यहाँ आपको कुछ जन की और कुछ मन की बातें मिलेंगीं। सबकी मुस्कान बनी रहे और हम किसी भी प्रकार की वैमनस्यता से दूर रह, एक स्वस्थ, सकारात्मक समाज के निर्माण में सहायक हों। बस इतना सा ख्वाब है!
बुधवार, 29 जुलाई 2020
'प्रेम' ऐसा तो नहीं हो सकता!
रविवार, 26 जुलाई 2020
#Sushant: किसी को शिद्दत से महसूस करने के लिए उसका तारा बनना ही जरुरी नहीं होता!
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जो घटित होते ही स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में दुःख के तमाम बीज रोप देती है. यहाँ सैकड़ों तस्वीरें पनपती और चहकती हैं और किसी चलचित्र की तरह हमें उन्हें मौन, स्थिर बैठकर जीना होता है.
जब तक व्यक्ति हमारे बीच होता है तब तक वह भीड़ का हिस्सा बना रहता है. चले जाने के बाद ही हमें उसकी अहमियत पता चलती है और वह विशिष्ट हो जाता है. सिने प्रेमियों के लिए सुशांत, भीड़ का हिस्सा तो नहीं थे. वे पहले भी ख़ास थे और आगे भी रहेंगे. दरअसल, हम दर्शक अपने हीरो को जिस रूप में परदे पर देखते हैं, वही छवि मन में भी बना लेते हैं. हमने कलाकारों को ऐसे ही स्थापित किया हुआ है. जहाँ नायक की हर अदा से हमें प्यार होता है और ख़लनायक से नफ़रत. हम सदा से सिनेमा को यूँ ही जीते आये हैं.
हम पेज थ्री को भले ही चटख़ारों के साथ पढ़ें पर कलाकारों की व्यक्तिगत ज़िंदग़ी से हमें कोई बहुत अधिक सरोकार तो नहीं ही होता है. हमारे अपने दुःख और व्यस्तता का बोझ हमें इतना सब सोचने की अनुमति भी नहीं देता.
आज जब 'दिल बेचारा' पर दर्शकों का टूट पड़ता अगाध स्नेह देख रही हूँ तो लगता है कि जैसे यह हम सबका प्रायश्चित है. यह पश्चाताप है उन दिनों का कि समय रहते हम सुशांत को ये क्यों न कह सके कि आपको कितना चाहते हैं हम!
मैनी चला गया! वह न केवल फ़िल्म के अंत में हम सबसे अलविदा कह देता है बल्कि असल ज़िंदग़ी में भी उसका हँसता, मुस्कुराता चेहरा, अब हमारे बीच कभी नहीं आएगा. हाँ, उसकी तस्वीरें और फ़िल्में उसकी स्मृतियों के पन्ने अक़्सर फडफ़ड़ाएंगी और उसे जीवित रखेंगी.
दुनिया बहुत विशाल है और थोड़े कम, थोड़े ज़्यादा रिश्तों की भरमार हम सबके पास है. कुछ लोग परिचित भर हैं, कुछ दिल के क़रीब और कुछ हमारा जीवन ही हैं. कई लोग ऐसे भी हैं जो हमारे कुछ नहीं लगते, पर हम उन्हें बेहद पसंद करते हैं. वो चाहे हमारे आसपास जुड़ा कोई चेहरा हो, हमारा पसंदीदा कलाकार या कोई भी.
चाहे वह कोरोना काल हो या किसी का अनायास ही चले जाना! यह समय हमें सिखा रहा है कि जिन्हें हम चाहते हैं हाथ बढ़ाकर उन्हें रोक लें. उन्हें कह दें कि "सुनो, तुम बहुत जरुरी हो मेरे लिए!"
'दिल बेचारा' का मैनी चला गया! पर हमने हमारे सुशांत को जाते हुए महसूस किया. उसको अलविदा कहते हुए देखा. उसके आँसुओं ने हमें भी भिगो दिया. ये जानते हुए भी कि अब वो पलटकर मुस्कुराएगा नहीं, उसे हम बस पुकार भर सकते हैं! उसके लौट आने की प्रतीक्षा व्यर्थ है. उसकी यादों को सहेज सकते हैं!
हम चाहें तो इस घटना से सबक़ लेकर, अब भी उन अपनों तक पहुँच सकते हैं जिन्हें हमने कभी कहा ही नहीं कि "यार! तुम बिन जी नहीं सकते!"
हम जानते हैं कि ‘दिल बेचारा’ कोई असाधारण फ़िल्म नहीं है. सुशांत की आख़िरी फ़िल्म होना, उसे ख़ास बना गया है. मैनी के रूप में सुशांत ने अपने चरित्र में जान फूंक दी है और उन्होंने अपनी भूमिका को शत-प्रतिशत अंजाम भी दिया है. आज सुशांत पर दर्शकों का अपार स्नेह उमड़ा है. हर कोई उसकी प्रशंसा में बिछा हुआ है. काश! सुशांत यह सब देख सकते!
सुशांत को श्रद्धांजलि देने का एक ही तरीक़ा है. हो सके तो हम सब बस इतना याद रखें कि किसी को शिद्दत से महसूस करने के लिए उसका तारा बनना ही जरुरी नहीं होता!
- प्रीति ‘अज्ञात’
शनिवार, 25 जुलाई 2020
#DilBecharaReview: तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा रहा!
दर्द का रिश्ता, टूटे हुए लोगों को जैसे जोड़ने का काम कर देता है! जब दो दिल प्रेम में हों तो एक-दूसरे की पसंद से भी बेतहाशा प्यार होने लगता है! यहाँ तक कि अज़ीबोग़रीब हरक़तें भी अच्छी लगने लगती हैं. गंभीर बीमारी के साथ भी कैसे खुलकर हँसा जाता है, जिया जाता है और लोगों को गले लगाया जा सकता है! छोटी-छोटी इच्छाओं का पूरा होना कितना सुख देता है! जीवन में एक दोस्त का होना कितना जरुरी है और सच्चा दोस्त कैसा होता है! 'दिल बेचारा' इन्हीं अहसासों के ताने-बाने से रची गई कोमल, मधुर अभिव्यक्ति के रूप में परदे पर साकार होती है.
'दिल' सुनते ही इश्क़ की घंटियाँ बजने लगती हैं. वह ऑर्गन जो हमारी धड़कनों को रवानी देता है. किसी नज़र के दीदार भर से कभी ठहरता तो कभी रफ्तार पकड़ लेता है, वह एक न एक दिन प्रेम के दरिया में डुबा ही देता है और फिर राजकुमार- राजकुमारी की कहानी बनती है.
इस फ़िल्म में निरर्थक क्रांतिकारी बातें नहीं हैं और न ही हाई वोल्टेज ड्रामा! बस, हमारी आपकी साधारण सी दुनिया और उसमें जानलेवा कैंसर के साथ मुस्कुराते हुए जीते रहने का प्रयास है. यहाँ नायक-नायिका दोनों, अपनी-अपनी लड़ाई लड़ते हुए भी एक दूसरे के सुख-दुःख में साथ खड़े होते हैं. साथ हँसते-साथ रोते हैं पर दुखियारे बनकर नहीं रहते. पुष्पिंदर के साथ (ऑक्सीजन सिलिंडर) रहते हुए भी क़िज़ी (संजना संघी) सहज है. वो दर्द समझती है और दूसरों का ग़म बाँटने की कोशिश करती है. एक जगह वो कहती है, "इनको गले लगाती हूँ तो लगता है, इनका ग़म बाँट रही हूँ....या अपना!" उसका अपने माता-पिता के साथ का रिश्ता भी बहुत प्यारा है. जब वो ये बोलती है कि "माँ को लगता है जैसे जादू के लिए धूप जरूरी है वैसे ही बंगाली के लिए सोन्देश", तो सबको अपनी-अपनी माँ का लाड़ याद आ जाता है. मैनुअल राजकुमार जूनियर उर्फ़ मैनी (सुशांत) को बेहद खुशमिज़ाज़ और ज़िंदादिल दिखाया गया है जो ख़ुद कैंसर से जूझते हुए, एक कृत्रिम पैर के साथ भी सबके जीवन में इंद्रधनुषी रंग भरने में लगा है.
फ़िल्म के कुछ संवाद याद रह जाते हैं-
"हीरो बनने के लिए पॉपुलर नहीं बनना पड़ता. वो सच मे हीरो होते हैं".
