बहुत दिनों से 'भक्त' और 'देशद्रोही' उदास महसूस कर रहे थे. दो विपरीत सिरों पर तनहा बैठी उनकी ज़िंदगी से आनंद जैसे विलुप्त ही हो गया था. 'सेक्युलर समाज' में भी अजीब क़िस्म की बेचैनी थी. राजनीति अपनी रंगत खोने लगी थी. कोरोना काल ने सबकी खुशियों को जैसे लील ही लिया था. चहुँ ओर दुःख और निराशा से भरी ख़बरें!जाएं भी तो कहाँ! दुनिया जमीन पर सर पछाड़-पछाड़ प्रार्थना करने लगी, "पिलीज़ ! कहीं से तो सुख की एक किरण ढूंढ कर लाओ न!"
एक दिन अचानक आसमान में बिजली चमकी और एक भीषण शब्द का गर्ज़न हुआ. ओह्ह नो! ओ मोरे भगवन! सबकी संस्कारी आँखें पारले पॉपिन्स की तरह अपनी कोटरों में से बाहर निकल आईं. कान हैरान-परेशान कि "हाय रब्बा! ये हमने क्या सुन लिया? क्या यही दिन देखने को हम अब तक चेहरे की खिड़की से बाहर लटके हुए थे? हम जन्मते ही गिरकर मर क्यों न गए! कम से कम बात बाहर तो न फ़ैलती! पूरा जीवन विफ़ल हो गया." सब जानते थे कि कान की पीड़ा सच्ची थी और बोलने वाले की ज़ुबां कच्ची थी. देश में त्राहिमाम मच गया.
फिर एक दिन मंद-मंद मुस्काता 'नॉटी' आया. अर्थ समझते ही सबकी जान में जान आ गई हो जैसे. इसके दिमाग़ में कब्ज़ा जमाते ही दुनिया भर की खोई मुस्कान लौट आई है.
अब 'नॉटी' दोस्त और दुश्मन के मध्य सेतु का कार्य करने लगा है! सभ्य समाज जो पहले भी कम नॉटी नहीं था, अब और भी इतराकर एक-दूसरे के कंधे पर हाथ मार, आँख मिचकाते हुए कहता है, "अरे, तुम तो बड़े नॉटी निकले!" अब जो असल में नॉटी ही है वो बड़े कन्फ़्यूज़न में है कि "भइया, क्लियर कर दो. जे तुम बिफोर कोरोना वाला बोल रए कि आफ्टर?"
वैसे तो राउता, ओह्ह सॉरी! मेरा मतलब रायता कुछ ज्यादा ही फ़ैल चुका है फिर भी शुक्रिया डिक्शनरी के एक और अर्थ का सत्यानाश करने के लिए. ऑक्सफ़ोर्ड वालों को बुरा लगे तो लगता रहे! हमारी बला से!
अब कोरोना काल में यही सब बातें तो थोड़ी बहुत रौनक़ ले आती हैं वरना इस स्थिर जीवन में रक्खा ही क्या है! सारी गति का पंचर तो Covid-19 जी निकाल ही चुके हैं. सबसे ज्यादा 'नॉटी' तो यही निकले!
- प्रीति 'अज्ञात'
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशानदार😅
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