बुधवार, 27 जून 2018

तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे!

मोहम्मद रफ़ी का नाम जब-जब सामने आता है तब-तब स्मृतियों में उनका वह सादगी भरा मुस्कुराता चेहरा स्वत: ही घूमने लगता है. एकदम सहज, सरल, हंसमुख. शायद ही कोई भारतीय होगा जो उनके गीतों का दीवाना न रहा हो. आज जब गूगल ने अपना डूडल उन्हें समर्पित किया तो उनके सदाबहार गीत और सुमधुर आवाज की सुरमई रागिनी फ़िज़ाओं में झूमने लगी. उनका गाया कौन-सा गीत सबसे प्रिय है, यह तय करना उतना ही मुश्क़िल है जैसे कोई किसी मां से पूछे कि तुम्हें कौन-सा बच्चा अधिक प्यारा है.

रफ़ी साहब ने हर रंग, हर विधा, हर मूड के गीतों को अपने स्वरों की जो अनमोल सरगम दी है, वह संगीत प्रेमियों के लिए नायाब तोहफ़े की तरह है. अहा, क्या ख़ूब आवाज़ और कितनी सुन्दर अदायगी. उनके गायन का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि श्रोता तुरंत समझ जाते थे कि यह गुरुदत्त पर फिल्माया गया है या देव आनंद पर. राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर, दिलीप कुमार, ऋषि कपूर, अमिताभ, शशि कपूर और न जाने कितने ही नायकों को शिखर पर पहुंचाने में इनकी आवाज का अतुलनीय योगदान रहा है. नौशाद, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, रवि, ओ पी नैयर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी और रफ़ी जी ने श्रोताओं के अगाध स्नेह के साथ-साथ कई राष्ट्रीय एवं फिल्मफेयर पुरस्कार भी प्राप्त किये.

मोहम्मद रफ़ी गाते नहीं, शब्दों को जीते थे. उनके गीत युवाओं की धड़कन, उनके अहसास की अभिव्यक्ति का माध्यम थे. ये उनका जादू ही है जो अब तक हम सबके सिर चढ़कर बोलता है. उनकी आवाज़ के बिना आज भी न तो कोई बारात दरवाजे पहुंचती है और न ही दूल्हा घोड़ी से उतरता है. जब तक बैंड वाले 'बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है' नहीं बजा लेते. विदाई के भावुक पलों में उनका ही गाया 'बाबुल की दुआएं लेती जा' या 'चलो रे डोली उठाओ कहार' वातावरण को भाव-विह्वल कर देता है. समाज की भावनाओं का साक्षात प्रतिबिम्ब बन गई है उनकी आवाज़.

किसी भी प्रेमी की आशिक़ी उनके बिना अधूरी है और अपनी महबूबा के रूठने-मनाने से लेकर उसके हुस्न की तारीफ़ करने में वह इन्हीं का सहारा लेकर आगे बढ़ता है. याद कीजिये- तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, ए-गुलबदन, चौदहवीं का चांद हो, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं, तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है, तारीफ़ करूं क्या उसकी, यूं ही तुम मुझसे बात करती हो और ऐसे कितने ही सदाबहार गीतों के माध्यम से जवां दिलों की क़ामयाब मोहब्बत की नींव पड़ी है.

इनके आंदोलित करते गीतों ने भी प्रेमी-युगलों को समर्थन की ताजा सांसें उपहार में दी हैं. मुग़ल-ए-आज़म में जब ये अपनी बुलंद आवाज़ में 'ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद' गाते हैं तो उस दशक से लेकर अब तक के लाखों प्रेमी उनके साथ एक रूहानी सुकून महसूस कर कह उठते हैं, 'है अगर दुश्मन, दुश्मन.. जमाना ग़म नहीं, ग़म नहीं'हर जवां दिल ने 'एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने' और 'अभी न जाओ छोड़कर...' से अपनी प्रेमिका की मनुहार की है. जहां 'एहसान तेरा होगा मुझ पर' से कठोर दिलों में नरमी भरी है वहीं 'झिलमिल सितारों का आंगन होगा' से आशाओं के सैकड़ों दीप भी प्रज्ज्वलित हुए हैं.

उदासी और विरह में रफ़ी जी के नग़मों के साथ बैचेनी भरे पल कटते हैं और प्रेमी-प्रेमिकाओं के आंसुओं की अविरल धार और प्रेम से उपजी पीड़ा की निश्छलता में भी इन्हीं के सुरों की प्रतिध्वनि गुंजायमान होती है. कौन भूल सकता है इन गीतों को, जिन्होंने विरह-काल में उसी महबूब की यादों की दुहाई दी है.... दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, क्या हुआ तेरा वादा, मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम, तेरी गलियों में न रखेंगे क़दम आज के बाद.

मस्ती और शैतानी भरे गीतों से रफ़ी साब ने जो बिंदास और खिलंदड़पन भरे पल दिए हैं, उनका तो कहना ही क्या! तैयब अली प्यार का दुश्मन हाय हाय, नैन लड़ जईहैं तो मनवा मा कसक होइबे करी, बदन पे सितारे लपेटे हुए, हम आपकी आंखों में इस दिल को बसा दें तो, इशारों-इशारों में दिल लेने वाले... सूची ख़त्म नहीं होगी. इन जैसे समस्त गीतों की प्रशंसा के लिए एक ही शब्द है.. याहू!!!!

'कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों' जैसे देशभक्ति गीतों को भी रफ़ी साब ने इतनी ही शिद्दत से गाया है कि आज भी उन्हें सुनकर शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है और मन भीतर तक भीग जाता है.

कहते हैं दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता या तो ईश्वर से होता है या फिर दोस्त से. यह हम श्रोताओं का सौभाग्य है कि इन दोनों ही रिश्तों को अपने शब्दों की प्राणवायु से पल्लवित करने में इनका कोई जवाब नहीं! तभी तो 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज', 'ओ दुनिया के रखवाले' ह्रदय को भीतर तक झकझोर कर रख देते हैं.

'दोस्ती' फ़िल्म का हर गीत इस सुन्दर रिश्ते की तरह हर राह साथ चलता है. कहते हैं कि यह फ़िल्म जिसने भी देखी थी, वह फूट-फूटकर रोया था. मैंने यह दस वर्ष की उम्र में देखी थी और तब से आज तक इस रिश्ते की शक्ति पर विश्वास क़ायम है. 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे', 'मेरा तो जो भी क़दम है', राही मनवा दुःख की चिंता क्यूं सताती है' जैसे गीतों की अमिट छाप आज तक ह्रदय पर अंकित है और उदासी के समय मन 'मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया' गुनगुनाने लगता है.

'आदमी मुसाफिर है' जैसे कितने ही दार्शनिक और हृदयस्पर्शी गीतों में इनकी ही स्वर-लहरियों का भावनात्मक संचार हुआ है. निराशा के भीषण पलों में 'ये दुनिया ये महफ़िल', गीत कितना सच्चा और अपना-सा लगता है. प्यासा और कागज़ के फूल फिल्मों का प्रत्येक गीत नए गायकों के लिए एक पाठ्यक्रम की तरह है. जिसने ये गायकी सीख ली वो तर गया.

दशकों बाद भी वर्तमान परिवेश में इस गीत की सार्थकता कम नहीं हुई है... ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया /ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया /ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया /ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है... वाह्ह, वाह्ह और फिर वाह्ह्ह!

चुरा लिया है तुमने जो दिल को, इतना तो याद है मुझे, चलो दिलदार चलो, तेरी बिंदिया रे, तुम जो मिल गए हो, आज मौसम बड़ा बेईमान है, दीवाना हुआ बादल.... जैसे हजारों गीतों की लम्बी श्रृंखला है जहां अपना सबसे प्रिय गीत चुन पाने से दुरूह कार्य और कुछ नहीं! छोड़ ही दीजिए.

सच तो यह है कि रफ़ी साब के युग को कुछ शब्दों में समेट लेना न तो आसान है और न ही संभव. यह तो बस स्नेहसिक्त प्रयास भर है, उनकी आवाज़ को दिल से सुनने, सलाम करने का!

ठीक ही कहा था आपने, 'तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे /हां तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे /जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे/ संग संग तुम भी गुनगुनाओगे'

गुनगुना रहे हैं, सर! हम सबका स्नेह और धन्यवाद क़बूल करें.
-#प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में 24-12-2017 को प्रकाशित 
https://www.ichowk.in/…/tribute-to-mohamm…/story/1/9278.html

भारतीय परिवारों के जानलेवा 'सिक्सर'

इसे सुनते ही आपके कानों से मवाद बहने लगेगा, हृदय चीत्कार करेगा, भावनाएं बेदम, आहत हो सर पीटेंगी, पर यदि आपने एक सच्चे भारतीय परिवार में जन्म लिया है तो भैया हर हाल में आपको ये सब सुनते-सुनते ही बड़ा होना पड़ेगा और वो भी साल के पूरे 350 दिन. वरना या तो आप भारतीय नहीं या आपके कान ही नहीं! अब आप सोच रहे होंगे कि 350 दिन क्यों? तो बात ये है भई कि 15 दिन इसलिए कम किये क्योंकि हमारे यहां राष्ट्रीय त्यौहार, होली, दिवाली, क्रिसमस, ईद, राखी आपका या घर के अन्य सदस्य का जन्म दिवस, मां-पापा की विवाह की वर्षगांठ पर भारी छूट मिलती है और माहौल को बिना डांट-डपट, टोका-टाकी वाला बनाए रखने की भीषण कोशिश की जाती है. हमारी परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन के उच्च कोटि वाले गुणधर्मों को ध्यान में रखते हुए प्रयासवश परन्तु अनौपचारिक तौर पर ये सभी दिवस भाईचारे से रहने के उत्तम दिवस मान्य किए गए हैं. इसके साथ-साथ अचानक ही अतिथियों के आकस्मिक आगमन के दिनों को भी इसी उच्च श्रेणी वाले विशिष्ट पारिवारिक सौहार्द्र उत्सव में स्थान दिया गया है. वो क्या है न कि हम बड़े भावुक, संवेदनशील और मुहब्बत पसंद बन्दे हैं जो संयोगवश ऐन वक़्त पर हंसमुख भी हो जाते हैं. आइए आपकी ज़िन्दगी के उन पृष्ठों को पलटते हैं जो इस समय आपके बच्चों का वर्तमान बन, आपके माध्यम से उनके नाजुक मन पर कुंडली मारे फ़ुफ़कार रहे हैं.