"कहते हैं, प्यार नींद की तरह होता है. धीरे-धीरे आता है फिर एकदम से आप उसमें खो जाते हो'.
"किसी का सपना पूरा होना, उस सिली की बात ही कुछ और है!"
फ़िल्म के अंत में मैनी (सुशांत) का गुज़र जाना भीतर तक उतर जाता है. यूँ तो फ़िल्मों के ऐसे दृश्य भावुक कर ही देते हैं पर इस बार जो आँसू गिरे, उनकी नमी लम्बे समय तक बनी रहेगी. यह दुःख फ़िल्म के नायक़ की मृत्यु से उपजा दुःख भर ही नहीं है बल्कि यह हम सबके प्रिय सुशांत के, इस फ़िल्म के साथ ही हमें अलविदा कह देने का भी है.
एक ओर तो यह दृश्य आपको याद दिलाता है कि हमारा सुशांत चला गया, वहीं दूसरी ओर मन सांत्वना देने का प्रयास भी करता है कि वो गया कहाँ! वो तो अब भी है, हम सबके बीच, अपनी फ़िल्मों के माध्यम से.
किसी भी प्रेम कहानी से ये उम्मीद जोड़ लेना कि उसमें कुछ नयापन होगा, अति आशावादी होना ही माना जायेगा. लेकिन इसके बावज़ूद भी 'प्रेम फ़ॉर्मूला' प्रायः हिट हो जाता है. 'दिल बेचारा' की थीम कुछ-कुछ 'आनंद' और 'कल हो न हो' से मिलती अवश्य है पर इसकी पटकथा में वो कसावट नहीं है कि उतना गहरा असर छोड़ सके! इधर रहमान के नाम से ही हम सबकी अपेक्षाएँ ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती हैं. उनके गीतों की विशेषता ही है कि वे धीमे-धीमे असर करते हुए गहरे पैठ जाते हैं लेकिन इस फ़िल्म को लेकर इतना आशान्वित नहीं हुआ जा सकता! यूँ फ़िल्म की कहानी में गीत अच्छे से रच-बस गए हैं, हम साथ में थोड़ा गुनगुना भी लेते हैं लेकिन बस, बात यहीं पर ही ख़त्म भी हो जाती है. हाँ, 'तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा' गीत को पूरा सुनने की ललक नायिका के साथ ही, दर्शकों के मन में भी बढ़ जाती है.
संजना संघी को देखकर यह क़तई नहीं लगता कि यह उनकी पहली फ़िल्म है. ख़ूबसूरत तो वे हैं ही, पर आत्मविश्वास से भरपूर उनका अभिनय भी देखने लायक़ है. सुशांत का तो कहना ही क्या! हर बार की तरह इस रोल को भी उन्होंने जी लिया है जैसे. उनके दोस्त जेपी यानी जगदीश पांडे की भूमिका में साहिल वैद भी ख़ूब जँचे हैं. अभिमन्यु वीर सिंह के छोटे से रोल में सैफ़ अली ख़ान प्रभावी रहे हैं. शेष कलाकारों का अभिनय भी ठीकठाक है. निश्चित रूप से यह कोई क्लासिक फ़िल्म नहीं है लेकिन फिर भी ऐसा महसूस हुआ कि थोड़ी लम्बी होती तो बेहतर था. इसे सुशांत के लिए ज़रूर देखा जाना चाहिए.
सुशांत के प्रशंसकों को अपने इस हीरो के खिलंदड़पन को याद रखना है, उसकी शैतानियों को सोच मुस्कुराना है और सौ दुःख-दर्दों से गुजरते हुए, जीवन कैसे जिया जाता है; यह सीख लेनी है. सुशांत के लिए यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
"तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारा रहा
मेरे चंदा! मैं तुम्हारा सितारा रहा"
ये गीत सुनकर यूँ लगता है जैसे जाते-जाते सुशांत अपने दिल की बात कह रहे हों.
- प्रीति 'अज्ञात'
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बुधवार, 22 जुलाई 2020
#भारत TikTok जैसे कामयाब ऐप्स क्यों नहीं बना पाता? जानिए...
इंस्टाग्राम, टिकटॉक और व्हाट्सएप की सफ़लता का राज़ क्या है?
यूज़र्स को आकर्षित करने के लिए जरुरी है कि नए apps बनाने वाली कम्पनीज़ ग्राहकों की आवश्यकताओं को समझें. उन्हें कुछ ऐसा दें जिसकी वे ज़रूरत महसूस कर रहे हों. आख़िर लोगों का दिमाग़ कैसे पढ़ा जाता है? कैसे आकर्षित होता है यूज़र? जब किसी एप के पॉपुलर होने की बात की जाती है तो इसमें तीन बातें प्रमुख होती हैं.
1.एप डेवलॅपमेंट- एप, यूज़र्स की आवश्यकताओं को तो पूरा कर ही रहा हो, साथ ही यूज़र फ़्रेंडली भी हो. उसका स्मूथ एक्सपीरिएंस हो. जैसे व्हाट्सएप चलता है पर उसके जैसे अन्य मैसेजिंग एप उतना नहीं चलते. एप्स को लगातार अपडेट भी करते रहना चाहिए. इससे खामियां दूर होती हैं. कोई भी बड़ी कम्पनी इसे आसानी से कर लेती है.
2.थीम - यदि किसी एक विषय को केंद्र में रखकर एप बनाया जाए तो वह अधिक सफ़ल होता है. जैसे टिकटॉक वीडियो क्रिएशन और इंस्टाग्राम मुख्यतः फोटो के लिए बनाए गए हैं. पॉपुलर एप प्रायः किसी एक विशेष थीम को लेकर ही सफ़लता की पायदान चढ़ते हैं.
3.प्रॉपर मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग- एप बनाना तो फ़िर भी आसान है लेकिन इसे हरेक तक पहुंचाना बहुत कठिन है. बड़ी कम्पनी यहां जीत जाती हैं. वे एक छोटे से प्रोडक्ट को भी अच्छे से प्रमोट करती हैं. पॉपुलर भारतीय ऐप्स की संख्या बहुत कम है. जैसे शिक्षा के क्षेत्र में देखें तो BYJU's का बहुत नाम है. इसका विज्ञापन आपको हर जगह सोशल मीडिया, टीवी, अख़बार में देखने को मिल जाएगा. आप किसी बच्चे से भी एजुकेशन एप का नाम पूछें तो वह तुरंत शाहरुख़ ख़ान को याद करते हुए BYJU's का नाम ले लेगा. सारा खेल मार्केटिंग का है. इसकी फंडिंग फेसबुक भी करता है.
क्यों मात खा जाते हैं भारतीय एप?
एप बनाना और प्रमोट करना दो अलग बातें हैं. आम आदमी इसे बना सकता है लेकिन प्रमोशन का पैसा कहां से आएगा? अधिकांश भारतीय ऐप्स यहीं मात खा जाते हैं. बड़ी कम्पनी के पास अच्छा खासा बजट होता है. यदि स्टार्टअप या किसी डेवलपर ने उसको बनाया है तो उसे कोई फंडिंग तो मिले. कुल मिलाकर बात यह है कि जितने बड़े स्पांसर्स हों, उतनी ही अच्छी टीम बन जाती है. ख़र्चा बढ़ा दिया जाता है. कंटेंट राइटर भी बिठा दिए जाते हैं. अच्छा विज्ञापन तैयार किया जाता है.
इमरान कहते हैं, 'इंडियन सक्षम नहीं हैं, यह बात मैं नहीं मानता. दुनिया भर की बड़ी-बड़ी कंपनियों में भारतीय ही ये सब बना रहे हैं. दुखद है कि हमारे देश में हमारे ही लोगों की प्रतिभा की उतनी क़द्र नहीं होती. मैं तो फिर भी भाग्यशाली हूं कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने वेम्बली स्टेडियम में मेरा जिक्र किया. यूं उसके बाद भी सब कुछ अपने स्तर पर ही करना होता है. जब सरकार को किसी एप की जरुरत होती है तो अधिकारी मुझसे संपर्क करते हैं.
मैं बिना सरकारी सपोर्ट के, अपने रिसोर्सेज से उन्हें बनाकर दे देता हूं. मुझे ये कार्य करना ख़ुशी देता है. अच्छा लगता है. इसे देश सेवा ही समझिये'.
हम भारतीयों को साइबर सुरक्षा (security) के बारे में जानना और समझना भी आवश्यक है.
