गुरुवार, 26 सितंबर 2019

समय की क़ीमत #Indian_Time

हमें ट्रेन पकड़नी होती है तो आधे घंटे पहले स्टेशन पहुँच जाते हैं। फ्लाइट हो तो दो-तीन घंटे पहले। मूवी देखने जाना हो तो भी पॉपकॉर्न खरीदकर बैठने की गुंजाइश तो रखते ही हैं। कहीं SALE हो तो स्टोर खुलने के आधे घंटे पहले पहुँच जाना अपना फ़र्ज़ समझते हैं। रात 12 बजे यदि नया फ़ोन launch हो रहा हो तो 11.45 से ही log in करके तैयार बैठते हैं लेकिन कहीं जाना हो, किसी को समय दिया हो, कोई कार्यक्रम हो तो एकाध घंटे की देरी को तो कोई गिनता ही नहीं! कार्ड में जो भी नियत समय दिया गया हो, हम अपने दिमाग़ में उसे आधे घंटे खिसकाकर ही सामान्य महसूस कर पाते हैं।

नीचे सौ वर्ष से भी कहीं अधिक पुराना किस्सा साझा कर रही हूँ (यद्यपि यह किस्सा स्वावलम्बन पर है) ...तब और अब में इतनी प्रगति अवश्य हो गई कि अब देर से पहुँचने को 'Indian Time' कहा जाने लगा है। कुछ लोग इस बात पर भी गर्व कर अपनी पीठ थपथपा खींसे निपोरना नहीं भूलते। खीजने वाले खीजते रहें, समय पर पहुँच जाने का शोक़ मनायें या मोबाइल-मोबाइल खेलें! WHO CARES! 
- प्रीति 'अज्ञात'
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* एक बार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को इंग्लैंड में एक सभा की अध्यक्षता करनी थी। उनके बारे में यह मशहूर था कि उनका प्रत्येक कार्य घड़ी की सुई के साथ पूर्ण होता है अर्थात् वे समय के बहुत पाबंद थे। वे लोगों से भी यही अपेक्षा रखते थे कि वे अपना कार्य समय पर करें। विद्यासागर जी जब निश्चित समय पर सभा भवन पहुँचे तो उन्होंने देखा कि लोग सभा भवन के बाहर घूम रहे हैं और कोई भी अंदर नहीं बैठा है। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि सफाई कर्मचारियों के न आने के कारण अभी भवन की सफाई नहीं हुई है। यह सुनते ही विद्यासागर जी ने एक क्षण भी बिना गंवाए झाड़ू उठा ली और सफाई कार्य प्रारम्भ कर दिया। उन्हें ऐसा करते देख उपस्थित लोगों ने भी कार्य शुरू कर दिया। देखते ही देखते सभा भवन की सफाई हो गई और सारा फ़र्नीचर यथास्थान लगा दिया गया। जब सभा आरंभ हुई तो ईश्वर चन्द्र विद्यासागर बोले- "कोई व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र, उसे स्वावलंबी होना चाहिए। अभी आप लोगों ने देखा कि एक-दो व्यक्तियों के न आने से हम सभी परेशान हो रहे थे। संभव है कि उन व्यक्तियों तक इस कार्य की सूचना न पहुँची हो या फिर किसी दिक्कत के कारण वे यहाँ न पहुँच सके हों। क्या ऐसी दशा में आज का कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाता? यदि ऐसा होता तो कितने व्यक्तियों का आज का श्रम और समय व्यर्थ हो जाता।" सार यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी होना चाहिए और वक्त पड़ने पर किसी भी कार्य को करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
#ईश्वर_चन्द्र_विद्यासागर
*प्रसंग भारतकोश से साभार 

शनिवार, 7 सितंबर 2019

चंद्रयान-2 से उपजे चार भाव

चंद्रयान-2 से उपजे चार भाव 

दुःख - मंज़िलों पे आके लुटते हैं दिलों के कारवाँ
        कश्तियाँ साहिल पे अक्सर, डूबती हैं प्यार की
चाँद की धरती पर क़दम रखते-रखते अचानक ही सम्पर्क टूट जाने की जो असीम पीड़ा है उसे शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं! पूरा भारत इस मिशन की सफ़लता के पल का साक्षी बनने की उम्मीद लिए रतजगे पर था. समस्त देशवासी इस गौरवशाली समय को अपनी मुट्ठी में बाँध लेना चाहते थे. वे आह्लादित थे कि आने वाली पीढ़ियों को बता सकें कि "जब हमारा प्रज्ञान चाँद पर चहलक़दमी करने उतरा तो हमने उस अद्भुत क्षण को अपनी आँखों से देखा था." #ISRO के अथक परिश्रम एवं प्रतिभा पर पूरे देश को गर्व है और हमेशा रहेगा. जो अभी नहीं हुआ वो कभी तो होगा ही, इस तथ्य से भी हम भली-भाँति परिचित हैं. पूरे स्नेह और धन्यवाद के साथ हमारी शुभकामनाएँ, हमारे वैज्ञानिकों के साथ हैं. उन्हें उनके अब तक के प्रयासों और सफलताओं के लिए हार्दिक बधाई. विज्ञान की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यही है कि वह हार नहीं मानता और सफ़ल होने तक अपनी कोशिशें निरंतर जारी रखता है.

