चाय का पहला घूंट, किसने कब लिया था, यह तो याद नहीं होगा. पर इतना तो आप सबको जरूर याद रह गया होगा कि बचपन में गर्मियों या दीवाली की छुट्टियों में जब-जब ददिहाल या ननिहाल जाना हुआ है, तब-तब भगोना भर खदकती चाय से सामना होता रहा है. चूल्हे पर चढ़ी चाय, घूंघट काढ़े परिवार की स्त्रियां, अपनी-अपनी मांओं का आंचल पकड़े घर के भुख्खड़ बच्चे और आसपास चहलक़दमी करते पुरुष; संयुक्त परिवार की यह सबसे ख़ूबसूरत और नियमित तस्वीर हुआ करती थी.
सर्दियों में अदरक वाली चाय की महकती ख़ुशबु का जादू ही कुछ ऐसा था कि हड्डियों को ठिठुरा देने वाली सर्दी भी बड़ी भली लगती थी. चाय के सामने आते ही स्वेटर की बाहों में कुंडली मारे छुपे दोनों हाथ रेंगते हुए बाहर आते और लपककर कुल्हड़ को थाम लेते. कुल्हड़ में आ जाने के बाद चाय की महक़ और स्वाद दोगुना बढ़ जाता. परिवार इकठ्ठा बैठता, ठहाके लगते और चाय का चूल्हे पर चढ़ना-उतरना, लगभग दो घंटे की शॉर्ट फिल्म की तरह चलता.
कुछ नवाबी सदस्य देर से उठते और अंगड़ाई लेते हुए सीधा रसोईघर या आंगन की तरफ खिंचे चले आते. उनकी अलसाई पलकों से एक ही प्रश्न झांकता, "चाय बन गई क्या? हां, मेरी छान दो." चाय के साथ थाली भर-भर घर के बने चिप्स, सूखा नाश्ता या गरमागरम पोहा परोसा जाता, तो कभी कचौड़ी-समोसे का लम्बा दौर चलता जो जलेबी के आने तक जारी रहता. अजीब लगते है न वो दिन, कैसे सब कुछ हज़म कर जाते थे! फिर उसके बाद भोली आंखों से यह पूछना भी कभी न भूलते कि 'आज खाने में क्या है?"
चाय के साथ सिर्फ़ बातें ही नहीं होती थीं, दिल भी जुड़ते थे. इस चाय ने घर को कैसे बांध रखा था! इसका हर सिप एक नई ताजगी देता था. चाय पर चर्चा, हंसी-ठट्ठा और कभी-कभी गंभीर वार्तालाप घर-घर की कहानी थी. बेहद सुहानी थी.
समय के साथ-साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया तो चाय पर इसका असर होना स्वाभाविक ही था. यह भी ठिठककर ग्रामीण कुल्हड़ से कंफ्यूज गिलास और फिर शहरी कप में आन बसी. बीते चार दशकों में इसकी जितनी वैराइटी आई हैं उतनी वैराइटी तो हमारे नेताओं में भी देखने को नहीं मिलती (यह सुखद है).
पहले चाय का मतलब सिर्फ़ चाय ही होता था. बढ़ती महंगाई ने इसकी ऊंचाई घटाकर इसे 'कटिंग' बना दिया और अब इस 'कटिंग' को भी रेलवे वाले 'चम्मच' बनाने पर तुले हुए हैं. दस रुपये में घूंट भर चाय पीकर ऐसा लगता है कि उन्होंने हमें सर्दी से बचाने के लिए दो चम्मच पत्ती वाला सिरप दे दिया हो. पहले हर स्टेशन पर चाय पीने की जो लत थी, वो टीवी चैनलों की कृपा से छूटती जा रही है. उन्होंने ही सबसे पहले यह ज्ञान दिया था कि हम चाय नहीं 'ज़हर' पी रहे हैं.
