अंकित के साथ जो हुआ वह हमारे काले गुनाहों की सूची में एक और बदनुमा दाग़ लगाकर आगे बढ़ गया है. इस जघन्य कृत्य की जितनी भी निंदा की जाए, कम है और हमारे बस में कुछ रहा भी क्या है!
इन दिनों यही तो हमारी नियति बन गई है कि हम निंदा करते हैं, चौराहों, न्यूज़ चैनलों पर जमकर चर्चा होती है, आक्रोश दूध के उबाल की तरह निकल- निकल बाहर आता है और फिर अगले गुनाह के होने तक सभी अपनी-अपनी व्यस्त दिनचर्या में लौट चुके होते हैं.
सरकार वही घिसा-पिटा आश्वासन देती है और प्रशासन क्षतिपूर्ति के नाम पर एक निश्चित धनराशि. यह मात्र मुँह बंद रखने की क़ीमत भर है इसे दर्द और आँसुओं से भरे इंसान के शेष जीवन से कोई लेना-देना नहीं! इसे उस हृदयविदारक दृश्य से भी क्या मतलब जब किसी के सामने उसके ही जिग़र के टुकड़े का बेदर्दी से गला रेत दिया जाता है. इसके बहरे कानों तक उस प्रेमिका की चीखें कभी नहीं पहुँच पातीं जो उसके चकनाचूर हुए स्वप्न और प्रेमी को हमेशा-हमेशा के लिए खो देने की पीड़ा से उपजी हैं.
ऊँचाई पर बैठे लोगों को वर्तमान से कहीं अधिक भूतकाल में रूचि है. इन्हें शहरों, गली-मोहल्ले के नाम बदल अपनी पीठ थपथपाना आता है. इनके माथे पर गहरी शिक़न तब आती है जब कोई किसी पर इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप लगा 'वोट बैंक' को डगमगाने की कोशिश करता है. ये तब चौंक जाते हैं जब कोई इनके लिए अपशब्द कह डालता है.
इनकी घबराहट तब देखने लायक होती है जब इनका कोई 'अपना' कहीं फंस रहा होता है.
ये अपनी हाँ में हाँ मिलाने वालों के मुरीद हैं और विरोधी से नफ़रत कर उसे देशद्रोही क़रार कर देने का एक भी मौका नहीं छोड़ते.
सार यह है कि अपने व्यक्तिगत हितों और सत्ता-लोलुपता की दृष्टि से सम्बंधित सभी विषयों पर इनकी समस्त इन्द्रियाँ जागृत हो जाती हैं और तब ही न्यायपालिका भी सावधान मुद्रा में खड़ी हो अपनी सचेत अवस्था की हास्यास्पद पुष्टि करती नज़र आती है.
वरना आप किसी तथाकथित 'संत' के जेल जाने पर शहर को आग में फूँक दें... इज़ाज़त है!
आप बीच चौराहे पर किसी को ज़िंदा जला दें .... ये उफ़ भी न करेंगे!
धर्म के नाम पर इंसानों को टुकड़ा-टुकड़ा कर वीडियो वायरल कर दें, ये उस मुद्दे को भूनकर और सब तरफ़ से भुनाकर चबा डालने में माहिर हैं.
ये अपराधों को दूर करने से कहीं ज्यादा उसके सुलगते रहने पर यक़ीं करते हैं, शर्त यह है कि फ़ायदे का लडडू सीधा इनके मुँह में आ गिरे!
ये छह माह की बच्ची या चौरासी साल की वृद्धा के साथ हुए बलात्कार को सहजता से लेते हैं. किसी किशोर को उसकी उम्र की आड़ में बाइज़्ज़त बरी करते हैं और उसकी हवस का शिकार बनी स्त्री जाति के छोटे कपड़ों पर दोष मढ़ हाथ झाड़ लेते हैं. इन्हें उसके ऊंचे कपडे दिखाई देते हैं पर अपनी नीची सोच पर फ़क्र महसूस होता है. इन्हें बलात्कारी को फाँसी देने में कोई रुचि नहीं बल्कि डर है कि कहीं इनके साथी ही उसके चपेटे में न आ जायें. ये चुप्पी यूँ ही नहीं है!