संबल - यूँ तो किसी भी बड़े तनावपूर्ण मिशन के समय राजनेताओं, प्रधानमंत्री या अन्य क्षेत्रों के प्रमुख की उपस्थिति व्यवधान की तरह ही होती है क्योंकि फिर न केवल सबका ध्यान उस ओर भी थोड़ा बँट जाता है बल्कि एक अतिरिक्त दबाव भी महसूस होने लगता है.
वैज्ञानिक,असफ़लताओं के आगे कभी घुटने नहीं टेकते और न ही कभी टूटते ही हैं. एक अनदेखे-अनजाने लक्ष्य की ओर बढ़ना उन्हें यही अभ्यास कराता है. सतत प्रयास करना और निरंतर जूझना....यही विज्ञान की परिभाषा भी है. इसलिए डॉ. सिवान के आँसू आश्चर्यजनक नहीं बल्कि उनकी टीम द्वारा सच्चे दिल से किये गए अथाह परिश्रम और परिणाम से उपजी पीड़ा का प्रतीक हैं. वैज्ञानिकता को इतर रख यह एक मानव की सहज प्रतिक्रिया है जो अपनी वर्षों की मेहनत पर पानी फिरते देख टूट भी सकता है! इस बार जब निराशा भरे पलों में प्रधानमंत्री जी ने इसरो प्रमुख डॉ. सिवान को गले लग ढाँढस बँधाया तो सबका मन भीतर तक भीग गया होगा. प्रायः मौन अभिव्यक्ति की ऐसी तस्वीर कम ही देखने को मिलती है. जब उदासी का घनघोर अँधेरा छाया हो तो एक ऐसी झप्पी संजीवनी बन महक़ उठती है. 

आक्रोश - हर बार की तरह इस बार भी मीडिया ने पहले से ही जय-जयकार शुरू कर दी. यहाँ तक कि अन्य देशों का उपहास उड़ाने से भी नहीं चूके! यही विश्व-कप के समय भी होता आया है. मीडिया का काम जानकारी देना है, आवश्यक सूचनाओं को जनमानस तक उसी रूप में पहुँचाना है, जैसी वे हैं.  लेकिन यहाँ तो हर बात को उछाल-उछालकर इतना बड़ा बना दिया जाता है कि हर तरफ यज्ञ-हवन, पाठपूजा का दौर प्रारम्भ हो जाता है. खुशियों की दीवाली मनाई जाने लगती है. आप घटना के पल-पल की खबर दीजिये पर परिणाम तक पहुँचने की जल्दबाज़ी मत कीजिये. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि तमाम अंधविश्वासों के बाद भी भले ही नतीज़ा सकारात्मक न आये पर पाखंडियों का व्यवसाय फिर भी जारी रहता है. इन पाखण्डों से मुक्ति का भी एक अभियान चलाया जाना चाहिए. 

उम्मीद मुझे तो अभी भी लग रहा कि एक दिन मेले में खोए हुए किसी बच्चे के मिलने की उद्घोषणा की तरह हमारे #ISRO के पास भी इस सन्देश के साथ सिग्नल आयेंगे कि "6 सितम्बर देर रात (7 की सुबह) चाँद की सबसे ऊँची पहाड़ी के पीछे रात के घुप्प अँधेरे में कोई प्रज्ञान बाबू टहलते पाए गए. उन्होंने पीले-कत्थई रंग की शर्ट और स्लेटी कलर के जूते पहन रखे हैं. पूछे जाने पर अपने पिता का नाम विक्रम और माँ पृथ्वी को बताते हैं. इनका अपने परिजनों से सम्पर्क टूट चुका है. जिस किसी का भी हो कृपया चाँदमहल के पास बनी पुलिस चौकी से आकर ले जाए. ये बच्चा कुछ भी खा-पी नहीं रहा है." 

देखना, एक दिन ये सम्पर्क जरूर होगा! सलाम, #इसरो ....हमें आप पर बेहद गर्व है!
- प्रीति 'अज्ञात'