कॉन्टेक्ट, गैलरी, लोकेशन और अन्य कई व्यक्तिगत जानकारियां एप के माध्यम से ले ली जाती हैं. ये विवरण टिकटॉक या केवल चाइनीज़ एप ही नहीं, बल्कि सभी लेते हैं. चूंकि हमारे देश के 95 % यूज़र्स को साइबर सिक्योरिटी की जानकारी नहीं है. अतः वे सब ओके करते चले जाते हैं और उन्हें अपनी व्यक्तिगत जानकारी तक पहुंचने की अनुमति दे देते हैं. परिणामस्वरूप वे हैकिंग का शिकार हो जाते हैं.
एप्स के मामले में सरकारी हस्तक्षेप कितना होता है?
नियम और दिशा-निर्देश तो सभी कम्पनीज़ फॉलो करती हैं. उसके बाद ही कोई एप बाज़ार में उतारा जाता है. यदि कहीं कोई गड़बड़ी है, तब भी सरकार तभी ही एक्शन ले सकती है जब शिक़ायत होती है. जैसे ज़ूम को लेकर कुछ लोगों ने प्राइवेसी इशू उठाया था, हैकिंग की रिस्क भी कही गई थी. भले ही वो पूरा सच नहीं था. लेकिन ऐसी किसी भी शिक़ायत की पूरी जांच होती है और आवश्यकतानुसार कार्यवाही की जाती है.
टिकटॉक तो पहले भी था लेकिन जब भारत-चीन के बीच तनाव हुआ तो इसका विरोध जोर पकड़ने लगा. सामान्य तौर पर सरकार अगर प्रमोट नहीं करती तो डिमोट भी नहीं करती। जिसका जैसा चल रहा है, चलता है.
प्रतिस्पर्द्धा का खेल
हर क्षेत्र की तरह यहां भी प्रतिस्पर्द्धा एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं. जैसे ज़ूम में इतनी परेशानी थी नहीं, जितना दिखाया गया. बड़ी बड़ी कम्पनीज़ आज भी इसे इस्तेमाल कर रही हैं. हुआ यह कि जैसे ही कोरोना महामारी आई और लोगों के पास परस्पर संपर्क का कोई साधन न रहा तो ज़ूम बहुत तेजी से पॉपुलर हुआ. देखते ही देखते इसके यूज़र्स की संख्या बढ़ती चली गई.
जहां तक 'JIO' की बात है तो फ़िलहाल यह कॉपी के अलावा और कुछ भी नहीं, उस क्वालिटी का भी नहीं. हां, इस बात पर खुश हुआ जा सकता है कि कोई भारतीय एप बाज़ार में उतरा तो सही. लगातार अपडेट से इसमें भी सुधार आएगा, इसकी उम्मीद रखी जा सकती है.
टिकटॉक बंद करने के लिए भारत-चीन तनाव की जरुरत नहीं थी.
यह सच है कि टिकटॉक स्टार लाखों कमाते थे. इससे यदि किसी की प्रतिभा उभर कर आई तो वो हैं हमारे गांव के कलाकार. लेकिन इसके अतिरिक्त इस एप का कोई भी प्लस पॉइंट नहीं था. इमरान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि टिकटॉक बंद करने के लिए भारत-चीन तनाव की जरुरत नहीं थी. इसे तो बहुत पहले ही बंद कर देना चाहिए था. इसने युवाओं का फ़ायदे से अधिक नुकसान ही किया है. दसवीं और बारहवीं के बच्चों का समय बहुत क़ीमती होता है. टिकटॉक ने उसे बर्बाद कर दिया.
अफ़सोसजनक भाव के साथ वे आगे कहते हैं कि भारत की बर्बादी की अगर कभी कोई कहानी लिखी जाएगी तो उसके तीन कारण होंगे - क्रिकेट, सोशल मीडिया और थर्ड क्लास पॉलिटिक्स. गांव, गली में हर जगह पचासों बच्चे क्रिकेट खेलते मिल जाएंगे पर ये कबड्डी नहीं खेल सकते हैं. इनके शरीर ही इतने मज़बूत नहीं. सब ग्लैमर की तरफ़ भागते हैं. इधर सोशल मीडिया ने भी सभी सीमाओं को लांघ दिया है. सेंसरशिप कहीं है ही नहीं. वेबसीरीज़ की हालत तो इससे भी बदतर है. गंदी राजनीति तो हम सब देख ही रहे हैं.
(अलवर निवासी इमरान ख़ान, वेब डेवलॅपर एवं एप गुरु हैं. उन्होंने 80 शैक्षिक मोबाइल अनुप्रयोग (Mobile Apps) और सौ से अधिक वेबसाइट विकसित की हैं जिनका प्रयोग निःशुल्क है. वे नवंबर 2015 से तब चर्चा में आए, जब वेम्बली स्टेडियम, लंदन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अपने भाषण में उनका उल्लेख किया. उन्होंने कहा था कि 'मेरा भारत, अलवर के इमरान खान में बसता है'. हाल ही में उन्होंने मॉरीशस सरकार के अनुरोध पर वहां के बच्चों के लिए एजुकेशनल एप बनाया है, जिसे वहां के प्रधानमंत्री लॉन्च करेंगे.)
-प्रीति 'अज्ञात'
शुक्रवार, 17 जुलाई 2020
#World Emoji Day: जब शब्दों की जेब ख़ाली हो, तब इमोजी का बड़ा सहारा है!
गुरुवार, 16 जुलाई 2020
वो दामाद है, असुर नहीं!
सोमवार, 13 जुलाई 2020
विवाह का बैतूल मॉडल
शर्मनाक! अमिताभ के साथ रेखा को जोड़कर छिछोरे comments करने वाले भी बीमार हैं
एक ओर जहाँ पूरा देश अमिताभ बच्चन के कोरोना संक्रमित होने से स्तब्ध है. देश-दुनिया भर में उनके करोड़ों प्रशंसक उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की दुआएं माँग रहे हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इस समय भी मसख़री सूझ रही है. मसख़री भी नहीं बल्कि ये ख़ालिस बदतमीज़ी ही है.
ठीक है, रेखा और अमिताभ का कभी एक पास्ट रहा भी होगा तो इसका यह मतलब तो क़तई नहीं कि आप जब जी चाहें, उनका जीना हराम कर दें! हद है! इस संवेदनशील समय में भी इधर-उधर का जोड़-तोड़, सच्ची मोहब्बत के नाम पर इन दोनों कलाकारों के लिए घटिया पोस्ट रची जा रही है. क्या हम भारतीयों की रचनात्मकता (creativity) का स्तर इतना गिर चुका है कि हम बीमारी में भी मज़े लूटना नहीं छोड़ पा रहे! हो क्या गया है, समाज को?
मुझे नहीं याद पड़ता कि किसी भी बड़े नेता या फ़िल्म स्टार के सुरक्षाकर्मी (Security Guard) के कोरोना पॉजिटिव होने की ख़बर इतने जोर-शोर से दिखाई गई हो, जितना कि रेखा के बंगले की बात हुई. चलिए, ख़बर देना भी सही! पर उसके मिलते ही यूँ उछल पड़ना जैसे लॉटरी निकल गई हो; कहाँ तक तर्कसंगत है? आख़िर लोगों की मानसिकता किस हद तक नीचे गिरेगी?
फेसबुक, ट्विटर पर कुछेक को छोड़ दिया जाए तो वहां संवेदना भरे लाखों संदेशों की बाढ़ आई हुई है लेकिन व्हाट्स ऐप्प यूनिवर्सिटी का एक अलग ही शास्त्र है. यहाँ केवल मखौल उड़ाती या सस्ती भाषा से भरी पोस्ट ही फॉरवर्ड की जा रहीं हैं.
एक लिखता है, "इसी को मोहब्बत कहते हैं प्यारेलाल जी कि कोरोना सिकंदर को हो और बंगला ज़ोहराबाई का सील कर दिया जाए!"
दूसरे ने तो आला दर्ज़े का काव्य ही रच दिया, "मोहब्बत की मिसाल देगा सदियों तक ज़माना, कोरोना अमिताभ को और बंगला रेखा का सील हो जाना."
इनके लिए मोहब्बत न हुई मज़ाक हो गई कि जब चाहे कर लो! ये तो बानगी भर है. अग़र सारी पढ़ें तो किसी का भी खून खौल जाए.