हम उस दुनिया में रह रहे हैं जो विध्वंस के बारूद पर खड़ी है. जहाँ क़ातिलों को सज़ा नहीं मिलती और 'Honor killing' अब लीगल लगने लगी है. जहाँ अधिकारों की मांग करते-करते 'भीड़' अपने कर्त्तव्यों को भूल राष्ट्र्रीय संपत्ति को नष्ट करने में एक पल भी नहीं हिचकती.
हम ख़बरों को देख हताश हो उठते हैं. अपने परिवार के सदस्यों के बाहर जाने पर बेचैनी से समय काटते हैं, एक घबराहट और भय हर समय साथ चला करता है.
तमाम अच्छाइयों के बीच अब सर्व धर्म समभाव, अहिंसा गुरु और धर्म-निरपेक्षता की बातें सिर्फ़ क़िताबी हैं. सहिष्णुता दिखती है क्या कहीं? प्रेम, भाईचारा, अनेकता में एकता मजाक का विषय बन रह गए हैं.
असल दुनिया में सब तरफ़ अन्याय है, दुःख है, गहरी पीड़ा है और इस सबके साथ चलता एक बेबस जीवन है जो अब भी कभी-कभी मूर्खतावश सकारात्मक उम्मीद कर बैठता है जबकि आज के इस दौर में हमें सिर झुका, हाथ जोड़, नम आँखों से यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि नफ़रतों के इस दौर में प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह है.
धिक्कार है हम पर...
हमारे नियमों पर...
और प्रेमियों इस वैलेंटाइन माह में तुम यूँ ही दिल न दे बैठना किसी को ...पहले उसकी जात पूछ लेना!
- प्रीति 'अज्ञात'
#वैलेंटाइन#iChowk में प्रकाशित
इन दिनों यही तो हमारी नियति बन गई है कि हम निंदा करते हैं, चौराहों, न्यूज़ चैनलों पर जमकर चर्चा होती है, आक्रोश दूध के उबाल की तरह निकल- निकल बाहर आता है और फिर अगले गुनाह के होने तक सभी अपनी-अपनी व्यस्त दिनचर्या में लौट चुके होते हैं.
सरकार वही घिसा-पिटा आश्वासन देती है और प्रशासन क्षतिपूर्ति के नाम पर एक निश्चित धनराशि. यह मात्र मुँह बंद रखने की क़ीमत भर है इसे दर्द और आँसुओं से भरे इंसान के शेष जीवन से कोई लेना-देना नहीं! इसे उस हृदयविदारक दृश्य से भी क्या मतलब जब किसी के सामने उसके ही जिग़र के टुकड़े का बेदर्दी से गला रेत दिया जाता है. इसके बहरे कानों तक उस प्रेमिका की चीखें कभी नहीं पहुँच पातीं जो उसके चकनाचूर हुए स्वप्न और प्रेमी को हमेशा-हमेशा के लिए खो देने की पीड़ा से उपजी हैं.
ऊँचाई पर बैठे लोगों को वर्तमान से कहीं अधिक भूतकाल में रूचि है. इन्हें शहरों, गली-मोहल्ले के नाम बदल अपनी पीठ थपथपाना आता है. इनके माथे पर गहरी शिक़न तब आती है जब कोई किसी पर इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप लगा 'वोट बैंक' को डगमगाने की कोशिश करता है. ये तब चौंक जाते हैं जब कोई इनके लिए अपशब्द कह डालता है.
इनकी घबराहट तब देखने लायक होती है जब इनका कोई 'अपना' कहीं फंस रहा होता है.
