मीठे नमकीन सा शहर है, अहमदाबाद
गुजरात का दिल यानी अहमदाबाद! 1960 से 1970 तक गुजरात की राजधानी रहने के कारण अब भी लोग इसे ही प्रदेश की राजधानी समझ बैठते हैं। यूँ इस शहर का ठाट-बाट और व्यवहार राजसी ही है। लोग घुमक्कड़ और खाने-पीने के बेहद शौकीन। वो गुजराती ही क्या जिसके घर रविवार को खाना पके। रेस्तरां में 40 मिनट का इंतज़ार भी सुखद है, उस पर पूरा कुनबा साथ हो तो वक़्त का पता भी कहाँ चलता है! उत्तरायण हो तब उंधियु, पूरी, चिक्की और मीठी जलेबियों के बगैर पतंगें आसमान नहीं चूमतीं। उस पर संगीत का साथ और मस्ती का चढ़ा रंग उत्सवों में जैसे भांग ही घोल देता है। दशहरे पर रावण दहन देखने जाओ न जाओ आपकी मर्ज़ी, पर फाफड़ा जलेबी की दुकानों पर सुबह से लगी लंबी कतारें यह विश्वास दिला देती हैं कि सेनाओं ने आक्रमण की कमान संभाल ली है। खाखरा, ढोकला, खांडवी, हांडवा जैसे सारे सशक्त नाम यहीं के व्यंजनों के हैं। उस पर गुजराती थाली तो अहा! केवल बातों में ही नहीं, यहाँ के तो नमकीन में भी मिठास है।
एक समय था जब आप शहर के किसी भी हिस्से के निवासी हों, पानीपूरी खाने म्युनिसिपल मार्केट जाना तय रहता था। अब हर सड़क सात-सात फ्लेवर के पानी वाले ठेले लिए सजी दिखती है। पुराने लोग अब भी जसुबेन का पिज़्ज़ा खाते हैं पर नई पीढ़ी, बाज़ार ने लूट ली है। बस एक परंपरा के चलते गुजराती थाली का लुत्फ़ उठाने किसी मेहमान को गोरधन थाल ले जाया जाता है। यूँ इन थालियों का भी एक बहुत बड़ा बाज़ार लॉन्च हो चुका है। खाऊ गली अब 'हैप्पी स्ट्रीट' बन चुकी है। अशर्फी की कुल्फी अब भी पॉपुलर है।
यहाँ की सबसे प्यारी बात कि हर घर में झूला झूलने का अवसर मिलेगा लेकिन जरा अपने एडिडास, नाइकी या वुडलैंड के ठसके से बाहर निकल आइएगा क्योंकि घर हो या दुकान, चप्पल-जूते बाहर उतारने का नियम सब जगह लागू है।
लाड़ले अमदावाद में जीवन रस से परिपूर्ण नवरात्रि के नौ रंग जब सजते हैं तो पता चलता है कि यह त्योहारों को कलेजे से लगाकर चलने वाला शहर है। यहाँ के लोग गरबा में किसी अज़नबी के हाथों में भी डांडिया थमा अपने दिल के घेरे को थोडा और चौड़ा कर देते हैं। नवरात्रि की तैयारी घर के किसी ब्याह सरीखी होती है। लहंगे (पारंपरिक चनिया) पर घुँघरू, मोती, सितारे टंकते हैं। कच्छी कढ़ाई वाला डिजाइनर ब्लाउज़ (चोली) बनता है। नौ दिन के हिसाब से मोजरी, दुपट्टा, गहने, टीका, बिंदिया सब चाहिए होता है। तभी तो लॉ गार्डन की कच्ची जमीन पर लगी पारंपरिक चनिया-चोली की तमाम दुकानों ने अब विकास का पक्का रंग ओढ़ लिया है। यूँ दाम बढ़ाकर आधे-पौने में देने का सिलसिला अब भी जारी है। वो तो भला हो, दूर देश से आए एनआरआई समूहों का, जो अब भी इनके चेहरे पर रौनक़ें भर जाते हैं।
कभी बाढ़ का तांडव, कभी भूकंप का भीषण, भयावह मंज़र तो कभी लाशों के ढेर पर सिसकते, दंगों की आग से झुलसते इस शहर को देख एक स्वप्न बिखरता सा भी लगता है। लेकिन उसके बाद सहायता हेतु बढ़ते हाथ और संवेदनशीलता, मृतप्रायः उम्मीद को पुनर्जीवित कर देती है। यहाँ के लोग जूझने, उठने और फिर चल पड़ने की जिजीविषा से लबरेज़ हैं। अहमदाबाद और उल्लास, ये दोनों संग-संग ही चलते हैं सदा।
