादू सिर चढ़कर बोलता है। ‘एक चिड़िया,अनेक चिड़िया’ गीत एकता की कहानी बड़े सरल शब्दों में समझा जाता। जब उसमें दीदी समझातीं कि हिम्मत से गर जुटें रहें तो/ छोटे हों पर मिले रहें तो/ बड़ा काम भी होवे भैया तो मन एक अलग ही ऊर्जा से भर जाता! यह बात न भूलने वाली ही है कि ‘फूल हैं अनेक किंतु माला फिर एक है।’ हमारी भारतीयता का सार भी तो यही है।

त्योहार का आनंद किसी विदेशी ‘ट्रिप’ पर नहीं बल्कि पूरे परिवार के साथ उठाया जाता था। दीवाली पर सबके घरों में मिठाई के थाल सजते और उनका परस्पर आदान-प्रदान भी होता। एक के घर में फ्रिज आए तो पूरा मोहल्ला खुशी मनाता। फिर बर्फ सबके लिए जमाई जाती। तब फ्रिज भले ही छोटे थे, पर दिल बड़े थे। ए.सी. नहीं था। उस पर खूब लाइट भी जाती थी पर बच्चे उसमें जीने के अभ्यस्त थे। एक ही टेलीफोन हुआ करता था, जो ड्रॉइंग रूम में स्टूल पर रखा रहता क्योंकि पड़ोसियों के फोन भी उस पर आते! जितनी जरूरत, उतनी ही बात होती परंतु वर्तमान समय के व्हाट्सएप जैसा उधारी की खोखली सुप्रभात और शुभ रात्रि का रिवाज न था।

कुछ कहना होता तो दिल निकालकर चिट्ठियों में कुछ यूँ रख दिया जाता कि अगला दौड़ा चला  आए। राखी पर बिटिया घर आती तो पड़ोस के दूर वाले चाचा के बेटे को भी राखी बाँध आती कि कोई कलाई सूनी न रहे! गाँव का कोई भी हो, खूब मजे से घर रह जाता। ये नहीं कि सगे बहिन भाई-बहिन भी आएं और कोई घर रुकने तक को न कहे।

तब कुछ न होते हुए भी रिश्तों का मूल्य था, स्नेह, अपनापन और संवेदनशीलता थी। अब सब कुछ होते हुए भी सारे भाव विलुप्त हो चुके हैं। सबको पास लाने की तमाम तकनीक भरे प्रयोजनों के बाद भी दिलों में दूरी बढ़ती जा रही है। चिट्ठियों की संवेदनाएं, अब एक इमोजी की शक्ल मे वितरित होने लगी हैं। बस क्लिक भर की बात है और एक पल में दुख- सुख, हँसी-संवेदना, नमन, श्रद्धांजलि का पैक हाजिर है।

कोरोना महामारी के चलते जीवन की क्षण भंगुरता से इस तरह साक्षात्कार हुआ कि लगने लगा था, अब मानवता नए उदाहरण प्रस्तुत करेगी। कुछ ऐसे किस्से सामने आए भी। लेकिन स्थिति सुधरते ही समाज वही पुराने संकीर्ण और क्रूर विचारों से भर गया।

यह सच है कि समय के साथ विकास होता है और आज का वर्तमान एक दिन इतिहास बन जाता है। पीछे मुड़कर देखें तो परिवर्तन की एक लंबी लक़ीर दृश्यमान होने लगती है। कुछ बीते पल अचंभित करते हैं तो कुछ उदासी या मुस्कान दे जाते हैं। लेकिन न जाने क्यों एक प्रश्न सामने आ खड़ा होता है कि हमारी संवेदनाओं को क्या हो गया है! उन्हें तो सहेजा जा सकता था न!

वो समाज जो एक इकाई की तरह था। जिसमें हर बात पर हिन्दू मुस्लिम नहीं होता था और कट्टरता के नाम पर कत्लेआम इतने आम नहीं थे, न जाने उसमें विद्रूपता कैसे आ गई? क्या हो गया है हमारी सोच को और सामाजिक वातावरण को कि राजनीति ने व्यक्ति को व्यक्ति का दुश्मन  बना दिया है? हम उनके लिए अपनों से ही लड़ बैठते हैं जो अपने दल के भी न हो सके! देश के तो क्या ही होंगे! समाज में यह जो भी हो रहा, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या हम नहीं? हाथ जोड़ अपनों के लिए दुआ कीजिए, उन्हें उनके हिस्से का स्नेह दीजिए। गर हो सके तो राजनीतिक भट्टी की आग में किसी अपने को न झुलसाइए!

जब से धर्म-निरपेक्षता, एकता, अखंडता, विश्व-बंधुत्व की बात करने वाले संदेह के दायरे में आने लगे। ‘भक्ति’, पूजा से अधिक उपहास का पर्याय बन गई और असहमति ‘देशद्रोह’ का, तबसे समाज को एक करने के कार्यक्रम लगभग अदृश्य ही हैं। बल्कि उन बातों को बहुत जोर-शोर से प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता है, जो खून खौला दें। सकारात्मक या समाज को दिशा देने वाली चर्चाओं के स्थान पर अफ़वाहों का बाज़ार अधिक गर्म रहता है। इसमें व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। जिसके माध्यम से देश के युवाओं की ‘सच्ची देशभक्ति’ किसी धर्म विशेष के आह्वान के साथ तौली जाती है।

दुर्भाग्य ही कहेंगे इसे कि आह्वान, ‘भारतीयता’ को लेकर कभी नहीं किया जाता! विघटनकारी शक्तियां जानती हैं कि जहाँ ‘भारतीय’ प्रयोग होगा, वहाँ विध्वंस की बातें हो भी नहीं सकतीं! ‘भारतीय’ शब्द तो हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का प्रतीक पुंज है जो हमारी सोच और मानसिकता का बाल बांका भी नहीं कर सकता! 

हम भारतीयों का अभिमान हमारा तिरंगा है। हमारी आन-बान-शान की साक्षात मूरत है ये।  राष्ट्रगान के साथ इसकी खिलती रंगत और लहराता रूप हमारी रगों में नया जोश भर देता है, आँखों में खुशी की नमी अपना घर बना लेती है। इस तिरंगे की सार्थकता, इसके तीनों रंगों से है। यह प्रत्येक भारतीय का धर्म है कि इनको अलग-अलग करके नहीं, बल्कि इसके एकाकार रूप को देखें और सदा के लिए आत्मसात कर लें! देशभक्ति का इससे सुंदर भाव और क्या हो सकता है? यूँ देशभक्ति डंडे के जोर पर सिखाने की वस्तु भी नहीं, एक अनुभूति है जो अंतर्मन से उपजती है।

हम सभी को स्वतंत्रता के पचहत्तरवें वर्ष की बधाई हो!

‘ये शुभ दिन है हम सबका, लहराओ तिरंगा प्यारा’

जयतु भारतम्!

