मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जो घटित होते ही स्मृतियों की अनवरत आवाजाही के मध्यांतर में दुःख के तमाम बीज रोप देती है. यहाँ सैकड़ों तस्वीरें पनपती और चहकती हैं और किसी चलचित्र की तरह हमें उन्हें मौन, स्थिर बैठकर जीना होता है.
जब तक व्यक्ति हमारे बीच होता है तब तक वह भीड़ का हिस्सा बना रहता है. चले जाने के बाद ही हमें उसकी अहमियत पता चलती है और वह विशिष्ट हो जाता है. सिने प्रेमियों के लिए सुशांत, भीड़ का हिस्सा तो नहीं थे. वे पहले भी ख़ास थे और आगे भी रहेंगे. दरअसल, हम दर्शक अपने हीरो को जिस रूप में परदे पर देखते हैं, वही छवि मन में भी बना लेते हैं. हमने कलाकारों को ऐसे ही स्थापित किया हुआ है. जहाँ नायक की हर अदा से हमें प्यार होता है और ख़लनायक से नफ़रत. हम सदा से सिनेमा को यूँ ही जीते आये हैं.
हम पेज थ्री को भले ही चटख़ारों के साथ पढ़ें पर कलाकारों की व्यक्तिगत ज़िंदग़ी से हमें कोई बहुत अधिक सरोकार तो नहीं ही होता है. हमारे अपने दुःख और व्यस्तता का बोझ हमें इतना सब सोचने की अनुमति भी नहीं देता.
आज जब 'दिल बेचारा' पर दर्शकों का टूट पड़ता अगाध स्नेह देख रही हूँ तो लगता है कि जैसे यह हम सबका प्रायश्चित है. यह पश्चाताप है उन दिनों का कि समय रहते हम सुशांत को ये क्यों न कह सके कि आपको कितना चाहते हैं हम!
मैनी चला गया! वह न केवल फ़िल्म के अंत में हम सबसे अलविदा कह देता है बल्कि असल ज़िंदग़ी में भी उसका हँसता, मुस्कुराता चेहरा, अब हमारे बीच कभी नहीं आएगा. हाँ, उसकी तस्वीरें और फ़िल्में उसकी स्मृतियों के पन्ने अक़्सर फडफ़ड़ाएंगी और उसे जीवित रखेंगी.
दुनिया बहुत विशाल है और थोड़े कम, थोड़े ज़्यादा रिश्तों की भरमार हम सबके पास है. कुछ लोग परिचित भर हैं, कुछ दिल के क़रीब और कुछ हमारा जीवन ही हैं. कई लोग ऐसे भी हैं जो हमारे कुछ नहीं लगते, पर हम उन्हें बेहद पसंद करते हैं. वो चाहे हमारे आसपास जुड़ा कोई चेहरा हो, हमारा पसंदीदा कलाकार या कोई भी.
चाहे वह कोरोना काल हो या किसी का अनायास ही चले जाना! यह समय हमें सिखा रहा है कि जिन्हें हम चाहते हैं हाथ बढ़ाकर उन्हें रोक लें. उन्हें कह दें कि "सुनो, तुम बहुत जरुरी हो मेरे लिए!"
'दिल बेचारा' का मैनी चला गया! पर हमने हमारे सुशांत को जाते हुए महसूस किया. उसको अलविदा कहते हुए देखा. उसके आँसुओं ने हमें भी भिगो दिया. ये जानते हुए भी कि अब वो पलटकर मुस्कुराएगा नहीं, उसे हम बस पुकार भर सकते हैं! उसके लौट आने की प्रतीक्षा व्यर्थ है. उसकी यादों को सहेज सकते हैं!
हम चाहें तो इस घटना से सबक़ लेकर, अब भी उन अपनों तक पहुँच सकते हैं जिन्हें हमने कभी कहा ही नहीं कि "यार! तुम बिन जी नहीं सकते!"
हम जानते हैं कि ‘दिल बेचारा’ कोई असाधारण फ़िल्म नहीं है. सुशांत की आख़िरी फ़िल्म होना, उसे ख़ास बना गया है. मैनी के रूप में सुशांत ने अपने चरित्र में जान फूंक दी है और उन्होंने अपनी भूमिका को शत-प्रतिशत अंजाम भी दिया है. आज सुशांत पर दर्शकों का अपार स्नेह उमड़ा है. हर कोई उसकी प्रशंसा में बिछा हुआ है. काश! सुशांत यह सब देख सकते!
सुशांत को श्रद्धांजलि देने का एक ही तरीक़ा है. हो सके तो हम सब बस इतना याद रखें कि किसी को शिद्दत से महसूस करने के लिए उसका तारा बनना ही जरुरी नहीं होता!
- प्रीति ‘अज्ञात’
सही कहा, किसी को शिद्दत से महसूस करने के लिए उसका तारा बनना ही जरूरी नहीं होता! आभार।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार
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