परिवार, ज्ञान, भारत, परंपरा

1. ताजमहल पे रूमाल रख देने से तुम्हारा हो जायेगा?

यही वह क्रूर एवं मारक डायलॉग है, जिसने बचपन से लेकर आज तक होने वाले हर भीषण embarrassment, बोले तो शर्मिंदगी में अहम भूमिका निभाई है. बात चाहे खिड़की की हो या डायनिंग टेबल की! जब भाई-बहन आपस में जगह के लिए लड़ रहे हों और उनमें से एक कहे कि थोड़ी देर पहले यहां वो ही बैठा/बैठी था, तो धिक्कार है उन माता-पिता की परवरिशपंती पर; ग़र उन्होंने यह कुख़्यात संवाद आपके ही मुंह पर न दे मारा हो! दुर्भाग्यवश दुःख का अनुपात तब और भी बढ़ जाता है जब वे इसकी उदाहरण सहित विवेचना भी कर बैठते हैं.

2. अच्छा, तुम्हारा दोस्त कुंए में कूदने को कहेगा, कूद जाओगे?

यही वह ब्रह्मवाक्य है जिसने आपके किशोर और उन्मुक्त हृदय की आवारागर्दी की उत्कृष्ट तमन्ना छीन ली थी. तभी तो आप इससे बाल्यकाल से घृणा करते आए हैं. उस समय संभवत: पैर पटककर, आंसुओं को भीतर-ही-भीतर गटकते हुए कमरे से बाहर निकल जाते होंगे! बस, एक बात मैं आज तक नहीं समझ सकी कि ये पिघलते शीशे से शब्द सुनते समय सब जमीन की तरफ मुंडी करके उसे इतनी बेदर्दी से घूरते क्यों है? अरे, इस पावन धरा का क्या दोष.. वह आप जैसे पापियों को बर्दाश्त कर तो रही है. अब क्या खोदकर अपनी क़ब्र उधर ही बनाओगे? नहीं, न! फिर मुंह लटकाकर नाख़ून से काहे खुरच रहे? क्या उंगलियों में फावड़े लगे हैं? जाओ, अगली बार सॉलिड बहाना लेकर पापा से कुच्चन पूछने का अभ्यास करो!

3. अभी बच्चे हो / कब तक बच्चे बने रहोगे?

यही वह परस्पर विरोधाभासी वाक्य-युग्म है जिसने आपका जीना मुहाल कर रखा था और अब आप श्रवण कुमार की तरह इसी पावन परंपरा को स्थापित करने के भरसक प्रयासों में लगे हुए हैं. मम्मी-पापा भी बड़े situational जीव बन जाते हैं न! जब अपना काम (मसलन सब्ज़ी लाना, बर्तन, सफाई) करवाना हो तो "कब तक बच्चे बने रहोगे?" और हम कहें कि दोस्तों के साथ सनीमा देखने चले जाएं तो "न, बिलकुल नहीं! अभी बच्चे हो!" हम खामखां नागरिक शास्त्र की पुस्तक से रट लिए थे कि अठारह वर्ष में वयस्क हो जाते हैं. भैया, हिन्दुस्तान में तो कभी न होते जी! यहां तो कॉलेज भी जाओ तो पूरा कुनबा विदा देने आता है.

4. हम जब तुम्हारी उम्र के थे तो फलां ये ढिमका वो

अरे कम ऑन! आप तैरकर जाते थे, क्योंकि तब पुल नहीं थे. आप 10 पैसे की पॉकेट मनी से गुजारा कर लेते थे, क्योंकि तब महंगाई नहीं थी न! वैसे भी आपके पास विकल्प ही क्या थे?

एक दिन उत्तम मां का फ़र्ज़ निभाते हुए हमने भी अपने बेटे को यही डायलॉग सरका दिया जो मेरे माता-पिता मुझ पर बरसाते थे- "तुम्हें पता है, अब्राहम लिंकन स्ट्रीटलैम्प में पढ़ते थे और एक तुम हो." बेटे से जवाब मिला "अरे मम्मी, पर वो दिन में क्यों नहीं पढ़ते थे?" हैं!!! मैं समझ ही न पाई कि बेटे की होशियारी पर मुग्ध होऊं या तात्कालिक अपमान महसूस करूं! हमने तो इस एंगल से सोचा ही नहीं कभी. अभी इस झटके से उबरे भी नहीं थे कि बेटी बोली, "अरे भैया वो न शो ऑफ कर रहे होंगे." क़सम से मैं उस बेईज्ज़ती को अब तक न भूल सकी.

5. जरा एक गिलास पानी मुझे भी देना

आप चाहे कितना ही दबे पांव जाओ और अपनी सांस तक भी इस बात के लिए साधे रखो, चुपचाप फ्रिज़ खोलो या घड़े से पानी लो पर कोई न कोई कनखजूरा चिल्लाकर कह ही देगा, "जरा एक गिलास पानी मुझे भी देना" उस समय मुंह में गया पानी कुल्ले की तरह धचाक से बाहर निकलता है और exactly वही वाली फ़ीलिंग आती है जैसे किसी चोर को रंगे हाथों पकड़ लिया गया हो! उस समय चाहे जितनी भी चिढ़ मच रही हो पर कनपटी के पास किसी व्हाट्स एप्प सुविचार की तरह मां की यह बात तरन्नुम में आती ही है कि "बेटा, पानी के लिए दुश्मन को भी मना नहीं करते!" वैसे मेरा मानना है हमारे नौनिहालों और उनके जैसे समस्त आलसियों को पानी देने में कोई दिक़्क़त नहीं है. मौत तो इन्हें बोतल भरने में आती है!

6. बारहवीं में पढ़ लो, जीवन संवर जाएगा... वरना ठेला लेकर घूमना

इसे लेकर आज तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह सही राह दिखाने के लिए कहा जाता है या हमारी औक़ात बताने के लिए! ऐसे कौन प्रोत्साहित करता है, भई! आप मन में यह सोचकर कोसने की प्रथम पायदान पर अपने चरण बस रखने ही वाले होते हैं कि किसी फ़ॉलोअप या ट्विटर थ्रेड की तरह उनके तरकश से निकला ये वाला अगला भावनात्मक तीर आपको छलनी कर देता है.... "बेटा, हमें समझाने वाला तो कोई था ही नहीं! बस, इसीलिए कह रहे हैं कि जो गलतियां हमने कीं, वो तुम न दोहराओ." इसके साथ ही उनकी मुखमुद्रा देवदास के अपग्रेडेड मातृ-पितृ वर्ज़न में बदल आपके मन-मस्तिष्क पर अचूक संवेदनात्मक प्रहार करती है. यक़ायक़ आप स्वयं को भावुक अवस्था में प्राप्त कर ग्लानिबोध से भर उठते हैं. उसी समय आप स्वयं को भारतीय प्रशासनिक सेवा के उच्च पद पर बैठाने का अनमोल स्वप्न लेते हैं जो कि नववर्ष के प्रण की तरह अगली सुबह क्षत-विक्षत अवस्था को प्राप्त होता है.बाक़ी फिर कभी... वरना आज ही घर से निकाल दिए जाएंगे. :(
-#प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में 11-03-2018 को प्रकाशित 
https://www.ichowk.in/society/6-things-which-you-can-listen-in-any-indian-family/story/1/10140.html

चाय पे अराजनीतिक चर्चा

चाय का पहला घूंट, किसने कब लिया था, यह तो याद नहीं होगा. पर इतना तो आप सबको जरूर याद रह गया होगा कि बचपन में गर्मियों या दीवाली की छुट्टियों में जब-जब ददिहाल या ननिहाल जाना हुआ है, तब-तब भगोना भर खदकती चाय से सामना होता रहा है. चूल्हे पर चढ़ी चाय, घूंघट काढ़े परिवार की स्त्रियां, अपनी-अपनी मांओं का आंचल पकड़े घर के भुख्खड़ बच्चे और आसपास चहलक़दमी करते पुरुष; संयुक्त परिवार की यह सबसे ख़ूबसूरत और नियमित तस्वीर हुआ करती थी.