- प्रीति अज्ञात 1 अगस्त 2022 

'हस्ताक्षर' अगस्त  २०२२ अंक संपादकीय

इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -

https://hastaksher.com/diamond-jubilee-of-independence-and-the-changing-scenario-of-audio-visual-media-in-independent-india-editorial-by-preeti-agyaat/

केके मात्र गायक नहीं, एक इमोशन थे

पार्श्वगायक के.के. नहीं रहे! यह खबर जबसे मिली है, मन शोक में डूबा है। यह ठीक वैसा ही अहसास है जैसा श्रीदेवी और इरफ़ान के गुजर जाने की खबर सुनकर हुआ था। मन मानने को तैयार नहीं होता! भला ऐसा कैसे हो सकता है! पर ऐसा हो गया है! जीवन का सच यही है कि ऐसा कभी भी, कहीं भी, किसी के भी साथ अचानक हो सकता है। इस दुनिया में हमारे आगमन की तिथि तो फिर भी तय हो जाती है पर विदाई अकस्मात ही होती है। किसी अपने का यह  अकस्मात या आकस्मिक निधन ही भीतर तक तोड़ देता है। संभवतः इसी कारण मृत्यु कभी कहकर नहीं आती क्योंकि उसे स्वीकारने की और उसके साथ राजी-खुशी चले जाने का साहस हममें कभी नहीं आ सकता! न ही किसी अपने से जुदा होने की तारीख तय होने पर हम इस जीवन को इस तरह जी सकेंगे, जैसे जिए जा रहे हैं।

यूँ सामाजिक नियमावली के आधार पर के.के. मेरे अपने नहीं थे। न भाई, न दोस्त, न पास या दूर के रिश्तेदार। उनसे संगीत का रिश्ता था, आवाज का रिश्ता था, भावनाओं का रिश्ता था। मेरे लिए केके मात्र गायक नहीं, एक इमोशन थे। एक ऐसा इमोशन जिसने युवाओं की दोस्ती, उनकी मोहब्बत और उससे जुड़ा सुख-दुख जैसे घोंटकर पी लिया था। यही तरलता उनकी गायकी में बहती थी। जादू कुछ ऐसा कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाए। यूँ वे कभी कभार कुछेक मंचों पर शायद आए होंगे पर मैंने उनकी आवाज केवल गीतों में ही सुनी, वे अपने गीतों के माध्यम से ही सर्वाधिक मुखर रहे। उनके गीत ही हमसे बोलते रहे, उन्हें ही हम जीते रहे। कलाकारों का काम ही बोलता है। उन्हें हर जगह अपना चेहरा दिखाने की आवश्यकता नहीं होती! केके ने यही शांत, सरल और लाइमलाइट से दूर रहने वाला जीवन चुना। हालाँकि इसका नुकसान यह हुआ कि तमाम युवाओं की धड़कन बनी इस आवाज का नाम हर कोई नहीं जानता था। सब उनके गीत गुनगुनाते रहे, तमाम महफ़िलों में गाते भी रहे होंगे। प्रेमी जोड़ों ने भी अपनी कहानी इन्हीं गीतों के इर्दगिर्द बुनी होगी लेकिन अब वे ये जानकर और भी दुख में डूब गए हैं कि केके नामक एक शख्स जो उनके पसंदीदा नगमे गाता रहा; अब इस दुनिया को अलविदा कह चुका है। संगीत का एक सितारा, गुनगुनाते हुए ही हम सबके बीच से चला गया।

के.के. यानी कृष्णकुमार कुन्नथ, मलयाली परिवार में जन्मे थे। उन्होंने कई भाषाओं में गाने गाए। लेकिन हिन्दी का उच्चारण तो इतना शुद्ध कि हिन्दी भाषी भी सकुचा जाएं। इसे उनकी आवाज की कशिश और कमाल की जादूगरी ही तो कहेंगे कि प्यार और दोस्ती के गीत गाने वाला यह गायक जब ‘यारों, दोस्ती बड़ी ही हसीन है’ गाता है तो वह गीत दोस्ती का राष्ट्रगान बन जाता है। जब ‘हम रहें या न  रहे कल…याद आएंगे ये पल’ गुनगुनाता है तो फिर उसके बाद से कोई विदाई पार्टी इस गीत के बिना पूरी ही नहीं होती! उनके गाए मोहब्बत के तमाम नगमों का सम्मोहन तो अपनी जगह है ही और सदा रहेगा लेकिन ‘आँखों में तेरी अजब सी अजब सी अदाएं हैं’ का जादू आज भी सिर चढ़कर बोलता है। जब विरह की बात हो, दिल के टूटने की शाम हो; तो उस घड़ी में उनका गाया एक ही गीत, उम्र भर को उनका प्रशंसक बना देने के लिए काफ़ी है! वह है फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ का ‘तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही, मुझको सजा दी प्यार की/ ऐसा क्या गुनाह किया, तो लुट गए, हाँ लुट गए, तो लुट गए हम तेरी मोहब्बत में’…. इस गीत का दर्द बस आँखें ही नम नहीं करता बल्कि रूह तक उतर जाता है। उनके सुपरहिट गानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। फिलहाल यही कहूँगी  –

चुपके से कहीं, धीमे पाँव से

जाने किस तरह, किस घड़ी

आगे बढ़ गए हमसे राहों में

पर तुम तो अभी थे यहीं

कुछ भी न सुना, कब का था गिला

कैसे कह दिया अलविदा?

के.के. आप जहाँ भी हैं आपके प्रशंसकों का ढेर सारा शुक्रिया और स्नेह आप तक पहुँचे। ईश्वर आपके परिवार को खूब हिम्मत दे, आपके बच्चों के लिए ढेर सारी दुआएं।

- प्रीति अज्ञात 

इसे 'हस्ताक्षर' पत्रिका में भी पढ़ा जा सकता है -

https://hastaksher.com/kk-was-not-just-a-singer-but-an-emotion/

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करोगे याद तो, हर बात याद आएगी!

फरवरी माह में जब लता जी ने इस दुनिया से विदाई ली तो सबकी जुबां पर सर्वप्रथम स्वर साम्राज्ञी का गीत ‘नाम गुम जाएगा’ ही आया। समाचारों ने भी इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया। उस समय लता जी से बिछोह का दुख इस हद तक रहा कि इस युगल गीत से जुड़ी दूसरी आवाज पर चर्चा ही न हो सकी! समय भी कहाँ उचित था! किसे पता था कि उसी वर्ष ही इस अमर गीत का साथी भी बिछड़ते हुए पुनः स्मरण करा जाएगा कि ‘मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे!’

और देखिए, भूपिंदर की वो खरज़ से भरी आवाज़ आज रह-रहकर याद आ रही है। कई बार यूँ भी लगता है कि हिन्दी फ़िल्म संगीत ने आम आदमी के हर भाव को कैसे और कितना भीतर तक उतार लिया है कि इनके बिना जीवन की कल्पना ही बेमानी सी लगने लगती है! हम गीतों को ही ओढ़ते, पहनते हैं। इन्हीं के सहारे जीते-मरते हैं। ऐसे में एक दिन यह मनहूस ख़बर आती है कि हमारे दर्द और प्रतीक्षा को स्वर देती शख्सियत ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया तो दिल यक़ीन करना ही नहीं चाहता! लोग उम्र बताने लगते हैं लेकिन विदाई की सही उम्र तो कोई भी नहीं होती, कभी भी नहीं होती! हाँ, किसी प्रिय का चले जाना हर बार यह अनुभव अवश्य दे जाता है कि अपनी व्यस्त दुनिया में हम न जाने कितने अपनों का शुक्रिया कहना भूल गए हैं! 