हम जानते हैं कि अमिताभ ही नहीं बल्कि अभिषेक, ऐश्वर्या और उनकी बेटी आराध्या भी कोरोना से संक्रमित हैं. इस कठिन समय में भी जब बॉलीवुड के सबसे प्रतिष्ठित परिवार को लेकर लोग अपना छिछोरापन नहीं छोड़ पा रहे हैं तो आम जनता के दुःख में इनकी घड़ियाली संवेदनाओं का अनुमान आप स्वयं लगा लीजिए!
इन्हें बच्चन परिवार के साथ और इस महामारी में खिलंदड़पन सूझ रहा है तो ये अपने आस-पड़ोस के लोगों के संक्रमित हो जाने पर न जाने उन्हें किन नज़रों से देखते होंगे? कैसा बर्ताव करते होंगे?
कुछ को तो इस बात से भी पेट में मरोड़ उठ रही कि इतने लोगों को कोरोना हुआ तो बच्चन परिवार के मामले को ही क्यों तूल दी जा रही?
मने कमाल है! हिन्दी सिनेमा का महानायक जिसने अपने जीवन के पचास वर्ष इस इंडस्ट्री को दिए, आप सबका मनोरंजन किया, अपनी संघर्ष और सफ़लता की कहानी से न जाने कितने युवाओं को प्रेरणा दी, उनमें जोश भरा! तमाम सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ है. आज उसकी न्यूज़ से आपको दिक़्क़त होने लगी?
क्या बच्चन परिवार की न्यूज़ दिखाने से शेष संक्रमितों के प्रति संवेदनशीलता कम हो जाती है? यदि किसी सितारे के चाहने वालों को उसकी फ़िक्र है तो इसमें आपको ग़लत क्या लग रहा? क्या आप उसकी चिंता नहीं करते जो आपका प्रिय है? हाँ, अमिताभ बच्चन ख़ास हैं, सदैव रहेंगे.
कोरोना काल में लगने लगा था कि अब इंसान की सोच थोड़ी बेहतर होगी, मन शायद निर्मल होने लगेगा, हृदय कुछ और संवेदनशील होगा, इंसानों और भावनाओं की क़द्र होने लगेगी पर यहाँ तो हर तरफ़ समाज का दोहरा, भद्दा और वीभत्स चेहरा ही नज़र आ रहा है!
- प्रीति 'अज्ञात'
#Amitabh_bachchan #BigB #Angry_Young_Man #Covid19 #coronavirus #iChowk
रविवार, 12 जुलाई 2020
मेरे लिए तो A फॉर अमिताभ ही है
चम्बल का इलाक़ा था और छोटा शहर. प्रायः नई फ़िल्में यहाँ उसी दिन देखने को नहीं मिलती थीं. कुल तीन सिनेमा हॉल थे, बाद में एक और बन गया था. दो ही तरह की फ़िल्में यहाँ ख़ूब चलतीं. या तो डकैतों पर बनी हों या अमिताभ की हों. कुल मिलाकर मेरे शहर भिंड का एक्शन से भरपूर सम्बन्ध था तो ऐसे में सबको मुँहतोड़ जवाब देने वाला 'विजय' हमेशा ही भाता रहा. अन्य किसी भी तरह की फ़िल्म कब आती और कब उतर जाती, पता भी नहीं चलता था. ये अपने भिया अमिताभ का ही जादू ऐसा था कि हमेशा सबके सिर चढ़कर बोलता. उनकी फ़िल्में हफ़्तों चलतीं, कभी-कभी महीनों भी. टिकट-खिड़की पर धक्का-मुक्की, मारामारी यहाँ तक कि ब्लैक में भी टिकटें बिका करतीं. अब चूँकि ये अमिताभ बच्चन हैं तो लोग खड़े होकर भी इनकी फ़िल्में देखने को तैयार रहते क्योंकि जहाँ ये खड़े होते हैं, लाइन तो वहीं से शुरू होती है. आपको बता दूँ, उन दिनों शो हॉउस फुल होने के बाद अतिरिक्त कुर्सियाँ और बेंच लगा दी जाती थी. जब ये बेंचें भी भर जाया करती थीं, तब लोग खड़े होकर भी अपने नायक की एक झलक पाने को तत्पर रहते थे. इधर अपने अमिताभ की एंट्री हुई, उधर तालियों और सीटियों से हॉल गूँजने लगता और ख़लनायक (Villain) की पिटाई के दौरान तो जो सिक्के उछाले जाते कि पूछिए मत! ये जज़्बा जो अमित जी के लिए उमड़ता रहा न, वो मैंने कभी किसी के लिए नहीं देखा. अजी, तब तो लोग पागल हो जाते थे. अभी मल्टीप्लैक्स में फ़िल्में देखने का वो मज़ा नहीं है और इस तरह का पागलपन भी जरा कम ही देखने को मिलता है. पागलपन नहीं, दीवानगी ही समझिये इसको. पर भैया, अब जो है सो है. उनके जैसा हेयर स्टाइल, बैलबॉटम, चलने का अंदाज़ सब कुछ कॉपी किया जाता. उनके संवाद बच्चे-बच्चे को याद रहते और नृत्य की अनोखी शैली से तो हम सब परिचित हैं ही.
अपना ये हीरो ग़र अख़बार भी पढ़े न तो अपन तो आवाज़ सुन ही होश खो बैठें. ये हीरो जब बोलता है तो आवाज़ सीधे दिल की घाटी में उतर जाया करती है, जब हँसता-हँसाता तो मैं भी उसके साथ और बाद में भी घंटों हँसती, वो उदास होता या उसका दिल टूटता तो मुझे बेहद गुस्सा आता. यूँ लगता कि नहीं यार! मेरे लंबू को कुछ नहीं होना चाहिए. उसके ग़म में मैं भी जार-जार रोती. ये वही हीरो है जिसने मुझे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने और डटे रहने की प्रेरणा दी. जो हर मुसीबत से निकल पाने की सीख देता रहा, जिसने हर ज़ुल्म का प्रतिरोध किया. क्या करें, तब फिल्मों का असर इतना गहरा ही होता था, असल ज़िंदग़ी से जुदा नहीं लगा करती थीं. मनोरंजन का एकमात्र साधन यही था जिसने तमाम युवाओं के मन में सपनों के हजार बीज बो दिए थे. मेरे हृदय में भी 'हीरो' की छवि में एक साँवला, लंबा और गहरी आँखों वाला युवक उभरने लगा था. मैं उनकी तस्वीरें भी जमा करती थी और उनसे जुड़ी ख़बर पाने के लिए ही अख़बार पलटा करती. आलम ये था कि कोई उनके विरुद्ध एक शब्द भी कह दे तो अपन उससे सीधा भिड़ जाते. अमिताभ के लिए कुछ भी गलत सुनना न तो तब ग़वारा था और न अब है. आगे भी नहीं होगा.
अमिताभ की फ़िल्में ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व और जीवन से भी बहुत पाठ लिए जा सकते हैं. उन्होंने ही सिखाया कि संघर्षों से कैसे जीता जा सकता है, मुश्क़िल समय में मन नहीं हारना है और ये वक़्त भी गुज़र जाएगा. उनकी भाषा, बोलने का सलीक़ा और विनम्रता देख लोग सभ्यता का पाठ समझते हैं. उनका मौन भी मुखर होता है. वे हर पीढ़ी के आदर्श रहे. अपने बाबूजी के ये प्रेरणास्पद शब्द वो अक़्सर कहते हैं -
"तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ'
ये शब्द जब अमिताभ की आवाज़ पा जाते हैं तो तन-मन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार कर देते हैं.
हिन्दी सिनेमा का महानायक और दादा साहब फ़ालके पुरस्कार प्राप्त यह अभिनेता अपने आप में एक संस्थान है. एक युग है. अमिताभ, अभिनय की वो पाठशाला हैं जो अपने जीवन के पचास से भी अधिक वर्ष सिनेमा को समर्पित कर इसे समृद्ध करते रहे हैं और टीवी पर भी अपना जलवा ख़ूब बिखेरा है. अब भी बिखेर रहे हैं और हम सब को केबीसी के नए सीज़न का बेताबी से इंतज़ार भी है. अमिताभ सा दूजा न कोई हुआ है, न होगा. पक्का यक़ीन है कि मुसीबतों को मात देने वाला हमारा 'विजय' इस बार भी शीघ्र ही घर लौटेगा.