सर्दियों में अदरक वाली चाय की महकती ख़ुशबु का जादू ही कुछ ऐसा था कि हड्डियों को ठिठुरा देने वाली सर्दी भी बड़ी भली लगती थी. चाय के सामने आते ही स्वेटर की बाहों में कुंडली मारे छुपे दोनों हाथ रेंगते हुए बाहर आते और लपककर कुल्हड़ को थाम लेते. कुल्हड़ में आ जाने के बाद चाय की महक़ और स्वाद दोगुना बढ़ जाता. परिवार इकठ्ठा बैठता, ठहाके लगते और चाय का चूल्हे पर चढ़ना-उतरना, लगभग दो घंटे की शॉर्ट फिल्म की तरह चलता.

कुछ नवाबी सदस्य देर से उठते और अंगड़ाई लेते हुए सीधा रसोईघर या आंगन की तरफ खिंचे चले आते. उनकी अलसाई पलकों से एक ही प्रश्न झांकता, "चाय बन गई क्या? हां, मेरी छान दो." चाय के साथ थाली भर-भर घर के बने चिप्स, सूखा नाश्ता या गरमागरम पोहा परोसा जाता, तो कभी कचौड़ी-समोसे का लम्बा दौर चलता जो जलेबी के आने तक जारी रहता. अजीब लगते है न वो दिन, कैसे सब कुछ हज़म कर जाते थे! फिर उसके बाद भोली आंखों से यह पूछना भी कभी न भूलते कि 'आज खाने में क्या है?"

चाय के साथ सिर्फ़ बातें ही नहीं होती थीं, दिल भी जुड़ते थे. इस चाय ने घर को कैसे बांध रखा था! इसका हर सिप एक नई ताजगी देता था. चाय पर चर्चा, हंसी-ठट्ठा और कभी-कभी गंभीर वार्तालाप घर-घर की कहानी थी. बेहद सुहानी थी.

समय के साथ-साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया तो चाय पर इसका असर होना स्वाभाविक ही था. यह भी ठिठककर ग्रामीण कुल्हड़ से कंफ्यूज गिलास और फिर शहरी कप में आन बसी. बीते चार दशकों में इसकी जितनी वैराइटी आई हैं उतनी वैराइटी तो हमारे नेताओं में भी देखने को नहीं मिलती (यह सुखद है).

पहले चाय का मतलब सिर्फ़ चाय ही होता था. बढ़ती महंगाई ने इसकी ऊंचाई घटाकर इसे 'कटिंग' बना दिया और अब इस 'कटिंग' को भी रेलवे वाले 'चम्मच' बनाने पर तुले हुए हैं. दस रुपये में घूंट भर चाय पीकर ऐसा लगता है कि उन्होंने हमें सर्दी से बचाने के लिए दो चम्मच पत्ती वाला सिरप दे दिया हो. पहले हर स्टेशन पर चाय पीने की जो लत थी, वो टीवी चैनलों की कृपा से छूटती जा रही है. उन्होंने ही सबसे पहले यह ज्ञान दिया था कि हम चाय नहीं 'ज़हर' पी रहे हैं.

मिलावटी सामग्री और केमिकल के इस्तेमाल की ख़बर ने घर से बाहर उपलब्ध चाय के सम्मान में गिरावट लाई ही थी कि घरों में भी चायवादी गुट बन गए. सबकी अपनी मांगें हैं. किसी को ब्लैक टी चाहिए तो किसी को ग्रीन. किसी को कम दूध वाली तो किसी को ज्यादा दूध वाली. कभी स्ट्रॉन्ग (इसका तात्पर्य आज तक समझ नहीं आया पर इसका श्रेय लिप्टन 'टाइगर' चाय को ही जाना चाहिए) तो कभी मीठी. मधुमेह के रोगियों के लिए बिना चीनी वाली. 'आइस्ड टी' के प्रशंसकों की भी कमी नहीं. एक समय 'डिप' वाली चाय का गंभीर दौर भी चला था. हम जैसे चाय प्रेमियों ने इसे 'जैक एन्ड जिल' वाली राइम की तरह तुरंत ही याद भी कर लिया था. जो इतने वर्षों बाद भी आज तक याद है - "dip,dip... add the sugar & milk... and is ready to sip... do u want stronger, dip it little longer... dip, dip, dip."

वैसे चाय को मध्यम वर्ग का पसंदीदा पेय बनाने का श्रेय ज़ाकिर हुसैन को जाता है. चाय पीते-पीते मुंह से जो 'वाह' निकलती है, इस लफ्ज़ की अदायगी हम सबने ज़ाक़िर साब से ही सीखी है. बाद में उर्मिला मातोंडकर भी आईं, पर विज्ञापन में उनकी चाय का कप खाली होने का संदेह होता था. बल्कि दिखता ही था कि उन्होंने खाली कप ही उठाया है. लेकिन 'ताज' का असर और यादें आज भी ताजा हैं. कंपनियों ने चाय की बढ़ती ख़पत देख, शुगर-फ्री लांच कर दिया... यानी सबका साझा प्रयास यही रहा कि चाय का साथ कभी न छूटे... 'प्राण जाए, पर चाय न जाए' की तर्ज़ पर''.

कहते हैं जो पति, अपनी पत्नी को मॉर्निंग टी बनाकर देते हैं, उनका जीवन बड़ा ही सुखमय गुज़रता है.

बॉलीवुड ने भी चाय को हाथोंहाथ भुनाया है. "शायद मेरी शादी का ख्याल, दिल में आया है... इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पे बुलाया है" गीत में टीना मुनीम, राजेश खन्ना को चाय पर बुलाने का सामाजिक अर्थ समझा रहीं हैं. तो "इक गरम चाय की प्याली हो, कोई उसको पिलाने वाली हो' में अनु मलिक, सलमान के माध्यम से सिने प्रेमियों को चाय की आड़ में गृहस्थ जीवन में प्रवेश का सुविचार बताते दृष्टिगोचर होते हैं.

चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित कर देना चाहिए-

निष्कर्ष यह है कि चाय के घटते-बढ़ते स्वरुप, पात्र के प्रकार और आकार, विविध विज्ञापनों का युग, स्वाद का ड्रास्टिक मेकओवर, ट्रेन में बार-बार उबालकर परोसे जाने के बावज़ूद भी, किटली कल्चर का आगमन इस तथ्य की ओर सीधा संकेत देता है कि इस गर्म पेय का भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल और सुनहरा है.

अतिथि के आने पर घर में कुछ न हो, कहीं जाने की जल्दी हो; तब भी हम इतना अनुरोध तो अवश्य ही करते हैं, "अरे, चाय तो पीकर जाइए." जब दो मित्र साथ बैठते हैं तो सबसे पहली बात यही, "चल, चाय पीते हैं."

अपने जीवन को रिवाइंड कीजिए, एक कप चाय ने कितने स्नेहिल दिलों से मिलवाया होगा.

चाय हमारी संस्कृति है, सत्कार का संस्कार है, एक तरल बंधन है जो मिल-बैठकर बात करने को उत्साहित करता है, स्नेह बढ़ाता है. रिश्तों को नई उड़ान देता है. चाय से सुबह की ऊष्मा है, दोपहर की ऊर्जा है और शाम की थकान को दूर भगाती तरावट है. चाय सच्चे साथी की तरह हमें अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करती है. चाय है, तो दिन है.. चाय नहीं, तो रात है! ये हमारे मन की बात है!
- #प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में 17-12-2017 को प्रकाशित 
https://www.ichowk.in/culture/tea-and-tales-indian-railway-tradition-village-joint-family/story/1/9171.html

The whole thing is that कि भइया... सबसे बड़ा रुपैया

सच कहूं तो, कर्नाटक में जो कर्रा नाटक चल रहा है उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं. इसलिए नहीं कि मुझे राजनीति में कोई रुचि नहीं और यह रत्ती भर समझ नहीं आती बल्कि इसलिए भी कि परिणाम चाहे कुछ भी निकले, जनता को तो उल्लू बनना ही है.

सोचकर देखो, आख़िर चुनाव है क्या?

अब जान लो, “चुनाव वह परीक्षा है जहाँ दिल को सात फुट अंदर गाड़कर नेताओं के दिमाग की बत्ती इस सोच के साथ जलती है कि जनता के दिमाग़ की आशान्वित मोमबत्तियों को उम्मीदों की घुमावदार सीएफएल के साथ कैसे गुल किया जाए. यह झूठे वायदों की गहरी-अंधेरी खाई है जिसमें सिर के बल गिरने के बाद मतदाता को जैसे-तैसे, हाथ-पांव मार बाहर निकलकर अपनी मरहम-पट्टी स्वयं ही करनी होती है. यह एक बड़ी और शानदार दावत की तस्वीर दिखाकर हाथ में थमाई चूरन की चटपटी गोली है जो हमें खाली पेट ही हजम करना है”.

क्या है यह प्रक्रिया?

पूरी चुनावी प्रक्रिया का प्रारम्भ उम्मीदवारों के चयन (माने उठापटक) से होता है. सर-फुटौवल और प्यार-मनुहार, ये दोनों विरोधाभासी गुण इसी महत्त्वपूर्ण समय एक-साथ गलबहियां करते दिखते हैं और ब्याह में रूठे फूफा की तरह मुँह फुलाए कुछ लोगों की उपस्थिति कोने में भी दर्ज की जाती रही है. आपसी ख़ुन्नस निकालने और छीनाझपटी के बाद अंततः तय हो ही जाता है कि फलाने-ढिमके को ‘मैदान में उतारा जाएगा’. जी, हां. सही पढ़ा आपने, यह कुश्ती टाइप ही होता है. यह जंग का जंग खाया ऐसा मैदान है जहां कांटे की टक्कर से कहीं अधिक गुलाबी धन उछाल मारता है.