भले भूपिंदर की आवाज़ हर नायक पर फ़िट नहीं बैठती थी और उनके गाए गीतों की संख्या, समकालीन गायकों से कम रही हो लेकिन गुणवत्ता के मामले में वे किसी से उन्नीस कभी न रहे। जो भी गाया, रूह से गाया और यूँ गाया जैसे हमारे अहसासों को घोलकर पी लिया हो!

उनकी आवाज़ तमाम प्रेमियों की प्रतीक्षा की आवाज़ है। जब वे कहते हैं कि ‘किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है’ तो लगता है कि यह दर्द अकेले सुरेश ओबेरॉय का नहीं, इसके राज़दार और भी हैं! कोई और भी है जो उदासी की गहरी खाई में से बार-बार पुकार रहा है कि ‘कहाँ हो तुम, ये दिल बेक़रार आज भी है!’

लेकिन यही आवाज़ जब शोखी में डूबती है और विशुद्ध शैतानी, छेड़खानी की नीयत भर निकलती है तब भी उसमें एक संस्कार और अनुशासन दिखाई देता है। याद कीजिए, ‘हुज़ूर इस क़दर भी न इतरा के चलिए!’ गीत को। सईद जाफ़री ने पूरी शिद्दत के साथ इसे अपने अभिनय से कुछ यूँ और इस क़दर सँवारा है कि आज भी जब यह बजता है तो स्त्रियाँ अपने स्त्रीत्व को ले एक ठसक भरी मुस्कान लिए पल्लू लहरा उठती हैं। कहते हैं, संगीत सम्राट तानसेन ने जब मेघ मल्हार राग गाया तो आसमान तक उसकी दस्तक़ जा पहुँची थी।  भूपिंदर ने भी इस गीत में कुछ ऐसा ही जादू कर डाला है। 

कभी किसी को यूँ पता देते सुना है? जैसा वे ‘मेरे घर आना ज़िंदगी’ में कहते हैं कि ‘मेरे घर का सीधा सा इतना पता है...!’ लेकिन इस अविश्वसनीय सी लगने वाली बात को भी दिल सच मानने लगता है। पक्का यक़ीन हो जाता है कि हाँ, यही तो हमारे घर का भी पता है। तब ही तो मन मचलकर साथ गुनगुनाने लगता है ‘न दस्तक जरूरी, न आवाज़ देना/ मेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है!’ 

यही भूपिंदर और सबके लाड़ले भूपी जब ‘बीती न बिताई रैना’ में बिरहा के किस्से सुनाते हैं तो ‘चाँद की बिंदी वाली रतिया’ से शिकायतें थोड़ी कम होने लगतीं हैं और मन उस आवाज़ में अधिक भीगने लगता है। 

स्मृतियों के पन्ने पलट, हर कोई बीते दिनों के फुरसत भरे लम्हों में लौट जाना चाहता है लेकिन मौसम को इतनी बेक़रारी और खूबसूरत अंदाज़ से भला कौन याद करता है! पर भूपी हैं न! वे हमारा हाथ थाम हमें उस गुजरे वक़्त के पास फिर बिठा आते हैं। 

ज़िंदगी की ज़द्दोजहद में फंसा आदमी याद करता है- ‘जाड़ों की नरम धूप और आँगन में लेटकर/  आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को/ औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए’ या ‘गर्मियों की रात जो पुरवाइयाँ चलें/ ठंडी सफेद चादरों पे जागें देर तक/ तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए’ और इसी के साथ ही कुछ दशक पहले की तमाम रातें एलबम का रूप धर लेती हैं। 

जब प्रेम में डूबे जोड़े की आँखों में उनके अपने घर के स्वप्न झिलमिलाते हैं या कि प्रेमी जोड़े के सपनों की दुनिया साकार होने लगती है तो भूपिंदर हौले से आकर उस मोहब्बत में अपने रंग कुछ यूँ उड़ेल जाते हैं कि कभी इश्क़ के दो दीवाने शहरी मुसाफ़िर ‘असमानी रंग की आँखों में मिलने के बहाने ढूंढने लगते हैं’ तो कभी उनके लिए ‘तारे जमीं पर चलते हैं।’ लेकिन यही गीत जब दर्द में भर अपने शब्दों को पुनः ढालता है तो जीवन संघर्ष से जूझता हर आदमी कराह उठता है। उसके दर्द की सारी दास्तान, गहरी टीस लिए उसके सामने से गुजरने लगती है। उसके निराशा में डूबे मन और टूटती आस को जैसे भूपी अपने भीतर समाहित कर लेते हैं। गुलज़ार के अल्फ़ाज़ का दुख भूपी के दिल में घर कर लेता है और बेबसी में डूबती आवाज़ बाहर आती है – ‘एक अकेला इस शहर में।’ 

ये आवाज़ हर अकेले इंसान को जैसे गले लगा लेती है। उसका दिल कुछ और भर आता है। गला रुँधने लगता है, जब भूपिंदर उसका हाल-ए-दिल परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। ‘दिन खाली खाली बर्तन है/ और रात है जैसे अंधा कुआँ/ इन सूनी अँधेरी आँखों में/ आँसू की जगह आता हैं धुँआ/ जीने की वज़ह तो कोई नहीं/ मरने का बहाना ढूँढता है।’ आदमी इस सच्चाई से अवाक है। चुप रहता है पर उसकी आँखें झरना बन चुकी हैं। 

संगीत के पुजारियों से चाहे-अनचाहे एक भावनात्मक रिश्ता बन जाता है। विडंबना यह है कि उनके जाने के बाद ही हम याद करने बैठते हैं कि जीवन के जाने कितने मोड़ों पर वे हमारे साथ चले हैं।  

जुदाई के स्याह बादल अब और भी जोरों से बरसने लगे हैं। आसमां अब दिखता नहीं। बस पानी ही पानी है हर तरफ। एक आवाज़ साये के रूप में यह कहते हुए अब भी साथ दे रही है -

‘बरसता भीगता मौसम धुआं-धुआं होगा/ पिघलती शम’अ पे दिल का मेरे गुमाँ होगा/ हथेलियों की हिना, याद कुछ दिलाएगी/ करोगे याद तो, हर बात याद आएगी! 

यक़ीनन यही हो रहा है! विदा प्रिय गायक!

- प्रीति अज्ञात  22 जुलाई 2022 के स्वदेश में प्रकाशित 

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ध्यान रहे! असंसदीय शब्द पर बैन लगा है, व्यवहार पर नहीं!

खेत से तोड़ी गई सब्जी से भी ज्यादा ताजा घटना है. अब जब घटित हो ही चुकी है तो हमारा भी दायित्व बनता है कि निर्मल भाव से इस घटना प्रधान युग के हवन कुंड में अपनी आहुति डालकर मुक्त हो लें. तो हुआ यूँ कि माँ ने अपने समाजसेवी लाल से कहा, 'पुत्र, नया संकलन आ गया है पुस्तक मेले में. फटाफट याद करके राजा बेटा बनकर ही विद्यालय में क़दम रखना; नहीं तो मास्साब ऐसी ठुकाई करेंगे कि जाना भूल जाओगे!" 

"अरे, ऐसे-कैसे गुस्सा करेंगे! तानाशाही है क्या?" बेटा तुनककर बोला. 

