सोमवार, 27 मई 2019

माता नी पछेड़ी

"कई दशकों से हमारा परिवार 'कलमकारी' की इस विशेष कला 'माता नी पछेड़ी' को समर्पित है। हमें कई पुरस्कार मिले हैं, लगभग सभी हस्तकला मेलों में सहभागिता रही है। NID और कई विशिष्ट संस्थानों में इसकी जानकारी देने जाते हैं और वहाँ के विद्यार्थियों को इसका प्रशिक्षण भी देते हैं। लेकिन इस सबके बाद वो अपनी जगह चले जाते हैं और हम अपने 10 X 10 के घर में वापिस आ जाते हैं। बच्चे कई बार पूछते हैं कि "इस कला ने आपको क्या दिया?" हमारे पास सटीक उत्तर तो नहीं होता पर फिर भी हमें गर्व है कि तमाम परेशानियों के चलते जब इस बस्ती के पैंतीस परिवारों ने यह व्यवसाय छोड़कर कोई न कोई नौकरी पकड़ ली है; तब भी हमारे परिवार ने इसे नहीं छोड़ा। कलमकारी तो कुछ और लोग भी करते हैं पर इसमें 'माता नी पछेड़ी' बनाने वाला इस देश का एकमात्र परिवार हमारा ही है। हम जब तक जीवित हैं तब तक यह कला भी जीवित रहेगी।"  
विलुप्तता के कग़ार पर खड़ी एक कला से अपनी जीविका चलाने वाले चितारा परिवार के दूसरे बेटे किरण भाई, अपनी पत्नी सुमन जी के साथ बैठे हुए बड़े ही गर्व से यह बात कहते हैं।

अहमदाबाद रिवरफ्रंट बनने से यह परिवार इसलिए प्रसन्न है क्योंकि इससे उनका अपना शहर और भी सुन्दर दिखने लगा है लेकिन कहीं-न-कहीं ये क़सक भी है कि इसे बनाते समय उन धोबियों और कलमकारी तथा ब्लॉक प्रिंटिंग से जुड़े लोगों के लिए भी कुछ व्यवस्था क्यों नहीं हो सकी, जिनका पूरा धंधा इस नदी के बहाव की लय पर तय था। वे आगे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले इन सबके लिए चर्चा हुई थी और फिर वादे भी किये गए। सब कुछ पक्का था पर आखिरी मिनटों में यह कह दिया गया कि तुम सबमें ही भीतर फूट है, इसलिए कुछ नहीं मिलेगा!

किरण भाई आगे बताते हैं, "कई बार हमें बड़े आर्डर मिलते हैं लेकिन कहाँ फैलाकर काम करें? न धोने के लिए जगह है और न सुखाने को। इसी कमरे के ऊपर वो वर्कशॉप है हमारी और पानी तो आपने देखा ही है।"
ये मेहनतक़श लोग हैं। वहाँ की सुंदरता को धब्बा न लगे इसलिए उन्होंने और आगे जाना मंज़ूर कर लिया। इसके अलावा और विकल्प भी क्या था! लेकिन आगे भी जो पानी है वहाँ एक साथ कई कपड़े नहीं धुल सकते। सुखाने की भी पर्याप्त जगह नहीं है। मैंने स्वयं इनके साथ बीते दस दिनों में कलमकारी की प्रक्रिया को प्रारम्भ से अंत तक देखा, समझा है। उस बदहाल घाट तक भी गई जहाँ इन्हें रंगने के बाद नदी की बहती धारा में धोया जाता है।