प्रचार, आवागमन, खान-पान, होटल इत्यादि की व्यवस्था में लगा पैसा कहां से आता है? यह जानकर हमारी आत्मा को क्षति पहुंच सकती है अतः किसी गणितीय सूत्र की तरह चलो यह मान लेते हैं (suppose) कि वह एक बड़े बरगद के वृक्ष से टपकता है. तो, इस बरगद की टपकन से आए पैसे को जी-भरकर इस तरह खर्च किया जाता है जैसे कोई पिता अपनी बेटी के ब्याह में ‘कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, भैया.’ की आत्मिक पुकार के साथ करता आया है.

इन सब तैयारियों के बीचों-बीच स्क्रिप्ट राइटर पूरी तन्मयता के साथ अपना काम लगातार कर रहा होता है. इस स्क्रिप्ट राइटर का प्रमुख गुण न केवल उसका उत्तम इतिहासकार होना है जिससे वह समय-समय पर हड़प्पा की ख़ुदाई की तरह विरोधी दल की सभी पीढ़ियों का ज्ञान उपलब्ध करा सके बल्कि अपशब्दों और गरिमाहीन शब्दों की जानकारी रखने वालों को भी चयन में प्राथमिकता दी जाती है. थोड़ी-बहुत कमी तो साब लोग बोलते समय पूरी कर लेते हैं. अब, आप उन्हें इतना कम भी न समझो. उनके पास भी अपना एकदम मौलिक शब्दकोष है भई.

खैर, इस सबके बाद वोटिंग, एडजस्टिंग, आरोप-प्रत्यारोप के बीच गिनती शुरू होती है. उसके बाद का मनभावन दृश्य बिल्कुल वही है जिसके लिए तमाम चैनल पलक-पाँवड़े बिछाए प्रतीक्षारत होते हैं. असाधारण प्रतिभा के धनी रायचंदों का एक समूह पूरी गंभीरता के साथ इस पर विस्तृत चर्चा करता है और फिर लड़ाई करते-करते वीरगति (बाहर निकाल दिया जाता है) को प्राप्त होता है. कभी-कभी बुद्धिमान एंकर, समय समाप्ति की घोषणा के साथ विराम लगा दिया करते हैं.

कुल मिलाकर अपार धन, मन, समय और मान हानि के बाद चुनाव का कोई परिणाम सामने आता भी है तो, वो मासूम जनता जो अब तक चुप थी, अब प्रश्न करती है. शक़ करने लगती है. यद्यपि इस सारे ड्रामे में उसकी भूमिका ‘अतिथि कलाकार’ की ही रहती है. जिसे फ़िल्म के हिट या फ्लॉप हो जाने पर एक कौड़ी का भी लाभ नहीं मिलता. लेकिन अब जनता की सुप्त इन्द्रियां चेतनावस्था को प्राप्त करती हैं.

मेरा कहना बस ये है कि इतना सब कुछ बर्बाद करने की आवश्यकता ही क्या है? जब ये तय है कि देश की किसी को पड़ी ही नहीं और न ही कोई देशसेवा के लिए यहां आया है. सबको पद की भूख है या पैसे की. तो फिर पहले ही सब लोग आपस में मिलकर सारा मामला क्यों नहीं सुलटा लेते? ‘बरगद’ तो सदैव तैयार रहता ही है उसके खींसे से दस-दस करोड़ (इतने में ही बिक जाओगे, सौ ज़्यादा लग रहे) खींचते रहो और प्रेम से बांट लो. यही लेने तो आये हो. सत्ता में आने का भत्ता.

ठीक है. अब जनता को माफ़ करो. क्योंकि हमारी नाक में तो दर्द (कृपया इसे ‘दम’ पढ़ें) होना ही है आप सीधे पकड़ो या घुमाके. उफ़्फ़. काहे सब टीवी से चिपके पड़े? कोई हारे-जीते, हमारी बला से. हमने तो बेवकूफ ही बनना है न, जी.. अब और कितनी सहिष्णुता चईये तुमको? हां, नहीं तो !

अचानक धरम पाजी और महमूद साब की बहुत जोर वाली याद आ रही है, एक कहते थे "चुन-चुन के बदला लूंगा". और दूसरे ने बताया था कि "The whole thing is that कि भइया...सबसे बड़ा रुपैया' आप अन्तर्यामी हो.

नमन
-प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में  19-05-2018 को प्रकाशित 
https://www.ichowk.in/humour/karnataka-election-floor-test-know-what-is-horse-trading/story/1/11021.html

भिया! हम यहाँ हैं!

भगवान जी ने जब हमें बनाया तो थोड़ा आननफ़ानन में ही निबटा दिया था. अब भई, बड़े लोग हैं, सौ काम होते हैं उन्हें. सो, कुछ पार्ट्स ठीक से फिट करना भूल गए और कुछ को उनकी ज़िम्मेदारी बताने से भी चूक गए. फाइन और फाइनल टच देने के चक्कर में ऐसी एडिटिंग करी कि हम अमिताभ से डेढ़-पौने दो क़दम पीछे ही रह गए. पर हमें इस बात का कोई मलाल नहीं रहा क्योंकि हमें पता है कि हम हैंडपंप सरीख़े स्मार्ट गैजेट हैं. मतलब, जितना जमीन के बाहर दिखते हैं उतना ही अंदर भी गड़े हैं. 😎तभी तो हममें प्रतिभा इतनी कूट-कूटकर भरी हुई है. पर ईश्वर को लगा होगा कि बड़े होकर कहीं हम उनसे ख़ुन्नस न निकालें सो उन्होंने हमारे मासूम जीवन में देश की बेरोज़गारी की तरह 4G की स्पीड से ताबड़तोड़ 128 GB की इतनी घटनाएँ भर दीं कि हम उन्हीं में उलझकर उफ़ तक न कर सकें. कहते हैं न कि "कोशिशें अक़्सर क़ामयाब हुआ करती हैं." सो, ये साब भी अपनी योजना में सफ़ल हुए. कभी घटनाओं पे हँसते, कभी रोते-जूझते भारतीय रेल की तरह हमारे जीवन की गाडी निर्धारित समय से थोड़ा देर से ही सही पर पहुँचती रही. इस बीच कभी-कभार ऐसे पल भी आये कि हमें बहुत गुस्सा आया और हमारे क्रोध के घने बादल के छींटे भगवान जी पर गरज़ के साथ गिरे तो, पर बरसे तब भी नहीं! अब उनसे क्या कहना, जो हो गया सो हो गया, हमारी लाइफ, डील तो हमें ही न करना पड़ेगा. अब जैसा कि हमने उल्लेख कर ही दिया है कि हैंडपंप हैं, सो दुःख में बुक्का फाड़ के बाल्टी भर-भर रो भी लेते हैं. सुना है, "पीड़ा का बह जाना सिस्टम के लिए सही होता है."😌

हाँ, तो बात किस्सों की थी. अच्छी-बुरी घटनाएँ तो सभी के साथ होती हैं लेकिन हमारे साथ ऐसी-ऐसी घटनाएँ घटित होती रही हैं कि अब तो बच्चे भी मना कर देते हैं, "मम्मी, किसी को बताना मत! कोई विश्वास नहीं करेगा!" उस समय हमारा यही गोलू चेहरा और आँखें और चौड़ जाती हैं, "नहीं करेगा से क्या मतलब? अरे! हमारे साथ हुआ है ऐसा."😠

भारतीय संस्कृति में कहानी-किस्से सुनाने की परंपरा तो सदियों से चली आ रही है लेकिन कहीं यह भी चिट्ठियों की तरह विलुप्त न हो जाए, इस आशंका को ध्यान में रखते हुए हम यह साहसिक कार्य करने का मन बना लिए हैं. यूँ तो हमने अपने किस्सों से आप सबको पहले भी ख़ूब पकाया है पर औपचारिक घोषणा और भूमिका के साथ सुनाया गया यह पहला किस्सा है. अभी बता रहे हैं -

तो हुआ यूँ कि आप सबकी ही तरह हम भी बचपन में गोलू और भारी क्यूट प्रजाति के प्राणी थे. मम्मी जहाँ भी जातीं तो एक आदर्श बच्चे की तरह हमारा साथ लटक लेना भी सुनिश्चित था. भला कौन माँ अपने प्यारे बच्चे का हाहाकार देखना चाहेगी! सो, ऐसे ही एक शुभ दिन अपन साथ हो लिए. अच्छा! हमारे साथ दिक़्क़त ये थी कि चार क़दम चलते ही धराशाई हो जाते और "मम्मी, थक गए. गोदीईई!" या "मम्मी, रिक्शाआ आ" की गुहार लगाने लगते. 😀उस पर अपनी भोली आँखों में थकान और मजबूरी की ऐसी गंगा-जमुना भरते कि वे इस आकस्मिक विपदा से निबटने के लिए तत्काल का बटन दबा देतीं. अब यह तो तय ही है कि हाथ में सामान और तमाम चीज़ों के साथ वे प्रायः दूसरा विकल्प ही चुनतीं. यूँ भी हम कोई मखाने तो थे नहीं, अच्छा-ख़ासा वज़न रखते थे, भई!