"चुप, एकदम चुप, मुँह बंद! किसी ने सुन लिया तो एडमिशन कैंसिल ही समझो!" माँ ने घबराते हुए दोनों पंजे फैलाकर अपने बालक का मुँह ही भींच डाला. 

"अरे! आज आप इतना drama क्यों कर रही हो? मैं कोई बालबुद्धि थोड़े ही हूँ!"

"हे ईश्वर! बस, यही दिन देखने को जीवित रखा था! ये इस घर में किस पापी, अधर्मी ने जन्म ले लिया!" कहकर माँ मूर्छित हो गई. पुत्र भीषण दुख में डॉक्टर की देहरी पर विलाप कर रहा पर मारे भय के न तो वह ashamed फ़ील कर पा रहा और न ही माँ betrayed.

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तो साब! जब से शब्दकोश का नया संस्करण बाज़ार में आया है. 'देशभक्त' प्रसन्न हैं एवं सभी 'राष्ट्रद्रोहियों' का हृदय ज़ार-ज़ार रो उठा है. बेचैनी अपने चरम पर है और भाव नए शब्द खोजने में व्यस्त हो चुके हैं. अब पर्यायवाची शब्दों की ऐसी महामारी आएगी कि मियाँ कोरोना भी शरमा के बिल में छुप जाएँ.  

अच्छा!  आपको बचपन का वो किस्सा तो स्मरण होगा ही जिसमें एक बच्चे को मोहल्ले के तमाम बच्चे नए-नए विशेषणों से अलंकृत करते हैं. वह भोला बालक सब दिल पर ले लेता है. शुरू में तो वह बाकियों से लड़ता-भिड़ता है पर कुछ समय बाद मुँह बिचकाकर कहने लगता है, "जो बोलता है, वोई होता है". लेकिन मन-ही-मन उसे उन सारे शब्दों से घृणा हो जाती है और वह जीवन भर उनसे बचने का उपाय खोजता रहता है. बस! नया शब्दकोश यही 'यूरेका मोमेंट' है. 

अब जिसे नहीं जमा, उसका मन करे तो वो भी कह दे, "जाओ हम नहीं खेल रहे! ये तो खुलेआम  बेईमन्टी है".

अरे भई! सूची पसंद नहीं आई, तब भी नथुने फुलाने और माथे पर बल डालने की कोई आवश्यकता नहीं! क्योंकि "ध्यान रहे! असंसदीय शब्द पर बैन लगा है, व्यवहार पर नहीं!' और हम तो बड़े क्रिएटिव वाले प्राणी हैं न! हीहीही! मतलब गाली खाने और कुटने के सारे काम भले ही कर लो, बस मुँह मत खोलना! 

एक समस्या और आन पड़ी है कि प्रतिबंधित शब्दों में कुछ तो ऐसे हैं जिनके नाम के व्यक्ति राजनीति के महकते आँगन में चहकते पाए गए हैं. भिया, इसका देसी उपाय तो यह है कि दुल्हन की तरह घूँघट की ओट से कहा जाए कि “जरा हमाए बिनको बुलाय द्यो. बो का है न कि हम लाज के मारे नाम नहीं ले सकत हैं”. हाँ, उनका नया आधार कार्ड बनवाने का खर्चा जरूर लग जाएगा. अब राष्ट्रहित में इतना तो किया ही जा सकता है न!

दूसरा एकदम सिम्पल उपाय है कि सबको रोल नंबर से बुलाओ.  

हाँ यह एकदम सच है कि अचानक इस खबर के आने से देश भर में चिंता की लहर तो दौड़ गई है. झुमरीतलैया के बबलू, गुड्डी, पिंकी और उनके मम्मी-पापा यह सोच हलकान हुए जा रहे कि अब जीवन में एडवेंचर कहाँ से आएगा! आपस मे लड़ने भिड़ने को ज़िंदगी मे बचेगा ही क्या! दोस्त-परिजनों से रिश्ते खराब करके बचत कैसे कर सकेंगे! 

नेता बिरादरी भी भयंकर तनावग्रस्त है कि "ब्रो अगर हमने भद्र भाषा अपना ली, तो हमारा तो टोटल अस्तित्व ही खतरे में आ जायेगा. पब्लिक का राजनीति पर से विश्वास उठ जायेगा! रोज़गार और शिक्षा से विमुख जनता के नीरस जीवन में रंग भरने कौन आएगा? अब हम कहाँ जाकर आपस मे लड़ेंगे जी? और उन चैनलों का क्या जिनकी TRP की नींव हमारी भद्रता के सदके धसक जाएगी! व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के सिलेबस का upgraded version अब कैसे आएगा!" 

हमारे भावुक मन से इतना दुख तो कतई नहीं देखा जा रहा! बस यह सोचकर मन को तसल्ली दे रखी है कि उम्मीद पर दुनिया कायम है. और जो दृश्य भवन के भीतर हुआ करते थे, वे अब बाहर अवश्य ही होंगे. यक़ीन कीजिए, बाहर का कार्यक्रम और अधिक दर्शनीय होगा क्योंकि माननीय न्यूटन जी के अनुसार “जो शब्द बंदों के हलक में अंदर फंसे रह गए थे, वे दुगुनी शक्ति से टनटनाटन बाहर आएंगे और उसके बाद जो समां बंधेगा न कि उफ्फ़! आँखें ही न छलक उठें!

हम तो ये सोचकर भी प्रसन्न हो पा रहे हैं कि नए पर्यायवाचियों के निर्माण के चलते, कम से कम हिन्दी के अच्छे दिन तो आ ही जाएंगे! और बलिस्वरूप प्रदत्त सारे तिरस्कृत असंसदीय शब्द, अपने मोक्ष का अमृत महोत्सव मनाएंगे.

जै राम जी की! 🙏

- प्रीति अज्ञात 14 जुलाई 2022 

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क्या आप लेखक हैं?

सच्चा साहित्य हमारे हृदय को कठोर नहीं, अपितु मुलायम, संवेदनशील बनाता है। चिंतन-मनन के पर्याप्त अवसर देता है। यह सकारात्मक सोच लिए समाज से नैतिकता, सभ्यता और शिष्टता का आग्रह करता है। विश्वबंधुत्व की भावना के साथ समाज, देश और दुनिया को स्नेह का पाठ पढ़ा सामाजिक सद्भाव और समृद्धि की राह प्रशस्त करता है।

साहित्य समाज की विद्रूपता, रूढ़िवादी परंपरा, कुंठा और अन्याय के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करता है और उनके विरुद्ध मशाल प्रज्ज्वलित कर उठ खड़े होने में पथ प्रदर्शक का कार्य भी करता है। साहित्य वही, जिसमें समाज का हित निहित हो! प्रतिरोध के उद्वेलित स्वर हों पर भाषा परिमार्जित हो! जो साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को नई दृष्टि प्रदान करे। साहित्य की सार्थकता समाज-सुधार की दिशा में क़दम बढ़ाने से है, उसे विषाक्त करने से नहीं! इसलिए साहित्य को जड़ नहीं होना चाहिए और न ही  मात्र इसलिए रचा जाना चाहिए कि उसकी वाहवाही की जाए!