मिलावटी सामग्री और केमिकल के इस्तेमाल की ख़बर ने घर से बाहर उपलब्ध चाय के सम्मान में गिरावट लाई ही थी कि घरों में भी चायवादी गुट बन गए. सबकी अपनी मांगें हैं. किसी को ब्लैक टी चाहिए तो किसी को ग्रीन. किसी को कम दूध वाली तो किसी को ज्यादा दूध वाली. कभी स्ट्रॉन्ग (इसका तात्पर्य आज तक समझ नहीं आया पर इसका श्रेय लिप्टन 'टाइगर' चाय को ही जाना चाहिए) तो कभी मीठी. मधुमेह के रोगियों के लिए बिना चीनी वाली. 'आइस्ड टी' के प्रशंसकों की भी कमी नहीं. एक समय 'डिप' वाली चाय का गंभीर दौर भी चला था. हम जैसे चाय प्रेमियों ने इसे 'जैक एन्ड जिल' वाली राइम की तरह तुरंत ही याद भी कर लिया था. जो इतने वर्षों बाद भी आज तक याद है - "dip,dip... add the sugar & milk... and is ready to sip... do u want stronger, dip it little longer... dip, dip, dip."
वैसे चाय को मध्यम वर्ग का पसंदीदा पेय बनाने का श्रेय ज़ाकिर हुसैन को जाता है. चाय पीते-पीते मुंह से जो 'वाह' निकलती है, इस लफ्ज़ की अदायगी हम सबने ज़ाक़िर साब से ही सीखी है. बाद में उर्मिला मातोंडकर भी आईं, पर विज्ञापन में उनकी चाय का कप खाली होने का संदेह होता था. बल्कि दिखता ही था कि उन्होंने खाली कप ही उठाया है. लेकिन 'ताज' का असर और यादें आज भी ताजा हैं. कंपनियों ने चाय की बढ़ती ख़पत देख, शुगर-फ्री लांच कर दिया... यानी सबका साझा प्रयास यही रहा कि चाय का साथ कभी न छूटे... 'प्राण जाए, पर चाय न जाए' की तर्ज़ पर''.
कहते हैं जो पति, अपनी पत्नी को मॉर्निंग टी बनाकर देते हैं, उनका जीवन बड़ा ही सुखमय गुज़रता है.
बॉलीवुड ने भी चाय को हाथोंहाथ भुनाया है. "शायद मेरी शादी का ख्याल, दिल में आया है... इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पे बुलाया है" गीत में टीना मुनीम, राजेश खन्ना को चाय पर बुलाने का सामाजिक अर्थ समझा रहीं हैं. तो "इक गरम चाय की प्याली हो, कोई उसको पिलाने वाली हो' में अनु मलिक, सलमान के माध्यम से सिने प्रेमियों को चाय की आड़ में गृहस्थ जीवन में प्रवेश का सुविचार बताते दृष्टिगोचर होते हैं.
चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित कर देना चाहिए-
निष्कर्ष यह है कि चाय के घटते-बढ़ते स्वरुप, पात्र के प्रकार और आकार, विविध विज्ञापनों का युग, स्वाद का ड्रास्टिक मेकओवर, ट्रेन में बार-बार उबालकर परोसे जाने के बावज़ूद भी, किटली कल्चर का आगमन इस तथ्य की ओर सीधा संकेत देता है कि इस गर्म पेय का भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल और सुनहरा है.
अतिथि के आने पर घर में कुछ न हो, कहीं जाने की जल्दी हो; तब भी हम इतना अनुरोध तो अवश्य ही करते हैं, "अरे, चाय तो पीकर जाइए." जब दो मित्र साथ बैठते हैं तो सबसे पहली बात यही, "चल, चाय पीते हैं."
अपने जीवन को रिवाइंड कीजिए, एक कप चाय ने कितने स्नेहिल दिलों से मिलवाया होगा.
चाय हमारी संस्कृति है, सत्कार का संस्कार है, एक तरल बंधन है जो मिल-बैठकर बात करने को उत्साहित करता है, स्नेह बढ़ाता है. रिश्तों को नई उड़ान देता है. चाय से सुबह की ऊष्मा है, दोपहर की ऊर्जा है और शाम की थकान को दूर भगाती तरावट है. चाय सच्चे साथी की तरह हमें अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करती है. चाय है, तो दिन है.. चाय नहीं, तो रात है! ये हमारे मन की बात है!