ये वे लोग हैं जिन्हें अपने देश की माटी, कला और संस्कृति से बेहद प्यार है। तभी तो इस छोटे से घर के एक कमरे में जहाँ उनका किचन, बैडरूम, ड्रॉइंग रूम, स्टोर सब कुछ समाया है; वहीं एक लोहे की रैक पर रखी अटैचियों को खोलते हुए वे मुस्कुराते हुए मुझे वह क़िताब दिखाते हैं जो किसी जापानी ने इस कला पर कभी लिखी थी और इसकी एक कॉपी उन्हें भेजी थी क्योंकि इनकी बनाई आर्ट की तस्वीर भी है उसमें।  NID की एक विद्यार्थी का प्रोजेक्ट भी है जिसमें उसने बड़े ही सुन्दर तरीके से इस परिवार की कलमकारी द्वारा बनाई विविध तस्वीरों को जीवंत कर दिया है। ये प्रोजेक्ट उनके 'शिल्प गुरु' पापा के योगदान के बारे में है। पन्नों को पलटते हुए सुमन बेन अनायास ही कह उठती हैं कि "मुझे पेंटिंग का बहुत शौक़ था और देखिये मेरा विवाह इतने अच्छे घर में हुआ कि अब मैं इसे अपना पूरा समय दे सकती हूँ। मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानती हूँ।" दिल से कही गई उनकी यह सच्ची बात मुझे न केवल ख़ुशी दे गई बल्कि सुख की परिभाषा की जीती-जागती तस्वीर बन कई दिनों तक जगमगाती रही।

इस परिवार के साथ अनौपचारिक वातावरण में कैमरे के अलावा जो बात हुई उसमें इस कला को बनाये रखने पर गंभीर विमर्श भी हुआ। सार यह निकला कि यदि कला के विद्यार्थियों के लिए चित्रकला, मूर्तिकला की तरह ही 'कलमकारी', 'माता की पछेड़ी' और ऐसी कई अन्य हस्तकलाओं को भी विषय के रूप में रख दिया जाए तो न केवल इससे जुड़ी पुस्तकें लिखी-पढ़ी जायेंगीं बल्कि इन परिवारों के सदस्यों को शिक्षकों के रूप में रोज़गार भी मिलेगा। वो पीढ़ी जो असुरक्षित भविष्य के कारण इस कला से दूर होने का मन बना रही है वो वापिस लौट आएगी और हमारी संस्कृति की इस अद्भुत पहचान की साख़ भी सदियों तक बनी रहेगी। वरना इनकी आगे की पीढ़ियों ने यदि इस कला को अपनाने से इंकार कर दिया तो यह स्वतः समाप्त हो जायेगी। 

मैं जानती हूँ कि मेरी पहुँच बस मेरी लेखनी तक ही है और मैं इस देश की अदनी सी नागरिक हूँ जिसे अपनी माटी से बेइंतहाँ प्यार है। उसी नागरिक की हैसियत से मैं यह चाहती हूँ कि हस्तशिल्प से जुड़े सभी परिवारों को वो सारी सुविधाएँ मिलें जो किसी नायक को मिलती हैं। मुझे नहीं मालूम कि मेरी आवाज़ आप तक पहुँचेगी या नहीं पर फिर भी न जाने किस उम्मीद से उनके कंधे पर तसल्ली का हाथ थपथपा आई हूँ। बदले में उनकी जो मुस्कान मिली, काश! वो हमेशा सलामत रहे!
बस थोड़ी सी ज़मीं और एक बोरवैल की जरुरत पूरी हो जाए तो हमारे देश की यह अद्भुत कला थोड़ी सुकून भर साँस और ले सकेगी। 
- प्रीति 'अज्ञात'
*मुझे नहीं मालूम कि इसके लिए कहाँ संपर्क करना होगा इसलिए उन्हें tag करने की गुस्ताख़ी कर रही हूँ जिनके हाथों ने इस देश की बाग़डोर सँभाल रखी है। 