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कथन है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’, और यह प्रत्येक लेखक का उत्तरदायित्व है कि वह इस दर्पण पर धूल न जमने दे और न हीं उसे ढककर रखे। वे लेखक नहीं हैं जो सच को सच और झूठ को झूठ कहने से डरते हैं और जिनकी लेखनी समाज की समस्याओं को परे रख केवल स्वार्थ सिद्धि में लगी रहती है। वे तो कतई ही नहीं है जो आद्योपांत धर्मांधता में चूर हो हिंसा और अन्याय के पक्ष में भुजाएं फड़का, झंडा ले निकल पड़ते हैं और जिनकी लेखनी किसी राजनीतिक दल का मुखपत्र लगती है। यदि लेखक, समाज को एक नई दृष्टि और दिशा नहीं दे रहा है, उसमें मानवीय मूल्यों और संस्कृति के उत्थान की बात नहीं कर रहा है और वह किसी निश्चित धर्म, जाति, समाज के प्रति कट्टरता को लालायित है तो उस समाज का पतन निश्चित है। वह लेखनी जो व्यक्ति को व्यक्ति से द्वेष कराए, उनमें परस्पर घृणा, ईर्ष्या, हिंसा के भावों का संचार करे और आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती नज़र आए; वह समाज के लिए घातक है।

लेखक, समाज के प्रतिनिधि के तौर पर लिखता है अतः उस देशकाल में उसके द्वारा किया गया सृजन आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण बन प्रस्तुत होता है। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य को “जीवन की आलोचना” यूँ ही नहीं कहा है। उन्होंने राजा महाराजाओं के स्तुति गान, रसराज में डूबी रचनाओं के परे जाकर सामाजिक समस्याओं, अनैतिक प्रथाओं, शोषण और आर्थिक विषमताओं को अपने स्वर दिए। वे आज भी इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि उनका साहित्य, उस दौर के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवेश का जीता-जागता दस्तावेज़ है जिसमें सामाजिक मूल्यों, संवेदनाओं को प्रधानता दी गई है और वे आदर्शोन्मुख समाज की स्थापना पर बल देते हैं। यथार्थ में लिपटी उनकी प्रत्येक कृति पाठकों के लिए अमूल्य उपहार की तरह इसलिए भी प्रतीत होती है क्योंकि वह उनके दुख, दर्द की बात करती है, उनके जीवन से जुड़ी है।

लेखक को केवल सज्जनता और आदर्श से भरे वक्तव्य देकर ही कर्तव्यों से इतिश्री नहीं कर लेनी चाहिए कि पढ़ दिया और करतल ध्वनि के मध्य बात वहीं समाप्त भी हो गई! बल्कि वह जो कहे उसका एक-एक शब्द स्वयं भी मन, वचन और कर्म से आत्मसात करे। वह जिन विषयों पर आह्वान करे उसे अपने जीवन में उतारे भी।

हमें सावधान होना है उन पत्रकारों और साहित्यकारों से, जो कट्टरता और धर्मांधता में लिप्त हो अपनी भारतीयता ही भुला बैठे हैं! यह चाटुकारिता भरे साहित्य से बाहर निकल, यथार्थ के धरातल पर आ बैठने का समय है।

ज्ञातव्य हो, लेखनी की सार्थकता सत्य को सामने लाने में है, उसे दबाने में नहीं! साहित्यकार का लक्ष्य सामाजिक कल्याण है, उसका सर्वनाश करना नहीं!

- प्रीति अज्ञात 1 जुलाई 2022 

'हस्ताक्षर' जुलाई 2022 अंक संपादकीय 

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https://hastaksher.com/are-you-a-writer-editorial-by-preeti-agyaat/

1988 की बात है. ‘मध्यप्रदेश पत्र लेखक संघ’ का एक कार्यक्रम था. जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह इटावा धर्मशाला, भिंड में सम्पन्न हुआ था (हाँ, वही वाली जिसके बाहर विजय फोटो स्टूडियो हुआ करता था).  दो दिन पहले कोई लड़का घर आकर कह गया था कि जरूर आना है. मैं उस समय समाचार-पत्रों में प्रायः पत्र वगैरह लिखा करती थी. पर समझ नहीं आ रहा था कि वहाँ जाऊं या नहीं? उस समय हद से ज्यादा संकोची और अंतर्मुखी भी थी.  

 जिस दिन कार्यक्रम था. उस दिन फिर कोई सुबह आकर याद दिला गया कि आपको आना है. तो मैंने अपने स्कूल की दो सहेलियों निशु और अस्मिता को बताया और साथ चलने को मना लिया. कार्यक्रम शुरू हुआ. कुछ भाषण वगैरह चले और फिर ‘पुरस्कार वितरण समारोह’ होने लगा. वैसे कक्षा में हमेशा प्रथम पंक्ति में बैठना पसंद रहा है मुझे लेकिन यहाँ मैं इसके विपरीत पीछे बैठी थी. सोचा था, ज्यादा भाषणबाज़ी चली तो भागने में सरलता रहेगी! यद्यपि मैं किसी भी कार्यक्रम के बीच में से उठकर जाने की पक्षधर न तब थी, न अब हूँ! चाहे सिर फटकर उसके दो टुकड़े हो जाएं पर अंत तक यही सोच बैठी रहती हूँ कि 'ऐसे जाना अच्छा! नहीं लगता, अपमानजनक ही होता है!' खैर! इस ज्ञान का अभी की बात से कोई लेना-देना ही नहीं!

तो जैसे ही किसी नाम की घोषणा होती, मैं उत्साहवर्धन हेतु ताली बजाने लगती. अचानक मध्यप्रदेश में पत्र लेखन के तृतीय पुरस्कार के लिए मेरा नाम पुकारा गया। मैंने समझा ही नहीं कि यह मैं हूँ और उसी तरह ताली बजाती रही. यूँ भी 'प्रीति' नाम इतना कॉमन है कि हर गली, मोहल्ले में एक बार जोर से पुकार दो तो पच्चीस-तीस प्रीतियाँ तो बाहर निकल ही आएंगी! सो, मैं तो प्रसन्नचित्त मन से इधर-उधर देख रही थी कि पुरस्कार लेने कौन उठ रहा! मेरी दोनों सहेलियाँ मुझे धक्का दे रहीं थीं कि "उठ, उठ! तुम्हें ही बुला रहे!" पर मैं कुछ समझ ही नहीं पा रही थी. मैंने कोई प्रविष्टि ही नहीं भेजी थी. तभी संचालक ने मेरी तरफ इशारा करके कहा, "जी आप ही को आना है". उस समय मुझे प्रसन्नता तो बहुत ही हुई पर इतनी शर्म भी आई न! क्योंकि मैं तो भीड़ में गुम होने के हिसाब से दो चोटी लटकाकर ऐसे ही चली गई थी, अब पुरस्कार लेने के लिए तो थोड़ा तैयार-शैयार होना पड़ता है न! हालाँकि मेरे तैयार होने और न होने में बस हेयर स्टाइल का ही अंतर रहता है.  

