डिस्क्लेमर - इस पोस्ट को बीयर प्रेमियों से किसी प्रकार का कोई बैर न समझा जाए.
जब किसी को लड़कियों के बीयर पीने से डर लगता है तो मुझे भी यक़ायक़ बड़े जोरों से हँसने की तलब हो उठती है. फिर याद आता है कि उफ़ ये तो चरित्रहीन होने की उम्दा निशानी है. अत: मैं अपनी मुस्कान वाली माँसपेशियों को दो सेंटीमीटर से अधिक बाहर नहीं जाने देती और एक मृदु मुस्कान को हमेशा टिकाये रखती हूँ. वो क्या है न कि पुरुषों का जाहिल, हिंसक, अभद्र, अश्लील, विकृत और घिनौना रूप समाज में बड़ी सहजता से स्वीकार्य है और इसमें संतुलन स्थापित करने के लिए हमें संस्कारी, शांतिप्रिय, सभ्य, उत्तम विचार युक्त, सुंदर, सुशील छवि स्थापित करनी ही पड़ती है. इसके लिए हमें एयर इंडिया की होस्टेस की तरह सदैव स्वागत को आतुर नमस्कार मुद्रा में खड़े होने का प्रशिक्षण जन्म से ही प्राप्त है. आप अत्याचार करें, हम सहेंगे.
आपराधिक मानसिकता से परिपूर्ण पुरुषों (कु) में किसी स्त्री को थप्पड़ देने के एवज़ में थप्पड़ खाने की कला अभी तक विकसित नहीं हो सकी है. इसे सभ्य भाषा में 'पुरुषार्थ पर प्रहार' भी कहा जाता है. हाय, विकासशील देशों का यह कैसा दुर्भाग्य! जैसा कि ज्ञात ही है कि इस सभ्य, सुसंस्कृत समाज में पवित्रता की धारा बहाने और चरित्रता की मिसालें क़ायम करने की ज़िम्मेदारी केवल स्त्रियों के कंधे पर है. सो, डरने की बात तो है, भैये!
अब इसे मेरा मादक द्रव्य पदार्थों को समर्थन क़तई नहीं समझा जाए. विद्यार्थी जीवन में स्कूल से घर लौटने का जो शॉर्टकट था न, वहाँ एक 'देसी शराब का ठेका' पड़ता था. भीषण दुर्गन्ध के कारण साँस रोक निकलना होता था (रामदेव जी ने तो अब सिखाया पर प्राणायाम तो हमारा बाल्यकाल से ही प्रारम्भ हो गया था). डाकुओं के इलाके में रहने के कारण भय नामक तत्त्व भी कूट-कूटकर भरा था. तो अपन जैसे ही किसी लाल-लाल आँखों वाले को देखते, तुरंत ही सरपट भाग लिया करते. वैसे मूलत: इन शराबियों की वहीं एक गंदे नाले के पास गिर जाने की प्रथा भी उन दिनों अपने चरम पर थी. तो साब, नफ़रत का आलम तो समझ ही जाइए.
वो तो भला हो प्रकाश मेहरा और लम्बू जी का, कि 'शराबी' फिल्म के बाद हमें इस क़ौम से सहानुभूति होने लगी और इस बात पर लगभग विश्वास ही हो गया कि 'दर्द की यही दवा है'. 'मुझे पीने का शौक़ नहीं, पीती हूँ ग़म भुलाने को' गाने ने भी हमारी इस सोच की पुष्टि की. कुछ फिल्मों ने यह भी ज्ञान दिया कि प्रेमी अपने सच्चे प्रेम की पुष्टि अक़्सर नशे की अवस्था में ही ईमानदारी से कर पाते हैं. पर इसके समर्थन में हम तब भी खड़े न हुए क्योंकि हमें पता था कि 'शराब, पीने से लिवर ख़राब हो जाता है'.
