गुरुवार, 16 मार्च 2023

चेतना को पुकारती, जंगल की आवाज

सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट कर दूँ कि भले ही ‘The Elephant Whisperers’ को लघु वृत्तचित्र की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार मिला हो लेकिन इसे किसी उबाऊ वृत्तचित्र समझने की भूल बिल्कुल भी नहीं कीजिएगा। यह अपने-आप में परिपूर्ण एक ऐसी उत्कृष्ट लघु फिल्म है जो आपको अंत तक एकटक बाँधे रखती है और मन-मस्तिष्क में सदा के लिए ठहर जाती है। गिलहरी, उल्लू, गिरगिट के चेहरों से प्रारंभ हुई इस फ़िल्म का प्रथम दृश्य ही मंत्रमुग्ध कर देता है और दर्शक को समझ आ जाता है कि वह अपने जीवन के श्रेष्ठतम 41 मिनट का साक्षी होने वाला है।

यह तमिलनाडु के कट्‌टुनायकन (kings of the forest) समुदाय के दो लोगों की कहानी है। मानवीय संवेदनाएं क्या और कैसी होती हैं, हम मनुष्यों का प्रकृति से रिश्ता कैसा होना चाहिए, पर्यावरण के प्रति प्रेम का सही मायनों में अर्थ क्या है इन सभी मूल्यों को गहराई से समझाने में ‘The Elephant Whisperers’ पूर्ण रूप से सफ़ल सिद्ध हुई है। न तो इसमें भारी-भरकम संवाद या नाच गाना हैं और न ही कोई अतिनाटकीयता से भरा वातावरण! बल्कि अपने हर दृश्य में यह बड़ी सहजता से आपको प्रकृति की गोद में लिए आगे बढ़ती है। छायांकन तो अद्भुत है ही, साथ ही इसमें इतने सुंदर पल हैं जो आपके हृदय को भीतर तक नम कर जाते हैं।

यूँ इस वृत्तचित्र का मूल विषय तो रघु (हाथी) ही है लेकिन भावनात्मक स्तर पर यह मनुष्य और उससे जुड़ी संवेदनाओं की भी उतनी ही दक्षता से बात करती है। यह बताती है कि अनेक कठिनाइयों से किसी को पाल-पोसकर बड़ा करना क्या होता है और उसके बाद उसे किसी और के हाथों सौंप देने में दिल पर क्या गुजरती है। कितने भावुक होते हैं वे पल, जब आप उस अपने को दूर से निहारते हैं। यह रघु और अमु की दोस्ती और उससे पहले की उनकी मनःस्थिति को भी सटीक तरीके से उभारती है। मनुष्यों के घर में जब दूसरा बच्चा आता है तो पहला जिस असमंजसता और असुरक्षा से गुजरता है उसकी एक झलक भी यहाँ देखने को मिलती है। लेकिन उसके जाने के बाद की व्याकुलता ..उफ़! जी करता है कि उठकर अमु के आँसू पोंछ दें और उसे रघु से मिला दें। रघु के दूसरे सहायक के पास जाने का दृश्य भी अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। जैसे कोई किसी बच्चे को जबरन बोर्डिंग भेज रहा हो। कहने को हाथी के लालन-पालन से जुड़ी कथा पर भाव जैसे हर पल हम पर बीत रही हो।

एक बच्चे को पालते हुए कैसे दो मन परस्पर बंध जाते हैं और वह बच्चा भी हाथी का हो तो ये बात कई लोगों को अचंभित कर सकती है! लेकिन यह ऐसे ही प्यारे परिवार की कहानी है। उन लोगों की कहानी जिन्हें प्रकृति प्रेम का सही अर्थ पता है, जो जानते हैं कि जंगलों से उतना ही लेना है जितनी जीवन की आवश्यकता है। जब हम प्रकृति से जुड़ी हर बात से प्रेम करते हैं तो बदले में प्रेम ही मिलता है। यह बात जंगल के जानवर भी हमसे बेहतर जानते हैं। वे निरर्थक ही किसी को हानि नहीं पहुँचाते। उन्हें प्रेमिल स्पर्श समझ आता है और वे इसका उत्तर भी कई गुना बढ़ाकर देते हैं।

सार यह कि ‘The Elephant Whisperers’ वर्तमान समय के उन सभी प्रासंगिक विषयों पर सशक्त रूप से बात करती है