याद है अमित जी, बाबूजी ने एक अनुवादित कविता में क्या कहा था? पढ़िए तो जरा -
अभी कहाँ आराम बदा
यह मूक निमंत्रण छलना हैं,
अरे अभी तो मीलों तुमको,
मीलों तुमको चलना है.
स्वस्थ होकर घर आइए. हम सबको केबीसी और आपकी आने वाली फ़िल्मों की प्रतीक्षा है. लेकिन उससे भी पहले आपके और अभिषेक के स्वस्थ होने की ख़ुशी में जलसा भी तो करना है न!
देश भर का अपार स्नेह और सारी प्रार्थनाएं आपके नाम.
- प्रीति 'अज्ञात'
मंगलवार, 7 जुलाई 2020
प्रेम को जीना इसे कहते हैं!
प्रेम की कोई एक स्थायी परिभाषा कभी बनी ही नहीं। यह संभवतः चंद मख़मली शब्दों में लिपटी गुदगुदाती, नर्म कोमल अनुभूति है। आँखों के समंदर में डूबती कश्ती की गुनगुनाती पतवार है। एकाकी उदास रातों में अनगिनत तारे गिनती, स्मृतियों के ऊँचे पहाड़ों के पीछे डूबती साँझ है। प्रसन्नता के छलकते मोती हैं या फूलों में बसी सुगंध है। अनायास उभर चेहरे को लालिमा की चादर ओढ़ाती मधुर मुस्कान है।
हम सबके जीवन में कोई न कोई ऐसा इंसान अवश्य ही होता है जिससे अपार स्नेह हो जाता है, दिल उसे हमेशा प्रसन्न देखना चाहता है और हर दुआ में उसका नाम ख़ुद-ब-ख़ुद शामिल होता जाता है। यद्यपि यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि उस इंसान की भावनाएँ भी आपके प्रति ठीक ऐसी ही हों। ऐसा होना अपेक्षित भी नहीं होता है, फिर भी कुछ बातें गहरे बैठ जाती हैं। दुःख देती हैं लेकिन धड़कनें तब भी हर हाल में उसी लय पर थिरकती हैं। उसकी तस्वीर को घंटों निहार कभी ख़ुशी तो कभी निराशा के गहरे कुएँ की तलहटी तक उतर जाती हैं। यह सारी जादूगरी प्रेम की ही देन है।
क्या पल भर की मुलाक़ात, चंद बातें और एक प्यारी-सी हँसी भी प्रेम की परिभाषा हो सकती है? होती ही होगी...वरना कोई इतने बरस, किसी के नाम यूँ ही नहीं कर देता! आप इसे इश्क़/मोहब्बत/प्यार /प्रेम या कोई भी नाम क्यों न दे दें, इसका अहसास वही सर्दियों की कोहरे भरी सुबह की तरह गुलाबी ही रहेगा। इसकी महक जीवन के तमाम झंझावातों, तनावों और दुखों के बीच भी जीने की वज़ह दे जाएगी।
प्रत्येक प्रेम कहानी का प्रारंभ प्रायः एक सा ही होता है। भीड़ के बीच दो क़िरदार मिलते हैं, कभी कहानी बनती है तो कभी बनते-बनते रह जाती है। सारा खेल कह देने और न कहने के मध्य तय होता है। जीवन की दौड़ और समय के बहाव में कोई एक क़िरदार इतना आगे निकल जाता है कि पलटकर आता ही नहीं और एक मौन कहानी ठिठककर, सकुचाई-सी वहीं खड़ी रह जाती है। उसके बाद की गाथा समाज तय करता है, 'दुखांत', 'सुखांत' या 'एकांत'!
इन दिनों सोशल मीडिया और इस पर फलते-फूलते आभासी प्रेम की सैकड़ों कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं। पानी के बुलबुले-सा जीवन जीती ये तथाकथित प्रेम कहानियाँ लाइक, कमेंट, इनबॉक्स से होती हुई देह तक पहुँचती हैं और कुछ ही माह पश्चात् आरोप-प्रत्यारोप, स्क्रीन शॉट और ब्लॉक की गलियों में जाकर बेसुध दम तोड़ देती है। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अंतरजाल की दुनिया ने रिश्तों को जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का कार्य अधिक किया है। लेकिन यह भी चिरकालिक सत्य है कि सच्चे प्रेम को कोई डिगा नहीं सकता! इन्हीं ख़्यालों से गुजरते हुए मैं एक ऐसे ही उपन्यास 'यू एन्ड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ़ लव' से रूबरू होती हूँ तो यही सोशल मीडिया ईश्वर के दिए किसी वरदान सरीख़ा प्रतीत होता है।
पैंतालीस वर्षों के दीर्घ अंतराल के बाद सोशल मीडिया की इसी आभासी दुनिया में इस उपन्यास के लेखक युग्म मल्लिका और अश्विन का मिलना, किसी खोए हुए स्वप्न को खुली आँखों में भर लेने जैसा है। वो अनकही प्रेम-कहानी, जो अपने समय में जी ही न जा सकी; जब पुरानी स्मृतियों के पृष्ठ पलटती है तो सृष्टि के सब से सुन्दर और सुगंधित पुष्प आपकी झोली में आ गिरते हैं। इनकी महक़ और भावुकता में डूबा हृदय दुआओं से भर उठता है और प्रेम के सर्वोत्कृष्ट रूप से आपका मधुर साक्षात्कार होता है।
यह प्रेम कहानी भी बनते बनते, एक अंतहीन प्रतीक्षा की चौखट पर उम्र भर बाट जोहती अधूरी ही रह जाती है। लेकिन जीवन तब भी उसी निर्बाध गति से चलायमान रहता है। जब कहीं रिक्त स्थान छूट जाता है या छोड़ दिया जाता है तो उम्मीद की सबसे सुनहरी किरण ठीक वहीं से प्रस्फुटित होती है तभी तो एक दिन अचानक वो बचा, छूटा हुआ हिस्सा ही सौभाग्य का चेहरा बन नायिका के मन के द्वार को कुछ इस तरह से खटखटाता है कि उस की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता! यही प्रेम की वह उत्कृष्टतम अवस्था है, जहाँ प्रिय से अपने हृदय की बात कह पाना और उसकी स्वीकारोक्ति ही सर्वाधिक मायने रखती है। यहाँ न मिलन की कोई अपेक्षा है और न ही समाज का भय। आँसू से भीगे मन और खोई हुई चेतना है! वो प्रेम जो दर्द बनकर वर्षों से नायिका के सीने में घुमड़ रहा था, उसकी अभिव्यक्ति अपने प्रिय के समक्ष कर देना ही सारी पीड़ा को पल भर में हर लेता है। उसके बाद जो नर्म अहसास शेष रहता है, वही प्रेम का चरम सुख है।
कहते हैं, जो पा ही लिया तो प्रेम क्या और उसकी चर्चा क्या? प्राप्य के बाद कुछ भी सम्भाव्य शेष नहीं रहता। प्रेम की महत्ता पाने से कहीं अधिक उसे खोकर जीने में है। अश्विन और मल्लिका की प्रेम गाथा को पढ़ते हुए इन्हीं गहन सुखद अनुभूतियों से पाठक का साक्षात्कार होता है। यह उपन्यास प्रेम पर टिके हर विश्वास को और गहरा करता है साथ ही इस बात की पुष्टि करने से भी नहीं चूकता कि सच्चा प्रेम कभी नहीं हारता, बल्कि शाश्वतता की ओर बढ़ता चला जाता है!