हमारी सामाजिक व्यवस्था की क्यूटनेस इसी बात से मेन्टेन रहती है कि धर्म, जाति के नाम पर ही नहीं बल्कि लिंग आधार पर भी भेदभाव को उचित विस्तार दिया गया है. तात्पर्य यह है कि जो कार्य पुरुषों के लिए उचित, वही स्त्रियों के लिए सर्वथा अनुचित माने गए हैं. यथा- एल्कोहल सेवन, धूम्रपान, वेश्यावृत्ति, बीच सड़क खड़े हो कर गपशप, गालियों का धुँआधार प्रयोग, लड़ाई-मारकाट इत्यादि. यद्यपि इसमें गालियों के बीच महिलाओं को यथोचित स्थान देने का प्रयास किया जाता रहा है.
परिस्थितियों के अनुसार ग़लत-सही की परिभाषाएँ परिवर्तित होती रहती हैं. हर आनी-जानी सरकार डिनर मीटिंग में एक कनस्तर एल्कोहल पीने के बाद आपको सूचित करती है कि "यह बुरी वस्तु है लेकिन हम बिकवाएँगे. आप बस ख़रीदियो मत! ख़रीद ल्यो तो घरवाली को मत बतइयो और जो लत पड़ जाए तो नक्को चिंता! सुधार-गृह का ठेका अपने पैचान वाले का ही है. हेहे, उसके भी घर में चार पैसे आएँगे".
जब सब पीने का ठेका तुमरा ही है साहेब जी, तो पिलीज़ एक काम करो, जरा ज़हर पीकर बताओ न! सच्ची हम बिल्कुलै try नहीं करेंगे.
मज़ाक बहुत हुआ पर मुझे सचमुच उस दिन की प्रतीक्षा है जब तुम (बुरे पुरुष) स्त्रियों का नाम सुन थर-थर कांपने लगो.
किसी घर के बेसमेंट में खुद के लुट जाने के भय से छुप जाओ.
रात को बाहर चार दोस्तों के साथ ही निकलो कि कहीं कोई लड़की अकेले देख तुम्हारा फायदा न उठा ले.
तुम अकेले सफर करने से घबराओ और ट्रेन में पुरुष डिब्बे की मांग करो.
वो सुबह कभी तो आएगी!
सुनो, लड़कियों...क्रांति का उद्घोष करो!
- प्रीति 'अज्ञात'
#iChowkमें प्रकाशित
जब किसी को लड़कियों के बीयर पीने से डर लगता है तो मुझे भी यक़ायक़ बड़े जोरों से हँसने की तलब हो उठती है. फिर याद आता है कि उफ़ ये तो चरित्रहीन होने की उम्दा निशानी है. अत: मैं अपनी मुस्कान वाली माँसपेशियों को दो सेंटीमीटर से अधिक बाहर नहीं जाने देती और एक मृदु मुस्कान को हमेशा टिकाये रखती हूँ. वो क्या है न कि पुरुषों का जाहिल, हिंसक, अभद्र, अश्लील, विकृत और घिनौना रूप समाज में बड़ी सहजता से स्वीकार्य है और इसमें संतुलन स्थापित करने के लिए हमें संस्कारी, शांतिप्रिय, सभ्य, उत्तम विचार युक्त, सुंदर, सुशील छवि स्थापित करनी ही पड़ती है. इसके लिए हमें एयर इंडिया की होस्टेस की तरह सदैव स्वागत को आतुर नमस्कार मुद्रा में खड़े होने का प्रशिक्षण जन्म से ही प्राप्त है. आप अत्याचार करें, हम सहेंगे.
आपराधिक मानसिकता से परिपूर्ण पुरुषों (कु) में किसी स्त्री को थप्पड़ देने के एवज़ में थप्पड़ खाने की कला अभी तक विकसित नहीं हो सकी है. इसे सभ्य भाषा में 'पुरुषार्थ पर प्रहार' भी कहा जाता है. हाय, विकासशील देशों का यह कैसा दुर्भाग्य! जैसा कि ज्ञात ही है कि इस सभ्य, सुसंस्कृत समाज में पवित्रता की धारा बहाने और चरित्रता की मिसालें क़ायम करने की ज़िम्मेदारी केवल स्त्रियों के कंधे पर है. सो, डरने की बात तो है, भैये!