अब जिस हाल में थी, वैसी ही जाकर पुरस्कार ग्रहण किया. उसके बाद एक-दो लोगों से पूछा कि मेरी एंट्री किसने भेजी? किसी ने नहीं बताया. बस, इतना बताया कि विनिंग एंट्रीज़ बाहर लगी हुई हैं. हॉल के बाहर प्रदर्शनी जैसा कुछ था. जाकर देखा तो 'स्वदेश' पेपर में प्रकाशित  मेरा एक पत्र वहाँ लगा था. यह आतंकवाद पर था जो बाद में 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में भी प्रकाशित हुआ. लेखन जगत में यह मेरा पहला और अप्रत्याशित पुरस्कार था. वैसे पुरस्कार मुझे सदा से ऐसे ही मिले हैं. मम्मी-पापा भी बेहद खुश हुए. हालाँकि आज तक ये नहीं मालूम हुआ कि वो एंट्री किसने भेजी थी! संभवतः सभी समाचार-पत्रों में से कुछ को चुना गया हो! जो भी हो, इस पुरस्कार ने मुझे ग़ज़ब का हौसला दिया था. तब पहली बार इस बात का अनुभव किया कि लेखन भी एक कला है जिसे परिजनों के अलावा भी लोग सराहते एवं प्रोत्साहित करते हैं.  

आज album खंगालते हुए दो चोटी वाली यह तस्वीर मिली, तो पूरा किस्सा याद आ गया!

वनस्पति विज्ञान से एम.एससी. की, एक वर्ष कॉलेज में पढ़ाया। संस्कृत अध्यापन में डिप्लोमा किया। दो अन्य डिग्री अधूरी भी रहीं। pottery और बोन्साई में भी बहुत रुचि रही। 2000 के बाद से सामाजिक कार्यों में स्वयं को पूरी तरह से झोंक दिया था लेकिन 2010 से अब तक एक बार फिर उसी दुनिया में रम गई हूँ जहाँ बचपन से ही दिल लगा करता था। अब अपनी एक साहित्यिक पत्रिका है, संस्था है, ब्लॉगर बन गई, स्तंभकार हूँ। साथ-साथ पुस्तकें भी आती रहीं। अब भी सीख ही रही हूँ। यूँ ही नहीं कहते कि दुनिया गोल है! मेरे लेखन की दुनिया में इस दिन का बड़ा योगदान है!

आज फेसबुक के माध्यम से मैं इस कार्यक्रम के आयोजकों को शुक्रिया कहना चाहती हूँ। 🙏🙏 आपका यह पुरस्कार अब भी घर के ड्रॉइंग रूम की शोभा बढ़ा रहा है। 

- प्रीति अज्ञात 27 जून 2022 

#संस्मरण 

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हे मानव! पहले धरती पर रहने का शिष्टाचार सीख जाओ, फिर कहीं और जीवन तलाशना!

कितने आश्चर्य की बात है कि पृथ्वी की सबसे बुद्धिमान प्रजाति मनुष्य को भी यह स्वयं को स्मरण कराना पड़ रहा है कि उसके पास बस यही एक घर है और अब उसके रख-रखाव का और उसे संभालने का समय आ चुका है। आधुनिकता एवं स्वार्थ सिद्धि की अंधी दौड़ में लिप्त मनुष्य को अब कहीं जाकर इस तथ्य का अनुमान होने लगा है कि स्थिति सचमुच इतनी खराब हो चुकी है कि उसे पर्यावरण असंतुलन से उपजी समस्याओं के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। इस बार “विश्व पर्यावरण दिवस” की थीम है – “केवल एक पृथ्वी” तथा इस अभियान का नारा है- “प्रकृति के साथ सद्भाव में रहना।” यद्यपि थीम को प्रतिवर्ष कुछ नया नाम भले ही दे दिया जाता हो पर इसका संदेश एक ही है। वह है, मानव जाति को पर्यावरण का महत्व समझाना और उसके प्रति दायित्व निर्वाह को प्रेरित करना।

निश्चित रूप से, इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह इसकी रक्षा हेतु अपनी क्षमतानुसार जितना बन पड़े, करे! जल-संरक्षण करे, वृक्षारोपण के प्रति उत्साहित हो, जीव-जंतु और वनस्पति के प्रति संवेदनशील हो। पृथ्वी केवल हम मनुष्यों की ही नहीं है इस पर उपस्थित हर जीव -वनस्पति का इस पर समान अधिकार है। यह नदी, झरनों और पहाड़ों की भी उतनी ही है जितनी पेड़-पौधों, जंगलों और रेगिस्तान की। यह आसमान में उड़ते पक्षियों की भी उतनी ही है जितनी जंगल में दौड़ते हिरण की! लेकिन स्वयं के विकास के लिए मनुष्य ने सदैव विनाश की राह ही पकड़ी है फिर चाहे वह प्रकृति का ही क्यों न करना पड़े!
हमें जिस प्रकृति के आगे नित शीश नवाना चाहिए हमने उसे रौंदकर उसका मालिक बनना चाहा। फलस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमारे कुकृत्यों के परिणाम सामने हैं। हम यह विस्मृत कर देते हैं कि जंगलों को काटना जमीन प्राप्त कर लेना ही नहीं है, बल्कि यह जैव विविधता भी नष्ट कर देता है। पूरा का पूरा पारिस्थितिक तंत्र टूट जाता है। कार्बन का संतुलन और पर्यावरण चक्र बिगड़ जाता है।

हम समस्त प्राकृतिक स्रोतों का तो डटकर उपयोग करते हैं, उसे बर्बाद भी करते हैं लेकिन उसकी रक्षा के लिए हमसे कुछ नहीं होता! क्योंकि हम उस युग के तथाकथित कर्णधार बनकर रह रहे हैं जिसमें मानव दूसरे को मारकर अपने अधिकार छीन लेने में रुचि रखता है लेकिन कर्तव्यों की बात सुनते ही आहत हो जाता है। हमें पाने का सुख चाहिए पर देने का आनंद नहीं! हम तो जब अपनी आने वाली पीढ़ियों के बारे में भी नहीं सोच रहे तो प्रकृति और इस पावन धरा की तो क्या ही चिंता करेंगे! प्रलय की आहट हो रही है पर हम उसे अनसुना करते चले आ रहे हैं हमारा सम्पूर्ण ध्यान और लक्ष्य अपने हिस्से का भरपूर एवं सम्पूर्ण सुख भोगना है।
आग पड़ोस में लगे या अमेजन के जंगलों में, हमने अपने स्वार्थ से बाहर आकर कुछ देखना, समझना ही नहीं चाहा कभी। हम बस इतना जानकर ही संतुष्ट हो जाना चाहते हैं कि कहीं हमारी कोई व्यक्तिगत क्षति तो नहीं हुई! तभी तो पृथ्वी का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेजन के जंगलों में लगी आग की सूचना, मात्र समाचार भर ही बनकर रह जाती है। उस पर कोई चर्चा नहीं होती! इससे वोट पर प्रभाव नहीं पड़ता न! मीडिया इसका समाचार किसी इमारत में लगी आग के रूप में ही प्रस्तुत करती है। उस अग्नि ने कितने जंतुओं को तड़पाकर मार डाला, कितने पक्षियों के घर उजड़ गए, आसरा छिन गया, कितने भोजन-जल को तरस रहे, कितनी वनस्पति झुलस गई! इससे उन्हें कोई मतलब ही नहीं! तालाबों को पाट दिया जाता है। उसके अंदर रहने वाले मछली, कछुओं और नन्हे जंतुओं का क्या हुआ? क्या उन्हें स्थानांतरित किया गया? या उन्हें जल समाधि दे दी गई? इस सब के कोई आँकड़े कभी सामने नहीं आते! संवेदनशीलता का ढोंग रचने वाले मानव का यही निष्ठुर चरित्र है।
कहते हैं कि अमेजन के जंगल अकेले ही इस पृथ्वी की प्राणवायु ऑक्सीजन का 20% भाग उत्पन्न करते हैं। दसियों हजारों प्रकार की जन्तु एवं पादप प्रजातियों का घर है यह। औषधियों का केंद्र है। अमेजन की ही नहीं, अन्य जंगलों की भी यही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि विकास के नाम पर उन्हें जलाया जा रहा।