#नरेन्द्र मोदी #अमित शाह #विजय रुपानी #माता नी पछेड़ी #शिल्पकला #अहमदाबाद 

शनिवार, 25 मई 2019

#सूरत_अग्निकांड

वे लोग जो सूरत हादसे का वीडियो बनाकर upload कर रहे हैं...क्षमा कीजिये पर मुझे आपसे घिन होती है। किसी के कलेज़े के टुकड़े को आग की लपटों में घिरे हुए, ऊपर से गिरते, चीत्कार मारते हुए देख किसी का भी कलेज़ा छलनी हो जाए। वो इंसान दौड़ेगा, चीखेगा, इधर-उधर भागेगा, अपनी बेबसी पर सिर पीटेगा और इस परेशानी में पल भर भी सोच पाया तो क़रीबी घरों से चादर लाकर भीड़ से उसे थामने की गुहार करेगा। वो रोयेगा, हारकर बैठ जाएगा पर वीडियो तो फिर भी नहीं बनाएगा।
उचित सुरक्षा व्यवस्था एवं आपातकालीन दरवाजा न होने के कारण संस्थान तो दोषी है ही, साथ ही आग को बुझाने में प्रशासन और अग्निशमन विभाग की जो लापरवाही हुई है वह भी बेहद शर्मनाक और दुखदायी है। न सीढ़ियाँ हैं, न नेट है तो इनमें और तमाशबीनों में क्या अंतर?
इन बच्चों के परिवार पर क्या बीत रही होगी, उसका अनुमान भर भी लगा लें तो रूह काँप जाती है। उन आँखों में सूनापन है, सवाल हैं और उम्र भर की निराशा! अब दोषियों को ढूँढ निकालने के लिए समितियाँ बनेंगी और न्याय दिलाने के हजार वादे भी जरूर होंगे पर जिन बच्चों ने असहनीय पीड़ा से झुलसते हुए इस धरती को अलविदा कह दिया, उनकी चीख़ें आसमान में गूँजती रहेंगीं।
सुनो, ईश्वर! अब तुम रिटायर क्यों नहीं हो जाते!
- प्रीति 'अज्ञात'
#सूरत_अग्निकांड

बुधवार, 15 मई 2019

चाँद की कहानी

"चाँद सृष्टि को उसके जन्मदिन पर उपहार में मिला चांदी का गोल सिक्का है  जिसे उसने अपनी अलगनी पे झूलती आसमानी चादर पे इक रोज़ मुस्कुराकर टाँक दिया था। ये चादर दिन की भागती ज़िन्दगी को सुकून की ठंडी छाँव देती है। अपने-आप से हारते हुए आदमी की आँखों में उम्मीद के तमाम सपने भरती है। ये नीला बिछौना जब शाम समंदर में अपना चेहरा देख शरमाकर गुलाबी हो जाता है तभी खिलखिलाते तारे मिलकर इसे घेर लेते हैं। उस रात ख़ुशी के हजार रंग रातरानी का रूप धर ख़ूब महकते हैं।
जब तक आसमान पर ये सिक्का टिका है न....प्रेम को कोई डिगा नहीं सकता!" 
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 9 मई 2019

मेरा #रूह_अफज़ा



लगभग दो महीने पुरानी बात है। महीने भर का राशन लेने सुपरस्टोर गई हुई थी। सूची में लिखे सब सामान के आगे टिक लग गया था सिवाय रूह-अफज़ा के। Cash-counter पर जो लड़का था, उससे पूछा तो उसने कहा कि "स्टॉक में ख़त्म हो गया होगा मेम।" मैं भी यही मान रही थी तो उसकी बात सही लगी। कुछ दिन बाद एक Grocery-shop पर जाकर पूछा तो वहाँ भी नहीं था। दुकानदार ने जब बताया कि "बेन, अभी आपको कहीं नहीं मिलेगा!" तो जैसे एक झटका- सा लगा। शरबत तो नहीं बनाती पर मिल्कशेक और लस्सी की तो ये जान रहा है। "नहीं मिलेगा माने? भैया, फिर कैसे चलेगा काम।" मेरे ये कहते ही उसने Mapro की इसी फ्लेवर वाली बोतल coolz sharbat मेरे सामने रखते हुए कहा, "ये बिलकुल वैसा ही है।" 
"अच्छा! ठीक है! यही दे दीजिये।" कहते हुए मेरी आवाज में विश्वास की कमी थी और लग रहा था जैसे मैं अपने बचपन के साथी के साथ धोखा कर रही हूँ। Mapro के उत्पादों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं और इनका Ginger-lemon syrup मेरा favourite है। महाबलेश्वर-पंचगनी यात्रा के दौरान तो मैं इनकी स्ट्रॉबेरी फार्म पर भी गई थी। पर भई.... रूह-अफज़ा तो रूह-अफज़ा है! किसी की क्या मज़ाल जो इससे मुक़ाबला करने का सोचे भी! मुझे तो इसे पाना मेरा संवैधानिक अधिकार लगता है, जी! ये आपसे मुझसे नहीं छीन सकते! एक पल को तो शक़ भी हुआ कि "कहीं......!" पर तुरंत ही अपनी इस सोच पर शर्मिंदा हो स्वयं को धिक्कारते हुए टोकरा भर लानतें भेजने में हमने जरा सी भी देरी नहीं की। 😔