जिसमें प्रकृति और मनुष्य के मध्य सामंजस्य स्थापित हो, उनका सह-अस्तित्व हो, जीव-जंतुओं के अधिकार के प्रति संवेदनाएं उत्पन्न हों, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़े और ज्यादा से ज्यादा पा लेने की मनुष्य की महत्वाकांक्षा पर विराम लगे। प्रकृति है तो जीवन है। इस कठिन लेकिन बेहद आवश्यक फ़िल्म को बनाने के लिए कार्तिकी गोंज़ाल्विस को बधाई के साथ-साथ ढेर सारा स्नेह। समाज को इसी चेतना भरी फिल्मों की दरकार है। वृत्तचित्र से जुड़ी ऊब भरी धारणाओं को ध्वस्त करने का भी शुक्रिया, कार्तिकी! 💖

- प्रीति अज्ञात इसे आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं - https://hastaksher.com/the-elephant-whisperers-oscar-winning-amazing-documentary-on-environmental-protection-and-animal-rights/ #TheElephantWhisperers #Oscars2023 #KartikiGonsalves #PreetiAgyaat #प्रीतिअज्ञात #हस्ताक्षर #हस्ताक्षरवेबपत्रिका





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मंगलवार, 14 मार्च 2023

नाटू-नाटू के साथ जमकर नाचो!

 

खेतों की धूल में कूदते हुए बैल की तरह नाचो, तुम इस बजते हुए ढोल पर उड़-उड़कर नाचो। ऐसे नाचो जैसे चप्पल-जूते पहन छड़ी से लड़ते हैं। ऐसे नाचो कि विशाल बरगद की छाया तले युवाओं का झुंड थिरक रहा है। तुम ऐसे प्रसन्न हो नाचो जैसे कि आज ज्वार की रोटी के साथ मिर्च का अचार भी खाने को मिला हो। नाचो मेरे वीर! तुम पूरे पागलपन से नाचो। इस क़दर नाचो कि हरी मिर्च का तीखापन दिखाई दे और उसमें चाकू सी धार हो। जैसे ढोल पीटने पर कान सुन्न हो जाते हैं और हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं, नाचो नाचो। मेरे भाई! उस गीत की तरह नाचो जो आपकी उंगलियों को भी थिरकने पर मजबूर कर दे। तेज ताल पर जंगली नृत्य की तरह नाचो। तुम ऐसे नाचो जैसे पृथ्वी हिलने लगे। धूल-धूसरित होकर नाचो, धूल उड़ाकर नाचो। नाचो नाचो।

यूँ तो  'नाटू नाटू'  गीत हिन्दी में भी उपलब्ध है लेकिन मेरी रुचि इसके मूल भाव को समझने में थी। तेलुगू में लिखे गए इस गीत के अनुवाद को जब समझा तो हैरान हो गई। यह मनुष्य की उन भावनाओं से जुड़ा गीत है जो उसे उल्लास से भर देती हैं। जब खुशियों से उसका मन झूमता है, तब ही वह यूँ नाचता है जैसे  'नाटू नाटू' में नाचा है। इस गीत के बोल भावविह्वल कर देते हैं और यह भी बताते हैं कि एक आम आदमी के जीवन में खुशी के पलों का अर्थ क्या है और अपनी जमीन से जुड़े रहना क्या होता है। मानव मन असल में इतना ही भोला है कि छोटी-छोटी खुशियाँ ही उसे एक भरपूर जीवन दे जाती हैं। ये तो राजनीति ने सबके दिमाग में ज़हर घोल रखा है वरना हर मनुष्य अच्छा ही बना रह सकता है। 

किसी भारतीय भाषा में लिखे गीत को ऑस्कर मिलना देश के लिए गौरवान्वित करने वाला पल है। ये आह्लाद के, उल्लास के वे क्षण हैं जिनकी प्रतीक्षा एक लंबे समय से थी। इस पुरस्कार को किसी ट्रॉफी के प्राप्त कर लेने भर से नहीं आंका जा सकता बल्कि यह इस भाव को भी वैश्विक रूप से प्रतिष्ठित करता है कि हमारे संगीत में वह जादू है जो हर पैर को थिरकने पर विवश कर दे और इसके लिए 'नाटू नाटू' की पूरी टीम बधाई की पात्र है।  