वन्यजीवों और वनस्पतियों की कई प्रजातियों के विलुप्तिकरण के कारण पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो चुका है। एक मनुष्य ही है जिसकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, शेष जो भी है वो न्यूनता एवं विलुप्ति की ओर अग्रसर है। सब औद्योगीकरण की चपेट में हैं। मनुष्य की तो पारिस्थितिकी में कोई सकारात्मक भूमिका ही नहीं रही। वह तो अपने हाथ झाड़ चुका है क्योंकि उसने केवल उपभोक्ता के रूप में ही जीना सीखा है। इसकी लोलुपता ने प्रकृति का भरपूर शोषण किया तथा अन्य प्राकृतिक उत्पादों के महत्व को समझने का रत्ती भर भी प्रयास नहीं किया।

यह सोचकर भी सिर जमीन में गड़ जाता है कि विकास के नाम पर हमने अपने पहाड़ों और नदियों का क्या हाल कर रखा है! पर्यावरण से जितना भयावह एवं हिंसक व्यवहार हम कर रहे हैं उसके परिणाम भी उतने ही भयंकर होंगे। वृक्ष चीख नहीं सकते! नदियाँ रो नहीं सकतीं और न ही पहाड़ की कराह कोई सुन सकता है। उनको निर्ममता से कुचला जा रहा है क्योंकि पूँजीवाद को जंगल नहीं, जमीन से लाभ दिखता है। कोई जंगलों को नष्ट करने का ठेका ले लेगा। उसके बाद वहाँ मल्टीप्लेक्स बनेंगे, ब्रांडेड शो रूम खुलेंगे, नई कॉलोनी बना ली जाएगी, किसी बड़ी दुकान का उद्घाटन होगा जहाँ अतिथियों को एक पौधा उपहार में देकर ‘मुझे प्रकृति से प्यार है’ का थोथा प्रदर्शन किया जाएगा।

जमीन पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हुए सम्मेलनों का कोई सकारात्मक परिणाम तो कभी दिखा नहीं। देश ही एकमत नहीं होते, सबको अपनी अलग चाल चलनी है। समझौता करने को कोई सहमति नहीं बनती। महाशक्तियाँ सैटेलाइट लॉन्च करने में व्यस्त हैं उससे उत्पन्न स्पेस ट्रैश भी वायुमण्डल को हानि पहुँचा रहा है यह सब जानते-समझते हुए भी हम परस्पर पीठ थपथपा बधाई देते हैं। मंगल पर जीवन की खोज चल रही है। हे मानव! पहले धरती पर रहने का शिष्टाचार सीख जाओ, फिर कहीं और जीवन तलाशना! इस ब्रह्मांड पर कुछ तो तरस खाओ!

प्रकृति ने दाता बनकर हमें भरपूर प्रेम दिया है। यह हमारे लिए ईश्वर सरीखी है। हर जगह है, हर रूप में है। हमें नतमस्तक हो इसकी महत्ता को स्वीकारना है। हम पृथ्वीवासी उस भीषण दौर के साक्षी हैं जहाँ मानवता और सभ्यता, गहन चिकित्सा विभाग में अंतिम साँसें ले रहीं हैं। युद्ध से समस्याओं के हल खोजे जा रहे हैं। शक्तिशाली देशों के आगे दुनिया भीगी बिल्ली बनी हुई है। मानव जीवन नष्ट होने के कगार पर है और इसे बचाने का एकमात्र उपाय है – पर्यावरण संरक्षण, पृथ्वी से प्रेम करना, उसे बचाना। काश! समस्त विश्व को इसकी चिंता हो, सब इसे अपना माने और इसके हर भाग की सुरक्षा का संकल्प कुछ यूँ लें, जैसे हमें अपनी देह की फ़िक्र होती है।
अस्तु।
- प्रीति अज्ञात  १ जून २०२२ 

'हस्ताक्षर' जून २०२२ अंक संपादकीय 
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विलुप्तिकरण की अगली श्रृंखला में अब नष्ट होने की बारी मनुष्य की ही है

मई माह के प्रारंभ होते-होते तापमान 40 को पार कर चुका है। भीषण गर्मी से तो लोग त्रस्त हैं ही, उस पर बिजली में कटौती के समाचारों ने रही-सही क़सर भी पूरी कर दी है। एक समय था, जब बिजली चले जाने पर लोग घर के बाहर निकल किसी वृक्ष के नीचे या लीपे हुए आँगन में आकर बैठ जाते थे, हाथ का पंखा झलते थे। प्राकृतिक हवा और प्रकाश से भी काम चल जाता था। लेकिन अब हम विद्युत पर इस सीमा तक निर्भर हो चुके हैं कि इसके बिना दिनचर्या सुचारु रूप से चल ही नहीं सकती! पूरी व्यवस्था ही ठप्प हो जानी है। अभी तो पानी के लिए भी परिस्थितियाँ गंभीर होंगी। आज नहीं तो कल, हम मनुष्यों को यह भीषण मंज़र देखना ही होगा! परंतु तब हमारे पास स्वयं को बचाने और जीवित रखने का क्या कुछ उपाय शेष होगा? इसका उत्तर जानने, समझने में किसी की रुचि नहीं!

यह पावन धरा, जिसे हम बड़ी शान से धरती माँ कहते नहीं अघाते, इसे सहेजने के लिए हमने किया ही क्या है? बस रौंदते ही तो चले जा रहे हैं। हमको छह लेन वाली सड़कें चाहिए, फिर भले ही उसके लिए जंगल के जंगल नष्ट कर दिए जाएं! हम बीच में एक पतली पट्टी पर कुछेक पौधे लगाकर क्षतिपूर्ति का झूठा ढोंग रचते रहते हैं। जबकि सैकड़ों वर्ष पुराने वृक्षों को उखाड़कर कागजी  बोगिनविलिया की एक पंक्ति लगा देना खुद को धोखे में रखने से अधिक और कुछ भी नहीं! एक पौधे को लगाते हुए नेताजी और उनकी पूरी फौज की तस्वीर जरूर छपती है परंतु उस पौधे का कोई अपडेट देखने को नहीं मिलता!
हमने विकास की अंधी दौड़ में अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए नरक तैयार कर दिया है। न पहले से  छायादार वृक्ष रहे और न ही उनसे मिलने वाली प्राणवायु बचेगी। धीरे-धीरे समस्त औषधीय स्त्रोत भी समाप्त हो जाएंगे। भूमि क्षरण यूँ ही बढ़ता रहेगा और जमीन के अंदर का पानी भी सूखता चला जाएगा। प्रदूषण की भयावह स्थिति से नित सामना हो ही रहा है।