तो साब, ऐसे ही एक हसीन दिन हम बाजार से घर को लौट रहे थे. नौटंकी कर ही ली थी सो रिक्शे पर टंग गए. साथ में आंटी जी भी थीं. मम्मी और आंटी जी के बीच में हमें बिठाया गया और सुरक्षित रखने की सुन्दर सोच के साथ सामने सामान भी अड़ा दिया. पर हम तो हम थे, इतिहास तो रचना ही था. टनाटन पेट भरा, उस पर ठंडी हवा! सो अपन शीघ्र ही नींद को प्यारे हो गए और अनायास ढुलक लिए.

अचानक किसी के रोने की आवाज़ सुनकर आंटी जी और मम्मी चौंके कि "अरे, ये तो गुड़िया (हमहि) की आवाज़ लग रही है." देखा, तो गाँव की बिजली की तरह अपन उन दोनों के बीच से विलुप्त थे. चीखकर रिक्शा रुकवाया और दौड़कर हमें उठाया गया. अच्छा! बच्चों की एक मज़ेदार आदत ये भी होती है कि ख़ूब उठ सकते हों, पर देशव्यापी धरनों की तरह तब तक नहीं हिलेंगे जब तक कोई उन्हें आकर पुचकारे नहीं! वरना गिरने का फ़ायदा ही क्या?? 😉सो, अपन भी इसी परम्परा को फॉलो करते हुए पड़े रहे. जबकि मात्र दस सेंटीमीटर की दूरी पर ही ताजा उत्तम गोबर का बदबूदार ढेर था जिससे हमारी नाजुक, इत्तू-सी नाक सड़ी जा रही थी. उठने के बाद कपडे झाड़ते हुए उस ढेर पर भी हमने बड़ी हिक़ारत भरी नज़रें डालते हुए उम्दा टिप्पणी की थी. तब कहाँ पता था कि एक दिन इसी गोबर के छह गोले (उपले) AMAZON, 299 रुपये में बेचेगा. 

अबकी बार हमें बिठाकर इतना टाइट पकड़ा गया जैसे कि बेरोज़गारी ने हमारे युवाओं को थामा हुआ है. पर अब गिरने का चांस ही नहीं था जी क्योंकि हम तो अपनी POWER NAP ले चुके थे और गली में भटकते जानवरों की गिनती में मस्त थे.😛 कुत्ता, बिल्ली, गाय तो आज भी कॉमन हैं पर उस समय सूअर भी होता था जी! इस बीच एक मज़ेदार बात और हुई कि हमको रिक्शे पर पुनर्स्थापित करते समय इन दोनों ने रिक्शेवाले को बोला कि "भैया, तनिक देख के चलाया करो, बच्ची गिर गई थी." वो हँसा और कहने लगा "बहनजी, हम तो सामने देखकर ही चला रहे, बिटिया तो आपके साथ थी." खी, खी, खी😎 तब तक घर आ गया और हम पापा को देख इतिहास की तरह अपने टसुओं का रिपीट टेलीकास्ट करने में व्यस्त हो गए.

वैसे एक बात का मुझे पक्का विश्वास है कि हम सभी किसी न किसी रूप में गिरे हुए लोग हैं. 😜तात्पर्य यह कि सोते समय कभी तो पलंग से एक न एक बार गिरे ही होंगे. सब कुछ सरकार पर न छोड़ें, अपना और बच्चों का पूरा ध्यान रखें. यह बच्चों के मस्तिष्क और देश के भविष्य से जुड़ा नितांत आवश्यक मुद्दा है. अब सब कोई हमारी तरह थोड़े ही न हैं जी! कि सिर फुटा-फ़ुटाकर भी उनका मस्तिष्क फैलता जाए और अमीबा की तरह विकसित होता रहे.😍

चलो, जय राम जी की 
पूड़ी खाओ घी की 
- #प्रीति 'अज्ञात'
#संस्मरण 

मंगलवार, 26 जून 2018

#काला_दिवस

ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे 
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे 
ख़ता-वार समझेगी दुनिया तुझे 
अब इतनी ज़ियादा सफ़ाई न दे 
(बशीर बद्र) 

प्रत्येक पद की एक विशिष्ट गरिमा होती है और व्यक्ति उसी के आधार पर व्यवहार करता ही शोभा देता है क्योंकि यदि वह स्वयं पद के अनुकूल भाषा का प्रयोग नहीं करेगा तो प्रत्युत्तर में उसे भी मर्यादित भाषा की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. 
यूँ तो भारतीय राजनीति की छवि कभी भी अच्छी नहीं मानी गई और इसे भ्रष्ट, अति-महत्वाकांक्षी, सत्ता-लोलुप और झूठे वादों की कला के धनी  लोगों द्वारा धन और पद का दुरूपयोग करने वाले क्षेत्र के रूप में ही देखा गया है. देशसेवा का नाम सिर्फ़ भाषणों तक सीमित है यह बात भी जगजाहिर है.

आजकल देश के असल मुद्दों को भुलाकर भारतीय सड़कों की तरह हर दूसरे दिन इतिहास खोदा जा रहा है. आननफानन में एक गड्ढा भरते हैं, तब तक कोई दूसरा खोद कर चला जाता है. जब-जब जनता ठीक से चलने की उम्मीद लिए क़दम बढ़ाती है तब-तब वह इन्हीं गड्ढों में अटककर चारों खाने चित्त गिरी नज़र आती है. विचारणीय बात यह है कि इन ऊबड़-खाबड़ राहों पर विकास की बुलेट चलने का दावा क्यों किया जा रहा है? अरे, विकास फिकास छोड़ो; पहले मानसून के आते ही जल निकास की व्यवस्था पर ध्यान दो! और हाँ, इतिहास हो या सड़क; कृपया कुछ दिन के लिए उसे खुला ही छोड़ दो. जिसे जो कहना हो कह लेने दो. भीतर का सारा कष्ट (ज़हर) निकल जाए, मन भर जाए फिर खड्डे भी भर देना.

हमारी तथाकथित मानसिक 'प्रगति' का मूल मन्त्र यही है कि या तो बीते हुए में भटकते रहो या फिर भविष्य के मुंगेरी सपने बुनो! यथार्थ के धरातल पर पैर टिका वर्तमान में जीना हमने सीखा ही नहीं! लेकिन गड़े मुर्दे उखाड़कर मूल बात से ध्यान भटकाने का यह खेल बेहद बचकाना और निंदनीय है.

हरे और भगवा की कबड्डी में अब काला भी रेफ़री बन शामिल हो गया. श्वेत का अस्तित्व तो सदैव ही दोनों पालियों के बीच खींची एक लाइन भर का रहा है. चाहे किसी भी पाली में हों पर यह तय है कि हर राजनीतिक कबड्डी में घसीटा जनता को ही जाता है. हर पटखनी की चोट का असहनीय दर्द भी उसके ही हिस्से आता है.

इधर ख़बर आई है कि भारत महिलाओं के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित देश है. इस पोल में अफगानिस्तान और सीरिया को क्रमशः दूसरा और तीसरा स्थान मिला है. यह सर्वे थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन की ओर से कराया गया है और इसमें महिलाओं के मामले से जुड़े विश्व के 550 विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया है. 'काला दिवस' मनाने का यह एक सार्थक कारण है जिस पर 'बोलो, है कि नहीं!" कहकर पब्लिक से तालियाँ नहीं पिटवाई जा सकतीं! हाँ, सर झुकाकर शर्मिंदा जरुर हुआ जा सकता है.
बोलो, शर्म आई कि नहीं?
बताओ न, शर्म आई कि नहीं?
- प्रीति 'अज्ञात'
#काला_दिवस

शुक्रवार, 22 जून 2018

आ_अमदावाद_छे!

यूँ तो हर मौसम के अपने-अपने दुखड़े और किस्से हैं लेकिन अहमदाबाद की गर्मी की तो बात ही निराली है. दरअसल इसे गर्मी कहना भी इस शब्द का अतिरेक सम्मान है क्योंकि यहाँ की गर्मी, गर्मी नहीं बल्कि 2000 डिग्री सेल्सियस की धधकती भट्टी है. आप आँगन में पापड़ रखकर दो मिनट मौन रखें, सिक जायेगा. बाल धोये हैं और पार्टी में जाना है? तो बस बालकनी से झांककर सब्ज़ी वाले को आवाज़ लगाइये, एक नया हेयर स्टाइल डेवलॅप हो चुका होगा. कपड़े तार के एक सिरे से डालना प्रारम्भ करें और फिर साथ-ही-साथ दूसरे सिरे से समेट भी लें. तात्पर्य यह है कि जो इंसान अपने मूल स्वभाव से विचलित हुए बिना यहाँ चैन से जी लिया, उसके चरणों की धूलि स्पर्श कर साष्टांग दंडवत बनता ही है क्योंकि इस प्रचंड गर्मी में सामान्यतः एक हँसमुख इंसान भी जब मार्केट जाता है तो आगबबूला होता हुआ, चिड़चिड़ा बनकर घर लौटता है. आप उससे पूछने की हिम्मत तो कीजिये कि "भई, सामान ले आये?" फिर देखिये वह कैसा ड्रैगन की तरह आग उगल फुफकारें मारेगा! स्त्री होगी तो पसीना पोंछते-पोंछते घर में घुसेगी और फिर सीधा ही सामने वाली कुर्सी पर धराशाई हो अचेतन अवस्था को प्राप्त हो जाएगी. सबसे अधिक परेशानी बच्चों को होती है. हँसते-खिलखिलाते, गोरे-चिट्टे बच्चे को सुबह बाय करके स्कूल भेजने वाली माँ दोपहर में उतरते मैले-कुचैले बच्चों से नज़र हटा यह सोच बस के अंदर तब तक झाँकती है कि "हाय! मेरा होनहार क्यों न उतरा!" जब तक बगल में खड़ा भुर्ते वाले बैंगन सरीख़ा खिसियाता बच्चा ख़ुद ही न बोल दे, "अरे, मम्मी! घर चलो न, बैग बहुत भारी है." दुपहिया वाहनों से आती सखियाँ भी तभी पहचान में आती हैं जब तक वो नाम लेकर न पुकारें. उफ़! पैकिंग ऐसी कि हवाई यात्रा के लगेज में रखे काँच के 'हैंडल विथ केयर' के सामान की भी न होती होगी. पैकिंग क्या जी, दस्तानों की लम्बी दास्तां है.मम्मियाँ, ममी की तरह पैक रहती हैं 😑😎पहचानने योग्य आँखों पर चढ़े गॉगल्स भी मुँह चिढ़ाते हुए पूछ रहे होते हैं, "पहचान कौन?"