अब इस गीत को ऑस्कर मिलना चाहिए था या नहीं! इस पर भी चर्चाओं का दौर चल पड़ा है। लेकिन मेरा मानना है कि घर बैठे सपने बुनते रहने से कुछ नहीं होता! जीतेगा वही जो प्रतियोगिता में भाग लेगा। मुझे तो लगता है कि 'जीना यहाँ, मरना यहाँ'', ' इक प्यार का नगमा है', 'नैन लड़ जइहैं', 'फूलों के रंग से' और ऐसे तमाम सादगी से भरे लेकिन जीवन रंग में घुले गीत भी ऑस्कर योग्य हैं। जाने भेजे गए होंगे या नहीं!  

कुढ़ने वालों का तो क्या ही कहा जाए पर अधिकांश जनता तो प्रसन्नचित्त ही है और भारतीयता का यह भाव जो अभी हमारे भीतर है, वह ओलंपिक या क्रिकेट के समय भी भरपूर देखने को मिलता है। शेष समय हम फ़लाने की हाय हाय, ढिमके की बॉयकॉट या ज़िंदाबाद/ अमर रहें में निकाल देते हैं। भारतीय सिनेमा को भी बॉलीवुड तक ही सीमित मान लिया जाता है। यहाँ तक कि अन्य राज्यों के कलाकारों को भी यह लगता है कि हिन्दी फिल्मों में आए बिना उनकी प्रतिभा को वह मान न मिल सकेगा जिसके वे हक़दार हैं! 

हाँ, एक बात और ... जिस दीपिका के विरुद्ध एक वर्ग ने भीषण हाहाकार मचा रखा था। वही प्रतिभावान और आत्मविश्वास से भरी दीपिका पादुकोण ऑस्कर में भारत का प्रतिनिधित्व करती नज़र आईं। मंच पर हों या श्रोताओं में बैठीं, उनकी खुशी, उनकी मुस्कान, उनके आँसू सब कह रहे थे कि एक सच्चा भारतीय देश के लिए ऐसे ही गर्व अनुभव करता है और देशभक्ति कोई ढोल पीट-पीटकर, अपने-अपने झंडे लहराकर सार्वजनिक प्रदर्शन की वस्तु क़तई नहीं होती! देशप्रेम कट्टर नहीं, एक सहज, कोमल भाव है जो अधिकांश भारतीयों की रगों में स्वतः ही दौड़ा करता है। प्रेम से रहकर देखो, सब अपने हैं। 
खैर! आओ, नाटू-नाटू के साथ नाचें।   
- प्रीति अज्ञात 

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Song: Naatu Naatu
Movie: RRR
Singer: Rahul Sipligunj, Kaala Bhairava
Lyrics: Chandrabose
Music: M.M. Keeravaani
Starring: NTR, Ram Charan
Label: Lahari Music

सोमवार, 13 मार्च 2023

अमृत काल में स्त्रियों के मन की बात

स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक राष्ट्र के निर्माण में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता! जब-जब उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला है उन्होंने उल्लेखनीय सफ़लता प्राप्त की है।  चाहे वह युद्ध भूमि हो या राजनीति, प्रारम्भ से ही हर क्षेत्र में स्त्री की सुनिश्चित भागीदारी रही है एवं सामाजिक -आर्थिक परिवर्तनों के लिए उसकी भूमिका सराहनीय रही है। वह सत्ता भी संभालती रही, घर-बार भी। उसने लड़ाइयां भी जीतीं और खेती-बाड़ी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण जो भी रहा हो पर वह अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति हमेशा सजग रही है।

यदि स्त्री पीड़ित, कमजोर और शोषित वर्ग का हिस्सा रही है तो उसने देश में व्याप्त कुरीतियों, अत्याचार, अनाचार के विरुद्ध भी खुलकर बोला है और यह कहना गलत न होगा कि उसकी अभिव्यक्ति में विद्रोह के स्वर भी सदैव ही मुखरित होते रहे हैं।

‘मी टू’ आंदोलन इन्हीं मुखर स्वरों का सशक्त उदाहरण बन सामने आया था। यह एक बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में उभरा कि अब स्त्री की झिझक खुलती जा रही थी। वह अपने भीतर के भय पर काबू पाना सीख रही थी और उसने अपनी समस्याओं और पीड़ा पर बोलने का साहस भी जुटा लिया था।

इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि चिरकाल से स्त्रियों के साथ असमानता, उत्पीड़न का व्यवहार होता रहा है। उनके साथ हुए अमानवीय अपराधों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। यही कारण है कि स्त्री-पुरुष से बने इस सदियों पुराने समाज में अब भी उसे अपने अधिकारों और समानता की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। इसलिए फेमिनिज्म को बवाल समझने वालों को यह जानना आवश्यक है कि लड़ाई समानता की है, पुरुषों के विरुद्ध नहीं! स्त्रियों की पुकार उन सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ हुंकार है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है। जहाँ तक पितृसत्तात्मकता का प्रश्न है तो यह वर्षों से चली आ रही एक सामाजिक व्यवस्था है जिस पर कुंठा नहीं, विमर्श की आवश्यकता है।

हम आजादी के अमृतकाल में हैं लेकिन स्त्रियों की सुरक्षा आज भी बहुत बड़ा मुद्दा है। कई जघन्य घटनाएं हमारे सामने हैं और उस पर समाज की असंवेदनशीलता दुख से भर देती है। चाहे वह माँ बेटी का ज़िंदा जल जाना हो,  सब्जी की तरह किसी लड़की को काटकर फ़्रिज में रखे जाना हो या तंदूर में भूनकर लाश को ठिकाने लगाना; ये सब सनसनीखेज तब बनती हैं जब उसमें किसी दल को राजनीतिक लाभ मिल रहा हो। उस समय ऐसी घटनाएं प्रायः ‘आपदा में अवसर’ का महत्वपूर्ण उदाहरण बन प्रस्तुत होती हैं। अन्यथा कभी सड़क किनारे, कभी जंगल, कभी पानी में स्त्री की लाश का मिलना सौ खबरों की सूची में 90 के बाद स्थान पा लेता है, बस उसकी नियति यहीं तक ही सीमित है। इन गरीबों, अचर्चित जीवों की मृत्यु भी उनके जीवन की तरह चर्चा योग्य नहीं समझी जाती।  स्त्रियाँ केवल अपने अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी लड़ रही है कि उन्हें कम-से-कम मनुष्य तो समझा जाए!

उत्सवों का दौर है लेकिन स्त्रियाँ क्या पहनें, कैसे रहें, क्या और कितना बोलें, यह तय करने का और उस पर टीका-टिप्पणी करने का बीड़ा अभी भी समाज के ठेकेदारों ने स्वयं के पास ही रखा है। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी स्त्री ने, पुरुष के पहनावे को लेकर कोई आपत्ति दर्ज़ की हो!

इतिहास वीरांगनाओं के तमाम किस्से बताता है लेकिन आधुनिक युग में न जाने क्यों वे आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित ही नहीं की गईं। बढ़ते अपराध को देखते हुए एवं सुरक्षा के लिए अब स्कूली शिक्षा में ‘आत्म-रक्षा’ को एक विषय की तरह सिखाया जाना चाहिए तथा विद्यार्थियों को इसका पूरा प्रशिक्षण भी देना चाहिए।

स्त्रियों को सदा से नाजुक ही माना और रखा गया। इसलिए यह एक अलिखित नियम सा रहा ही कि लड़की कहीं भी जाएगी तो उसका भाई, पिता, पति अर्थात कोई भी एक पुरुष तो बॉडीगार्ड के रूप में साथ होगा ही। यही पोषित मानसिकता है कि आज भी स्त्रियाँ अकेले कहीं जाने में असहज, असहाय अनुभव करतीं हैं। उन्हें एक साथ की आवश्यकता हमेशा महसूस होती है। लैंगिक समानता के आह्वान के साथ अब इन आदतों से मुक्ति पाने का समय तो अवश्य आ गया है लेकिन परिवर्तन की उम्मीद भर रखने से, परिवर्तन हो नहीं जाता! अतः समाज और अपराधी की मानसिकता को अभी भी ध्यान में रख सावधान रहना ही श्रेयस्कर होगा।