यह उपन्यास समाज के उस कुरूप चेहरे को भी बेपर्दा करता है जहाँ खोखली परम्परा और मान्यता के नाम पर बनाए खाँचे में फिट होने पर ही किसी रिश्ते को सर्वमान्य किया जाता है। साधारण रंगरूप की नायिका, नायक से अथाह प्रेम करने के बाद भी उससे अपने दिल की बात यह सोचकर नहीं कह पाती कि भला इतना सुदर्शन युवक उसकी प्रेमपाती क्यों पढ़ेगा? फिर समाज ने तो धर्म के चश्मे से ही दिलों को परखा है धड्कनों को गिनना तो वह आज तक नहीं सीख पाया! आज से पैंतालीस वर्ष पहले इस किशोरी नायिका का यह भय स्वाभाविक ही था कि हिन्दू लड़की और ईसाई युवक का सम्बन्ध यह रूढ़िवादी समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। वो एक तरफ़ा प्रेम करती रही, इधर नायक भी अत्यधिक संकोची एवं अंतर्मुखी होने के कारण न तो उस किशोरी के हृदय की तरंगों को सुन पाया और न ही उससे दोस्ती का हाथ बढ़ा पाया।
परिवार के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पूर्ण एवं बेहतरीन तरीके से निर्वहन करते हुए भी कथा नायिका चार दशकों से भी ज्यादा समय तक न केवल उसकी स्मृतियों को जीवंत बनाए रखती है अपितु उससे जुड़ी तमाम तस्वीरें भी अपने पास सुरक्षित रख पाती है। फिर एक दिन अपने कॉलेज काल के प्रिय साथी को सोशल मीडिया पर ढूँढ निकालती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ जब उसकी दुनिया में प्रवेश करती है, हजारों मील दूर बसा नायक खुले दिल से अपनी गलतियों को स्वीकार करते हुए संवाद के जरिये विस्थापन की पीड़ा, अपने समस्त दुःख एवं अस्वस्थता भुला, खुलकर बातें करता है। अपने खोए हुए शौक़ को जीवंत करते हुए संगीत, शेरो-शायरी के बीच अपनी आपबीती कहता है। लोग सही कहते हैं कि यदि आपके साथ एक भी इंसान ऐसा है, जिससे आप अपने सारे दुःख-सुख साझा कर सकते हैं तो आपका जीवन सार्थक है। दिल से जुड़े हुए लोग परस्पर दर्द जैसे सोख लेते हैं।
प्रेम के बीज से अंकुरित इस उपन्यास को प्रेम कहानी भर कह देना इसके साथ अन्याय होगा क्योंकि यह कई सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। यह धर्म के नाम पर उठाई गईं दीवारों को तोड़ देने की बात करता है। नई पीढ़ी के युवाओं को महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना बनाए रखने का अनुरोध करता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था पर भी कई गहन संवाद करता है। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को लेकर हमारे समाज में जो भ्रांतियाँ स्थापित की गईं हैं, यह उपन्यास उन पर भी करारा प्रहार करता है। पैसे कमाने के लालच में कई बार विदेश जाने वाले लोगों को किस-किस तरह की परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है और उनका जीवन किस दुश्चक्र में फँस जाता है कि उनसे न आते बनता है, न वहाँ रहते; यह अमीरी के उस भ्रामक मापदंड की भी स्पष्ट और सटीक विवेचना करता है। अपने वतन से बिछड़ने का दर्द भी जाहिर करता है।
अपने-अपने जीवनसाथी से रिश्तों की मजबूती निभाते हुए, अपने परिवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पित होते हुए भी मल्लिका जी और अश्विन जी ने अपने-अपने जीवन की सच्ची दास्तान लिखने का जो साहस दर्शाया है, आप उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। कथा नायक अश्विन और उसकी पत्नी के रिश्ते को भी बहुत सुन्दर तरीके से बताया गया है कि करीब चार साल तक विवश हो अलग रहने और तमाम कठिनाइयों का सामना करने के बाद अंततः वह अपनी पत्नी और बेटी के पास अमेरिका पहुँच ही जाता है। ठीक उसी तरह कथा नायिका मल्लिका भी एक सहपाठी के साथ दोस्ती और प्रेम की भूलभुलैया में उलझकर चरम मानसिक संघर्ष से गुजरती है तभी एक अत्यधिक सुलझा हुआ, संवेदनशील एवं समझदार इंसान उसे जीवनसाथी के रूप में मिल जाता है, जिससे वह अपने दिल की सारी बातें बेझिझक साझा कर सकती है।
मुझे पूरा विश्वास है कि चैट पर आधारित यह उपन्यास प्रेम के शाश्वत रूप को और भी गहराई से स्थापित करेगा तथा पाठकों तक यह सन्देश भी पहुँचायेगा कि जब किसी से प्रेम हो तो उस पक्ष को अपनी बात निस्संकोच कह ही देना चाहिए। अधिक से अधिक क्या होगा? ‘न’ हो सकता है और क्या? पर प्रणय निवेदन न कर पाने का उम्र भर दुःख मनाने से कहीं श्रेष्ठ है उसे कह देने की प्रसन्नता पाना।
थोथी इज़्ज़त के नाम पर घृणा और हिंसा में डूबते समाज में ढाई आख़र के प्रेम की यह गाथा शीतल बयार की तरह है। इन गाथाओं का जीवित रहना और बार-बार कहे जाना नितांत आवश्यक है कि मानवीय संवेदनाओं का मान बना रहे और प्रेम को उसकी शाश्वतता के कारण चिरकाल तक बिसराया न जा सके।
स्थल और काल से परे, प्रेम को परिभाषित करती इस उपन्यास की कहानी, वर्तमान पीढ़ी के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व थी। युवाओं को यह भी सीखने को मिलेगा कि देह से इतर प्रेम कितना ख़ूबसूरत और परिपक्वता लिए होता है। समाज के बनाए हुए निरर्थक नियमों के चलते अथाह पीड़ा से गुजरकर, नियमों के दायरे को तोड़कर; प्राप्य की इच्छा से कोसों दूर आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति कर पाना वास्तव में प्रेम का चरम बिंदु है।
मैं नहीं चाहती कि इस श्लाघनीय उपन्यास में आपके आनन्द में रत्ती भर भी कमी आये और दोहराव लगे, इसीलिए मैं संवादों को यहाँ लिखने से बच रही हूँ। अंत में पाठकों से इतना ही कहूँगी, अपनी-अपनी कहानी का अंतिम पृष्ठ हमारे भरने के लिए ही होता है, आप भी उसे इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दीजिए!
-प्रीति 'अज्ञात'
#सपनों के राजकुमार की बात, केवल सपना ही नहीं होती!
यही प्रेम मल्लिका को भी हुआ, जब उसने अश्विन को पहली बार देखा. इतना सुदर्शन युवक कि किसी की भी आँखें, उसके चेहरे से हटें ही न कभी! मल्लिका का मन भी जैसे ठहर गया था वहीं. वह और अश्विन एक ही कॉलेज में थे. मल्लिका स्वयं को दर्पण में देखती और अपने भीतर की उसी हीन भावना से लड़ती; जिसने उसके हृदय में बचपन से ये बात बिठा रखी थी कि साँवली लड़कियाँ सुन्दर नहीं होतीं.
वह अश्विन की एक झलक पाने को बेक़रार रहती लेकिन सामने आते ही नज़रें झुका लेती. अश्विन को थिएटर और संगीत का शौक़ था. मल्लिका उसका हर प्ले देखती. कॉलेज की पत्रिका में से उसकी तस्वीर सँभाल लेती परन्तु प्रेम का इज़हार करने को आतुर मन न जाने क्यों उसे रोक देता. वो इस बात से भी डरती थी कि दोनों के धर्म अलग हैं और परिवार कट्टर; न जाने क्या हो जाए. अनुकूल कहने को कुछ था ही नहीं. हाँ, वो इस अनकहे प्यार को कविता में ढालने लगी थी. ये अबोला प्यार भला कैसे मुख़र होता! वही हुआ, अश्विन, मल्लिका के हृदय से अनजान ही रहा.
समय बीतता गया और इस हद तक बीता कि दोनों को एक-दूसरे की कोई ख़बर तक न थी. अपनी-अपनी ज़िन्दग़ी में रमे दो लोग घर-परिवार, नौकरी के दायित्वों को भरपूर शक्ति और संज़ीदग़ी से निभाते रहे. मल्लिका एजी ऑफिस के एक बड़े पद से रिटायर हो चुकी थी. लिखने का शौक़ अब तक जीवित था उसका. साथ ही एक आस भी कहीं पल रही थी कि क़ाश! एक बार अश्विन को कह सके कि वो उसे कितना पसंद करती थी.
कहते हैं न, 'जहाँ चाह, वहाँ राह!' तो सोशल मीडिया का यह युग इस अधूरी कहानी के लिए जैसे वरदान साबित हुआ. पूरे पैंतालीस वर्षों बाद मल्लिका ने अश्विन को ढूँढ निकाला. जीवन के सात दशक जी चुका, बीते समय का वह सुदर्शन युवक अब कैलिफोर्निया, अमेरिका का निवासी था.