- #प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में 17-12-2017 को प्रकाशित
https://www.ichowk.in/culture/ tea-and-tales-indian-railway-t radition-village-joint-family/ story/1/9171.html
सर्दियों में अदरक वाली चाय की महकती ख़ुशबु का जादू ही कुछ ऐसा था कि हड्डियों को ठिठुरा देने वाली सर्दी भी बड़ी भली लगती थी. चाय के सामने आते ही स्वेटर की बाहों में कुंडली मारे छुपे दोनों हाथ रेंगते हुए बाहर आते और लपककर कुल्हड़ को थाम लेते. कुल्हड़ में आ जाने के बाद चाय की महक़ और स्वाद दोगुना बढ़ जाता. परिवार इकठ्ठा बैठता, ठहाके लगते और चाय का चूल्हे पर चढ़ना-उतरना, लगभग दो घंटे की शॉर्ट फिल्म की तरह चलता.
कुछ नवाबी सदस्य देर से उठते और अंगड़ाई लेते हुए सीधा रसोईघर या आंगन की तरफ खिंचे चले आते. उनकी अलसाई पलकों से एक ही प्रश्न झांकता, "चाय बन गई क्या? हां, मेरी छान दो." चाय के साथ थाली भर-भर घर के बने चिप्स, सूखा नाश्ता या गरमागरम पोहा परोसा जाता, तो कभी कचौड़ी-समोसे का लम्बा दौर चलता जो जलेबी के आने तक जारी रहता. अजीब लगते है न वो दिन, कैसे सब कुछ हज़म कर जाते थे! फिर उसके बाद भोली आंखों से यह पूछना भी कभी न भूलते कि 'आज खाने में क्या है?"
चाय के साथ सिर्फ़ बातें ही नहीं होती थीं, दिल भी जुड़ते थे. इस चाय ने घर को कैसे बांध रखा था! इसका हर सिप एक नई ताजगी देता था. चाय पर चर्चा, हंसी-ठट्ठा और कभी-कभी गंभीर वार्तालाप घर-घर की कहानी थी. बेहद सुहानी थी.
समय के साथ-साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया तो चाय पर इसका असर होना स्वाभाविक ही था. यह भी ठिठककर ग्रामीण कुल्हड़ से कंफ्यूज गिलास और फिर शहरी कप में आन बसी. बीते चार दशकों में इसकी जितनी वैराइटी आई हैं उतनी वैराइटी तो हमारे नेताओं में भी देखने को नहीं मिलती (यह सुखद है).
पहले चाय का मतलब सिर्फ़ चाय ही होता था. बढ़ती महंगाई ने इसकी ऊंचाई घटाकर इसे 'कटिंग' बना दिया और अब इस 'कटिंग' को भी रेलवे वाले 'चम्मच' बनाने पर तुले हुए हैं. दस रुपये में घूंट भर चाय पीकर ऐसा लगता है कि उन्होंने हमें सर्दी से बचाने के लिए दो चम्मच पत्ती वाला सिरप दे दिया हो. पहले हर स्टेशन पर चाय पीने की जो लत थी, वो टीवी चैनलों की कृपा से छूटती जा रही है. उन्होंने ही सबसे पहले यह ज्ञान दिया था कि हम चाय नहीं 'ज़हर' पी रहे हैं.