इस वर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ की थीम ‘डिजिटऑल: लैंगिक समानता हेतु नवाचार एवं प्रौद्योगिकी’ है। हर वर्ष की थीम का मूल उद्देश्य लिंगभेद को समाप्त करना ही होता है। महिला दिवस के तय तीन रंग बैंगनी, हरा और सफेद है। बैंगनी रंग, न्याय और गरिमा का प्रतीक है। हरा रंग, जीत की उम्मीद बँधाता है और सफेद शुद्धता का प्रतीक है। यानी न्याय, गरिमा और हृदय की शुद्धता के साथ जीत की आश्वस्ति लिए इस दिन को मनाना चाहिए।

एक सुखद तथ्य यह है कि बीते कुछ वर्षों में स्त्रियों के पक्ष में सोशल मीडिया, सच्चे साथी की तरह आ खड़ा हुआ है। एक दशक पूर्व तक कामकाजी और घरेलू स्त्री के बीच का अंतर साफ़ दिखाई देता था। वे स्त्रियाँ जो प्रतिभासंपन्न होते हुए भी घर से बाहर नहीं निकल सकतीं थीं, ‘घरेलू’ टैग उन्हें कुंठा में जकड़ना प्रारंभ कर चुका था। यह, वह समय भी था जब स्त्री के सहेजे हुए सपनों ने अंगड़ाइयाँ लेना प्रारंभ कर दिया था। स्व-अस्तित्व की तलाश में उसकी कसमसाहट कभी-कभार शाब्दिक रूप से झलकने और आँखों से छलकने लगी थी। यद्यपि पश्चिमी देशों की तरह ‘हाउस वाइफ’ को ‘होम मेकर’ कहकर, एक सुखद विचारधारा का मुलम्मा भी चढ़ाया गया। लेकिन इस तथाकथित पदोन्नति का सच, ठीक से किसी के भी गले नहीं उतरा!

ऐसे ही असमंजस के दौर में इंटरनेट और सोशल मीडिया का आगमन हुआ, जिसे स्त्रियों ने हाथों-हाथ लिया। यदि यह कहा जाए कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर इत्यादि प्लेटफ़ॉर्म स्त्रियों के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं तो भी गलत नहीं होगा! माना कि इस मंच से जुड़ी कई असुविधाएं हैं लेकिन यदि पूरी समझदारी और संयत भाव के साथ इनका उपयोग किया जाए, सच और झूठ का भेद समझ आ सके तो ये आपकी क़िस्मत बदल सकते हैं। कारण स्पष्ट है कि स्त्रियाँ चाहें किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हों, यह माध्यम सभी को समान रूप से अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करने में सक्षम है।

वे स्त्रियाँ जो पाक कला, नृत्य, गायन, योग आदि में निपुण थीं और डिग्रियों को सहेजे, कुछ न कर पाने के अवसाद में डूब रहीं थीं, अब अपने वीडियोज़ बनाकर या ऑनलाइन कक्षाओं के द्वारा पैसा कमा रहीं हैं। कुछ अपने पेज बनाकर अपनी कला को लोगों तक पहुँचा रहीं हैं। उन्हें घर बैठे ऑर्डर मिल रहे हैं। उनकी अभिव्यक्ति को पंख लग गए हैं। वे जिनकी पहुँच केवल अपनी, गली, मोहल्ले या शहर तक सीमित थी; अब वैश्विक स्तर पर पहचान पा रहीं हैं। आत्मनिर्भर होने का सुख भोग रहीं सो अलग।

लेकिन इस सब के बावजूद भी ‘महिला दिवस’ की प्रासंगिकता कम नहीं हुई। इस जीत को हासिल करने के लिए स्त्रियों को सहारे की नहीं, साथ की ज़रूरत है। अहंकार की नहीं, प्रेम की ज़रूरत है। विरोध की नहीं, सहयोग की ज़रूरत है। ऐसे समस्त विशेषणों का बहिष्कार करने की भी आवश्यकता है, जो स्त्री पर दया-रहम के द्योतक हों। उसे न तो अबला, बेचारी बनना है और न देवी। उस पर बनी उन कहावतों से भी पल्ला झाड़िए जो उसे कमजोर साबित करने को कही जाती रहीं हैं। उन गालियों और अभद्र भाषा के प्रयोग को भी रोकना होगा जो स्त्री को नीचा दिखाने, उसके अपमान के लिए बनाई गई हैं।