प्रेम का सबसे ख़ूबसूरत और सच्चा रूप यही होता है जब उससे जुड़ी कोई अपेक्षाएँ न हों. बस जिगरी दोस्त सा कोई साथी हो जो इस प्रेम को स्वीकार भर कर ले, उतने में ही जीवन सार्थक लगने लगता है. एक उम्र के बाद न तो देह की अभिलाषा होती है और न कोई अन्य चाहत. उस समय केवल दो दिलों की मीठी सरगम बेधड़क, शब्दों की लय पर जीवन गान करती है. यही प्रेम की पराकाष्ठा है जहाँ मन एक दूसरे के भीतर इस तरह समा जाएँ कि दूरियों से कोई गिला-शिक़वा रहे ही न कभी.
घर-परिवार के प्रति दोनों ने ही अपनी सारी ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाईं और अपनों को प्रेम भी जी-भरकर किया. लेकिन ये जो क़सक थी न वर्षों से, उसको कह देना अब जरुरी ही था. मल्लिका के पास अब खोने को कुछ नहीं था. इस उम्र में परिपक्वता भी अपने चरम पर होती ही है. सो एक दिन उसने हिम्मत जुटाकर अश्विन को उस षोडशी के मन की बात कह दी. अश्विन जो कि इस गुज़रे सच से अनभिज्ञ था, हैरत में पड़ गया. उसने न केवल मल्लिका की भावनाओं का आदर किया बल्कि उन पलों के लिए ख़ेद भी व्यक्त किया जबकि वह तो दोषी था भी नहीं!
अब इन बिछड़े दोस्तों में रोज़ ऑनलाइन chat होने लगीं. शुरुआत दोनों के बीते दिनों से हुई और फिर धीरे-धीरे इसमें जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी चर्चा शामिल होने लगी. इस स्नेह-बंधन ने इनके जीवन में ख़ुशी के हजारों दीप जला दिए थे जैसे. अश्विन कैंसर से लड़ रहा था लेकिन मल्लिका के आगमन ने उसे ढेरों साँसें दे दी थीं. वो अब अपने पुराने शौक़ को भी जीने लगा था. उसकी इच्छा थी कि क्यों न उनकी कहानी और बातचीत को पुस्तक का जामा पहना दिया जाए! मल्लिका को भी यह बात जँची और फिर उनकी कहानी में मेरा आगमन हुआ.
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प्रेम पर मेरे लिखे कई आलेख पढ़े थे उन्होंने. उन्हें इस बात का पूरा यक़ीन था कि उनके प्रेम को अगर कोई सही तरह से अभिव्यक्त कर सकता है तो वो मैं हूँ. क्या कहती मैं! प्रेम के हर भाव पर लिखा है, बेसाख़्ता लिखा है लेकिन हरेक की तरह एक खाली कोना मेरे मन में भी रहा करता था, शायद यह उसी का आग्रह था कि मैंने उनकी पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए स्वीकृति दे दी. अगले ही दिन उन्होंने इसकी पाण्डुलिपि मुझ तक पहुँचा दी. इस कहानी के पात्र और घटनाएँ काल्पनिक नहीं थीं. कहीं-न-कहीं दिल से दिल का रिश्ता जुड़ ही जाया करता है. इस फ़ाइल को मैंने न जाने कितनी बार पढ़ा और हर बार मन भीगता ही रहा. अनगिनत रातों तक यह कहानी मुझे उदास करती रही. रोज़ ही मेरा मन, मेरा हाथ थाम मुझे न जाने किन गहरी घाटियों में चुपचाप तनहा छोड़ लौट आता.
मैं इस कहानी के एक पात्र को तो जानती थी और दूसरे को जानने की इच्छा बलवती होने लगी थी. मेरी क़िस्मत ही कहिये कि एक दिन अश्विन जी का मित्रता निवेदन आया जिसे मैंने पलक झपकते ही स्वीकार कर लिया. मैं उनकी बेटी की तरह ही थी. वो कभी-कभार मैसेज करते और प्रशंसा भी. मैं संकोच से भर जाती. मेरा कई बार उनकी तबीयत जानने का मन करता परन्तु इस 'कैंसर' शब्द ने न केवल मेरे अपनों को मुझसे छीना बल्कि मुझे भी इस हद तक तोड़ा है कि मैं उनसे इस विषय पर बात करने से ही डरती थी. बस, आदतन एक स्माइल भेज देती फिर मल्लिका जी से उनका हालचाल पूछ लेती.
चैट उपन्यास 'यू एन्ड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ़ लव' छपकर आ चुका था. उससे सम्बंधित कार्यक्रम हुए. पुस्तक को बहुत सराहना भी मिली. मेरी भूमिका अब ख़त्म हो जानी चाहिए थी. पर पता नहीं क्यों! कुछ न होते हुए भी मैं अब भी उनकी कहानी का हिस्सा बन रही थी. आप इसे 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' समझ सकते हैं. मैं चाहती थी कि कैसे भी करके एक बार उन दोनों की मुलाक़ात हो जाए. मैंने अश्विन जी को भारत आने का न्योता भी दिया. अहमदाबाद के हैं तो यहीं आते.
अचानक ही ख़बर मिली कि अश्विन जी हम सब को छोड़ उस दुनिया की यात्रा को निकल चुके हैं, जहाँ से कोई भी आज तक कभी लौटकर नहीं आया. किसी और के लिए न सही पर आपको अपने परिवार, बच्चों और वर्षों बाद मिली इस प्यारी दोस्त मल्लिका के लिए थोड़ा सा तो ठहरना था,अश्विन जी. मुझे दुःख है कि मैं आपसे न मिल सकी पर आपकी मल्लिका की आँखों में एक राजकुमार देखा है. वो जो प्रेम है न, वो यथावत है. दुनिया बदल जाए पर प्रेम कहाँ बदलता है! वो तो रहेगा सदा.
-प्रीति 'अज्ञात'
सोमवार, 6 जुलाई 2020
#COVID19 vaccine क्या 15 अगस्त तक आ पाएगी?
यहां यह जान लेना भी महत्वपूर्ण है कि यह आंतरिक पत्र था, जो लीक हो गया है. दरअसल, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने अपने चुने हुए संस्थानों को यह आदेश दिया है कि ‘कोरोना वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल 7 जुलाई से पहले शुरू हो और 15 अगस्त से पहले ख़त्म हो जाए, जिससे 15 अगस्त को इसे लॉन्च किया जा सके. यदि आपने ऐसा नहीं किया तो इसे अवज्ञा मानकर गंभीरता से लिया जाएगा!’ अपने इस पत्र के कारण ICMR के डायरेक्टर का पूरी दुनिया में मजाक बनाया जा रहा है. कोई और ये बात कहता तो हंसकर टाली जा सकती थी, लेकिन पूरी प्रक्रिया को जानने-समझने वाला व्यक्ति किन परिस्थितियों में ऐसा बोल सकता है, यह आश्चर्य और शोध का विषय है.
ख़ैर! एक सच और जान लीजिए कि ये देशभर की कंपनियों के लिए धमकी नहीं थी, बल्कि उनके अपने चुने 12 सेंटर्स को लिखा गया पत्र है. जो इस विषय को नहीं समझते, वे बस इतना ही जान लें कि वैज्ञानिकों पर किसी भी प्रक्रिया को झटपट पूरा करने का दवाब डालना पूरी मानव जाति के साथ अन्याय है. विज्ञान को थोड़ा समझिए, यह लफ़्फ़ाज़ी से नहीं चलता, बल्कि प्रयोगों, परिणामों और विश्लेषणात्मक अध्ययन की कई प्रक्रियाओं के बाद ही अंतिम नतीज़े तय करता है.
क्या है Animal Testing और क्यों की जाती है?
सुरक्षा महत्वपूर्ण मुद्दा है. सकारात्मक परिणाम मिले बिना मनुष्यों को ख़तरे में नहीं डाला जा सकता. इसीलिए कोई भी दवा या वैक्सीन की पहले एनिमल टेस्टिंग (Animal Testing) की जाती है. वैज्ञानिकों द्वारा यह परीक्षण (Testing) लैब में मुख्यतः कुतरने वाले जन्तु (rodents), जैसे- White Mice, Guinea pig, Rats, Rabbits पर किया जाता है. कभी-कभी अतिरिक्त सुनिश्चितता (Surity) हेतु Monkeys भी लिए जाते हैं. वैक्सीन इंजेक्शन के द्वारा दी जाती है. जीवों को न्यूनतम (Minimum) डोज़ देकर सबसे पहले उनकी एंटीबॉडीज़ उत्पन्न करने की क्षमता (Effectiveness test) जांची जाती है. इसमें इंजेक्शन देने के बाद कम-से-कम 15 दिन रुकना होता है, क्योंकि एंटीबॉडीज़ डेवलप होने में इतना समय लेती है. उसके बाद safety test द्वारा इसके सुरक्षित (Safe) होने का अध्ययन किया जाता है. यदि उनमें कोई भी असामान्यता नहीं देखी जाती और उनका व्यवहार, खान-पान सब ठीक रहता है तो इसका मतलब कि वैक्सीन सेफ़ है.