अच्छा! एक बड़ी प्यारी बात भी होती है इस भीषण ऋतु में. वो ये कि चार रास्ते (चौराहा) पर किसी की गाड़ी से कुछ टच हो जाए, या चलते समय कोई साइड नहीं दे रहा हो न; तो उस समय भीतर कितना भी गुस्सा भरा हो पर बंदा कूल ही behave करता है. वो थके, निढाल चेहरे से आपकी ओर देखेगा और एक पल को आँखें बंद करेगा पर कहेगा कुछ नहीं! आप मन-ही-मन लड़ाई न करने वाले एक आदर्श नागरिक की कल्पना कर धन्य टाइप महसूस करते हैं पर दरअसल वह उस वक़्त इस चिलचिलाती गर्मी से लड़ रहा होता है और मारे कुढ़न के उसकी आवाज़ ही नहीं निकल पाती. सियाचिन के हमारे सैनिकों को सौ सलाम पर इस समय किचन में काम करने वाली गृहिणियाँ भी सादर, सप्रेम अभिनन्दन की सर्वाधिक हक़दार हैं. माथे, कमर, पीठ पर बहते हुए खारे जल स्त्रोतों और उनकी वाष्पीकरण की प्रक्रिया के विशुद्ध वैज्ञानिक फ़ील के साथ रोटियाँ बनाना भी हल्दी घाटी (कृपया मसाले के अर्थ में समझें) के युद्ध से कम नहीं होता जी!  

लेकिन जैसे पंडित जी के पास हर मुसीबत से निकलने के उपाय होते हैं वैसी ही अन्न व्यवस्था यहाँ पर भी है. हर अमदावादी एक क्विंटल आइसक्रीम तो अकेले खा ही जाता होगा! मैंने शोध तो नहीं किया पर अनुमान है कि पूरे विश्व में आइसक्रीम की सर्वाधिक ख़पत इसी शहर में होती होगी. यहाँ हर मौसम में सैकड़ों तरह की आइसक्रीम मिलती हैं और दनादन खाई भी जाती हैं. यही हाल आमरस का भी है. किलो-विलो में आम कोई न खरीदता जी, पेटी आती है पेटी और आते ही सब पिल पड़ते हैं. सिर्फ़ इतना ही नहीं, अगले मौसम के लिए भी इस आमरस को डीप फ्रीज़ किया जाता है कि कहीं ऐसा न हो कि पारा पचास के पार पहुँचे और ये ख़ास आम तब तक बाज़ार में आ ही न पायें! 

बहुत लिखा, थोड़ा समझना! हाँ, एक आख़िरी बात और......यदि आप जीवन से तंग आ गए हों और ये दुआ करते हों कि "हे, भगवान!अब तो उठा ले." तो ज्यादा कुछ नहीं करना है, बस AC में 22 का तापमान सेट करके एक घंटा बेतक़ल्लुफ़ी से बैठिये और दोपहर 12 से 3 के बीच अचानक बाहर आ जाइए. बिना टिकट सारी व्यवस्था अपने-आप हो जाएगी. 
अतः हे, मानवश्रेष्ठ! आइये, पधारिए और कुछ दिन तो गुज़ारिए, गुजरात में! बस, गुज़र मत जइयो! 😝हेहेहे! ये मौसम का जादू है, मितवा 
#आ_अमदावाद_छे! 😍
-© प्रीति 'अज्ञात' 
#ahmedabad
Pic. Credit: Google

गुरुवार, 21 जून 2018

विश्व संगीत दिवस: जितना योग जरुरी, उतना ही यह भी

संगीत, ध्वनि का ऐसा लयबद्ध व्यवहार है जो हमें अपने आपसे जोड़ने में सहायक सिद्ध होता है. भारतीय संस्कृति में भी विभिन्न वाद्य-यंत्रों एवं उनसे उत्पन्न ध्वनि, राग-रागिनियों का विशिष्ट महत्त्व है. यूँ तो सृष्टि के कण-कण में संगीत है फिर चाहे यह बहती हुई नदिया की धारा हो या किनारे से टकराकर लौटती समंदर की प्रचंड लहरें! बहती हुई हवा और उस पर झूमते-लहराते पत्ते भी ह्रदय के इसी तरंगित साज को अभिव्यक्ति देते प्रतीत होते हैं. कुल मिलाकर संगीत हमारी आत्मा में इस तरह रच-बस चुका है कि इसके बिना जीवन की कल्पना ही व्यर्थ है.

विद्या की देवी माँ सरस्वती के कर-कमलों में वीणा की उपस्थिति संगीत की महानता की कहानी स्वयं ही कह जाती है. संगीत, दिलों को जोड़ता है तो अवसाद के भारी पलों में एक कुशल चिकित्सक की तरह उचित मरहम भी लगाता है. दोस्तों के साथ शोर-शराबे वाले संगीत के साथ मस्ती का मज़ा कुछ और ही है तथा अकेलेपन में धीमे-धीमे बजते संगीत की स्वर लहरियाँ भी उतनी ही सुमधुर, कर्णप्रिय लगती हैं. हमारे सुख-दुःख का साथी है संगीत, जो स्नेहसिक्त क्षणों में हमें अपनी बाहों में भर लेता है और पीड़ा के समय किसी अच्छे-सच्चे मित्र की तरह हाथ थामे साथ चलता है. 

ये संगीत का जादुई प्रभाव ही है कि नवजात शिशु भी झुनझुने की आवाज़ सुन किलकारी भरने लगता है. कृष्ण की बाँसुरी की मीठी ध्वनि और गोपियों का आकर्षित हो खिंचे चले आना; ये सारे किस्से संगीत की ही महिमा का बखान करते हैं. शादी में ढोलक-शहनाई, भजन-मंडली में ढोल-मंजीरा, शास्त्रीय संगीत में तानपूरा, तबला, सरोद, सारंगी का हम सब भरपूर आनंद उठाते हैं. बचपन में सँपेरों द्वारा बीन बजाते ही लहराते हुए साँप का खेल भी हमने ख़ूब देखा है.
अपरिचित इंसानों से भरे कमरे में यदि संगीत की धुन छेड़ दी जाए तो सबके पैर स्वयं ही थिरकने पर विवश हो जाते हैं क्योंकि संगीत की भी अपनी अनूठी भाषा, अभिव्यक्ति है जो बिना शब्दों के भी दूसरे के मन तक आसानी से पहुँच जाती है. 

आपका सबसे प्रिय गीत आपके एक ख़राब दिन और मूड को सामान्य कर देने की क्षमता रखता है और आपको विश्वास होने लगता है कि दुनिया उतनी भी बुरी नहीं जितना कि कुछ पल पहले आप महसूस कर रहे थे. स्मृतियों के सुनहरे पृष्ठ भी संगीत की धुन पर अपनी थाप देने लगते हैं. आपकी कोमल भावनाओं की सहज, सुन्दर अभिव्यक्ति है, संगीत. इन्हीं पलों को उल्लास के साथ जीने के लिए विश्व-भर के संगीत प्रेमियों ने 21 जून को 'विश्व संगीत दिवस' मनाने का निर्णय लिया था. कहते हैं 1982 में इसी दिन फ़्रांस के एक संगीत-उत्सव के दौरान यह तय किया गया था. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह आईडिया एक अमेरिकन संगीतकार ने 1976 में दिया था. बहरहाल श्रेय कोई भी ले, हम और आप तो इस संगीत का भरपूर मज़ा लें और जीवन की दुरूहता को मुस्कान के साथ स्वीकारें. 