सुनने में ये हँसी की बात लगती है पर रूह-अफज़ा और पारले-जी दो ऐसे उत्पाद हैं जिन्हें मैं सृष्टि की देन मानती आई हूँ। ये प्राकृतिक संसाधनों सरीखे प्रतीत होते हैं। जैसे सूरज है, चाँद है, आसमान है, तारे हैं...वैसे ही रूह-अफज़ा है। इसे सदा सामने ही पाया है। नानी के यहाँ, दादी के यहाँ, उनकी भी नानी-दादी के यहाँ। कोई बताये, कहाँ नहीं था ये? कब नहीं था ये? 😋
ये अलग बात है तब लाड़ में सब इस बिल्लू, टिल्लू की तरह इसका भी नाम बिगाड़कर रुआब्ज़ा बोलते थे। 

गर्मियों में जब भगोने में चम्मच के बजने की आवाज आती तो कोई यूँ नहीं कहता था कि शरबत बन रहा है बल्कि सब जानते थे कि मीठी-मीठी सुगंध लिए चीनी संग रूह-अफज़ा घुल रहा है। उस पर छप्प से बर्फ़ का गिरना....अहा! जाओ रे! अब जी न जलाओ तुम! 😥
जैसे मिनरल वाटर का पर्याय बिसलेरी हो गया है वैसे शरबत मतलब रूह-अफज़ा! हाँ, यहाँ शिकंजी की महत्ता को कम न आंकियेगा...उससे जुड़ी प्रेम कहानी भी कोई कम हसीं नहीं! 😍

खैर! दुकानदार ने यह भी बताया था कि अभी हमदर्द के बाक़ी उत्पाद जैसे साफ़ी, सिंकारा भी नहीं मिलेंगे! "उंह! साफ़ी लेने की जब उमर थी तब न ली तो अब क्या!" सिंकारा का भी इत्तू सा दुःख न हुआ। बस इसका विज्ञापन और ब्रेक डांस वाले प्रतिभाशाली पर इस ad में महा सींकड़ी जावेद ज़ाफरी जी अवश्य याद आ गये। फिर याद को continue करते हुए "बोल बेबी बोल रॉक एंड रोल" और "बूगी- वूगी" ने भी प्रवेश किया। 
आजकल पढ़ने-सुनने में आ रहा कि कंपनी में कुछ अंदरूनी खटपट है या फिर इससे जुड़ी अन्य वस्तुओं की कमी के कारण यह बाज़ार में उपलब्ध नहीं है। जो भी है, समस्या को निबटाओ और रूह-अफज़ा को भारतीयों के जीवन में वापिस लाओ। नहीं तो क्रांति होगी!

एक जरुरी बात - 😜इसके लिए हमारे नेता लोग क़तई दोषी नहीं है और देखना उन्हीं के प्रयासों से रूह-अफज़ा इठलाती हुई फिर आएगी। आखिर चुनावी गर्मी के माहौल में थोड़ी ठंडक की दरकार उन्हें भी तो होगी न!
तब तक गाते रहो - 😄
गर्मी की जान!   रूह-अफज़ा!!
जब आएँ मेहमान! रूह-अफज़ा!!
न हिन्दू, न मुसलमान!  रूह-अफज़ा!!
घर-घर की आन! रूह-अफज़ा!!
भारत की शान! रूह-अफज़ा!!
MORAL: इस घटना से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब तक कोई हमारे साथ बना रहता है, तब तक उसकी उपस्थिति या क़ीमत का एहसास नहीं होता! फिर बाद में ऐसी बातें करनी पड़ती हैं। 😞
- © 2019 #प्रीति_अज्ञात
#रूह_अफज़ा #Roohafza #हमदर्द #hamdard

लानत है!

