भले ही मेरी ऑनलाइन मैगज़ीन है, ब्लॉग्स हैं, सोशल मीडिया अकाउंट्स हैं फिर भी मैं स्वयं को टेक्नोचैलेंज्ड की श्रेणी में रखती आई हूँ। ज्यादा तीन-पाँच वाले काम मुझे समझ ही नहीं आते। कारण यही कि सारा लेखन लैपटॉप पर होता है और वो भी बिना किसी प्रपंच के। एक समय था जब मुझे कंप्यूटर ऑन करना भी नहीं आता था। वर्षों से टक्करें मार-मारकर अब लिखना और फोटोशॉप सीख गई हूँ। मोबाइल से रिश्ता बस कॉल इनकमिंग-आउटगोइंग तक ही सीमित है।व्हाट्स एप्प पर टुकुर टुकुर टाइपिंग से बेहतर मुझे सीधे फ़ोन पर बात करना लगता है। मैसेंजर कभी इन्स्टॉल किया ही नहीं और व्हाट्स एप्प ग्रुप्स में जोड़ने वाले खुद ही मुझसे हार मान नमस्कार कर चुके हैं क्योंकि मुझसा देसी और इनएक्टिव इंसान 'न भूतो न भविष्यति।'
वैसे भी दुनिया के हर इंसान से तो मेरा भावनात्मक लगाव है नहीं तो इनसे मैं सुप्रभात और शुभरात्रि लेकर क्या करूँ और ज्ञान भरा एक ही मैसेज जब चार अलग लोग एक ही दिन भेजते हैं तो सोचिए कैसा लगता है! पहले मैं टाइम चेक़ कर अनुमान लगाया करती थी कि इन म्यूच्यूअल फ्रेंड्स में से किसने किसका कॉपी किया है फिर जो रेस में पहला होता था उसे स्माइली भेज देती थी।उसके बाद जब वही मैसेज या वीडियो परिवार के ग्रुप में देखती थी तो पता चलता था कि प्रीति बेटा दुनिया उतनी भी विशाल नहीं जितनी तुम माने बैठी हो! गोलमाल है भई सब गोलमाल है!
ख़ैर..इस बारे में हम सा चींटी प्राणी कर भी क्या सकता है! अब तो सरकार ही हमरी माई बाप है। तो उनको ही सोचना चाहिए कि बिना फीलिंग्स वाली इन प्लास्टिक संवेदनाओं का क्या करना है! वैसे मुझे पूरा भरोसा है कि अब वो दिन दूर नहीं जब आप कोई भी इमोजी टच करेंगे, टंकार के साथ जय श्री राम ही जायेगा। आप दिल भेजेंगे, नमस्ते जाएगी, चाय भेजेंगे लौकी का जूस जाएगा, फूल भेजेंगे तुलसी मैया का पौधा जाएगा, केक भेजेंगे तो बताशा जाएगा। नेटफ्लिक्स खोलेंगे तो रामायण आएगी, सास बहू के सीरियल खोलते ही MDH वाले दादाजी संस्कारी होने का मतलब समझाएंगे। रामराज्य ऐसे ही थोड़े न आ जायेगा। पूरे तंत्र को लगाना पड़ता है जी।
इधर फिटनेस चैनल हमारे नेताओं को दिखाकर बता रहा होगा कि असल किरपा तो ये बनने में बरसती है। नामुरादों, फिट होकर क्या करोगे? पकौड़े ही तो तलने हैं न तुम्हें। एथलीट बन भी गए तो आगे का जीवन 'चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात' सा ही कटेगा। यहाँ तो बिना डिग्री राजा भोज बना जा सकता है इसलिए ही तो शिक्षा एसेंशियल सर्विसेज में नहीं है। अब हमने ही यूनिवर्सिटी मेरिट में आकर कौन से तीर मार लिए, इधर ही बिना कमाई क़लम घसीट रहे हैं न! वही गंगू तेली टाइप। उसपे frustration जब तब हिलोरें मारता है, सो अलग!
लो 'जाना था जापान, पहुँच गए चीन समझ गए न!' मल्लब 'जब दिल हूं हुं करे, घबराआआए' तब भड़ास यूँ निकलती है।
बात तो हम अपने टेक्नोचैलेंज्ड होने की कर रहे थे। एक सिंपल एप्प को समझने में भी मुझे दस गुना समय लगता है। यहाँ तक कि नया मोबाइल लेने के बाद भी मैं पुराने को तब तक use करती रहती हूँ जब तक कि नया समझ न लूँ। इस प्रक्रिया में मुझे औसतन पंद्रह दिन से एक माह तक का समय लगता है।
सौभाग्य से हमारी प्रिय मित्र नीरजा जी टेक्नो एक्सपर्ट हैं। मुझसे तो सौ गुना बेहतर हर हाल में हैं। कई बार मुझे झींकते हुए देखतीं हैं तो हमेशा कोई न कोई एप्प डाउनलोड करने की सलाह देतीं और भी कई गुणवान बातें मैंने उनसे सीखी हैं। ऐसे ही एक शुभ दिन में उन्होंने मुझे बिग बास्केट के बारे में बताया। बच्चे भी रोज कहते थे, थैला उठाये दस किलो सामान लेकर क्यों आती हो, जब घर पे सब आ सकता है! अब हमारे घर से चार कदम दूरी पे सब्जी और ग्रॉसरी वाला है। कई बार ठेले वाला भी घंटी बजा दिया करता है। तो उस समय मुझे बिग बास्केट की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई।
अब lockdown के दिनों में मैंने यह app इन्स्टॉल कर लिया। तुरंत वेलकम मैसेज आया, अपन तो जी खिल उठे। फिर एक-एक कैटेगरी में जाकर आधे घंटे कुचुर-कुचुर कर सामान सेलेक्ट किया, उसमें भी बेटी को बग़ल में बिठा रखा था। हम लोग साल भर का राशन नहीं भरते, हर माह खरीदते हैं। चूँकि सरकार ने पैनिक होने को मना किया तो अपन रत्ती भर भी नहीं हुए। लेकिन ये क्या वेलकम करने वाले ने अगले ही पल हमारी यह कह घनघोर बेइज़्ज़ती कर दी कि बैकलॉग के कारण अभी कुछ दिन हम ये सर्विस नहीं दे पायेंगे। बाद में कोशिश करें। मतलब अगर कोरोना से बचे तो हमारी बची खुची ज़िंदगी का राशन इनकी किरपा से मिलेगा.....और अगर किरपा न हुई तो अपन भूख से तड़प-तड़पकर इधर ही जान दे देगा मोई जी। सॉरी बोल सबकी आस यूँ न तोड़िये, कुछ कीजिये, बच्चे की दुआएँ लगेंगीं। वरना देश के शहीदों की सूची में एक नाम और जोड़ ही लीजिए। बाक़ी सब बढ़िया है।
सियावर रामचंद्र की जय, पवनसुत हनुमान की जय।
-प्रीति 'अज्ञात'
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