आज 'विश्व योग दिवस' है और सबसे बड़ा दिन भी! उस पर संगीत का साथ! तो स्वस्थ रहें, सूफ़ी सुनें, शास्त्रीय संगीत का आनंद उठाएँ, अपना मनपसंद वाद्य-यंत्र बजाएँ या फिर फ़िल्मी गीतों में खो जाएँ....अजी, आपका दिन है भई, अपने हिसाब से आनंद उठायें.
जितना योग करना आवश्यक है, संगीत का साथ भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि योग शरीर को स्वस्थ रखता है तो संगीत ह्रदय और आत्मा को संतृप्त करता है.
- प्रीति 'अज्ञात' 




#विश्व संगीत दिवस #विश्व योग दिवस #worldyogaday #worldmusicday#iChowk
https://www.ichowk.in/society/music-is-as-important-as-yoga/story/1/11431.html

रविवार, 17 जून 2018

भारतीय परिवार और पिता

हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पिता को यदि निर्णय लेने से सम्बंधित सभी अधिकार प्राप्त हैं और वह एक राजा की तरह प्रतीत होते हैं तो वहीं जीविकोपार्जन से लेकर परिवार की हर ख़ुशी के आगे वे अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं और इच्छाओं को कब ताक़ पर रख देते हैं इसका अनुमान स्वयं उन्हें भी नहीं होता होगा! कुल मिलाकर पिता घर का मुखिया भी है और दुखिया भी। वह चाचा चौधरी और साबू दोनों का रोल प्ले करते हैं। मुसीबत के समय वे ही घर के रॉबिनहुड और स्पाइडर मैन भी हैं। सुपर हीरो की तरह हर समस्या का समाधान उनके पास ही होता है। 

हमारे हिन्दुस्तानी परिवारों में लड़कियों को कुकिंग एवं अन्य घरेलू काम सीखने की उपयोगिता बताते समय ये ताना मारा जाता है कि "ससुराल में जाकर हमारी नाक़ मत कटवा दियो" या फिर वो सुप्रसिद्ध पर अजीब सा डायलॉग कि "पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है." गोया, पति न हुआ मगध साम्राज्य हो गया जिस पर राज करे और सम्पूर्ण प्रजा (ससुराल पक्ष) का दिल जीते बिना हम चक्रवर्ती नहीं बन सकते! पर ख़ैर, इस तरह की बातें लगभग सबने सुनी ही होंगी। मुद्दा यह है कि असल लानतें तो लड़कों के ही हिस्से में आती हैं। मसलन, "इस निकम्मे से कौन बियाह करेगा?", "सारा दिन मुफ्त की रोटी तुडवा लो बस", "बाप चप्पल घिसता रहे और ये साहबजादे, पलंग पर पड़े टीवी देखें", और सबसे क्लासिक "ख़ुद कमाओगे, तब पता चलेगा!"  

अस्सी के दशक तक पैदा होने वाले सभी लड़के यदि अपना बचपन याद करें तो उसमें आकाशगंगा की तरह उड़ती हुई चप्पल और उससे स्वयं को बचाने का प्रयास करती हुई एक तस्वीर अवश्य रोशन होगी। ये चप्पलें मम्मी-पापा या घर के किसी भी बड़े सदस्य की ओर से इन लड़कों की औंधी हरक़तों के एवज़ में तत्काल ईनाम स्वरूप प्राप्त होती थीं। यदि इनके पहले प्रहार से बच्चा उछलकर स्वयं को बचा लेता था, तो यह केस 'हाथ से गया' ही समझो! क्योंकि उसके बाद उसका कॉलर पकड़कर पीठ पर लात-घूंसों की जो सुनामी चलती थी उसकी आहें ये लड़के आज भी बचपन में ढूंढते हैं। 
इस हिंसक घटना के आफ्टर इफेक्ट की सबसे क्यूट बात ये होती थी कि कुटाई-पिटाई के बाद मम्मी उसका पसंदीदा खाना बनाती, बहिन अपने हिस्से का भी उसे ठूंसने को दे देती और बंदा लपर-लपर उसे खा भी लेता। पर पिता से उसकी खुन्नस हफ़्तों बरक़रार रहती। जैसे-तैसे बोलचाल शुरू होती भी, तब तक फिर धुनाई का नंबर आ जाता। मुझे लगता है कि लड़के इसलिए ही थोड़े ज्यादा जिद्दी और धुनी होते हैं। पिटते समय मुंह फाड़-फाड़कर इतना रोये हैं कि बड़े होने के बाद इन्हें ज्यादा रोना आ ही नहीं पाता क्योंकि इनके आँसुओं का स्टॉक बचपन में ही निबट गया था। 

आम भारतीय परिवारों में पिता और बेटी का जो रिश्ता होता है वैसा पिता-पुत्र का नहीं होता और एक अनकहा, अघोषित शीतयुद्ध दोनों में जारी रहता है। ये एक ही घर में दो कट्टर दुश्मनों के रहने जैसा है जिनके संदेशों का आदान-प्रदान करने के लिए स्त्री प्रजाति डाकिये की भूमिका निभाती आई है। जैसे, "अपने बेटे को बता देना, फलाना ढिकाना टाइप" या कि "आप पापा को बोल देना" इत्यादि। वैसे इतिहास की इक्का-दुक्का घटनाओं में ये दोनों प्राणी बिना आई कांटेक्ट के संवाद बोलते भी दृष्टिगोचर हुए हैं। 

पर जैसे माँ, बनने के बाद लडकियाँ बहुत कुछ समझने लगती हैं, वैसे ही पिता बनने के बाद लड़के भी सयाने हो जाते हैं। उनका अपने पिता के प्रति सम्मान बढ़ जाता है। बचपन की डांट और सारी बातों का अर्थ समझने लगते हैं। अपने पिता की बहुत परवाह करते हैं। बचपन का खोया जुड़ाव अब स्थापित होने लगता है। ये अच्छी बात है कि आजकल के बच्चे और माता-पिता के बीच अब पहले सी दूरियाँ नहीं होतीं और वे बेझिझक अपनी बात कह-सुन सकते हैं। लेकिन वे पुराने दिन भी कम हसीं नहीं थे। 

मेरे घर-परिवार के सदस्यों, मित्रों और आप सबको पिता-दिवस की असंख्य शुभकामनाएँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में 17-6-2018 को प्रकाशित 
https://www.ichowk.in/society/father-is-everything-in-a-family-who-plays-many-roles/story/1/11381.html

शुक्रवार, 15 जून 2018

जो_था_अकबर


कई वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी, 'अमर, अकबर, एंथोनी'. ग़ज़ब की हिट रही थी, साब! क्या गाने, क्या अभिनय, क्या मस्त कॉमेडी और उस पर दोस्ती का सदाबहार विषय. सो, इसे जनता का भरपूर प्यार-दुलार मिला. जहाँ भी तीन दोस्त इकठ्ठा होते, तो इसी नाम की मिसाल देकर उन्हें 'अमर,अकबर, एंथोनी' बुलाया जाता. परस्पर भाईचारे और सौहार्द्र का भव्य समां बनता था जी. फिर जैसा कि होता आया है, कहानी में एक ख़तरनाक ट्विस्ट आया. सामान्यतः तो एक ही ट्विस्ट आता है न और वही झटका देने को काफ़ी होता है पर इस बार इस एक ट्विस्ट के साथ दो गब्दू ट्विस्टर और लटक लिए. ये तीनों भी क्यूटनेस में किसी से कम थोड़े ही न थे और उस पर ग़ज़ब ये, कि ये लल्लनटॉप बात इन्हें ख़ुद ही पता भी थी. फिर क्या था! जहाँ भी जाते, मीठी वाणी से सबको चपडगंजू बना अपनी डुगडुगी बजा आते. अब तक तो पूरा मामला सेट, फिटम फाट हो चुका था. ज़िंदगी मजे में कट रही थी. सैर-सपाटा, मौज़ के दिन थे. बीच-बीच में अपने स्वास्थ्य को तवज़्ज़ो देते हुए ढिंढोरा पीट व्रत किये जाते. लेकिन न जाने इस होनहार तिकड़ी को किसकी नज़र लगी कि घमंड से चूर इनके दिमाग़ पर त्रेतायुग के पत्थर गिरने लगे और वो इस हद तक गिरे कि कभी ये पत्थर पर तो कभी पत्थर इनके साथ लोट लगाने लगते. वैसे ये दृश्य लगता तो मनभावन था पर इनके इरादे स्पष्ट नहीं हो रहे थे कि अबकी इनकी अक़ल की दाढ़ क़हर बनकर किधर गिरेगी! अच्छा, एक बात के लिए इनकी ज़बरदस्त तारीफ़ बनती है कि ये थे, बड़े ही कट्टर चरित्रवान और इतिहास के अलावा किसी से भी छेड़छाड़ करना इन्हें सख़्त नापसंद था. 


ख़ैर! ये रात को गलबहियाँ कर सड़कों पर घूमते और भावनाओं में डूब अपनी-अपनी पसंद की सड़क को अपने पसंद का नाम दे देते. दयावान इतने कि यदि आज आदरणीय विनोद खन्ना जी जीवित होते तो उनकी आँखें भर आतीं. इनकी दयालुता के कई किस्से मशहूर हुए. होता यूँ था कि जब कभी मस्ती में ये तिकड़ी आसमान की तरफ़ सिर उठाती और कोई भोली, मासूम ऐतिहासिक इमारत बीच में उम्मीद भरी निगाहों से इन्हें देखती तो इनका भावुक दिल भर आता और ज़ज़्बातों में बहकर ये उस अनाथ को गोद ले लेते या फिर किसी और की गोद में धर आते. इसी प्रकार इन्होंने कई शहरों, रेलवे स्टेशनों और स्मारकों पर अपनी अगाध स्नेह वर्षा की फुहारें छोड़ीं जिसके लिए आने वाली पीढ़ियाँ इन्हें याद रखने वाली ही हैं. हम धन्य है कि हमने सतयुग से भी उत्तम 'इसयुग' में जन्म लिया जहाँ ऐसे सज्जन, संस्कारी और उत्कृष्ट सोचधारी युगपुरुषों का सानिध्य मिला. हे, धरती माँ! आज मैं तुम्हारे आगे नतमस्तक हूँ, ह्रदय भावविह्वल हुआ जा रहा है, अलौकिक प्रसन्नता से भरी मेरी आँखें डबडबा रहीं हैं पर फिर भी कलेजे पर मच्छर रखकर जाते-जाते अपने 'अमर,अकबर, एंथोनी' की स्मृति में इन युगपुरुषों को सादर अभिनन्दन के साथ पुष्पगुच्छ अवश्य भेंट करुँगी.