अलवर में जो गैंगरेप की घटना हुई वो फिर वही सारे प्रश्न खड़े करती है जिनके उत्तर कभी नहीं मिलने वाले! ये घटनाएँ केवल हमारे आपके शहर के, राज्य के, देश के लिए ही शर्मनाक नहीं है ये मनुष्य होने का भी अपमान हैं. मानवता के मस्तक पर लगा कलंक है. ये वो दाग़ भी है जिसे हमारा न्याय-तंत्र कभी अपने दामन से छुड़ा नहीं सकता! सोचिये जरा, जब लोग पूछेंगे कि सामने तस्वीरें आ जाने के बाद भी आपके हाथ कौन बाँध देता है तो आप क्या जवाब देंगे? किसी की अस्मिता को तार-तार कर देने के बाद भी इन दरिंदों का जी नहीं भरता और वे उसे वायरल कर देते हैं. इन साइट्स और लोगों पर लगाम कौन कसेगा जो चंद लोगों के बीच हुई निकृष्टतम घटना और उसके क्रूरता भरे दृश्य पूरी दुनिया के सामने परोसने में एक पल को भी नहीं हिचकते! सोचिये, यदि यह स्त्री आपके परिवार की होती तो भी क्या न्याय की गुहार लगाते हुए आप उसकी तस्वीरें साझा करते? स्त्री होने की सजा आप कितनी बार उसे देंगे? इस एक जीवन में उसे और कितनी बार मरना होगा?

कड़वा सच यह है कि जब तक अपराधियों को तुरंत मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा तब तक कोई भी उम्मीद रखना व्यर्थ ही है! स्पष्ट है कि जिसमें वीडियो बनाने की हिम्मत है उसे किसी का डर नहीं! न समाज का, न पुलिस का, न न्याय-तंत्र का! देखने वाली बात यह है कि इनमें यह हिम्मत आती कहाँ से है? जब इस तरह के अपराधों की सूची निकाली जायेगी और अपराधियों को पूरे गाज़ेबाजे के साथ समाज के बीच ससम्मान बैठा देखा जाएगा तब इस देश की न्यायव्यवस्था को देखकर दुःख भी होगा और शर्मिंदगी भी. लेकिन तब भी अफ़सोस के अलावा और कुछ नहीं कर पायेंगे हम! अब भी क्या करे ले रहे हैं! खीजो, चीखो, चिल्लाओ..चुनावी मौसम में ये सब कौन सुनता-समझता है. आप तो बस ये मान लो कि सुरक्षा कमाल की है!

रेपिस्ट हो या तेज़ाब डालने वाले लोग....आख़िर इन्हें बचाता कौन है? चुनावों में इन विषयों पर बात करने से नेतागण बचते क्यों हैं? नागरिकों की सुरक्षा किसकी जिम्मेदारी है? अपराधियों को दंड देना किसका कर्त्तव्य है? क्या आप चाहते हैं कि देशवासी रोज रोते हुए आपसे अपनी सुरक्षा की भीख माँगें और आप चुनावी वायदों की आँच में उसे मक्खन की तरह अपनी वोट की रोटियों पे लपेटने के बाद ही कुछ वक्तव्य दें? आप इन घटनाओं का दर्द समझ पाते हैं क्या? या फिर ये चाहते हैं किअब अपने न्याय के फ़ैसले जनता अपने हाथों में ले ले?
और उस पर तेरी पार्टी, मेरी पार्टी की राजनीति! लानत है इन लोगों पर!
- प्रीति 'अज्ञात' 
#respectwomen #demandjustice #अलवर #अपराध #चुनाव #न्याय #रेप #एसिडअटैक 
तस्वीर: गूगल से साभार 

मंगलवार, 7 मई 2019

#एकला चलो रे!

