सोमवार, 17 अगस्त 2020

खुद को बदलो! शायद आपको देख दुनिया भी बदल जाए!

  

कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गुंजन सक्सेना' एक लड़की के आसमान छूने के स्वप्न को यथार्थ में बदलने की कहानी है. 
परन्तु क्या यह इतना आसान है? जिस समाज में हम रह रहे हैं वहाँ तो लड़की के सपने देखने पर ही प्रतिबंध है. समझ जाइए कि फिर उसे साकार करने में प्रत्येक स्तर पर लड़कियों को किन-किन कठिनाइयों से जूझना पड़ता होगा! 'लड़की होकर' किसी पुरुष प्रधान क्षेत्र में प्रवेश करने की कल्पना ही कई लोगों के मस्तिष्क में प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती है. कुछ इसे कोरी मूर्खता से अधिक कुछ नहीं समझते तो एक बड़ी संख्या यह मानकर व्यंग्य कसने से नहीं चूकती कि 'ये काम इनके बस का है ही नहीं! देखना, ख़ुद ही लौट आएंगीं!' 

इस संदर्भ में एक बात याद आ रही है. आपको पता ही है कि पहले कैरियर के अधिक विकल्प नहीं हुआ करते थे और व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी इतने प्रचलन में नहीं थे. तो उस समय बारहवीं के बाद बीएससी चुनने वाली लड़कियाँ प्रायः मुख्य विषय के रूप में जीव विज्ञान (बायोलॉजी) लेती थीं और लड़के गणित (मैथ्स). कई बार उन्हें चिकित्सक (डॉक्टर) या अभियंता (इंजीनियर) बनते देखना उनके माता-पिता का सपना भी हुआ करता था. बिना किसी संशय के इस प्रस्ताव का अंतिम लक्ष्य शादी होता था. खैर! तो हुआ यह कि मेरी एक सहेली ने गणित चुन लिया. ओह्होहो! बस, ये समझ लीजिये जैसे क्रांति ही आ गई. सैकड़ों प्रश्न उठ खड़े हुए. यह सच है कि कक्षा और प्रयोगशाला (लैब) में उसे कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ा. पर उसे गणित पसंद था और उसने अपने दिल की सुनी. सफ़लतापूर्वक डिग्री हासिल की. इस पूरे कोर्स के दौरान उसके इस निर्णय पर कई प्रश्न उठे, बातें बनाई गईं. वो परेशान तो हुई पर डटी रही.

क्षेत्र विशेष में पुरुष वर्चस्व या एकाधिकार की सोच कब बदलेगी, कह नहीं सकते! पर बदलेगी ज़रूर, इस बात का पूरा यक़ीन है. अब इसे 'महिला सशक्तिकरण' से जोड़कर मत देखिएगा. बात सपनों की है, उसे हासिल करने की है. यदि उन्हें पूरा करने का जज़्बा साथ हो तो इसमें क्या स्त्री और क्या पुरुष! कोई फ़र्क नहीं पड़ता! फ़र्क यदि पड़ता है तो इस बात में कि लड़कियों पर टीका-टिप्पणी करने वाले, उन्हें कमतर आँकने वाले, उसके आत्मविश्वास को कहीं-न-कहीं डगमगाने की कोशिश ज़रूर करते हैं. इसलिए वो कभी सहमी नज़र आती है तो कभी आँखों में आँसू भर लिया करती है. यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है क्योंकि लड़कियाँ हर क़दम पर इसी मानसिकता से रूबरू होती हैं. लेकिन हर लड़की इससे टूट जाया नहीं करती! ख़त्म नहीं हो जाती! कुछ की इच्छाशक्ति और भी प्रबल होती जाती है. हाँ, ये सच है कि उसका संघर्ष मात्र बाहरी ही नहीं होता! भीतर भी एक लड़ाई चला करती है कहीं. हर रोज़ चलती है. दिन-रात चलती है.

गुंजन ने पायलट बनने का सपना देखा क्योंकि उसे बादलों के ऊपर उड़ना था. जब उसका चयन भारतीय वायु सेना के लिए हुआ तो वह स्वयं से एक मासूम प्रश्न कर विचलित भी होती है कि 'क्या वह देशभक्त है?' बड़ी ही ईमानदारी दर्शाया यह प्रसंग मन को छू लेता है. 
मुख्य चरित्र की भूमिका में जाह्नवी कपूर का अभिनय ठीकठाक है. इससे बेहतर हो सकता था.  ख़ासतौर से उन दृश्यों में जहाँ जोश दिखाने की आवश्यकता थी लेकिन उनकी जो उम्र और अनुभव है, उस आधार पर अभी उन पर अपनी अपेक्षाओं का अधिक बोझ रखना उचित नहीं लगता. बोलती आँखें हैं उनकी और वे ख़ूबसूरत भी हैं. समय के साथ अभिनय निखरेगा ही.  