कच्ची सड़कें पक्की होती जा रहीं हैं। गाँव शहर बनने की अंधी दौड़ में हैं। सबको ही सुविधा चाहिए। हमने आंदोलन करते किसानों को तो खूब भला-बुरा कहा लेकिन उस किसान पर एक पल को भी ध्यान नहीं गया जो कि प्रत्येक वर्ष मौसम की मार से झींकता, छाती पीट रो-रोकर अब थक चुका है, उसके पास अब तक ऐसे माध्यम नहीं उपलब्ध हो सकें हैं जिससे वह अपनी तैयार फ़सल को रातों-रात बारिश, आग या टिड्डियों से बचा सके। उसे कहीं सुरक्षित रूप से स्टोर कर सके। तंग आकर वह भी अब फैक्ट्री लगाने वालों को अपनी जमीन बेच रहा है।  प्रतिदिन का तनाव कम करके वह एक मोटी रक़म के ब्याज से ही गुजर-बसर कर लेगा!
लेकिन खेती-बाड़ी ऐसे ही बंद होती रही तो हम खाएंगे क्या? कंक्रीट से पटी धरती के भीतर का पानी सूखता रहा, तो पिएंगे क्या? क्या अपने-अपने झंडे लहराने और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ठहराने के बाद हम जब पलटकर देखेंगे तो कुछ बचेगा जीने लायक़? कुछ मिलेगा ऐसा, जिस पर सचमुच गर्व किया जा सके? लाठियाँ और हिन्दू-मुस्लिम राजनीति काम आएंगी क्या?

पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठियाँ करने से हमारी धरती नहीं बचेगी! ओज़ोन परत में छेद हो या ग्लेशियर के पिघलने की बात, वैज्ञानिक हमें वर्षों से सचेत करते आ रहे हैं। हमें और जंगल बसाने चाहिए थे कि प्रकृति के कोप का भाजन न बनना पड़े लेकिन हमने उन्हें उखाड़ नई इमारतें खड़ी कर दीं। प्राकृतिक संसाधनों को सहेजना था, लेकिन उन्हें नष्ट कर, हमने गगनचुंबी पत्थरों पर गर्व किया। हम कभी ‘सेव टाइगर’ तो कभी ‘गौरैया बचाओ’ के नारे लगाते हैं, खोखली चिंता व्यक्त करते हैं  लेकिन इमारतों के बनने के समय इन्हीं चिड़ियों के बसेरे को उजाड़ने में एक क्षण भी नहीं गँवाते! वो सारे पक्षी और जानवर कहाँ जाएं अब, जिनका घर हमने नष्ट कर दिया? जंगलों में जब आग लगती है तो बस लगती है। इसमें वन संपदा जलकर खाक हो जाती है, तो बस हो जाती है। हमने सदियों से उससे बचने के कोई उपाय सोचे ही नहीं! क्यों सोचें, हमने उन्हें अपना माना ही कहाँ! तभी तो न जाने कितने वन्य जीव भी उस आग में झुलस जाते होंगे, तड़प-तड़पकर मरते होंगें पर हमारा कलेजा एक बार भी नहीं काँपता! उनकी मौत किसी समाचार की हेडलाइन कभी नहीं बनी!
माना कि जब किसी नई परियोजना के चलते किसी गाँव के खेत नष्ट किए जाते हैं तो उन किसानों को उनकी जमीन का मुआवजा दे दिया जाता है लेकिन उस स्थान के पक्षियों और जानवरों को कहीं बसाया जाता है क्या? उनके लिए कोई परियोजना बनी है क्या? हाँ, खबरें आती हैं कि फलाने साहब के बंगले में चीता घुस आया, जंगली जानवर आ गए! जबकि सच यह है कि उन साहब ने चीते के घर में अपना बंगला घुसेड़ दिया है! जानवर को गोली मार, घसीटकर ले जाया जाता है, ये सोचे बिना कि उसका दोष क्या है? कहाँ रहेंगे वे? उन्हें किस बात का दंड दिया जाता है? किसी दिन यदि वे भी ‘सभ्य’ मनुष्यों की तरह लाठी, दंगे और बुलडोज़र संस्कृति की भाषा सीख गए तो सब तहस-नहस हो जाएगा! लेकिन इतने अत्याचार के बाद जानवरों का हक़ बनता है कि वह मनुष्य प्रजाति से प्रश्न करे।

पारिस्थितिक तंत्र से यह खिलवाड़ ही सारी समस्या की जड़ है। हमें बढ़ती गर्मी की बहुत चिंता है लेकिन हमने हमारे गाँव के कुंए को पाट दिया, नदियों को सूखने दिया। पहाड़ों को काटते जा रहे हैं। हम सारी दुनिया के समक्ष गर्व से धरती माँ को पूजने की बात करते हैं, गंगा और तमाम नदियां हमारी माँ हैं, तुलसी जी भी मईया हैं, नीम-पीपल और तमाम औषधीय वृक्षों पर देव का वास मानते हैं, उनसे विवाह की परंपरा भी रही है, मन्नत का धागा बांधते हैं परंतु जब स्वार्थ की बात आती है तो इन पर कुल्हाड़ी चलाने में जरा भी गुरेज़ नहीं करते!
इतिहास कहता है कि पुराने शासकों ने खूब बावड़ी बनवाईं, वृक्ष लगवाए, मुसाफ़िरों के ठहरने को सराय बनवाईं, जानवरों के लिए भी ठहरने की व्यवस्था होती थी, पक्षियों को दाना-पानी रखने के लिए सुंदर स्थान बनाए जाते थे। लेकिन हमें तो आपस में लड़ने से ही फुरसत नहीं। जिन महाशक्तियों को बढ़ते प्राकृतिक असंतुलन पर ध्यान देना चाहिए, संतुलन के उपाय खोजने चाहिए थे, उनका सारा ध्यान तो युद्ध पर केंद्रित है। विनाश के पक्षधर देशों से निर्माण की आशा रखना निरर्थक है।
सब अपना-अपना प्रभुत्व जमाने और सत्ता स्थापित करने में लगे हैं। वे इस बात को भूल रहे हैं कि विलुप्तिकरण की अगली श्रृंखला में अब नष्ट होने की बारी हमारी ही है।

चलते-चलते: 1 मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में इसलिए मनाया जाता है कि हम श्रमिकों की उपलब्धियों का सम्मान करें और उनके योगदान का स्मरण रखें। इसका मूल उद्देश्य मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाना एवं उनके शोषण को रोकना है।
साथ ही मई महीने के पहले रविवार को ‘विश्व हास्य दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह दिन लोगों में हँसी के स्वास्थ्य लाभ और उसके सकारात्मक चिकित्सीय प्रभावों को इंगित करने के लिए भी होता है। संयोग से आज 1 मई को ही हास्य दिवस भी है। लेकिन कुछ लोगों ने हर बार की तरह ‘मजदूर दिवस’ को पति/पत्नी के किए गए कार्यों की सूची से जोड़कर इसे ही ‘हास्य दिवस’ बना दिया। हास्य का यह प्रकार अत्यंत क्रूर, हल्का और बेढंगा है। कुछ दिवस अतिरिक्त संवेदनशीलता की माँग करते हैं।

- प्रीति अज्ञात  १ मई २०२२ 

'हस्ताक्षर' मई २०२२ अंक संपादकीय इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -
https://hastaksher.com/in-the-next-series-of-extinction-now-it-is-humans-turn-editorial-by-preeti-agyaat/