इन दिनों, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोगों को धीरे-धीरे डसने लगे हैं. 'उसकी शर्ट मेरी शर्ट से सफ़ेद कैसे' के दिन अब लद चुके हैं. बीते एक दशक से अब इसके स्थान पर 'उसके लाइक, कमेंट, फॉलोवर मेरे से अधिक कैसे' ट्रेंड कर रहा है. प्रेमी-प्रेमिका से नाराज़ हो उठता है कि 'मेरी पोस्ट छोड़ तूने उसकी पोस्ट पर दिल क्यूँ बनाया!' शक़ को दूर करने के लिए पासवर्ड भी रख लेता है. कई पति भी अपनी पत्नी का पासवर्ड रखते हैं कि 'ये तो भोली है, मुझे ही इसका ध्यान रखना पड़ेगा'. जबकि उसका उद्देश्य नज़र रखने का रहता है. कहीं मित्र, रिश्तेदार भी मुँह फुलाये घूमते कि 'देखो! कितने भाव बढ़ गए, हम भी उसकी पोस्ट पर नहीं जाएंगे अब!' ऐसे कई किस्से आप रोज़मर्रा सुनते ही होंगे. ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा का ये आलम तब है जबकि इससे कोई आर्थिक लाभ ही नहीं! कोई न गिनने वाला!
बीते सालों से एक नया नाटक और प्रारम्भ हो चुका है. वो है भक्त और अभक्त में बहस का. बहस तो अत्यंत शालीन शब्द है, असल में तो बात जूतमपैज़ार तक पहुँचती है. अब यदि कोई सच में अपने आराध्य की भक्ति की बात करे, तब भी सामने वाले की नज़र में मोदी जी का चेहरा ही चमक उठेगा. ये ईश्वर की महिमा समझें या माननीय का प्रताप, ये आप पर निर्भर है. आप किसी को फेंकू कहें तो वह तुरंत आपको पप्पू कह देगा. संकेत दोनों पक्ष समझते हैं. देश की डिक्शनरी बिना ऑक्सफ़ोर्ड हस्तक्षेप के, अपने-आप ही बदल चुकी है. 'भक्त' का अर्थ बना 'किसी की धुन में इतना अंधा हो जाना कि आँखों के सामने रखे सच को भी अपने कुतर्कों से नकारने लगें'. कुछ कट्टरों ने तुरंत एक तोड़ निकाला और 'सेक्युलर' को गाली की तरह परोस दिया. इसी दौरान 'देशद्रोही' शब्द का भी पुनर्जन्म हुआ और एक नई क़िस्म की नफ़रत अँगड़ाई लेने लगी. देश स्वतः ही दो खेमों में बँट गया. कल जो मित्र साथ हँसते-बोलते थे, वे अब अपने-अपने पालों में खड़े होकर नित हर शब्द का अनुवाद बनाते हैं, गोया हमारी रसोई मोदी जी या राहुल जी ही चला रहे.
लोगों को राजनीति जैसे नीरस विषय में अचानक ही दिलचस्पी होने लगी है, ऐसा भी नहीं! दरअसल सोशल मीडिया की अंधाधुंध दौड़ में हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा, किसी एक को चुनने के सिवाय. अगर चुना नहीं तो आप ढोंगी कहलाये जाएंगे. व्हाट्स एप्प, टीवी, रेडियो, अख़बार सब जगह इन्हीं के जोक्स...! अब इंसान हैं तो कभी-कभार हँसी निकल भी जाती है. बस, इधर आप हँसे, उधर आप पर भाजपाई या कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. विरोधी हो तभी तो फॉरवर्ड किया तुमने! ऐसे-कैसे हँस सकते हो जी! पिछली बार जब हमने चुटकुला सुनाया, तब तो ऐसी खींसें नहीं निपोरी थीं तुमने? ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह! आप सिर पीटते रहें (अपना ही) पर आक्षेप का ये दौर अंतहीन ही रहेगा. आप कोई भी एक वाक्य बोलें, उसे किसी एक खेमे का ही माना जाएगा.
इस सबमें वे लोग टूटते रिश्ते या ख़ुद अपनी ही मौत मारे जाते हैं जिन्हें केवल 'देश' से मतलब. जो किसी भी क़िस्म की कट्टरता को देश पर हावी नहीं होने देना चाहते, जो 'हत्या' में धर्म नहीं टटोलते, जिनके लिए 'एक भारत' ही 'श्रेष्ठ भारत' है. ये इस देश का दुर्भाग्य है कि इन चंद लोगों पर ही सबसे ज्यादा प्रश्न उठते हैं. और वे हर वक़्त अपनी सफ़ाई देते नज़र आते हैं. उन्हें बिन पेंदी का लोटा, धर्मनिरपेक्षता की पूँछ और कई निम्नस्तरीय अपशब्दों से भी नवाज़ा जाता है. भारत के इस रूप की कल्पना हमने कभी नहीं की थी. आख़िर ये राजनीतिक दल हमें भिड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने के सिवाय और कर ही क्या रहे हैं? उस पर दिक़्क़त ये कि लोग उल्लू बनने को नतमस्तक हैं. उन्हें अपने आक़ा को खुश करके ईनाम जो लूटना है! आज लूट लीजिए और बाद में अपने भाग्य पर बुक्का फाड् रोइएगा. पर उससे पहले एक सूची भी बनाते चलिए कि इन निर्मोही, स्वार्थी नेताओं के समर्थन के चक्कर में आपने कितने अपने खो दिए हैं. अब इसकी भरपाई कौन करेगा? ये long distance से वोट बैंक भरने वाले निष्ठुर आक़ा?? जिन्हें आपका नाम तक पता नहीं!
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंफ़ूट डालो और मौज करो नस नस में बह रहा है। सटीक।
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