जहाँ तक पंकज त्रिपाठी की बात है तो वे इस फ़िल्म के मुख्य नायक  के रूप में उभरते हैं. हर दृश्य में उनकी उपस्थिति प्रभावी रही है. उनकी अभिनय क्षमता पर तो यूँ भी कोई संदेह कभी रहा ही नहीं. हर अगली फ़िल्म में वे एक नया कीर्तिमान स्थापित करते चलते हैं. कई बार तो लगता है जैसे कि उनकी होड़ स्वयं अपने-आप से ही है. 
उनके कहे संवाद गहरा असर छोड़ते हैं -
" जब प्लेन को फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसे कौन उड़ा रहा है तो तुमको क्यों पड़ता है?"
"जो लोग मेहनत का साथ नहीं छोड़ते, क़िस्मत कभी उनका हाथ नहीं छोड़ती!"
"खुद को बदलो! शायद आपको देख दुनिया भी बदल जाए!"

यह फ़िल्म कहीं-न-कहीं पारिवारिक रिश्तों और मानवीय संवेदनाओं को भी समानांतर रूप से स्पर्श करती चलती है. गुंजन के लिए जहाँ उसके पिता लौह स्तंभ की तरह उसके साथ खड़े मिलते हैं तो माँ और भाई के मन में ढेरों चिंताएं हैं जो कभी कटाक्ष या क्रोध के रूप में दर्शाई गई हैं. भाई-बहिन का रिश्ता ही ऐसा है जहाँ परवाह बहुत होती है पर सामने लड़ाइयाँ और ताने ही दृष्टमान होते हैं. भाई(अंगद बेदी) प्रारम्भ में बहुत हतोत्साहित करता है. वह पुरुष मन की सच्चाई को भलीभांति समझता है, इसलिए अपनी बहिन के प्रति एक भय है उसके मन में. पर स्नेह की यह डोर सचमुच अनमोल है. 
हम भारतीय माँएं बच्चों के प्रति जरुरत से अधिक रक्षात्मक और तमाम शंकाओं से भरी होती हैं. इस भाव का भी अच्छा चित्रण हुआ है फ़िल्म में. सफ़लता के बाद परिवार कैसा फूले नहीं समाता! इस तथ्य से हम और आप भलीभांति परिचित हैं ही. फ़िल्म में भी अच्छा लगता है. 

फ़िल्म अच्छी है पर कहते हैं न कि हिंदी सिनेमा को देखते समय अपना दिमाग़ पहले खूँटी पर टांग देना चाहिए. यदि आप ऐसा करना भूल गए हैं तो इस फ़िल्म में गुंजन की दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाने के लिए रचा गया एक दृश्य जबरन ठूंसा हुआ एवं अतार्किक लगने वाला है. इसमें वह पायलट बनने के लिए दसवीं, बारहवीं और स्नातक के बाद बार-बार आवेदन करती दिखाई गई है. अचरज़ की बात है कि एक लड़की जो अपने लक्ष्य के प्रति इस हद तक दीवानी है. उसका पिता हर क़दम पर उसके मार्गदर्शन के लिए तैयार है. क्या वह न्यूनतम अर्हताओं को जाने बिना ही आवेदन कर देगी? हम लोग तो थैला भर कागजात ले जाने वाले प्राणियों में से हैं. क्या पता बाबू कब क्या मांग ले!

बहरहाल 'गुंजन सक्सेना' के कई दृश्य ऐसे हैं जिसमें लड़कियां स्वयं की छवि देखेंगीं, उदास भी हो जाएंगी, कुछ पल को क्रोध या फिर नैराश्य भाव भी घेर लेगा पर मेरा दावा है कि अंत में नम आँखों के साथ एक मुस्कान उनके चेहरे पर अवश्य खिलेगी और वे जीवन को एक नए नज़रिए से देख पुनर्जीवित हो उठेंगीं. उनकी प्रतिबद्धता भी बढ़ेगी. एक फ़िल्म यदि इतना असर छोड़ जाती है तो फिर देख ही लेनी चाहिए न! 
- प्रीति 'अज्ञात'

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