मिलावटी सामग्री और केमिकल के इस्तेमाल की ख़बर ने घर से बाहर उपलब्ध चाय के सम्मान में गिरावट लाई ही थी कि घरों में भी चायवादी गुट बन गए. सबकी अपनी मांगें हैं. किसी को ब्लैक टी चाहिए तो किसी को ग्रीन. किसी को कम दूध वाली तो किसी को ज्यादा दूध वाली. कभी स्ट्रॉन्ग (इसका तात्पर्य आज तक समझ नहीं आया पर इसका श्रेय लिप्टन 'टाइगर' चाय को ही जाना चाहिए) तो कभी मीठी. मधुमेह के रोगियों के लिए बिना चीनी वाली. 'आइस्ड टी' के प्रशंसकों की भी कमी नहीं. एक समय 'डिप' वाली चाय का गंभीर दौर भी चला था. हम जैसे चाय प्रेमियों ने इसे 'जैक एन्ड जिल' वाली राइम की तरह तुरंत ही याद भी कर लिया था. जो इतने वर्षों बाद भी आज तक याद है - "dip,dip... add the sugar & milk... and is ready to sip... do u want stronger, dip it little longer... dip, dip, dip."
वैसे चाय को मध्यम वर्ग का पसंदीदा पेय बनाने का श्रेय ज़ाकिर हुसैन को जाता है. चाय पीते-पीते मुंह से जो 'वाह' निकलती है, इस लफ्ज़ की अदायगी हम सबने ज़ाक़िर साब से ही सीखी है. बाद में उर्मिला मातोंडकर भी आईं, पर विज्ञापन में उनकी चाय का कप खाली होने का संदेह होता था. बल्कि दिखता ही था कि उन्होंने खाली कप ही उठाया है. लेकिन 'ताज' का असर और यादें आज भी ताजा हैं. कंपनियों ने चाय की बढ़ती ख़पत देख, शुगर-फ्री लांच कर दिया... यानी सबका साझा प्रयास यही रहा कि चाय का साथ कभी न छूटे... 'प्राण जाए, पर चाय न जाए' की तर्ज़ पर''.
कहते हैं जो पति, अपनी पत्नी को मॉर्निंग टी बनाकर देते हैं, उनका जीवन बड़ा ही सुखमय गुज़रता है.
बॉलीवुड ने भी चाय को हाथोंहाथ भुनाया है. "शायद मेरी शादी का ख्याल, दिल में आया है... इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पे बुलाया है" गीत में टीना मुनीम, राजेश खन्ना को चाय पर बुलाने का सामाजिक अर्थ समझा रहीं हैं. तो "इक गरम चाय की प्याली हो, कोई उसको पिलाने वाली हो' में अनु मलिक, सलमान के माध्यम से सिने प्रेमियों को चाय की आड़ में गृहस्थ जीवन में प्रवेश का सुविचार बताते दृष्टिगोचर होते हैं.
चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित कर देना चाहिए-
निष्कर्ष यह है कि चाय के घटते-बढ़ते स्वरुप, पात्र के प्रकार और आकार, विविध विज्ञापनों का युग, स्वाद का ड्रास्टिक मेकओवर, ट्रेन में बार-बार उबालकर परोसे जाने के बावज़ूद भी, किटली कल्चर का आगमन इस तथ्य की ओर सीधा संकेत देता है कि इस गर्म पेय का भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल और सुनहरा है.
अतिथि के आने पर घर में कुछ न हो, कहीं जाने की जल्दी हो; तब भी हम इतना अनुरोध तो अवश्य ही करते हैं, "अरे, चाय तो पीकर जाइए." जब दो मित्र साथ बैठते हैं तो सबसे पहली बात यही, "चल, चाय पीते हैं."
अपने जीवन को रिवाइंड कीजिए, एक कप चाय ने कितने स्नेहिल दिलों से मिलवाया होगा.
चाय हमारी संस्कृति है, सत्कार का संस्कार है, एक तरल बंधन है जो मिल-बैठकर बात करने को उत्साहित करता है, स्नेह बढ़ाता है. रिश्तों को नई उड़ान देता है. चाय से सुबह की ऊष्मा है, दोपहर की ऊर्जा है और शाम की थकान को दूर भगाती तरावट है. चाय सच्चे साथी की तरह हमें अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करती है. चाय है, तो दिन है.. चाय नहीं, तो रात है! ये हमारे मन की बात है!
- #प्रीति 'अज्ञात'
#iChowk में 17-12-2017 को प्रकाशित
https://www.ichowk.in/culture/
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