गुरुवार, 9 जनवरी 2014

अतिथि देवो भव:

बाज़ार में काफ़ी गहमागहमी है. हर तरफ ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए 'सेल' के बोर्ड लगे हैं और रात को दुकानों पर लगी रंगबिरंगी रोशनियाँ, पटाखों की धूम-धड़ाक, जगमगाता माहौल आपको ये एहसास करा ही देता हैं...कि दीवाली ने दस्तक दे दी है. आप भी तैयारियों में जुट जाईए! पर बाकी सभी की तरह अब त्योहारों से जुड़ा उत्साह भी कुछ बदल सा गया है. ख़ैर बदलाव तो प्रकृति का नियम है...पर जिस बात से सबसे ज़्यादा हैरत होती है..वह है अब लोगों का सिर्फ़ अपने ही परिवार के साथ इसे मनाना और मेहमानों के ना आने की मन्नत माँगना..... 
 
अरे...आप कुछ ग़लत मत समझिए !! 'अतिथि देवो भव:' की संस्कृति में पले-बढ़े लोगों की मज़बूरियाँ हैं, बहुत सी........मेहमानों के आने पर निरीह पति को डर है, अतिरिक्त  छुट्टी ना लेनी पड़ जाए; पत्नी बेचारी पहले से ही काम के बोझ तले अधमरी हो चुकी है; बच्चों को हर बार की तरह रिमोट के मालिकाना हक़ की चिंता; दादा-दादी को कमरा शेअर करने की उलझन; यहाँ तक कि आपकी काम वाली बाई को भी लेट हो जाने की फ़िक्र...! 
 अब इस बात में क्या ताज़्ज़ुब करें...जब अतिथि के आने की खबर सुनकर हमारा मुँह खुला का खुला रह जाए! प्रतिक्रियाएँ कुछ इस तरह की होती हैं......... 
 *"अच्छा, किसी काम से आ रहे होंगे(गोया आपसे मिलने आना तो क़ानूनन अपराध हो जैसे)!" 
 *"लौटने की टिकट करा ली या नहीं, आजकल रिज़र्वेशन बड़ी मुश्क़िल से मिलता है(जानना ये चाह रहे हैं, जी आपका प्रस्थान कब होगा?)"! 
 *"ओह, मीटिंग है! कब तक ख़त्म होगी? वैसे यहाँ से काफ़ी कनेक्टिंग फ्लाइट हैं(मतलब, हो सके तो वहीं से निकल लो...हम तो आपके बगैर भी ज़िंदा हैं)!" 
 * "बच्चों की छुट्टी कब तक हैं?(यानी, ऐसा कोई ज़रूरी नही, कि आप उन बेचारों की पढ़ाई का नुकसान करो ही)!" 
 *कुछ तो सारी हदें पार करके सीधे अपना बहुमूल्य सुझाव ही दे डालते हैं...."वैसे रेलवे-स्टेशन के पास भी अच्छे होटल हैं, वहाँ से टेक्सी लेकर आप सारा शहर घूम सकते हैं(चाहे गड्ढे में जाओ,पर हमें डिस्टर्ब मत करो)!" 

उफ्फ.....ज़माना कितना बदल गया है! भगवान बचाए, ऐसे मेज़बानो से...दुआ करती हूँ आपकी ज़िंदगी में ऐसे लोग कभी ना आएँ, पर पता है; आज के हालातों में ये दुआ भी कितनी बेमानी है...!! 

अब उन मेज़बानो का दर्द भी बाँट लेते हैं .............

आए हैं मेहमान घर पे,  
जाने कब ये जाएँगे ? 
चाय ही काफ़ी है इनको 
या समोसे खाएँगे ? 
                      सोच में बैठे हैं, हम सब, 
                       ये कब तक हमें रुलाएँगे ? 
                      दस बज़े तक निकल लेंगे, 
                       या यहीं सो जाएँगे ? 
बर्तन हुए जमा अब ढेरों, 
काम वाली भी नहीं ! 
चिंता में है जान जाती, 
किससे हम मँजवाएँगे ? 
                       हे मुसाफिर! अब ना आना, 
                       तुम होटल में ठहर जाना ! 
                       आज इतनी डोज़ काफ़ी, 
                       कल ना आके तुम पकाना ! 
थोड़ी हिम्मत थाम लें हम, 
दो-चार सेवक और धर लें ! 
होठों पे मुस्कान हो जब, 
'अतिथि' तुम तब ज़रूर आना !! 

प्रीति'अज्ञात' :) 

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