उफ़,अकबर जा रहा है और निर्देशक के आधार पर यह भी तय है कि अमर तो एन्ड तक रहेगा ही! हाय राम! कहीं मेरा एंथोनी गोंसाल्विस न चला जाए, वो तो वैसे भी दुनिया में अकेला ही है. बस यही एक डर है, जो रह-रहकर मुझे खाए जा रहा है. एंथोनी, तुम अपना ख़्याल रखना. 
#जो_था_अकबर 
- प्रीति 'अज्ञात'  

#अकबर#सहिष्णु_भारत#धर्मनिरपेक्षता 


बुधवार, 13 जून 2018

पहले प्रवचन देने वाले संत ख़ुद तो सुधरें!

राजस्थान सरकार की नैतिक मूल्यों वाली बात तो समझ आती है पर यहाँ एक गंभीर समस्या यह उभर सकती है कि प्रवचन देने वाले किसी धर्म विशेष पर ही फोकस करें और बच्चों के कोमल मस्तिष्क में उसी की महानता के गीत रच दिए जाएँ. इसलिए यह तय करना अत्यावश्यक है कि प्रवचन देने वाले धर्मगुरु केवल अपना झंडा न फहराते हुए सभी धर्मों के समर्थक हों और 'सर्व-धर्म-समभाव' में विश्वास रखते हों. अन्यथा ये विद्यालय अपने मूल उद्देश्य से भटककर 'धर्म प्रशिक्षण केंद्र' बनकर रह जायेंगे.

यूँ तो पहले भी विद्यालयों में नैतिक एवं शारीरिक शिक्षा एक विषय हुआ करता था तथा अब भी कई विद्यालय इस पक्ष की ओर ध्यान देते हुए मैडिटेशन करवाते हैं, विविध उत्सवों पर कार्यक्रम करते हुए छात्रों को उनसे सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी भी देते ही हैं. अतः इस क़दम से छात्रों को प्राप्त लाभ का अनुमान लगा पाना कठिन है पर चलो, रुटीन पढ़ाई से एक ब्रेक तो मिलेगा ही उन्हें और विद्यार्थियों के लिए ऐसी क्लासेज चैन की बंसी बजाने की तरह होंगीं.

पर क्या ऐसा नहीं लगता कि नैतिकता, ईमानदारी, सच्च्चाई, आदर्शवादिता और अच्छे संस्कार; परिवार और परिवेश से आते हैं! हर बात की जिम्मेदारी स्कूल ही क्यों ले? यह माता-पिता और परिवार का मूल कर्त्तव्य है कि वे अपने बच्चों को न केवल जीवन की सही राह दिखाएँ बल्कि स्वयं उन मूल्यों पर चलकर उनके आदर्श बनें.
यदि प्रवचन से ही ज्ञान प्राप्ति होती तो अपनी ही आवाज सुनकर शालीनता और भक्ति का नकली आडम्बर ओढ़े 'तथाकथित' बाबा आसाराम, राम पाल, राम रहीम, राधे माँ और इन जैसे कितने ही संत टाइप लोग स्वयं ही सुधर चुके होते और आदर्श संतों की छवि पर यूँ बट्टा न लगता.

हाँ, एक बात और....यदि प्रवचन से ही नैतिक मूल्यों का प्रादुर्भाव होता है तो क्यों न 'प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम' के अंतर्गत सबसे पहले नेताओं की ही क्लास ली जाये क्योंकि पतन की पराकाष्ठा और कट्टर प्रथा तो यहीं से प्रारम्भ हुई है. तो फिर सुधार का परीक्षण और अभ्यास भी यहीं से क्यों न हो!
वैसे एक मज़ेदार आईडिया और भी है  पहले शनिवार को भाजपा समर्थक महापुरुषों का, दूसरे शनिवार कांग्रेस, तीसरे में आप तथा चौथे, पाँचवे में अन्य दलों को स्थान दिया जाए. इससे बारहवीं पास करते-करते बच्चे यह भी तय कर लेंगे कि उन्हें किस तरह का नेता बनना या नहीं बनना है. ऐवीं पढ़ लिखकर वैसे भी क्या फ़ायदा होना है! बोलो तारा रा!
- प्रीति 'अज्ञात'
#प्रवचन#संत#स्कूल 
#iChowk में 14-06-2018 को प्रकाशित
https://www.ichowk.in/society/government-school-students-will-listen-spiritual-discourse-in-rajasthan/story/1/11335.html

मंगलवार, 12 जून 2018

किस्से- कहानियाँ

प्रत्येक यात्रा में कितने चेहरे साथ चलते हैं और न जाने कितने नए चेहरे जुड़ते जाते हैं। हर चेहरा एक कहानी ओढ़े चलता है।  इन कहानियों को सुने जाना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक इन्हें लिख पाना भी है। लेकिन हर बार होता यही है कि जितना सुना, समझा; उसका छँटाक भर भी लिखा नहीं जाता। समय और भी अधिक होने की मांग करता है, अनगिनत किस्से बस मस्तिष्क के प्रतीक्षा कक्ष में बैठे-बैठे ही अपने बाहर आने की बाट जोहते हैं और इस कक्ष की भीड़ लगातार बढ़ती जाती है। हर पल एक किस्सा साथ चलता है, हर घटना लिखे जाने की ज़िद पकड़ वहीं धरने पर बैठ जाती है। ऐसे में ख़ीज के अतिरिक्त और कोई भी भाव उत्पन्न नहीं होता। कभी -कभी 'जब समय मिलेगा, तब लिखूँगी' की उम्मीद के साथ की-वर्ड्स लिख लिए जाते हैं पर वो समय कभी नहीं आता और ग़र आता भी है तो पलटकर नहीं देख पाता; वो कुछ अलग ही विषय ओढ़ाकर चला जाता है। ड्राफ्ट्स की संख्या चार अंकों के आँकड़े को पार कर हताश कर देती है। हर बार इसी परिस्थिति से जूझती हूँ पर बाहर कभी नहीं निकल पाती और ऐसे में न जाने क्यों यही प्रश्न बार-बार कौंध जाता है कि क्या समंदर की उफ़नती लहरें किनारे पर वही रज-कण छोड़ जाती हैं या बार-बार नए ले आती हैं? तो उन पुरानों का क्या, क्या वे किनारे पर ठहर जम जाते हैं या कि भीतर गहराई में उतर अपनी पक्की जगह बना लेते हैं?
आख़िर हर क्रिया की प्रतिक्रिया क्यों है और हर बात को महसूस क्यों कर लिया जाता है। कुछ समय के लिए, नए पलों, नई यादों, नई घटनाओं पर रोक लगे या किसी बात का कोई अहसास ही न हो तो एक बार बीते दिनों में दौड़ लगा भाग जाना चाहती हूँ। 
- प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 10 जून 2018

Strange things do happen!

On19th of April we lost our dear bird Sweetu. It was a severe heartache to our family as he was more like a child rather than just a pet Green cheek conure. Sweetu was very loving, caring and ofcourse talkative too! He was the joy of our family. For me, He was just everything, a part of me, without whom I never thought that I could survive. He used to keep me busy 24hrs and I loved every single bit of it. When he died in his sleep; it was the biggest shock of my life and I am still not able to deal with it.Though life moves on!

Yesterday (9/6/2018) we went to Fretta Pizza, Ahmedabad. It was our first visit to this restaurant. The food was delicious and the preparation was so clean. My husband ordered Coca-Colaand immediately I thought about Sweetu as he used to love it (let me clear, birds are not supposed to have any aerated drinks but Sweetu was allowed to take few drops of it occcassionally).

Well, when the can of coca-cola was served; all of a sudden my daughter got excited and told us to look at the can first.
We saw and got overwhelmed when we read-
     "Share a Coke with
           SWEETU 
      My beauty, My 24hr duty."
We rushed to the counter and asked the manager if he had more with the same name. He searched but that was the only can with that name on it!

Well! I don't believe in magic! I don't believe in any Jadu-tona or ghostly things! But, this incident is one of the most beautiful incident which I have experienced in past. And I strongly believe that there are some super-natural powers, positive vibes or some strange things that do happen, all for a reason; which allow us to keep going and stay connected with our loved ones. We call it CO-INCIDENCE!

Whatever it was, but a very big THANKS to Coca-Cola for writing my Sweetu's name and to Fretta Pizza to deliver us this momento. It sure did bring up a lot of lovely memories.
Love you guys!
- Preeti Agyaat
# Fretta Pizza# Coca-Cola