ह्यूमन (Clinical) ट्रायल्स क्यों महत्वपूर्ण हैं?
मनुष्य आकार में तुलनात्मक रूप से बड़े होते हैं. जंतुओं (Animals) के जो रिज़ल्ट आते हैं, जरूरी नहीं कि वही शत-प्रतिशत परिणाम मनुष्यों में भी मिलें. इसलिए सुरक्षा प्रमाणित होने के बाद इन पर विस्तृत अध्ययन की अपनी महत्ता होती है. दोनों प्रजातियाँ (Species) अलग हैं तो रिस्पांस भी भिन्न हो सकता है. दोनों का तंत्र (System) अलग प्रकार से व्यवहार करता है. एनिमल्स में उनके तंत्रों का अध्ययन किया जा सकता है पर अन्य तक़लीफ़ें पता नहीं चलतीं. जबकि मनुष्य बता सकता है कि यहां दर्द है, सिरदर्द हो रहा, उल्टी- चक्कर आ रहे. प्रायः मनुष्यों को भी वही सिमिलर डोज़ दी जाती है, लेकिन इसका कोई निश्चित नियम नहीं है. कभी-कभी इसमें फ़र्क़ भी हो सकता है.
ह्यूमन ट्रायल Phase 1 में मुख्य रूप से वैक्सीन का सुरक्षित होना देखा जाता है. इसमें 6 से 12 लोगों के ग्रुप्स बनते हैं. इन्हें वैक्सीन की डोज़ दी जाती है. कुछ सब्जेक्ट में Placebo (इसमें कोई ड्रग नहीं होती है) भी दिया जाता है. इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन एक अच्छे वैक्सीन की सेफ्टी Placebo जैसी होनी चाहिए. अलग-अलग कंपनी में डोज़ देने का तरीक़ा अलग हो सकता है. प्रायः पूर्ण रूप से स्वस्थ मनुष्यों को इंजेक्शन द्वारा प्रामाणिक माप की डोज़ दी जाती है. फिर उन्हें 24 घंटे वहीं ऑब्ज़र्वेशन सेंटर में रखा जाता है. जहां उनके रहने-खाने का पूरा ध्यान रखा जाता है. डोज़ देने के पहले इनका ब्लड सैंपल लेकर रिपोर्ट तैयार की जाती है और डोज़ देने के 24 घंटे बाद भी ब्लड सैंपल लेकर यह सुनिश्चित किया जाता है कि कहीं कोई एडवर्स इफ़ेक्ट तो नहीं है और उनका तापमान (Temperature), ECG और सारे पैरामीटर्स सामान्य (Normal) हैं. बहुत ही सावधानीपूर्वक निगरानी (Carefully Monitoring) होती है और आंकड़े तैयार किए जाते हैं.
वैक्सीन का प्रभाव देखने के लिए सेकेंड डोज़ की जरूरत भी पड़ सकती है, इसलिए वॉलंटियर को 1 महीने बाद बुलाकर दूसरी डोज़ दी जाती है. चूंकि Safety establish हो चुकी है, इसलिए इस बार वॉलंटियर का रुकना जरूरी नहीं है. इस बार भी पहले की तरह ही ब्लड टेस्ट किया जाता है. जरूरत पड़ने पर तीसरी बार भी यही प्रक्रिया अपनाई जा सकती है. यहां मैं यह स्पष्ट कर दूं कि वैक्सीन परीक्षण (Test) अलग से ख़ून (Blood) लेकर नहीं होता! क्योंकि एंटीबॉडीज़ शरीर में तैयार होती है. वैक्सीन दिए गए मनुष्य का ब्लड लेकर यह स्टडी की जाती है कि एंटीबॉडीज़ डेवलप हुए या नहीं. चूंकि एनिमल टेस्टिंग के पुख्ता प्रमाणों के बाद ही क्लिनिकल ट्रायल्स होते हैं, इसलिए नतीजे सकारात्मक आने की पूरी उम्मीद होती है. दुर्भाग्यवश ऐसा न हुआ तो भी वॉलंटियर सुरक्षित रहता है. हां, प्रयोग असफ़ल माना जाता है.
कुछ ट्रायल एक डोज़ में भी पूरे हो सकते हैं लेकिन कोरोना के लिए कुछ कंपनीज़ एक से अधिक डोज़ के प्रयोग भी कर रही हैं. यदि पहले माह में ही एंटीबॉडीज़ बन जाती हैं तो ये अवधि कुछ कम दिनों की भी हो सकती है. अब प्रयोग सफल मान लिया जाता है. लेकिन नियमों के आधार पर ट्रायल निर्धारित समय अर्थात तीन महीने (अनुमानतः) तो फिर भी चलेगा ही.
वैक्सीन परीक्षण के लिए कैसे चुने जाते हैं वॉलंटियर?
वैक्सीन परीक्षण के लिए पूर्ण रूप से स्वस्थ लोग लिए जाते हैं. इनका हेल्थ चेकअप होता है. मेडिकल हिस्ट्री देखी जाती है. परखा जाता है कि ये लोग किसी भी तरह की बीमारी से तो ग्रस्त नहीं हैं. मसलन किडनी, लिवर, डायबिटीज़, हार्ट संबंधी समस्याओं की जांच की जाती है. कोरोना संक्रमित या पूर्व कोरोना पीड़ित व्यक्ति वॉलंटियर नहीं हो सकता! कुछ शहरों में वॉलंटियर्स का एक शेयर्ड database होता है. इसमें एक वॉलंटियर एक समय दो जगहों पर नहीं जा सकता है. एक बार ट्रायल के रजिस्टर में उसका नाम आ गया तो वह निर्धारित समय के लिए ब्लॉक हो जाता है. डेटाबेस में हजारों लोग रजिस्टर्ड होते हैं. कंपनी आवश्यकतानुसार वॉलंटियर्स को बुलाकर उन्हें अच्छे से समझाती है कि ट्रायल किस चीज़ का है और क्यों कर रहे हैं? इसका क्या परिणाम हो सकता है? क्या नहीं हो सकता है? संतुष्ट होने पर उसकी लिखित अनुमति ली जाती है. पूरी प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग भी होती है. इनका हेल्थ चेकअप होता है और उन्हें ट्रायल के लिए चयनित कर लिया जाता है.
EC (Ethics Committee) सरकार के नियमानुसार (पेमेंट संबंधी) वॉलंटियर का मानदेय निर्धारित करती है. कंपनी इसे ही फॉलो करती है. EC की इन पर पूरी नज़र होती है. वॉलंटियर का जो work loss होता है, उसकी भरपाई भी कंपनी ही करती है इनका Insurance भी covered होता है. कंपनी अपनी आवश्यकतानुसार प्रोपोज़ल भेजती है, लेकिन प्रोटोकॉल सरकार ही तय या approve करती है. उसके बाद किसी भी स्थिति में उसमें एक भी बदलाव नहीं किया जा सकता. ह्यूमन सेफ्टी और वेलफेयर को सुनिश्चित करने के लिए जो Ethics Committee होती है, वो बाहर की होती है. ये यह भी देखती है कि वॉलंटियर का कुछ और फायदा न ले लिया जाए!
वॉलंटियर के लिए सामान्यतः 18 से 55 आयु वर्ग तक के लोग चयनित होते हैं. वैक्सीन बनाने वाली कंपनी का कोई भी व्यक्ति एवं उसके परिवार का सदस्य उस कंपनी के लिए वॉलंटियर नहीं बन सकता. महिलाएं भी वॉलंटियर हो सकती हैं पर पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती है. इसका कारण गर्भधारण पर वैक्सीन के दुष्प्रभावों का न जानना है. Post-Menopausal और hysterectomy वाली महिलाएं ली जा सकती हैं. जहां ऐसी कोई कमेटी, ग्रुप या डेटा बेस नहीं होता, वहां कैंप लगाए जाते हैं. वॉलंटियर्स को विभिन्न तरीकों से ढूंढ़ा जाता है.
वैक्सीन, वायरस से लड़ने में कैसे मदद करती है?
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