अब इसे मेरा मादक द्रव्य पदार्थों को समर्थन क़तई नहीं समझा जाए. विद्यार्थी जीवन में स्कूल से घर लौटने का जो शॉर्टकट था न, वहाँ एक 'देसी शराब का ठेका' पड़ता था. भीषण दुर्गन्ध के कारण साँस रोक निकलना होता था (रामदेव जी ने तो अब सिखाया पर प्राणायाम तो हमारा बाल्यकाल से ही प्रारम्भ हो गया था). डाकुओं के इलाके में रहने के कारण भय नामक तत्त्व भी कूट-कूटकर भरा था. तो अपन जैसे ही किसी लाल-लाल आँखों वाले को देखते, तुरंत ही सरपट भाग लिया करते. वैसे मूलत: इन शराबियों की वहीं एक गंदे नाले के पास गिर जाने की प्रथा भी उन दिनों अपने चरम पर थी. तो साब, नफ़रत का आलम तो समझ ही जाइए.
वो तो भला हो प्रकाश मेहरा और लम्बू जी का, कि 'शराबी' फिल्म के बाद हमें इस क़ौम से सहानुभूति होने लगी और इस बात पर लगभग विश्वास ही हो गया कि 'दर्द की यही दवा है'. 'मुझे पीने का शौक़ नहीं, पीती हूँ ग़म भुलाने को' गाने ने भी हमारी इस सोच की पुष्टि की. कुछ फिल्मों ने यह भी ज्ञान दिया कि प्रेमी अपने सच्चे प्रेम की पुष्टि अक़्सर नशे की अवस्था में ही ईमानदारी से कर पाते हैं. पर इसके समर्थन में हम तब भी खड़े न हुए क्योंकि हमें पता था कि 'शराब, पीने से लिवर ख़राब हो जाता है'.
हमारी सामाजिक व्यवस्था की क्यूटनेस इसी बात से मेन्टेन रहती है कि धर्म, जाति के नाम पर ही नहीं बल्कि लिंग आधार पर भी भेदभाव को उचित विस्तार दिया गया है. तात्पर्य यह है कि जो कार्य पुरुषों के लिए उचित, वही स्त्रियों के लिए सर्वथा अनुचित माने गए हैं. यथा- एल्कोहल सेवन, धूम्रपान, वेश्यावृत्ति, बीच सड़क खड़े हो कर गपशप, गालियों का धुँआधार प्रयोग, लड़ाई-मारकाट इत्यादि. यद्यपि इसमें गालियों के बीच महिलाओं को यथोचित स्थान देने का प्रयास किया जाता रहा है.
परिस्थितियों के अनुसार ग़लत-सही की परिभाषाएँ परिवर्तित होती रहती हैं. हर आनी-जानी सरकार डिनर मीटिंग में एक कनस्तर एल्कोहल पीने के बाद आपको सूचित करती है कि "यह बुरी वस्तु है लेकिन हम बिकवाएँगे. आप बस ख़रीदियो मत! ख़रीद ल्यो तो घरवाली को मत बतइयो और जो लत पड़ जाए तो नक्को चिंता! सुधार-गृह का ठेका अपने पैचान वाले का ही है. हेहे, उसके भी घर में चार पैसे आएँगे".
जब सब पीने का ठेका तुमरा ही है साहेब जी, तो पिलीज़ एक काम करो, जरा ज़हर पीकर बताओ न! सच्ची हम बिल्कुलै try नहीं करेंगे.
मज़ाक बहुत हुआ पर मुझे सचमुच उस दिन की प्रतीक्षा है जब तुम (बुरे पुरुष) स्त्रियों का नाम सुन थर-थर कांपने लगो.
किसी घर के बेसमेंट में खुद के लुट जाने के भय से छुप जाओ.
रात को बाहर चार दोस्तों के साथ ही निकलो कि कहीं कोई लड़की अकेले देख तुम्हारा फायदा न उठा ले.
तुम अकेले सफर करने से घबराओ और ट्रेन में पुरुष डिब्बे की मांग करो.
वो सुबह कभी तो आएगी!
सुनो, लड़कियों...क्रांति का उद्घोष करो!
- प्रीति 'अज्ञात'
#iChowkमें प्रकाशित
https://www.ichowk.in/humour/why-its-high-time-for-beer-drinking-girls-to-come-forward-and-ask-for-their-rights/story/1/9866.html
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
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