स्त्रियों को एक बात गांठ बाँधनी होगी कि हर बार समाज ही दुश्मन नहीं होता। व्यक्तिगत जीवन में कभी-कभी हम लोग ही स्वयं पीड़िता, मजबूर, त्याग और बलिदान की देवी बनकर अपना जीना दूभर कर लेते हैं। महान बनने से कुछ नहीं होता सिवाय दुख, परेशानी और तनाव के क्योंकि कुछ वर्षों बाद यही महानता और ‘DISEASE TO PLEASE’ घुटन बनकर भीतर से ख़त्म करने लगती है। इसीलिए सच के साथ खड़े होकर अपनी बात कहना सबसे पहले सीखना है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम स्वयं को एक नई पहचान दें, खुलकर जिएं और राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान दें!

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' मार्च 2023 अंक संपादकीय - https://hastaksher.com/amrit-kaal-mein-striyon-ke-mann-kee-baat-editorial-by-preeti-agyaat/

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रविवार, 5 मार्च 2023

सुख की परिभाषा

 इतने विशाल संसार में न जाने ऐसी कितनी वस्तुएं हैं जिनके न होने का दुख हमारे साथ चलता है। दुख न भी हो तो कम-से-कम उन्हें पा लेने की ख्वाहिश तो अवश्य ही रहती है। हम सबके पास अपनी-अपनी सूची है जिसमें एक-एक कर tick लगाते हुए हम प्रसन्न भी अनुभव करते हैं पर इस सूची का अंत नहीं है क्योंकि इच्छाओं का अंत नहीं, सपनों का अंत नहीं, लालसा, महत्वाकांक्षा का कोई अंत नहीं! यह सब कुछ जानते, समझते हुए भी हम अपना जीवन कुछ पाने की दौड़ में लगा देते हैं।

 जीवन की इसी भागदौड़ और तनाव में हम प्रायः उनका धन्यवाद करना भूल जाते हैं जो हमारे लिए हैं तो सबसे कीमती, पर हमें उसका अहसास नहीं। जो सुविधा जन्म से ही साथ हो तो उसमें कुछ खास नहीं लगता न! लेकिन सामान्य बच्चे की तरह जन्म लेना भी एक खास घटना है, ईश्वर का आशीर्वाद है कि आप सारे अंगों के साथ सही-सलामत इस संसार में आए हैं। 
उन माता-पिता के दर्द को कौन समझेगा, जिनके बच्चे जन्म से ही किसी गंभीर बीमारी के शिकार है। कुछ ऐसे हैं जो बोल नहीं सकते, कुछ सुन नहीं सकते, कुछ चल नहीं सकते, देख नहीं सकते, कुछ लिख-पढ़ नहीं सकते और दुर्भाग्य से भरी यह सूची लंबी होती चली जाती है। बहुत भाग्यशाली हैं वे लोग जो अपने पैरों पर चल सकते हैं, अपने हाथों से लिख सकते हैं, संगीत की मधुर ध्वनि सुन सकते हैं और खुली आँखों से प्रकृति की अथाह सुंदरता निहार सकते हैं। सबके हिस्से यह सुख नहीं होता! फिर कहती हूँ कि यक़ीन कीजिए, "सामान्य बच्चे की तरह पैदा होना बहुत असाधारण घटना है।" 

आज इस video को देख आँख भर आई। https://twitter.com/ValaAfshar/status/1632059491393892353
इस सबके बाद मैं सोचती हूँ कि जिसने जीवन में रंग नहीं देखे वह सृष्टि की सबसे सुंदर प्रस्तुति को देखने से वंचित रह गया। भाग्यशाली हैं वे लोग जो अपनी आँखों से जी भरकर इस दुनिया को देख पाते हैं, रंगों को महसूस कर जीते हैं, उन्हें दुलार देते हैं। इसलिए आँखों में बस प्यार हो और गर कभी आँसू छलकें भी, तो वे खुशी के हों, श्रद्धा के हों और इस भाव की कृतज्ञता से भरे कि हम सब कुछ देख पाने, महसूस करने में सक्षम हैं। क्योंकि इस दुनिया में करोड़ों ऐसे लोग हैं जिन्हें यह आशीर्वाद नहीं मिला है। 
जैसे दुखों का अंत नहीं दिखता, वैसे ही सुख की भी अपनी कई परिभाषाएं हैं। है न!
- प्रीति अज्ञात