भाषा, संवाद का जरिया है अहसासों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है. हम किसी भी माध्यम में पढ़ें हों, पर जहाँ बचपन गुजरा वहाँ की भाषा से लगाव हो जाना स्वाभाविक है. फिर हम कितने भी साब-मेमसाब बन जाएँ लेकिन जब भी उस भाषा को बोलने का अवसर मिले; चूकते नहीं! आंचलिक शब्दों की मिठास ही अलग होती है, इसे अपनी माटी से मोह भी समझा जा सकता है.
आजकल प्रादेशिक भाषाओं के प्रचार पर बहुत जोर दिया जा रहा है. अच्छी बात है, बस इसका उद्देश्य अपनी भाषा को सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य को कमजोर सिद्ध करने से कहीं ज्यादा उसके संरक्षण में होना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह केवल इतिहास के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए. प्रत्येक भाषा के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उसका बोला एवं लिखा जाना एक अनिवार्य तत्त्व है. अपनी भाषा को बोलने में संकोच कैसा!
भाषा जोड़ने का काम करती है और सृजन में कोई भी कमतर-बेहतर नहीं होता! सबकी अपनी-अपनी सुंदरता, मधुरता है तथा स्थान के अनुसार प्रत्येक की उपयोगिता भी होती ही है. हम मित्रों के साथ जिस सहजता,अपनेपन और अनौपचारिक ढंग से बात करते हैं वहाँ तू, तेरा जैसे शब्द भी कितने प्रेम भरे लगते हैं वहीं कार्यस्थल में बात करने की एक अलग ही प्रशिक्षित शैली होती है. अति-संभ्रांत वर्ग में तमाम औपचारिकताओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओँ का छौंक लगाना सभ्यता का मानक समझा जाने लगा है. वहीं किसी बड़े mall के सेल्समेन से बात करते समय और ठेलेवाले से सब्जी लेते समय हमारी भाषा में जमीन-आसमान का फर्क आ जाता है. इंसान हम वही हैं बस स्थानानुसार, सबकी सहूलियत के आधार पर ज़बान बदल लेते हैं.
मंत्र यही है कि भाषा कोई भी हो, इसको बोलने का तरीक़ा ही सब कुछ तय करता है. भाषा के साथ-साथ उचित शब्दों का चयन ही बात बनाता और बिगाड़ता है.
माध्यम कोई भी हो इससे अंतर नहीं पड़ता, महत्त्वपूर्ण यह है कि मानसिकता सही रहे...स्नेह-भाव जीवित रहे! और क्या!
हर भाषा का अपना मज़ा है, सबको अपने बच्चों जैसा प्यार करना चाहिए. मेरा बस चले तो सब सीख लूँ. :)
- प्रीति 'अज्ञात'
आजकल प्रादेशिक भाषाओं के प्रचार पर बहुत जोर दिया जा रहा है. अच्छी बात है, बस इसका उद्देश्य अपनी भाषा को सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य को कमजोर सिद्ध करने से कहीं ज्यादा उसके संरक्षण में होना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह केवल इतिहास के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए. प्रत्येक भाषा के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उसका बोला एवं लिखा जाना एक अनिवार्य तत्त्व है. अपनी भाषा को बोलने में संकोच कैसा!
भाषा जोड़ने का काम करती है और सृजन में कोई भी कमतर-बेहतर नहीं होता! सबकी अपनी-अपनी सुंदरता, मधुरता है तथा स्थान के अनुसार प्रत्येक की उपयोगिता भी होती ही है. हम मित्रों के साथ जिस सहजता,अपनेपन और अनौपचारिक ढंग से बात करते हैं वहाँ तू, तेरा जैसे शब्द भी कितने प्रेम भरे लगते हैं वहीं कार्यस्थल में बात करने की एक अलग ही प्रशिक्षित शैली होती है. अति-संभ्रांत वर्ग में तमाम औपचारिकताओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओँ का छौंक लगाना सभ्यता का मानक समझा जाने लगा है. वहीं किसी बड़े mall के सेल्समेन से बात करते समय और ठेलेवाले से सब्जी लेते समय हमारी भाषा में जमीन-आसमान का फर्क आ जाता है. इंसान हम वही हैं बस स्थानानुसार, सबकी सहूलियत के आधार पर ज़बान बदल लेते हैं.
मंत्र यही है कि भाषा कोई भी हो, इसको बोलने का तरीक़ा ही सब कुछ तय करता है. भाषा के साथ-साथ उचित शब्दों का चयन ही बात बनाता और बिगाड़ता है.
माध्यम कोई भी हो इससे अंतर नहीं पड़ता, महत्त्वपूर्ण यह है कि मानसिकता सही रहे...स्नेह-भाव जीवित रहे! और क्या!
हर भाषा का अपना मज़ा है, सबको अपने बच्चों जैसा प्यार करना चाहिए. मेरा बस चले तो सब सीख लूँ. :)
- प्रीति 'अज्ञात'
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