इस शहर में मेरा पहला दिन का और आज बाईस साल बाद का अहमदाबाद! यक़ीनन बहुत कुछ बदल गया है। पहले जो गलियाँ थीं, अब चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का रूप धर इतराने लगी हैं। वो मॉल जो तब नए-नए खुले थे और जिन्हें बस देखने भर के लिए या एस्केलेटर का आनंद उठाने के लिए मन मचलता था, अब वहाँ बस फ़िल्में ही चलती हैं। जिन स्थानों को देख पहले आँखें भौंचक हो जाया करतीं थीं, अब उनसे जी ऊब सा गया है।
बढ़ती जनसंख्या ने मेट्रो की जरूरत ईज़ाद की तो शहर को खुदते रहने का श्राप ही मिल गया है जैसे। लोग बढ़े तो वाहन भी उसी अनुपात में जगह घेरने लगे। फ्लाईओवर का जाल इस समस्या का समाधान बन उभरा अवश्य लेकिन क्या इससे ट्रैफिक की समस्या हल हुई? तो बिल्कुल नहीं! एक परियोजना पूरी होती नहीं कि तब तक सारा अनुपात गड़बड़ा चुका होता है।
कभी शहर के बाहरी इलाके कहे जाने वाले गाँव बोपल, घुमा, शिलज, शैला, थलतेज़ और इन जैसे कई अब लंबी दौड़ लगाते हुए शहर के हो गए हैं। इन्हें देख खुश होना चाहिए था लेकिन जिन जंगलों को रौंद इन्होंने कंक्रीट की चादर ओढ़ी है, उस हरियाली की अनुपस्थिति अवसाद से घेर लेती है। जरा बारिश क्या हुई कि बाढ़ का खतरा मँडराने लगता है। पक्की धरती पानी सोखती नहीं क्योंकि यह काम तो शुरू से माटी के जिम्मे रहा है। जब जंगल नहीं रहे तो माटी की भला क्या ही बिसात थी! छोटे पक्षियों ने तो गुजर-बसर के आसरे ढूँढ लिए लेकिन मोर, बंदर, लंगूर की मुश्किलें कम नहीं होतीं। ये अब भी अपने घरों को ढूँढते वहाँ जा पहुँचते हैं जहाँ मनुष्य दस्तावेज दिखा इन्हें भगा देता है। इनके घरों पर कब्ज़ा कर लिया गया है।
शराबबंदी का
सच
ड्राइ स्टेट होने के कारण यहाँ शराब नहीं मिलती, ऐसा नहीं है। जुगाड़ू लोग सफ़लता प्राप्त कर ही लेते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि यहाँ खुलेआम देशी, विदेशी ब्रांड की दुकानें और उनके बाहर लहराते लोग नहीं दिखते। नशे में गाड़ी चलाने वाले किस्से और उनसे जुड़े अपराध न्यूनप्रायः हैं। अन्य कई राज्यों की अपेक्षा यहाँ की स्त्रियाँ स्वयं को अधिक सुरक्षित अनुभव करती हैं। गाली कल्चर भी उतना नहीं कि सुनकर कानों से खून ही बहने लगे।
साबरमती का
सलौना रूप
साबरमती किनारे बने नए नवेले रिवरफ्रंट ने युवा दिलों को धड़कने की एक नई जगह मुहैया करा दी है। यूँ यहाँ के तोते और कबूतर हर उम्र की मोहब्बतों के साक्षी हैं। लेकिन यहाँ की सुंदरता में खोते हुए भी यह क़सक मिटती नहीं कि इसे बनाते समय धोबियों, कलमकारी, माता नी पछेड़ी तथा ब्लॉक प्रिंटिंग से जुड़े कलाकारों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकी! इनका तो पूरा व्यवसाय ही इस नदी के बहाव पर निर्भर था।
सुकून चाहिए?