ये अपनी हाँ में हाँ मिलाने वालों के मुरीद हैं और विरोधी से नफ़रत कर उसे देशद्रोही क़रार कर देने का एक भी मौका नहीं छोड़ते.
सार यह है कि अपने व्यक्तिगत हितों और सत्ता-लोलुपता की दृष्टि से सम्बंधित सभी विषयों पर इनकी समस्त इन्द्रियाँ जागृत हो जाती हैं और तब ही न्यायपालिका भी सावधान मुद्रा में खड़ी हो अपनी सचेत अवस्था की हास्यास्पद पुष्टि करती नज़र आती है.
वरना आप किसी तथाकथित 'संत' के जेल जाने पर शहर को आग में फूँक दें... इज़ाज़त है!
आप बीच चौराहे पर किसी को ज़िंदा जला दें .... ये उफ़ भी न करेंगे!
धर्म के नाम पर इंसानों को टुकड़ा-टुकड़ा कर वीडियो वायरल कर दें, ये उस मुद्दे को भूनकर और सब तरफ़ से भुनाकर चबा डालने में माहिर हैं.
ये अपराधों को दूर करने से कहीं ज्यादा उसके सुलगते रहने पर यक़ीं करते हैं, शर्त यह है कि फ़ायदे का लडडू सीधा इनके मुँह में आ गिरे!
ये छह माह की बच्ची या चौरासी साल की वृद्धा के साथ हुए बलात्कार को सहजता से लेते हैं. किसी किशोर को उसकी उम्र की आड़ में बाइज़्ज़त बरी करते हैं और उसकी हवस का शिकार बनी स्त्री जाति के छोटे कपड़ों पर दोष मढ़ हाथ झाड़ लेते हैं. इन्हें उसके ऊंचे कपडे दिखाई देते हैं पर अपनी नीची सोच पर फ़क्र महसूस होता है. इन्हें बलात्कारी को फाँसी देने में कोई रुचि नहीं बल्कि डर है कि कहीं इनके साथी ही उसके चपेटे में न आ जायें. ये चुप्पी यूँ ही नहीं है!
हम उस दुनिया में रह रहे हैं जो विध्वंस के बारूद पर खड़ी है. जहाँ क़ातिलों को सज़ा नहीं मिलती और 'Honor killing' अब लीगल लगने लगी है. जहाँ अधिकारों की मांग करते-करते 'भीड़' अपने कर्त्तव्यों को भूल राष्ट्र्रीय संपत्ति को नष्ट करने में एक पल भी नहीं हिचकती.
हम ख़बरों को देख हताश हो उठते हैं. अपने परिवार के सदस्यों के बाहर जाने पर बेचैनी से समय काटते हैं, एक घबराहट और भय हर समय साथ चला करता है.
तमाम अच्छाइयों के बीच अब सर्व धर्म समभाव, अहिंसा गुरु और धर्म-निरपेक्षता की बातें सिर्फ़ क़िताबी हैं. सहिष्णुता दिखती है क्या कहीं? प्रेम, भाईचारा, अनेकता में एकता मजाक का विषय बन रह गए हैं.
असल दुनिया में सब तरफ़ अन्याय है, दुःख है, गहरी पीड़ा है और इस सबके साथ चलता एक बेबस जीवन है जो अब भी कभी-कभी मूर्खतावश सकारात्मक उम्मीद कर बैठता है जबकि आज के इस दौर में हमें सिर झुका, हाथ जोड़, नम आँखों से यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि नफ़रतों के इस दौर में प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह है.
धिक्कार है हम पर...
हमारे नियमों पर...
और प्रेमियों इस वैलेंटाइन माह में तुम यूँ ही दिल न दे बैठना किसी को ...पहले उसकी जात पूछ लेना!
- प्रीति 'अज्ञात'
#वैलेंटाइन#iChowk में प्रकाशित
https://www.ichowk.in/society/ankit-saxena-murder-honor-killing-gives-strong-message-akhlaq/story/1/9790.html
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