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसे पल कई-कई बार आते हैं जब परिस्थितियों से जूझते समय वह हताश हो उठता है और उसे लगने लगता है कि किसी से कुछ कहने-सुनने का मतलब दीवारों से सिर फोड़ना है। रिश्तों के साथ भी ऐसा होता आया है कि सब कुछ समर्पित कर देने के बाद भी उसे निराशा ही हाथ लगती है और वह यह मान बैठता है कि उसकी उपस्थिति का कोई मूल्य नहीं! समाज में हो रहे अन्याय के विरुद्ध उसकी आवाज़ कभी नहीं काँपती लेकिन जब वह पलटकर देखता है तो अपनों की भीड़ में स्वयं को नितांत अकेला और असहाय महसूस करता है। कभी उसके स्वर मंद पड़ जाते हैं तो कभी वह भी इसी स्वार्थी और भयाक्रांत भीड़ का हिस्सा बनने को विवश हो जाता है।

लेकिन वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अंत तक हार नहीं मानते और सारी अपेक्षाओं को परे रख अकेले यात्रा पर चल पड़ते हैं।  ये अकेलापन उन्हें प्रेरणा देता है और यह समझ भी कि किसी को उम्र भर पुकारते रहने से बेहतर है अकेले चलना! 'कोई बचाने आएगा' यह सोच प्रतीक्षा करने से कहीं श्रेष्ठ है, अपनी राहों के कंटकों से स्वयं जूझना! जब चारों दिशाओं में काली स्याह रात सा अँधेरा छाया हो तो उससे भयभीत हुए बिना अपनी अंतरात्मा की पुकार की स्वरलहरी पर अपने क़दमों को गति देना! जब-जब मेरा इन विचारों से साक्षात्कार होता है, तब-तब जो चेहरा सामने आ खड़ा होता है, वह है गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का। 

यदि टैगोर ने 'एकला चलो रे' न लिखा होता तो न जाने कितनी उदासियाँ अँधेरों की चादर ओढ़े कहीं खो चुकी होतीं! न जाने कितने निराश चेहरे हमसे विदा ले चुके होते! न जाने कितनी मुस्कानें अब तक पत्थर बन गई होतीं!

1905 में, यानी आज से सौ वर्ष से भी कहीं अधिक समय पूर्व लिखा गया रवींद्र संगीत पर आधारित यह देशभक्ति गीत आज भी इतना प्रासंगिक होगा, यह अनुमान तो स्वयं गुरुदेव को भी न हुआ होगा! यूँ तो यह गीत मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया है लेकिन समय-समय पर इसके अनुवाद भी होते रहे हैं। यहाँ एक रोचक तथ्य यह भी है कि हममें से अधिकांश इसका मुखड़ा ही जानते हैं पर उसके बावजूद भी ये तीन शब्द 'एकला चलो रे' मनुष्य के डूबते ह्रदय में प्राणवायु का संचार करते हैं। यह गीत व्यक्ति के जीवन में अथाह आत्मविश्वास और उत्साह भर देता है। इसके बोल भीतर तक स्पर्श करते हैं और ठहरे हुए जीवन में अबाध गति प्रदान करते हैं।
 
भाषा की जानकारी न होते हुए भी यह मेरा सबसे पसंदीदा गीत रहा है। इन्टरनेट की सुविधा ने इस तक पहुँच भी आसान कर दी है। आज पहली बार इस पर लिखते हुए अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
इस गीत को you-tube पर सुनकर, लिखने का प्रयास किया है। वीडियो भी साझा कर रही हूँ। भाषा की अनभिज्ञता के कारण, यदि कोई ग़लती हुई हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ पर आपसे सुधार का अनुरोध अवश्य रहेगा। 

जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
जोदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
केऊ कथा ना कोय
जोदि शोबाई थाके मुख फिराय,  शोबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।

जोदि शोबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
जोदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!
जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।

जोदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
जोदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!
जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।
- प्रीति 'अज्ञात' 
*यह तस्वीर मैंने गोवा के एक संग्रहालय में दो-तीन वर्ष पूर्व क्लिक की थी।