सुकून के कुछ पल गुजारने के लिए आज भी अपने बापू के साथ से बेहतर कुछ नहीं। साबरमती आश्रम में पूरा दिन बहुत ही श्रद्धा और शांति से गुजारा जा सकता है। यहाँ का सुरम्य, पवित्र वातावरण आपको बारम्बार आमंत्रित करता है। सकारात्मक ऊर्जा का अद्भुत केंद्र है यह। लगभग यही आभास हथीसिंह मंदिर और अमदावाद नी गुफा में भी होता है पर हरियाली के मामले में ये मात खा जाते हैं।
धरोहरों से
मुलाक़ात
यहाँ की वास्तुकला में इस्लामी और हिंदू शैली का अनूठा, अद्भुत मेल है। पुराने शहर और पोल जीवन से रूबरू होना हो तो दो घंटे की हेरिटेज वॉक यह इच्छा पूरी कर देती है। वाव माने ताल तलैया नहीं बल्कि कलात्मकता का बेजोड़ नमूना होता है, यह मैंने अडालज की वाव देखकर ही जाना। जब धरोहरों की बात चल ही रही है तो कर्णावती यानी अपने अमदावाद के पुराने शहर स्थित सिद्दी सैय्यद की जाली का ज़िक्र जरूरी है। यह एक मशहूर मस्जिद है। वास्तुकला की इस उत्कृष्ट धरोहर की नक्काशीदार जाली दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसमें पत्थर की खिड़कियां, एक पेड़ की शाखाओं को आपस में जोड़े हुए दर्शाती हैं, जिसे 'द ट्री ऑफ लाइफ' के नाम से जाना जाता है। जो इस शहर में आता है, इसकी तस्वीर लेना नहीं भूलता। इसमें निहित संदेश भी आत्मसात कर ले तो बात ही क्या! ऐतिहासिक इमारतों में सारखेज़ रोज़ा, जामा मस्जिद भी दर्शनीय है। सिंधु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण शहर और मिनी हड़प्पा कहा जाने वाला लोथल इस शहर में तो नहीं लेकिन यह और अक्षरधाम अपना ही लगता है।
चाय संग
घुमक्कड़ी
चयक्कड़ों के दिल लूटने के लिए विश्व का पहला किटली सर्कल
है यहाँ! अख़बार नगर सर्कल में, आग की लपटों
से घिरे केतली के इस विशाल एवं प्रभावशाली मॉडल को देखा जा सकता है. एक तस्वीर
खींचिए, फिर चाय पीने के लिए कहीं और का रुख कीजिए। घुमक्कड़ों के लिए पूर्व के
मैनचेस्टर कहे जाने वाले इस शहर में टेक्सटाइल का केलिको संग्रहालय
है। कुतुबउद्दीन एबक द्वारा बनवाई गई कांकरिया झील और गलबहियाँ करता सामने बना
चिड़ियाघर बच्चों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। इसके अलावा
इस्कॉन मंदिर, भद्र किला, हिलती मीनारें, साइंस सिटी, वैष्णो देवी है। शहर से थोड़ा
आगे बढ़ें तो नालसरोवर के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने और विलुप्तप्राय:
प्रजातियों के पक्षियों से मिलने का आनंद भी उठाया जा सकता है।
आसमान की छत
तले थिएटर का मज़ा
वर्तमान समय में भले ही मल्टीप्लेक्स ने सोफ़े पर लेटते हुए फ़िल्म देखने की सुविधा उपलब्ध करा दी हो लेकिन तारों भरी रात में अपनी दरी, चटाई पर तकिये से टिके हुए फ़िल्म देखने का आनंद ही कुछ और है। ठंडी बयार बह रही, बगल में टोसा, हाथ में गरमागरम चाय और सामने एशिया की सबसे बड़ी स्क्रीन में से एक पर आपकी पसंदीदा फ़िल्म चल रही। जीने को और क्या चाहिए! 'सनसेट ड्राइव-इन-सिनेमा' आपको श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली ध्वनि से सजी इसी अद्भुत दुनिया में ले आता है। जी चाहे, तो दरी उठाकर वहीं कार में ही बैठ जाइए।
कब्रों के बीच बैठ चाय नाश्ता किया है कभी?
नहीं किया तो लाल दरवाजा के पास स्थित ‘न्यू लकी रेस्टोरेंट’ में चले आइए। 12 कब्रें हैं और उन्हीं के इर्द गिर्द टेबल और बेंच लगाकर बैठने की समुचित व्यवस्था है। यहाँ की दीवारें मक़बूल फ़िदा हुसैन और उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान की उपस्थिति की साक्षी हैं। हुसैन जी का तो इस स्थान से लगाव ही इतना था कि यहीं बैठ उन्होंने एक पेंटिंग बनाई और इस रेस्टोरेंट को उपहार में दे दी। वह पेंटिंग अभी भी यहाँ सुसज्जित है।
जब रेस्तरां ही घूमने लगे!
जी हाँ, अहमदाबाद में घूमने वाला पतंग रेस्तरां भी है। इसकी डिजाइन पक्षियों को दाना खिलाने वाले चबूतरे से प्रेरित है। यह अपनी तरह का एक रेस्तरां है जो 90 मिनट में 360 डिग्री का चक्कर पूरा करता है। यह धीरे-धीरे घूमता है ताकि आप डिनर करते हुए पुराने और नए शहर को देख सकें।
है न, अद्भुत, अकल्पनीय, अलौकिक આપણું અમદાવાદ!
प्रीतिअज्ञात
'आउटलुक' हिन्दी के 31 अक्टूबर 2022 अंक में प्रकाशित (शहरनामा: अहमदाबाद)
'आउटलुक' के डिजिटल संस्करण में भी इसे पढ़ा जा सकता है -
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